Wednesday, December 14, 2011

सुलझता फितूर !

आसमां का बरसना अभी बाक़ी है...
ज़मीं का उगना बाक़ी है...
बाक़ी है कहानी में कहानी की कहानी...
बात की बात करनी बाक़ी है...
क्या-क्या गुज़र चुका है अब तलक़....
क़तार में खड़ा बाक़ी अभी बाक़ी है...
वक़्त के कठघरे में वक़्त की पेशी बाक़ी है ...
और ख़त्म होने से पहले
अंजाम भी अपना अंजाम देखना चाहता है...
ये ख्वाहिशों की ख्वाहिशें कभी पूरी हो सकेंगी...
या रह जाएगी बाक़ी दास्तां हर कहानी की...

Saturday, December 10, 2011

उपेक्षा !

जागी उकताई रात ने
पैदा किया एक और
आवारा सूरज
भौर से संध्या तक
भटकता - झुलसता रहा ,
कोण बदल बदल कर,
देखता रहा धरा को,
शायद कही ....
छाँव मिल जाय
प्यार मिल जाय
पनाह मिल जाय
प्यार-छांह-पनाह तो दूर
किसी ने एक दृष्टि ना दी आभार में,
हर कोई उपभोग करता रहा
रोशनी का
पर किसी ने झाँका तक नहीं
सूरज क़ी ओर,
उपेक्षा क़ी आग लिए सीने में
जलाता रहा दिन भर,
जब घिन्न आने लगी
थोथे स्वार्थी संबंधों पर
डूब मरा समंदर में जाकर कही
और रात ..........
फिर से गर्भवती हो गई
*
विनय के.जोशी

दुनिया बदल रही है....

खुद से टकराया
गिरा
और मर गया
मौत अजीब थी
लेकिन
आगे की दास्तां और भी अजीब है
अपने ही लाश के पास बैठा
वो शख़्स देर तलक़
फूट-फूटकर रोता रहा...रोता रहा
और जब थक गया
तो
उसका जनाज़ा सजाने लगा
फिर कब्र खोदा
और ख़ुद की लाश को
दफ़न कर दिया
आंखों में सूनापन लिए
भटक रहा है
इस शहर में
कभी-कभी शहर का शोर
उसके जेहन तक उतरता हो शायद
और धीरे-धीरे
उसकी आंखों से निकला सूनापन
शहर में फैलता जा रहा है
नतीज़ा किसको पता है?
हां कुछ लोग
ज़रूर ख़ुद से टकरा रहे हैं
हां कुछ वैसे ही मरे जा रहे हैं
और अपने कंधों पर
अपनी लाशों को उठाए
शहरवालों की तादाद
गुजरते दिन के साथ
बढ़ती जा रही है
धीरे-धीरे
सूनापन
बढ़ता जा रहा है
जेहन में....शहर में... हर कहीं
कहते हैं...
दुनिया बदल रही है......

Thursday, November 10, 2011

महेश चंद्र पुनेठा की कविताएं !


संक्षिप्त परिचय


कवि मूलतः पहाड़ से आता है और पहाड़ अपने आप में प्राकृतिक सुषमा और अपने सौंदर्य के लिए जाना जाता है। किंतु उस प्रकृति को जीते हुए क्या कवि ने वह द्वंद्वात्मकता दृष्टि अर्जित की है या नहीं जिसमें जीवन के मर्म को समझा जा सके । इस हिमालयी कवि से मेरी पहली मुलाकात भीमताल में उत्तराखंड स्कूली शिक्षा हेतु पाठ्पुस्तकों के लेखन के दौरान हुई। हुआ यूं कि बात ही बात में मैंने कहा कि उत्तराखंड के युवा रचनाकारों में महेश पुनेठा का नाम अग्रणी है । क्या आप उन्हें जानते हैं मेरे सामने खड़े एक शक्स ने कहा। मैंने कहा हां उन्हें बहुत पढ़ता हूं लेकिन अभी देखा नहीं हूं । वह शक्स मुस्कराते हुए कहा मैं ही महेश हूं । फिर आप सुधीजन समझ सकते हैं हम लोगों का मिलाप ।

महेश जी मूलतः मनुष्य के जीवन और उसके द्वंद्व को परखने वाले कवि हैं । इनके यहॉ लोक परंपराओं का विकास एक नए ढंग से होता है। जीवन की विविधता अगर उसको गति नहीं देती तो यह मात्र एक स्थिर चित्र होकर रह जाएगी । महेश जी के संदर्भ में एक बात जो सबसे ज्यादा महत्वपूर्ण है वह यह है कि उनकी निजता का निर्माण सामूहिकता से ही होता है इसलिए कहीं भी बड़बोलापन, आत्मग्रस्तता नहीं मिलती जिससे आज की युवा कविता ज्यादा ही दो चार है। लगता है कवि को अपने को व्यक्त करने के हर उपकरण के बारे में पता है और वह उसे सीधे वहीं आसपास से उठा लेता है। जब मैं यह कह रहा हूं तो तमाम इधर लिखी जा रही कविताओं को सामने रखकर जैसे निर्माण करने को तो निकल पड़ा पर बॉस बल्ली की कोई खबर नहीं एक सधे रचनाकार को एक एक उपकरण का पता रहता है और वह उसका जरूरत पड़ने पर इस्तेमाल कर लेता है। यह सब इस कवि के पास है । अगर कोई कवि यह सब पा लेता है जो कि आसान बिल्कुल नहीं है तो वह एक लंबी यात्रा को निकल सकता है यह कवि यह सब संभावना जगाता है।

10 मार्च 1971 को पिथौरागढ़ के लम्पाटा में जन्मे महेश चंद्र पुनेठा ने राजनीति शास्त्र से एम0ए0 कियाहै ।

विभिन्न पत्र-पत्रिकाओं में इनकी सौ से अधिक कविताएं,एलघुकथा,आलोचनात्मक लेख व समीक्षाएं- वागर्थ,कथादेश,बया,समकालीन जनमत,वर्तमान साहित्य,कृति ओर,कथन, लेखन सूत्र,प्रगतिशील वसुधा,आजकल ,लोक गंगा,कथा, दि संडे पोस्ट,पाखी,आधार शिला ,पल प्रतिपल,उन्नयन,उत्तरा,पहाड़, तेवर,बहाव,प्रगतिशील आकल्प,प्रतिश्रुति,युगवाणी ,पूर्वापर में प्रकाशित हुई हैं ।
भय अतल में नाम से एक कविता संग्रह प्रकाशित । संकेत द्वारा कविता केंद्रित अंक।
हिमाल प्रसंग के साहित्यिक अंकों का संपादन ।
उत्तराखंड स्कूली शिक्षा हेतु पाठ्पुस्तकों का लेखन व संपादन ।
शिक्षा संबंधी अनेक राष्ट्रीय तथा राज्य स्तरीय कार्यशालाओं में प्रतिभाग ।
शैक्षिक नवाचारों में विशेष रूचि ।
संप्रति- अध्यापन

प्रस्तुत है यहां उनकी दो कविताएं -

नहीं है कहीं कोई चर्चा

घर से भाग गयी दो बच्चों की मॉ
अपने प्रेमी के संग
कस्बे भर में फैल गयी है यह चर्चा
जंगल की आग की तरह
चर्चा में अपनी .अपनी तरह से
उपस्थित हो रहे हैं लोग
जहॉ भी मिलते हैं
दो-चार
किसी न किसी बहाने
शुरू हो जाते हैं
फिर ही ही ही खी खी खी

एक मत हैं सभी
महिला के ऐसी -वैसी होने पर

सभी की सहानुभूति है
उसके पति और परिवार के साथ
बच्चों के साथ सहानुभूति तो
स्वाभाविक है

महिला को कोई छिनाल
कोई कुलटा
कोई कुलच्छनी
कोई पत्थर कह रहा है
किसी को आपत्ति है कि
ऊंची जाति के होते हुए भी साली
भागी एक छोटी जाति के पुरूष के साथ

मिर्च.मसाले के साथ
दो नई सुनी-सुनायी बातें जोड़कर
अखबार वालों ने भी छाप दी है खबर
इस तरह चर्चा पहुंच गयी है
दूर-दूर तक

चर्चा में सब कुछ है
जो-जो हो सकता है एक स्त्री के बारे में
पर आश्चर्य
कहीं नहीं है कोई भी चर्चा
उन कारणों की
जिनके चलते
लेना पड़ा होगा
दो बच्चों की मॉ को
घर छोड़ने का यह कठिन फैसला ।

भीमताल

देखा तुझे बहुत नजदीक से
महसूस किया
रूप एरसएगंध और स्पर्श तेरा
साथ रहा तेरा जितने भी दिन
नित नयी ताजगी का हुआ एहसास
कुहरे में लिपटा साथ तेरे
और बारिश में भीगा भी

रह-रहकर आता है याद
धूप में मुस्कराना तेरा
हवा के स्पर्श से रोमांचित हो उठना

मौन वार्तालाप चलता रहा तुझसे

एक कैनवास सी फैली तू
हर पल एक नया चित्र होता जिसमें
न जाने कौन था वो
पुराने को मिटा
नया बना जाता था जो
चुपचाप
सुबह जहॉ तैल रंगो से बना लैंडस्केप होता
शाम के आते-आते वहॉ
बिजलियों के पेड़ उग आते
और चॉदनी रात में
चॉद दिख जाता खुद को निहारते हुए
तुझ में

