Sunday, May 30, 2021

अजामिल की कविता (ताकि सनद रहे...)

लो रख लो मेरी डायरी
इसमें वह सब कुछ है
जो मैंने चाह कर भी
तुमसे कभी नहीं कहा...
जो नहीं कहा कभी
तुम उसी अनकहे में 
हमेशा रहे मेरे साथ
इस डायरी में है मेरी जिंदगी
जो मैंने जी तुम्हारे 
होने न होने के बीच
शब्दों में मिलूंगी मैं तुम्हें
स्मृतियों की गलियों में भटकते ,
तुम्हारा पता तुम्ही से पूछते हुए...
कहीं एकांत में सीढ़ियों पर बैठे 
तुम्हें देखते हुए जी भर...
ये सनद है डायरी
कोई पूछे तो कहना क़ि 
मैंने तुम्हे प्यार किया था 
एक तितली है इसमें रंगहीन ,
बुकमार्क  की तरह
मेरे कहने पर पकड़कर दी थी 
तुमने मुझे
अब नहीं है यह भी मेरी तरह...
अब नहीं हूं मैं तुम्हारे पास
तुम्हारी यादों में रोते हुए
इन्तज़ार करते हुए दरवाज़े पर।

अब पढ़ोगे मुझे ?

**अजामिल

Saturday, May 22, 2021

तू ही मुझको भाता है।

तन की मन की दूरी है पर 
कैसा रिश्ता नाता है
तू ही जानम तू ही जानम
तू ही मुझको भाता है

अंग अंग तू भोर नदी की
सिंदूरी सी काया है
मलयज शीतल सुरभित कोमल
तू मेरा हम शाया है

खुली आंख हो बंद पलक हो
तू सपनो में आता है

तन की मन की दूरी है पर ,
कैसा रिश्ता नाता है
तू ही जानम तू ही जानम
तू ही मुझको भाता है

इंद्र धनुष के रंग समेटे
मन मोहक मुस्कान तेरी
तू पूजा की थाली जैसी
धान पान अभिमान मेरी

शतदल कमल कैद में भौरा
देखो क्या सुख पाता है

तन की मन की दूरी है पर ,
कैसा रिश्ता नाता है
तू ही जानम तू ही जानम
तू ही मुझको भाता है

- राजेश कुमार श्रीवास्तव

है हादसों की बस्ती।

है हादसों की बस्ती, हर सांस कांपती है ।
बेचैन रूह फ़िर भी,खुशियां तलाशती है ।।

पथराई हुई आंखे,उम्मीद कर रही हैं ।
वो पत्थरों के दिल में, इक सांस खोजती हैं ।।

कोई नहीं सुनेगा फ़िर,चीख क्यों रही है।
तू रूह बन गई है, क्यों ज़िस्म ढूंढती है।।

दिल टूटकर बिख़र ही गया,कांच की तरह ।
वो कांच के टुकड़ों में, इक अक़्स देखती है ।।

दुनिया की भीड़ में कहीं, वजूद खो गया ।
वीरान गुलशनों में, अब आस खोजती है ।।

इंतेज़ार है कि कोई, आएगा हमज़ुबान
बेचैन आंखे अब तक, उसको तलाशती हैं ।।


     #स्वरचित एवं मौलिक रचना   
     विनीता सिंह 
     सतना, मध्यप्रदेश
      03/02//2021