Thursday, October 25, 2012

।। गजल ।।

मेरे संग्रह में से आज एक हास्य ग़ज़ल
है चालू आंटी, तो ठरकी बुड्ढे, हैं लुच्चे लौंडे, तेरी गली में..
ये लड़कियाँ लागें सारी लैला, ग़ज़ब के जलवे तेरी गली में..

हम आशिकों की कुंआरी पलटन, तेरे मोहल्ले में कैसे आए,
के दूर से हमको दिख रहा है, खडे़ है बुड्ढे तेरी गली में..

पिटाई को ये कहें धुलाई, खुदा ही मालिक है आशिकों का,
वो लातें बरसी, पडे़ वो घूँसे, के सूजे चेहरे तेरी गली में..

किसी को दुनिया लुभा न पाई,किसी को जर्रा भी रास आया,
कि जैसे मैं हूँ शुरू से बिल्लो, तेरे ही पीछे तेरी गली में..

हैं मेरे बटुए के सारे दुश्मन, ये मेरे ससुरे, ये मेरे साले,
ये कुबडे़-क़ाने, ये गंजे-अंधे, ये झल्ले-झबरे, तेरी गली में..

गली में आजा, मना लें होली, मैं तुझको रंग दूं, तू मुझको रंग दे,
न आई तो मै करूँगा दंगा, बजा के घंटे तेरी गली में..

तेरा मोहल्ला मेरा मदीना, है तेरी चौखट ही मेरा मक्का,
ये हर की पौढ़ी, ये गंगा मैय्या, है नल के नीचे, तेरी गली में..

वो मेरी ग़ज़ले, वो मेरे नगमें, वो तेरे अब्बू ने फाड़ डाले,
सडे टमाटर, गले से अंडे, दिखा के डंडे, तेरी गली में ..


हुई तबीयत हरी-हरी सी, बदल गया है मिजाजे मौसम,
उतर गया है, बुखार सारा, पडे वो जूते तेरी गली में..

वो दादा लच्छी, सुबक रहा है, हुड़क रहा है, घुड़क रहा है,
बुला के लच्छो, पटा के लच्छो, खिला के लच्छे, तेरी गली में..

मैं किसको दुखड़ा, सुनाऊँ 'मुदगिल', अजब कहानी-गजब हैं मुद्दे,
फटे हैं कुरते, खुले पजामे, हैं ढीले कच्छे तेरी गली में..

- कवि योगेन्द्र मौदगिल

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