आस-पास बनी रहती थी जो हलचल
याद हो आती है वो पल-पल

वो भुट्टा भूनता हुआ अधेड़
छोटे-छोटे बच्चे
हाथ बॅटा रहे होते जिसका
कितने प्यार से
देता था भुना भुट्टा
नींबू और नमक लगाकर
एक पात में रख
पूछता आत्मीयता से.
कहॉ से आए हो बाबूजी
कैसा लगा तुम्हें यहॉ आ कर
फिर आग्रह करता
एक और भुट्टा खाने का
भुट्टे के स्वाद सा
व्यवहार उसका

वो नुक्कड़ में चाय वाला
जो गिलास में चीनी फेंटते-फेंटते
बताता अपनी और अपने इलाके की
बहुत सारी बातें
बाबू जी एयह झील नहीं होती तो
कैसे चलता अपना गुजारा
कहॉ से होता आप लोगों से मिलना
कहॉ ये बतकही
ऐसे बतियाता वो
जैसे हम हों उसके पौने

वो नाव वाला
चप्पू खींचते-खींचते जो
बताता था
बाबू साहब !कितना भरा रहता था इसमें पानी
कुछ बरस पहले तक
वो पल्ले किनारे तक डबाडब
खाली जगह नहीं दिखती थी ऐसी
पीढ़ी गुजर गई हमारी तो नाव चलाते -चलाते
उस समय से चला रहे हैं
जब इक्का-दुक्का होटल और मकान थे यहॉ
अब तो जहॉ देखो
होटल ही होटल और रिजॉर्ट ही रिजॉर्ट

वो कॉटा बिछाए मछुआरा
जो बैठा दिख जाता इंतजार में अक्सर
जो देखता रहता हर चहल-पहल को
इधर-उधर की
जो हॅसी.ठिठोली करता साथी मछुआरों से
किसी विदेशी मैम को देख
याद आता है जब
तेरा सिमटना सिकुड़ना
घूमने लगते हैं ऑखों के सामने
इन सबके मुरझाते हुए चेहरे
सूखते हुए सपने

और चारों ओर बन आए रिजार्ट
दानवी आशियानों की तरह
निकलती हैं जिनसे रह.रहकर
अजीब-अजीब सी आवाजें डरावनी
किसी दुस्वप्न की तरह

काठ हो चुकी नावें
खेतों में खड़े-खड़े ठस हो चुके भुट्टे
खूंटी में टॅग चुकी जालें
चाय के खुमचों में जम चुकी काई

तू आज भी शांत होगी हमेशा की तरह
पर मैं जानता हूं
ऊपर से शांत दिखाई देने का मतलब
भीतर से शांत होना नहीं होता
जैसे बाहर से दिखाई देने वाला सत्य ही
नहीं होता अंतिम सत्य
जानने के लिए उसे
उतरना पड़ता है भीतर और भीतर
तेरा जन ही तेरा मन है
मुझे विश्वास है तुझे बचाएंगे भी वही
नहीं बचा पाएगा कोई कवि
या कोई प्रेमी युगल
जिसने दिए होंगे अनेकानेक रूपक
इक-दूजे को
तेरे जल में बनती बिगड़ती
पल-प्रतिपल छवियों के
साथ-साथ देखे होंगे अक्स
वो तो सिर्फ याद भर ही करेंगे तुझे
तेरी मधुर स्मृतियॉ बची रहेंगी उनके पास
हमेशा-हमेशा के लिए
पर तुझे बचाएंगे तेरे जन ही
रिजॉर्ट या होटल मालिक नहीं ।

संपर्क- जोशी भवन ,निकट लीड बैंक चिमस्यानौला पिथौरागढ़ 262501 मो0-९४११७०७४७०

Monday, November 7, 2011

आपका होना कितना जरूरी था....

आपके जाने के बाद हमने छोड़ दिया रूठना
अम्मा ने बात-बात पर तुनकना
भइया ने ठहाके लगाकर हंसना
... हम सब ने स्वाभिमान से जीना...
बदल-बदलकर घर उकता गए हम
तस्वीरे, फर्नीचर, गुलदान बदले
नहीं बदल पाए तो वह है घर में परसी उदासी
भौतिक तरक्की खूब की हमने
एक दूसरे से मिलना भी छूट गया
अस्त व्यस्त होते गए हम, साथ जीना मरना भी छूट गया
ठठरी ठठरी सी हो गई अम्मा..जोगी जोगी सा हो गया भइया
तितर-बितर आपके हीरा मोती
आपके जाने के बाद पता चला
आपका होना कितना जरूरी था....


पिताजी की पुण्यतिथि में उन्हें याद करते हुए - साधना उपाध्याय (लखनऊ)

Saturday, November 5, 2011

याद आए वे दिन जब अकेला नहीं था !

अपनों में नहीं रह पाने का गीत

उन्होंने मुझे इतना सताया
कि मैं उनकी दुनिया से रेंगता आया
मैंने उनके बीच लौटने की गरज से
बार-बार मुड़कर देखा
मगर उन्होंने मुझे एकबार भी नहीं बुलाया

ऐसे अलग हुआ मैं अपनों से
ऐसे हुआ मैं पराया

समुदायों की तरह टूटता बिखरता गया
मेरे सपनों का पिटारा

अकेलेपन की दुनिया में रहना ही पड़ा तो रहूँगा
मगर ऐसे नहीं जैसे बेचारा

क्योंकि मेरी समस्त यादें
सतायी हुई नहीं हैं


विरक्ति

जब तुम विरक्त हुए
तुम्हारे भीतर इस अहसास के लिए
जगह बनाना मुमकिन नहीं रहा होगा
कि तुम विरक्त हो रहे हो
बाद में परिभाषित हुआ होगा कि तुम विरक्त हो
अकेलेपन टूटन असहायता और घुटन ने जब
धीरे-धीरे बंजर किया होगा तुम्हारा जीवन
तुमने जीवन की भूमि बदलने के बारे में सोचा होगा
जीवन के लिए दूसरी भूमि की तलाश में तुमने पायी होगी
यह अकेले आदमी की बस्ती
जिसे कहा जा रहा है विरक्ति


इस झोंपड़ी में

इस झोंपड़ी में इतनी जगह शेष है कि
बीस व्यक्ति खड़े रह सकें यहाँ आकर
मगर इसके वीरान हाहाकार में
मैं किसी को आने नहीं देना चाहता
फिर भी आ ही जाता है कोई न कोई
सूखी घास सरीखी मेरी इच्छा को कुचलता हुआ
कोई भी आ जाता है कोई भी दाना ढूंढती चींटी
सूनी गाय भटकता कुत्ता
मुझे हिचक होती है उनसे मना करने में
यही है अनंत मामलों में मेरे चुप रहने की वजह

शाम

धीमा पड़ गया है सुनने और देखने के कारखाने का संगीत
मंद पड़ गई है पेड़ों की सरसराहट की रोशनी
आपस में मिल गए हैं दुनिया की सभी नदियों के किनारे
पृथ्वी महसूस कर रही है आसमान का स्पर्श
नीले अंधेरे के कुरछुल में रात ला रही है सितारे की आग

पीला फूल चाँद

मैं उस गाय की तरह हो गया हूँ
जिसने बछड़े को जन्म दिया है
या कह लो उस सूअरी की तरह
जिसने पूरे बारह बच्चे जने
और अब उनकी सुरक्षा में डुकरती है

आज मैं एक सूम काले पडरेट को जन चुकी
भैंस के पेट की तरह हल्का हो गया हूँ
या कह लो उस भेड़ की तरह खुश
जिसने जन्मा है काली मुंडी और सफेद शरीर वाले मेमने को

आज ऐसा हुआ है
जिससे मिला है आत्मा को सुकून

कल की रात का चाँद
अभी तक लग रहा है छाती पर गिर रहे
सुलगते कोयले की तरह
पर आज की रात
आत्मा पर झर चुका है
पीले फूल की तरह चाँद

याद

बारिश को याद किया
फुहारों ने भिगो दिया चेहरा
हवा को याद किया
फड़फड़ाने लगी पहनी हुई सफेद शर्ट
आसमान को याद किया
याद आए वे दिन जब अकेला नहीं था
मिट्टी को याद किया
उगने-उगने को हो आया भीतर कुछ

तुम्हें याद किया
बैचैनी से बंद हो गए दुनिया के सभी दरवाजे

सुख दुख

उनकी अपनी किस्म की अराजकता है मेरे भीतर
सिर्फ दुखों की नहीं है
सुखों की भी है

एक कविता पैदल चलने के लिए

1
आषा न हो तो कौन चले पैदल आशा के लिए
आशा न हो तो कौन नदी पार करे आशा के लिए
आशा न हो तो कौन घुसे जलते घर में आशा के लिए

2
जंगल से निकल कर आ रही परछाई
आशा नहीं भी तो हो सकती है
पर कोई समझता है कि वह आशा ही है
पहाड़ से उतरती हुई परछाई
आशा नहीं भी तो हो सकती है
पर कोई समझता है कि वह आशा ही है
गठरी सिर पर धरे जा रही परछाई
आशा नहीं भी तो हो सकती है
पर कोई समझता है कि वह आशा ही है

जो आशा को खोजता फिरता है
उसे दुनिया की हर परछाई में आशा दिखती है

3
पेड़ पर फूटा नया पत्ता आशा का है
ठिठुरती नदी पर धूप का टुकड़ा आशा का है
रेत की पगडंडी पर पांव का छापा आशा का है
तुम्हारे चेहरे को आकर थामा है जिन दो हाथों ने आशा के हैं
दुनिया में क्या है जो आशा का नहीं है
सभी कुछ तो आशा का है

एक सुख था

मृत्यु से बहुत डरने वाली बुआ के बिल्कुल सामने आकर बैठ गई थी मृत्यु
किसी विकराल काली बिल्ली की तरह सबको बहुत साफ दिखायी
और सुनायी देती हुई
मगर तब भी, अपनी मृत्यु के कुछ क्षण पहले तक भी
उतनी ही हंसोड़ बनी रही बुआ

अपने पूरे अतीत को ऐसे सुनाती रही जैसे वह कोई लघु हास्य नाटिका हो
यह एक दृष्यांश ही काफी होगा-जिसमें बुआ के देखते-देखते निष्प्राण हो गए फूफा
गांव में कोई नहीं था
पक्षी भी जैसे सबके सब किसानों के साथ ही चले गए गांव खाली कर खेतों और जंगल में
कैसा रहा होगा पूरे गांव में सिर्फ एक जीवित और एक मृतक का होना
कैसे किया होगा दोनों ने एक दूसरे का सामना
इससे पहले कि जीवन छोड़े दे
मरणासन्न को खाट से नीचे उतार लेने का रिवाज है
बुआ बहुत सोचने के बावजूद ऐसा नहीं कर सकी
अकेली थी
और फूफा, मरने के बाद भी उनसे कतई उठने वाले नहीं थे
जाने क्या सोच बुआ ने मरने के बाद खाट को टेढ़ा कर
फूफा को जमीन पर लुढ़का दिया

अब रोती तो कोई सुनने वाला नहीं था
बिना सुनने वालों के पहली बार रो रही थी वह जीवन में
इस अजीब सी बात की ओर ध्यान जाते ही रोते-रोते हंसी फूट पड़ी बुआ की
बुआ जीवन में रोने के लम्बे अनुभव और अभ्यास के बावजूद
चाहकर भी रो न सकी
मृतक के पास वह जीवित
बैठी रही सूर्यास्त की प्रतीक्षा करती हुई

इस तरह जीवन को चुटकलों की तरह सुनाने वाली बुआ के जीवन का चुटकला
पिच्चासी वर्ष की बखूब अवस्था में जब पूरा हो गया
कुछ लोग हंसे, कुछ ने गीत गाये,कुछ को आयी रुलायी

बूढ़ी बुआ हमारे जीवन में अभी भी है
उतनी ही अटपटी, उतनी ही भोली, उतनी ही गंवई
मगर खेत की मेड़ के गिर गए रूंख सी
कहीं भी नहीं दिखाई देती हुई
यह बात भी अब तो चार बरस पुरानी हुई

चार बरस पहले
एक सुख था जीवन में

- कवि प्रभात

रोटी और बेटी !

रोटी और बेटी
दोनों बहुत जरूरी है ,
इन्सान को इन्सान बनाने के लिए
औरत के मन को समझने,
स्नेह - नेह की डोर पकड़ने
रिस्तो को संजीदगी से निभाने के लिए ,
क्योकि यही वह रिश्ता है, जो कभी
अपने आप को बाप होने का
अच्छे संकल्पों के साथ जीने का
नारी को सम्मान देने का
हरपल एहसास दिलाता है,
चंचल मन को आदर्शवादिता
का, समाज के मूल्यों के साथ
कदमताल कर चलने की नशीहत
देकर औरो से यही ब्यवहार करने का
नैतिक धर्म का पाठ पढाता है
बेटी जब कुछ घंटे के लिए
घर से बाहर जाती है,
बाप को उसके सुरक्षित घर
लौटने की कामना सताती है
बेटी जब अपने घर जाती है ,
बाप को उसके जीवन भर की
सुरक्षा की चिंता सताती है .
और यदि बेटी बाप के जीतेजी
दुनिया से कूच कर जाये तो
मारे गम, बाप की खुबसूरत
बगिया ही उजड़ जाती है
रोटी और बेटी दोनों अनमोल है ,
एक जीवन की राह को कठोर बनाती है,
दूसरी अपने मुस्कान से जीवन में मुस्कान लाती है
एक के लिए हर रोज इन्सान मरता है
दूसरे की खुसी के लिए वह हस कर कुर्बानी चढ़ता है

Friday, November 4, 2011

मन को मथता पाठ....

देह की
देह में आहुति
ये कैसा होम है
इरोम शर्मिला

... बिखरी पड़ी हैं
अनगिन सूखी समिधायें
हवि होने
पर जाने
किस पल को ताकती
टोहती

बेबस हो
एक मूक बेचारगी
दिशाओं में फैली
जाने काल की किस
शुभ घड़ी की प्रतीक्षा

तुमसे एक विनती
मेरी सखी!!

अपनी देह में प्रज्ज्वलित
अग्नि नद की
सुर्ख़ धार
के रास्ते खोल दो
बरसों से ठंडे पड़े
अपनी गौरवगाथा में लीन
अनगिन नदी-नालो के लिये.......

मन को मथता पाठ....

Tuesday, November 1, 2011

दोहा सलिला : दोहों की दीपावली: --संजीव 'सलिल' !!

दोहों की दीपावली, रमा भाव-रस खान.
श्री गणेश के बिम्ब को, अलंकार अनुमान..

दीप सदृश जलते रहें, करें तिमिर का पान.
सुख समृद्धि यश पा बनें, आप चन्द्र-दिनमान..

अँधियारे का पान कर करे उजाला दान.
माटी का दीपक 'सलिल', सर्वाधिक गुणवान..

मन का दीपक लो जला, तन की बाती डाल.
इच्छाओं का घृत जले, मन नाचे दे ताल..

दीप अलग सबके मगर, उजियारा है एक.
राह अलग हर पन्थ की, ईश्वर सबका एक..

बुझ जाती बाती 'सलिल', मिट जाता है दीप.
यही सूर्य का वंशधर, प्रभु के रहे समीप..

दीप अलग सबके मगर, उजियारा है एक.
राह अलग हर पन्थ की, लेकिन एक विवेक..

दीपक बाती ज्योति को, सदा संग रख नाथ!
रहें हाथ जिस पथिक के, होगा वही सनाथ..

मृण्मय दीपक ने दिया, सारा जग उजियार.
तभी रहा जब परस्पर, आपस में सहकार..

राजमहल को रौशनी, दे कुटिया का दीप.
जैसे मोती भेंट दे, खुद मिट नन्हीं सीप..

दीप ब्रम्ह है, दीप हरी, दीप काल सच मान.
सत-शिव-सुन्दर है यही, सत-चित-आनंद गान..

मिले दीप से दीप तो, बने रात भी प्रात.
मिला हाथ से हाथ लो, दो शह भूलो मात..

ढली सांझ तो निशा को, दीप हुआ उपहार.
अँधियारे के द्वार पर, जगमग बन्दनवार..

रहा रमा में मन रमा, किसको याद गणेश.
बलिहारी है समय की, दिया जलाये दिनेश..

लीप-पोतकर कर लिया, जगमग सब घर-द्वार.
तनिक न सोचा मिट सके, मन की कभी दरार..

सरहद पर रौशन किये, शत चराग दे जान.
लक्ष्मी नहीं शहीद का, कर दीपक गुणगान..

दीवाली का दीप हर, जगमग करे प्रकाश.
दे संतोष समृद्धि सुख, अब मन का आकाश..

कुटिया में पाया जनम, राजमहल में मौत.
आशा-श्वासा बहन हैं, या आपस में सौत?.

पर उन्नति लख जल मरी, आप ईर्ष्या-डाह.
पर उन्नति हित जल मरी, बाती पाई वाह..

तूफानों से लड़-जला, अमर हो गया दीप.
तूफानों में पल जिया, मोती पाले सीप..

तन माटी का दीप है, बाती चलती श्वास.
आत्मा उर्मिल वर्तिका, घृत अंतर की आस..

जीते की जय बोलना, दुनिया का दस्तूर.
जलते दीपक को नमन, बुझते से जग दूर..

मातु-पिता दोनों गए, भू को तज सुरधाम.
स्मृति-दीपक बालकर, करता 'सलिल' प्रणाम..

जननि-जनक की याद है, जीवन का पाथेय.
दीप-ज्योति में बस हुए, जीवन-ज्योति विधेय..

नन्हें दीपक की लगन, तूफां को दे मात.
तिमिर रात का मिटाकर, 'सलिल' उगा दे प्रात..

दीप-ज्योति तन-मन 'सलिल', आत्मा दिव्य प्रकाश.
तेल कामना को जला, तू छू ले आकाश..

Friday, October 14, 2011

मैं नारी हूं या महज स्तनों का एक जोड़ा..


आज पेश है अनीता शर्मा की कविताएँ. इन कविताओं में हर एक शब्द के दरमियान पोशीदा चिंगारी से अगर पाठक अपनी रूह न सेक सकें, तो समझिए कि आपका पढ़ना सार्थक नहीं रहाफिर से पढ़ना पड़ेगासच तो यह है कि इन कविताओं से जब भी कोई गुजरेगा, उसके जीवन में एक नई क्रान्ति घटित होगीआह की आंच पर पिघली ये कविताएँ नसों में बहते हुए खून की रफ़्तार को औरऔरऔर तेज़ कर देती हैएक ओर तो शब्द के मायने बदलने लगते वहीं स्त्री को देखने का नजरिया भीअनीता जी की सोच की सतह पर उभरे हुए इन मासूम एहसासों का मैं तह-ए-दिल से खुशामदीद करता हूँ और उम्मीद करता हूँ कि आगे भी अपनी रचनाओं से अपनी मौजूदगी दर्ज कराती रहेंगी

मेरा अस्तित्व: वीर्य सा

मेरा अस्तित्व
तुम्हारे हस्तमैथुन से
गिर पड़े उस वीर्य सा है,
जिसे फेंकना
तुम्हारे लिए
जरूरी होगा,
काश कि
मेरा अस्तित्व
किसी के पेट में पलते
तुम्हारे वीर्य के
उस कण सा होता
जिसे देखना
तुम्हारे लिए
सबसे जरूरी होगा


स्तनों का जोड़ा
अकसर देखती हूं,
राहगीर, नाते-रिश्तेदार
और यहां तक कि
मेरे अपने दोस्त-यार
उन्हें घूर-घूर कर देखते हैं,
उन की एक झलक को लालायित रहते हैं
आज मैं
उन लालायित आत्माओं को
कहना चाहती हूं,
जिनके लिए वे अकसर मर्यादा भूल जाते हैं,
वह मेरे शरीर का हिस्सा भर हैं
ठीक वैसे ही, जैसे
मेरे होंठ,
मेरी आंख
और मेरी नाक
या फिर मेरे पांव या हाथ
इसी के साथ
मैं उनसे अनुरोध करती हूं
मेरे मन में यह संशय न उठने दें
कि मैं नारी हूं या महज स्तनों का एक जोड़ा..


तुम्हारी यादें

तुम्हारी यादें
मासिक धर्म-सी
तकलीफ के साथ साथ
देती हैं नारीत्व का अहसास।


बनना और बिखरना

कभी नहीं चाहा था
कि मैं किसी के बिस्तर की,
सिलवट भर बन रहूं,
कुछ ऐसी
कि उठने पर,
उसे खुद न पता हो
कि किस करवट से,
उभर आई थी मैं.
जरा गौर से देखो,
हमारा रिश्ता,
कुछ ऐसा ही तो है,
हां,
मैं हमेशा चाहते,
न चाहते
तुम्हारे सामने बिछ जाती हूं,
तुम उठते हो
और मुझे झाड़ देते हो
सदा के लिए
तुम्हारी कसम
सच कहती हूं,
यह सोचकर अजीब लगता है
कि
मेरे अस्तित्व का बनना
और
बनकर बिखर जाना
तुम्हारे ऊपर ही निर्भर करता है

Tuesday, October 4, 2011

एक लम्हा !

जिन्दगी नाम है कुछ लम्हों का..
और उन में भी वही एक लम्हा
जिसमे दो बोलती आँखें
चाय की प्याली से जब उठे
तो दिल में डूबें
डूब के दिल में कहें
आज तुम कुछ न कहो
आज मैं कुछ न कहूँ
बस युहीं बैठे रहो
हाथ में हाथ लिए
गम की सौगात लिए..
गर्मी-ए जज़्बात लिए..
कौन जाने कि इस लम्हे में
दूर परबत पे कहीं
बर्फ पिघलने ही लगे....

ब्लॉग कानपुर मासिक पत्रिका से साभार.....

तू मचलता क्यों नहीं ?

ऐ थके हारे समंदर तू मचलता क्यों नहीं
तू उछलता क्यों नहीं .

साहिलों को तोड़ के बाहर निकलता क्यों नहीं
तू मचलता क्यों नहीं
तू उछलता क्यों नहीं

तेरे साहिल पर सितम की बस्तियाँ आबाद हैं,
शहर के मेमार’ सारे खानमाँ-बरबाद’ हैं
ऐसी काली बस्तियों को तू निगलता क्यों नहीं

तू मचलता क्यों नहीं
तू उछलता क्यों नहीं

तुझ में लहरें हैं न मौज न शोर..
जुल्म से बेजार दुनिया देखती है तेरी ओर
तू उबलता क्यों नहीं

तू मचलता क्यों नहीं
तू उछलता क्यों नहीं

ऐ थके हारे समंदर

तू मचलता क्यों नहीं
तू उछलता क्यों नहीं

ब्लॉग कानपुर मासिक पत्रिका से साभार.....

ये रिश्ता क्या कहलाता है ?

ये रिश्ता क्या कहलाता है
रिश्तो की डोर रिश्तो से है कमज़ोर
रिश्ते ही थामे है जीवन की बागडोर
आखिर ये रिश्ता क्या कहलाता है
कभी अपनों को सहलाता कभी है बहलाता
...कभी हाथ मिलाकर कभी गले लगाकर
कभी हस कर तो कभी रो कर
रिश्ते अपनों की याद दिलाते
आखिर ये रिश्ता क्या कहलाता है ...
फिर क्यों रिश्ते टूटते जाते है
रिश्ते क्यों बदनाम होते जाते है ..
कभी गुरु का शिष्य से कभी पिता का पुत्री से
कभी भगवान का भक्त से कभी इन्सान का इन्सान से
आखिर ये रिश्ता क्या कहलाता है ? ...

ब्लॉग कानपुर मासिक पत्रिका से साभार.....

ख़लील ज़िब्रान की एक कविता का अंश !

आपके बच्चे
सिर्फ आपके बच्चे नहीं।
आपके जरिये वे इस धरती पर
आये जरूर हैं
पर पूरे के पूरे आपके नहीं।

आप उन्हें प्यार दे सकते हैं
पर उनके विचारों को
नियंत्रित नहीं कर सकते
उनके रक्त-मांस के शरीर को
पाल-पोसकर इत्ते-से इत्ता बना सकते हैं
पर उनकी आत्मा को बांध नहीं सकते।

इसलिए उन्हें अपने सांचे में
ढालने की कोशिश कभी न करें;
बल्कि चाहें तो कोशिश करें
खुद उनकी तरह बनने की।

माँ तुम में सब कुछ है ॥

जिसको देखा करते थे आसमान में चमकते हुए
आज उसी मां को देखते है सरे राह तडपते हुए
रोती थी वो बिलखती थी वो सारी रात
पर पहले नहीं थे उसके ऐसे हालात
अपनी इज्ज़त अपने घर में ही तो है ऐसा कहते थे वो
लेकिन अपनी माँ को नीलाम घर पर ही तो करते थे वो
इन चंद नेताओ ने कर दिया अपनी माँ का सौदा
क्या कभी कोई बेटा करता था ऐसा
इन मतलबी लोगों ने कर दिया अपनी माँ को नीलाम
क्या उस माँ ने पाला था ऐसा अरमान
जो देती थी भूखे पेट को भरी हुई थाली
आज उसी माँ को देते है वो गाली
कभी रोते हुए बेटो को दिया करती थी अपनी अंचल का छाव
आज वही दिया करते उस छाती पर तरह तरह के घाव
गर्मी की तेज़ धुप हो जाड़े की सर्द राते
आज लगती है उनको बेमानी वो राते
क्योंकि उनको मिला किसी और का साथ
इसलिए ही तो छोड़ दिया अपनी माँ का साथ......

ब्लॉग कानपुर मासिक पत्रिका से साभार.....

आखिर क्यों .....?

आखिर क्यों सभी चिल्लाते है पोस्टर लगाते है कहते है " सेव गर्ल चाइल्ड " आखिर क्यों क्या इसलिए की लड़की कभी माँ बन कर कभी बहन बन कर और कभी पत्नी बन कर इन इंसानों के अत्याचारों को सहे... क्या इसलिए की आज का इन्सान अकेला पा कर भूखे भेड़िये की तरह टूट पड़ता है न उम्र देखता है न सम्बन्ध सिर्फ इस लिए की मैं एक लड़की हु.... इस समाज में लड़की होना एक जुर्म हो गया है ..विधायक हो या पुलिस शिक्षक हो या पिता क्या सभी के मस्तिष्क में एक ही विचार है .....
क्या करुँगी मैं इस दुनिया में आकार जब मैं पहले से ही देखती हु अरुशी को दिव्या शीलू और कविता के रूप में अपने आप को , और न जाने कितनी वो जो अखबारों की सुर्खिया न बन पाई ...आखिर क्योँ आऊँ और मैं इस दुनिया में क्या इसलिए की माँ बन कर बच्चो का पालन करू और बच्चे बड़े हो कर मुझे ही सड़क पर छोड़ दे तडपने के लिए ... क्या इसलिए की बहन बन कर भाई का प्यार बनू और वही भाई पैसो के खातिर मुझे ही बेच दे ... क्या इसलिए की एक बेटी बन कर आऊं वही पिता अपनी ही बेटी को हवस का शिकार बना डाले आखिर क्यों आऊँआखिर क्यों आऊँ मैं इस दुनिया में जब मैं अन्दर से ही सुनती हु और देखती हु अपनी माँ को दादी के ताने देते हुए की गर लड़की हुई तो घर से बाहर कर दूंगी और पापा भी लड़की होने के पीछे भी माँ को ही दोष देते है और पंडित से भी तो मेरे न आने के लिए ही उपाय किये जाते है , और देवी मंदिरों में जा कर लोग लड़का ही तो मांगते है लेकिन शायद वो उस समय ये भूल जाते है की वो देवी भी एक लड़की का स्वरूप है .... 21 शदी में भी आने के बाद क्या आज भी लड़की एक अभिशाप है क्या सब कुछ बदल रहा है पर इन्सान की सोच लडकियों के बारे में क्यों नहीं बदलती ... कभी कूडे के ढेर में तो कभी रेलवे ट्रेक पर तो कभी अस्पताल की छत पर सेफैक दी जाती हु मैं क्यों क्या माँ निर्दयी होती है नहीं लेकिन समाज की नजरे और सोच उस समय एक माँ को कातिल कुमाता जैसे शब्दों से बुलाते है लेकिन वो ममता की देवी जानती है की अभी मर गई तो एक बार ही मरेगी लेकिन अगर जी गए तो न जाने कितने बार मर मर कर जीना पडे ...क्योंकि समाज के भेड़िये के सामने बेटी को पालना कितना कष्ट कारक होगा ....घर से लेकर स्कूल तक लड़की कही भी सुरक्षित न रह पायेगी ...वो समय न देखना पडे इस लिए ही तो मैं आज तुम्हे मुक्त कर रही हुई ...माँ ने मार दिया मुझको .... क्योंकि अन्दर से हर लड़की अपनी माँ से यही कहती है " माँ मार दो मुझको " .... आखिर क्यों लड़की के साथ ही धोखा होता है ... मुझे याद है की जब मैं जन्मी थी उस समय मेरी माँ और पापा की आखो से आंशु छलके थे सभी बड़े रो रहे थे मुझे ख़ुशी हुई की मैं इस दुनिया में आई लेकिन जब मैने सबकी बाते सुनी तो मेरे भी आखो से आंशु निकलने लगे मैं भी जोर जोर से रोने लगी .. क्योंकि वो माँ और पिता के ख़ुशी के आंशु नहीं थे वो तो लड़की के पैदा होने के दुःख के आंशु थे .. सभी मुझे किनारे लगाने की बात कर रहे थे और रात के अंधेरे में मुझे मेरे पापा कूड़े के ढेर में फैक आए और रात भरमैं शर्द रातो में रोती रही चीखती रही की भगवान क्यों मुझे भेजा इस दुनिया में .... सुबह होते ही सभी उस कूडे के ढेर के पास से निकले और देखना तो दूर सभी मुह्ह मे कपडा लगाय ही थे क्योंकि मैं वहा पड़ी थी नहीं जहा जोर दार बदबू थी लोग उस जगह के पास से निकलना की भी नहीं सोचते है मैने तो एक रात वहा बिताई है ......और कुत्ते सुबह होते भोजन की तलाश में कूडे के ढेर में मुह मारते है लेकिन कुछ ही पालो में उनको मेरी गंध लग जाती है और सभी मुझे नोचने लगते है और मैं चीखती रहती हु लेकिन मैं खुश भी थी की मैं मौत के मुह में जा रही हु कम से कम उन इंसानी कुतो के मुह्ह से तो बच गई जो बार बार मार के भी जीने पर मजबूर करते ... आखिर ये समाज चहाता क्या है न ही हमे पडने दे रहा है न ही आगे बडने दे रहा है और न इस धरती पर जन्म लेने दे रहा है फिर मैं क्योँ जन्म लू इस धरती पर ॥
अगर आकडे देख ले तो लगातार इस भारत में लडकियों की संख्या कम होती जा रही है लेकिन फिर भी किसी को चिंता ही नहीं है लेकिन जो बची है उनके साथ तो अन्याय मत करो लेकिन नहीं ये समाज की मानसिकता है ये शायद नहीं बदलेगी तभी तो अनुराधा और सोनाली ने इन समाज की नजरो से अपने को बचाया वही इनके अपनों ने इनका साथ नहीं दिया क्योँ .. आखिर क्योँ उनके साथ ऐसा हुआ जो सात महीने तक और न जाने कितने दिनों तक और बंद रहती वो .. क्या उसके भाई का फ़र्ज़ ये नहीं था की वो अपनी बहनों को ख्याल रखता जिन बहनों ने अपने जीवन के बारे में न सोच कर अपने करिएर के बारे में न सोच कर अपने छोटे भाई को पाला लेकिन छोटा जब बड़ा हुआ तो छोड़ दिया उनको उनके हालतों पर, मैं पूछना चाहती हु की जब बचपन में एक बार में कोई चीज़ समझ में नहीं आती थी तो सोनाली और अनुराधा दस बार समझाती थी तब उन्होने एक बार भी नहीं कहा की मैं तुम्हारा साथ नहीं दे पाऊँगी उन्होने तो तुम्हारे सपनो में अपने सपने देखे थे .. लेकिन उन्हे नहीं मालूम था सपने चाहे खुली आखो से देखो या बंद सपने सपने ही होते है .. इसलिए ही तो भाई जब काबिल हो गया तो छोड़ दिया बहनों को मरने के लिए ..अब जब ये हालात है लडकियों के तो क्या करू मैं जन्म ले कर... आखिर क्यों समाज के ठेकेदार नेता और अभिनेता सभी ये गुजारिश करते है की " सेव द गर्ल चाइल्ड " आखिर क्यों ये सवाल मैं आप सब से पूछती हु और माँ से यही कहती हु " माँ मार दो मुझको " माँ मार दो मुझको............ माँ मार दो मुझको...........
भारत की जन संख्या २०११ के मुताबिक
जनसंख्या कुल 1,210,193,422
पुरुष 623,724,248
महिलायें 586,469,174
साक्षरता कुल 74.04%
पुरुष 82.14%
महिलायें 65।46%

ब्लॉग कानपुर मासिक पत्रिका से साभार.....

" माँ मार दो मुझको अभी....."

एक दिन खोई थी मैं अपने ही सपनो में ,
तनहा थी जबकि मैं बैठी थी अपनों में ....
आवाज़ दी मुझको किसी ने पर वहा कोई न था
गूंज मेरे कानो में गूंजती फिर भी रही

मनो मुझसे कह रही हो माँ मुझे तुम मत बुलाओ
दुनिया की इस आग में घुट - घुट के मुझे मत जलाओ
मानव रूपी दानव मुझे समाज में जीने न देगा
मस्त परिंदे की तरह मुझे आकाश में उड़ने न देगा
रौंदकर देह मेरी कुचलेगा सपनो को मेरे
काट देगा पंख मेरे छोड़ देगा रक्त रंजित ,
रक्तरंजित.........
क्या मेरे इस दर्द को तब सहन कर पाओगी ?
मेरे ह्रदय की वेदना को दुनिया से कह पाओगी ?
माँ अभी हु मैं अजन्मी, जान हू तेरी अभी ,
दिल पर पत्थर रख लो माँ
मार दो मुझको अभी ....
मार दो मुझको अभी अभी अभी अभी ..........

... संध्याशिश त्रिपाठी

Saturday, October 1, 2011

प्रिये ! अब तो आ जाओ !

मचल रहा तूफान हृदय में
प्रिये, अब तो आ जाओ

दिन लगते वर्षों जैसे
रातें युग सी लगती हैं
लम्हा-लम्हा इंतजार का
तेरी कमी खटकती है

बाट देखते आंखें थक गईं
लगता जैसे सांसें रुक गईं
नयनों से बहती निर्झरणी
वक्त थमा,घडियां रुक गईं

तेरा मन निर्मल,निश्छल है
मेरे मन का तू संबल है
आस है तू,विश्‍वास है तू
तेरा वजूद मेरा बल है

माना कि अभी है प्रीति नई
पर लगता सदियां गुजर गईं
तेरी बाट निहार रहा हूं
कब से तुझे पुकार रहा हूं

अब इतना भी न तडपाओ
प्रिये,अब तो आ जाओ

- ओंकार मणि त्रिपाठी

जाओ तुमको मुक्त किया !

जाओ तुमको मुक्त किया,
अब आवाज नहीं दूंगा।
यह भी आंखों का धोखा था,
मन को मैं समझा लूंगा।
क्या समझा था,तुम निकले क्या,
... तुम तो सबसे बदतर निकले।
देखा था मैंने एक रुप,
पर,रुप तेरे कितने निकले।
है खेल खेलना शौक तुम्हारा,
पर,जज्बातों से तुम मत खेलो।
विष दे दो,पर विश्वास न तोडो,
थोडा तुम खुद को बदलो।

- ओंकार मणि त्रिपाठी

मैं !

मैं नारी हूँ ,स्वर्ग से उतरी
अमृत की वह पवित्र बूंद
जिसको पीने से ,
... अमरत्व की प्राप्ति होती है ,

पर क्या ,आज भी वह दर्जा आ सकी हूँ मैं ??
जो मेरा भी जन्मसिद्ध अधिकार होना चाहिए .
सबको नज़र आता है , तो ,
सिर्फ मेरा रूप ,
टिकती हैं सबकी आँखें ,मेरी आँखें , मेरे होंठ , मेरे वक्ष पर ...
क्या मेरी आँखों में झांक कर देखी है , किसीने , मेरी वेदना , ,
सुना है मेरा मूक चीत्कार ,क्या सुने हैं किसीने ,
मेरे होंठों के अनकहे शब्द ??

क्या किसी ने कभी सोचा ,
कि ,मेरे अंदर एक हृदय है ,जो संवेदनशील है ,
जो धड़कता है , जो धधकता है ,
जब तुम मुझे खुद से ,
छोटा , हीन और कम अक्ल मानते हो .।
क्या तुम कभी माप पाये ,मेरे हृदय की अंतहीन सीमारेखा ?
तुम तो मुझे देवी बना कर पूजते रहे ,
पर देवी तो पाषाण है ,
मैं तो इन्सान हूँ
मगर तुम मुझे इन्सान मानते तो , कभी दोयम दर्जा ना देते .
दोयम मैं हूँ भी नहीं ..
तुम नर हो ,
मुझमें तुमसे दो मात्राएँ अधिक हैं , मैं नारी हूँ ,
तुमसे कहीं अधिक सबल ,तुमसे कहीं अधिक सशक्त ..
मैं पराधीन नहीं मैं पराधीन नहीं ....

- सुलेखा पाण्डेय ...

Thursday, September 29, 2011

जीवन की पहचान !

जीवन क्या है ------
रैन बसेरा .........
फिर वो बदला ....फिर वो बदला ...
साध लिया अब मन को मैंने
जीवन ज्योत बनी पहचान!!!!!!!!
गाती जाऊं फिर मैं गुनगुन -
लौट आई है वो मुस्कान---
जीवन ज्योत बनी पहचान'..
एक घनेरी छाया ढूँढू -
बैठ करूँ मैं कुछ विश्राम --
मंदिर की घंटी सुन जागी -
श्रवण श्रुति सुन नींद यूँ भागी ....
आ गए फिर मन में प्राण ...!!!!
लौट आई फिर वो मुस्कान ......
साध लिया अब मन को मैंने -
जीवन ज्योत बनी पहचान'' -!

- प्रकृति राय

Sunday, September 25, 2011

शेषधर तिवारी जी की कुछ कवितायेँ !!

मिला करता है अपने आप से भी बेरुखी से


मिला करता है अपने आप से भी बेरुखी से
बहुत मायूस हो बैठा है शायद ज़िंदगी से

अँधेरा ओढकर सूरज को झुठलाता मैं कब तक
निकल आया हूँ अब मैं जामे जम की तीरगी से

ख़याल अच्छा रहा होगा कभी, बहलाने को दिल
नहीं रिश्ता कोई सहरा का अब भी तिश्नगी से

खुदा आये न कोई ऐब मेरी शख्सियत में
मुतासिर सोच हो जाती है अंपनी ही कमी से

अदब में क्यूँ सियासत हो कि हो फिरकापरस्ती
कलम के जो सिपाही हैं लड़ा करते इन्ही से

हमारी खामुशी की चीख सुन लेता है मौला
मिला करता सदाए हक़, सदाक़त की हिसी से

समंदर पर भरोसा क्यूँ नहीं होता क़मर को
किये ही जा रहा तौज़ीन जाने किस सदी से


चलो हम आज इक दूजे में कुछ ऐसे सिमट जाएँ


चलो हम आज इक दूजे में कुछ ऐसे सिमट जाएँ
हम अपनी रंजिशों, शिकवाए ख्वारी से भी नट जाएँ

मेरी ख्वाहिश नहीं है वो अना की जंग में हारें
मगर दिल चाहता है आके वो मुझसे लिपट जाएँ

हमारी ज़िंदगी में तो मुसलसल जंग है जारी
है बेहतर भूल हमको आप खुद ही पीछे हट जाएँ

अलग हों रास्ते तो क्या है मंजिल एक ही सबकी
नहीं होता ये मुमकिन हम उसूलों से उलट जाएँ

चलें हम प्रेम और सौहार्द के रस्ते पे गर मिल के
तो झगडे बीच के खुद ही सलीके से निपट जाएँ

हमें तो चाह कर भी आप पर गुस्सा नहीं आता
कहीं गुस्से में जो खुद आप वादे से पलट जाएँ

भरोसा है हमें इक दूसरे पर ये तो अच्छा है
गुमां इतना न हो इसका कि हम दुनिया से कट जाएँ


मैं ही भगिनी मैं ही भार्या मैं जननी बन आई हूँ


मैं ही भगिनी मैं ही भार्या मैं जननी बन आई हूँ
जो चाहे कह लो मैं अपने साजन की परछाई हूँ

जोहूँ उनकी बाट बिछाऊँ पलकें उनकी राहों में
मेरा सारा दर्द मिटे जब सिमटूं उनकी बाहों में

कौन राम है कौन कृष्ण है मैं तो इनको न जानूँ
मेरे तो आराध्य देव मेरे प्रियतम हैं ये मानूँ

क्या बतलाऊँ कैसे साजन बिन हैं मेरे दिन कटते
मेरी तड़प सही न जाती देख मुझे बादल फटते

मेरी जुल्फें देख घनेरे बादल कारे हो जाते
मैं जिसकी भी ओर निहारूँ वारे न्यारे हो जाते

मेरा तेजस मुखमंडल सूरज को भी शर्माता है
दावा सूरज का झूठा वो चंदा को चमकाता है

चंदा होता दीप्तिमान बस देख हमारा ही मुखड़ा
दिन मेरा अहसानमंद अँधियारा रोता है दुखड़ा

कांति-श्रोत हैं मेरे प्रियतम मैं तो बस परछाई हूँ
तन-गागर में प्रियतम-प्रेम-सुधा भरकर बौराई हूँ

मेरे मन की अमराई में प्रेम-सिक्त हैं बौर खिले
साजन से बस मेरे साजन मुझे न कोई और मिले


आजमाइश की हदों को आजमाना चाहिए


मुश्किलों से लड़ इन्हें आसां बनाना चाहिए
तैर कर दरयाब के उस पार जाना चाहिए

जिस्म पर तम्गों कि सूरत जो हैं जख्मों के निशां
दिल में इनको अब करीने से सजाना चाहिए

ज़िंदगी जब जख्म पर दे जख्म तो हंस कर हमें
आजमाइश की हदों को आजमाना चाहिए

आईना कहता है क्या हो फिक्र इसकी क्यूँ हमें
अब ज़मीर-ओ-दिल को आईना बनाना चाहिए

देख ली दुनिया बहुत अब देखे ले दुनिया हमें
मौत को भी ज़िंदगी के गुर सिखाना चाहिए

क्या हुआ जो हमसफ़र कोई नहीं है साथ में
अब तो तनहा कारवाँ बनकर दिखाना चाहिए

ज़िंदगी खुद्दारियों के साथ जीने के लिए
जह्र पीकर शिव सा हमको मुस्कराना चाहिए

जिसके हर इक शेर ने तुम को नुमाया कर दिया
उस ग़ज़ल को ज़िंदगी भर गुनगुनाना चाहिए


उस ग़ज़ल को ज़िंदगी भर गुनगुनाना चाहता हूँ


मुश्किलों से लड़ इन्हें आसां बनाना चाहता हूँ
तैर कर दरयाब के उस पार जाना चाहता हूँ

जिस्म पर जो हैं निशां जख्मों के, हैं तम्गों सरीखे
मैं करीने से इन्हें दिल में सजाना चाहता हूँ

ज़िंदगी देती रहे यूँ जख्म मुझको बारहा, मैं
आजमाइश की हदों को आजमाना चाहता हूँ

क्यूँ करूँ मैं फिक्र कोई आईना क्या बोलता है
फैसला अपना मैं दुनियाँ को सुनाना चाहता हूँ

देख ली दुनिया बहुत अब देख ले दुनिया मुझे भी
मौत को भी ज़िंदगी के गुर सिखाना चाहता हूँ

क्या हुआ गर साथ मेरे हमसफ़र कोई नहीं है
मैं अकेले कारवाँ बनकर दिखाना चाहता हूँ

मैं जिऊंगा ज़िंदगी खुद्दार रहकर ज़िंदगी भर
जहर पीकर भी मैं शिव सा मुस्कराना चाहता हूँ

दी मुझे पहचान इक जिसके हसीं अशआर ने, मैं
उस ग़ज़ल को ज़िंदगी भर गुनगुनाना चाहता हूँ


"घूरे के भी दिन फिरते हैं"


हमारा ही लहू पीकर जो लालम लाल हैं देखो
वही सड़कों को कहते ओम् जी के गाल हैं देखो

जब इनके सामने हमने रखा इक आईना, भडके
विशेष अधिकार का लेकर खड़े अब ढाल हैं देखो

किरन जब भी निकलती है अँधेरा दूर होता है
ये नादां रोशनी पर फेंकते अब जाल हैं देखो

समझते थे जिसे थोथा चना वो बन गया "अन्ना"
ये पागल नोचते अब हर किसी के बाल हैं देखो

कहावत है कि "घूरे के भी दिन फिरते हैं" नेताजी
जहीं जो हैं बदल लेते खुद अपनी चाल हैं देखो

जुगनुओं की रोशनी से तीरगी घटती नहीं


जुगनुओं की रोशनी से तीरगी घटती नहीं
चाँद हो पूनम का चाहे पौ मगर फटती नहीं

ज़िंदगी में गम नहीं तो ज़िंदगी का क्या मजा
सिर्फ खुशियों के सहारे ज़िंदगी कटती नहीं

जैसी मुश्किल पेश आये कोशिशें वैसी करो
आसमां पर फूंकने से बदलियाँ छंटती नहीं

गर मिजाज़ अपना रखें नम दूसरों के वास्ते
शख्सियत अपनी किसी भी आँख से हटती नहीं

झूठ के बल पर कोई चेहरा बगावत क्या करे
आईने की सादगी से झूठ की पटती नहीं


- शेषधर तिवारी

अर्द्धनारीश्वर !

भारत में अर्द्धनारीश्वर की परिकल्पना हिन्दू मिथकों और विशेषकर शिव के अर्द्धनारी और अर्द्ध पुरुष रुप से जुड़े मिथक से पनपी है। यह सिर्फ मानव का लिंग निर्धारण करने वाले अंगों और उनमें किसी किस्म के अभाव आदि से जुड़ी छवि नहीं है बल्कि अर्द्धनारीश्वर रुप में शिव का पूरा शरीर ही स्त्री और पुरुष दो भागों का मिश्रण है।

तो ऐसे में किसी किन्नर को या किसी भी स्त्री या पुरुष को अर्द्धनारीश्वर कहा जाना संदेह उत्पन्न करता है। व्याकरण की दृष्टि से तो पता नहीं परंतु माइथोलॉजी की दृष्टि से तो ऐसा कहना गलत ही लगता है। यह तो ऐसा ही है जैसे किसी भी ब्राह्मण शूरवीर को परशुराम कहने लगो, और क्षत्रिय को रामराम और परशुराम नाम रखना और बात है या उन जैसा बताना और बात है परन्तु कोई कितना भी शूरवीर क्यों न हो, लोग उन्हे हिन्दू
माइथोलॉजी वाले राम और परशुराम तो नहीं कहने लगेंगे।

अर्द्धनारीश्वर, आधुनिक काल में ज्यादा उपयोग में आने वाले शब्द हरिजन जैसा शब्दमात्र नहीं है। अर्द्धनारीश्वरअर्द्धनारीश्वर के साथ ऐसा नहीं है। अर्द्धनारीश्वर एक अतिविशिष्ट शब्द है और इसके पीछे एक विशिष्ट कथा है, इसके साथ एक विशिष्ट मिथक का जुड़ाव रहा है। यह तो महेश, शंकर और रुद्र की भाँति शिव का ही एक रुप है। कोई खास वर्ग नहीं है। स्त्री, पुरुष और किन्नर तीन अलग अलग वर्ग हैं मनुष्य जाति के, पर

आम आदमी किन्नरों को भले ही एक ही परिभाषा से समझता हो या उनकी प्रकृति से अंजान रहता हो पर व्यवहार में यही देखने में आता है कि किन्नर भी अपने आप को स्त्री किन्नर या पुरुष किन्नर रुप में प्रस्तुत करते हैं हाँलाकि नाचने और गाने वाला काम करते हुये वे अधिकतर स्त्री वेश में ही ज्यादा देखे जाते हैं।

सिर्फ व्यवहार में ही ऐसा नहीं होता कि कोई स्त्री एक पुरुष जैसा व्यवहार करे उस जैसी आदतें और प्रवृति और प्रकृति रखे और कोई पुरुष एक स्त्री जैसा रहे बल्कि अस्तित्व की गहराई में तो हरेक स्त्री के अंदर एक पुरुष भी है और हरेक पुरुष के अंदर एक स्त्री। पुरुषों में ऊपरी सतह पर पुरुष गुण अधिकता में होते हैं और स्त्री में स्त्रियोचित गुणों की अधिकता होती है। पर बने तो दोनों स्त्री पुरुष के संगम से ही हैं।

मूल विषय पर वापिस आयें तो प्रश्न उठता है कि अर्द्धनारीश्वर तो छोड़िये क्या किन्नर को अर्द्धनारी भी कहा जा सकता है?

यदि हाँ तब तो अर्द्धपुरुष भी किन्नरों में ही होने चाहियें?

कोई जानकार इस बारे में कुछ कह पायेगा क्या? हो सकता है लोग अर्द्धनारीश्वर शब्द का प्रयोग किन्नर समुदाय के लोगों के लिये करते रहे हों पर क्या यह उचित है?

ऐसा देखा गया है कि प्राय: हिजड़ा शब्द तब प्रयोग में लाया जाता है जब सामान्य नर नारी किन्नरों को अपने से थोड़ा नीचे का दर्जा देकर देखते हैं और कई लोग तो इस वर्ग को अपमानित करने की मंशा से हिजड़ा शब्द का प्रयोग करते हैं। पुरुषों को अपमानित करने की मंशा से भी उन्हे हिजड़ा शब्द से सम्बोधित किया जाता है और ऐसा वातावरण तैयार करने में साहित्य और खास कर फिल्मों ने भी अपना भरपूर योगदान दिया है, मानो पुरुष का पौरुष सिर्फ उसकी सैक्सुअल संभावना और क्षमता से मापा जा सकता है!

किन्नर भारतीय संस्कृति में प्राचीन काल से चला रहा एक वृहद रुप से स्वीकृत नाम है और क्यों न इसी एक नाम का उपयोग किया जाये इस वर्ग को सम्बोधित करने के लिये!

शास्त्रों के मुताबिक शिव-शक्ति एक-दूसरे के बिना अधूरे हैं। शिव शक्ति के बल पर तो शक्ति शिव के सहारे जगत का तमाम सुखों से कल्याण करते हैं। जगत की सृजन, पालन व संहार में स्त्री-पुरुष के योगदान व महत्व को उजागर करने वाला शिव-शक्ति चरित्र से जुड़ा अर्द्धनारीश्वर रूप जगत प्रसिद्ध व पूजनीय है।
शिव का स्वरूप~~~
शिव की महिमा अनंत है। उनके रूप, रंग और गुण अनन्य हैं। समस्त सृष्टि शिवमयहै। सृष्टि से पूर्व शिव हैं और सृष्टि के विनाश के बाद केवल शिव ही शेष रहते हैं। ऐसा माना जाता है कि ब्रह्मा ने सृष्टि की रचना की, परंतु जब सृष्टि का विस्तार संभव न हुआ तब ब्रह्मा ने शिव का ध्यान किया और घोर तपस्या की। शिव अ‌र्द्धनारीश्वर रूप में प्रकट हुए। उन्होंने अपने शरीर के अ‌र्द्धभागसे शिवा (शक्ति या देवी) को अलग कर दिया। शिवा को प्रकृति, गुणमयीमाया तथा निर्विकार बुद्धि के नाम से भी जाना जाता है। इसे अंबिका, सर्वलोकेश्वरी,त्रिदेव जननी, नित्य तथा मूल प्रकृति भी कहते हैं। इनकी आठ भुजाएं तथा विचित्र मुख हैं। अचिंत्य तेजोयुक्तयह माया संयोग से अनेक रूपों वाली हो जाती है। इस प्रकार सृष्टि की रचना के लिए शिव दो भागों में विभक्त हो गए, क्योंकि दो के बिना सृष्टि की रचना असंभव है। शिव सिर पर गंगा और ललाट पर चंद्रमा धारण किए हैं। उनके पांच मुख पूर्वा, पश्चिमा, उत्तरा,दक्षिणा तथा ऊध्र्वाजो क्रमश:हरित,रक्त,धूम्र,नील और पीत वर्ण के माने जाते हैं। उनकी दस भुजाएं हैं और दसों हाथों में अभय, शूल, बज्र,टंक, पाश, अंकुश, खड्ग, घंटा, नाद और अग्नि आयुध हैं। उनके तीन नेत्र हैं। वह त्रिशूल धारी, प्रसन्नचित,कर्पूर गौर भस्मासिक्तकालस्वरूपभगवान हैं। उनकी भुजाओं में तमोगुण नाशक सर्प लिपटे हैं। शिव पांच तरह के कार्य करते हैं जो ज्ञानमय हैं। सृष्टि की रचना करना, सृष्टि का भरण-पोषण करना, सृष्टि का विनाश करना, सृष्टि में परिवर्तनशीलतारखना और सृष्टि से मुक्ति प्रदान करना। कहा जाता है कि सृष्टि संचालन के लिए शिव आठ रूप धारण किए हुए हैं। चराचर विश्व को पृथ्वी रूप धारण करते हुए वह शर्वअथवा सर्व हैं। सृष्टि को संजीवन रूप प्रदान करने वाले जलमयरूप में वह भव हैं। सृष्टि के भीतर और बाहर रहकर सृष्टि स्पंदित करने वाला उनका रूप उग्र है। सबको अवकाश देने वाला, नृपोंके समूह का भेदक सर्वव्यापी उनका आकाशात्मकरूप भीम कहलाता है। संपूर्ण आत्माओं का अधिष्ठाता, संपूर्ण क्षेत्रवासी, पशुओं के पाश को काटने वाला शिव का एक रूप पशुपति है। सूर्य रूप से आकाश में व्याप्त समग्र सृष्टि में प्रकाश करने वाले शिव स्वरूप को ईशान कहते हैं। रात्रि में चंद्रमा स्वरूप में अपनी किरणों से सृष्टि पर अमृत वर्षा करता हुआ सृष्टि को प्रकाश और तृप्ति प्रदान करने वाला उनका रूप महादेव है। शिव का जीवात्मा रूप रुद्र कहलाता है। सृष्टि के आरंभ और विनाश के समय रुद्र ही शेष रहते हैं। सृष्टि और प्रलय, प्रलय और सृष्टि के मध्य नृत्य करते हैं। जब सूर्य डूब जाता है, प्रकाश समाप्त हो जाता है, छाया मिट जाती है और जल नीरव हो जाता है उस समय यह नृत्य आरंभ होता है। तब अंधकार समाप्त हो जाता है और ऐसा माना जाता है कि उस नृत्य से जो आनंद उत्पन्न होता है वही ईश्वरीय आनंद है। शिव,महेश्वर, रुद्र, पितामह, विष्णु, संसार वैद्य, सर्वज्ञ और परमात्मा उनके मुख्य आठ नाम हैं। तेईस तत्वों से बाहर प्रकृति,प्रकृति से बाहर पुरुष और पुरुष से बाहर होने से वह महेश्वर हैं। प्रकृति और पुरुष शिव के वशीभूत हैं। दु:ख तथा दु:ख के कारणों को दूर करने के कारण वह रुद्र कहलाते हैं। जगत के मूर्तिमान पितर होने के कारण वह पितामह, सर्वव्यापी होने के कारण विष्णु, मानव के भव रोग दूर करने के कारण संसार वैद्य और संसार के समस्त कार्य जानने के कारण सर्वज्ञ हैं। अपने से अलग किसी अन्य आत्मा के अभाव के कारण वह परमात्मा हैं। कहा जाता है कि सृष्टि के आदि में महाशिवरात्रि को मध्य रात्रि में शिव का ब्रह्म से रुद्र रूप में अवतरण हुआ, इसी दिन प्रलय के समय प्रदोष स्थिति में शिव ने ताण्डव नृत्य करते हुए संपूर्ण ब्रह्माण्ड अपने तीसरे नेत्र की ज्वाला से नष्ट कर दिया। इसीलिए महाशिवरात्रि अथवा काल रात्रि पर्व के रूप में मनाने की प्रथा का प्रचलन है।




Thursday, September 22, 2011

कवि नीलाभ की कुछ कवितायेँ !!



नीलाभ



नीलाभ का जन्म १६ अगस्त १९४५ को मुम्बई में हुआ. इलाहाबाद विश्वविद्यालय से एम ए. पढाई के दौरान ही लेखन की शुरूआत. आजीविका के लिए आरंभ में प्रकाशन. फिर ४ वर्ष तक बी बी सी की विदेश प्रसारण सेवा में प्रोड्यूसर. १९८४ में भारत वापसी के बाद लेखन पर निर्भर.
'संस्मरणारंभ', 'अपने आप से लम्बी बातचीत', 'जंगल खामोश हैं', 'उत्तराधिकार', 'चीजें उपस्थित हैं'. 'शब्दों से नाता अटूट हैं', 'शोक का सुख' , 'खतरा अगले मोड़ की उस तरफ हैं','ईश्वर को मोक्ष' नीलाभ के अब तक प्रकाशित कविता संग्रह हैं.

शेक्सपियर, ब्रेख्त तथा लोर्का के नाटकों के रूपांतर - 'पगला राजा', 'हिम्मत माई', 'आतंक के साये', 'नियम का रंदा', 'अपवाद का फंदा', और 'यर्मा' बहुत बार मंच पर प्रस्तुत हुए हैं. इसके अलावा मृच्छकटिक का रूपांतर 'तख्ता पलट दो' के नाम से. रंगमंच के अलावा टेलीविजन, रेडियो, पत्रकारिता, फिल्म, ध्वनि प्रकाश कार्यक्रमों तथा नृत्य नाटिकाओं के लिए पटकथाएं तथा आलेख.


जीवनानन्द दास, सुकांत भट्टाचार्य, एजरा पाउंड,ब्रेख्त, ताद्युस रोदेविच, नाजिम हिकमत, अर्नेस्तो काडिनल, निकानोर पार्रा, और नेरुदा की कविताओं के अलावा अरुंधती राय के उपन्यास 'डी गाड ऑफ़ स्माल थिन्ग्स' का अनुवाद 'मामूली चीजों का देवता', नेरुदा की लम्बी कविता 'माच्चू पिच्चू के शिखर' का अनुवाद बहुचर्चित। मंटो की कहानियो के प्रतिनिधि चयन 'मंटो की ३० कहानियाँ' का संपादन, २ खंडो में गद्य 'प्रतिमानों की पुरोहिती' और 'पूरा घर है कविता', हिंदी के साहित्यिक विवादों, साहित्यिक केंद्रो, और मौखिक इतिहास पर शोधपरक परियोजना स्मृति संवाद (४ खण्डों में) फिल्म, चित्र कला, जैज, तथा भारतीय कला में ख़ास दिलचस्पी ।
संपर्क - २१९/९, ब्लोक- ए २, भगत कालोनी, वेस्ट संत नगर, बुराड़ी, दिल्ली, ११००८४ । मोबाइल- ०९९१०१७२९०३, फोन: आवास- ०११- २७६१७६२५



गुज़ारिश

मैं अँधेरे का दस्तावेज़ हूँ

राख को चिडि़या में बदलने की तासीर हूँ
मीर हूँ अपने उजड़े हुए दयार का
परचम हूँ प्यार का

मैं आकाश के पंख हूँ

समन्दर में पलती हुई आग हूँ
राग हूँ जलते हुए देश का
धरती की कोख तक उतरी जड़ें हूँ
अन्तरतारकीय प्रकाश हूँ

मैं लड़ाई का अलम हूँ

सम हूँ मैं ज़ुल्म को रोकने वाला
हर लड़ने वाले का हमदम हूँ
बड़े-बड़ों से बहुत बड़ा
छोटे-से-छोटे से बहुत कम हूँ


हिजरत - 1


हिजरत में है सारी कायनात

एक मुसलसल प्रवास, एक अनवरत जलावतनी

पेड़ जगह बदल रहे हैं, हवाएँ अपनी दिशाएँ,

वर्षा ने रद्द कर दिया है आगमन और प्रस्थान का
टाइमटेबल, वनस्पतियों ने
चुका दिया है आख़िरी भाड़ा पर्वतों को
और बाँध लिये हैं होल्डॉल,
पर्वत भी अब गाहे-बगाहे अलसायी आँखें खोल
अन्दाज़ने लगे हैं समन्दर का फ़ासला
समन्दर सुनामी में बदल रहा है
बदल रहे हैं द्वीप अद्वीपों में

एक हरारत-ज़दा हरकत-ज़दा हैरत-ज़दा कायनात है यह


सबको मिल ही जायेंगे नये ठिकाने मनुष्यों की तरह

और अगर कुछ बीच राह सिधार भी गये तो भी
वे अनुसरण कर रहे होंगे मनुष्यों का ही
जिनके किये से वे हुए थे बेघर


हिजरत - 2


सब लौट कर जाने को तैयार बैठे हैं


पहाड़ से आये कवि, पूरब से आये पत्रकार,

बिहार से आये अध्यापक, केरल से आयी नर्सें,
तमिलनाडु के अफ़सर, तेलंगाना के बाबू,
कर्नाटक के संगीतकार, अवध के संगतकार
यहाँ तक कि छत्तीसगढ़ से आयी रामकली भी
पिछले बीस बरस नेहरू प्लेस की झुग्गी में
गुज़ारने के बाद बिलासपुर जाने को तैयार है

बाबर को समरकन्द याद आता है,

महमूद को ग़ज़नी, अफ़नासी निकेतिन को ताशकन्द
हरेक को याद हैं अपनी जड़ें या जड़ों के रेशे
या रेशों की स्मृतियाँ या स्मृतियों का लोक
हरेक के दिल में है हिजरत का शोक
लेकिन मैं अब भी सफ़र में हूँ

बम्बई से इलाहाबाद, इलाहाबाद से लन्दन,

लन्दन से दिल्ली
शहरों के नाम कौंधते हैं रेलगाड़ी से देखे
स्टेशनों की तरह

बस दो नाम ग़ायब हैं इनमें

जहाँ मुझे होना था, जहाँ मैं हो सकता था

लाहौर जहाँ जली हुई शक्ल में

अब भी मौजूद है मेरा ननिहाल
और जालन्धर जहाँ पुरखों के घर में आ
बसे हैं ज़मीनों के सौदागर


सीकरी


हमेशा सुनाई देती थी

पैसे की आवाज़

बजता रहता था

लगातार
व्यवसाय का हॉर्न,
या बाज़ार का शोर,
या सिक्कों का संगीत

टूटती थी पनहिया

हमेशा
सीकरी आते-जाते
बिसर जाता था
नाम ही नहीं घर का पता भी

मोतियों से भरे मुँह लिये

लौटते थे कवि अपने देस
फिर गा नहीं पाते थे
अपने गान


सपनों के बारे में कुछ सूक्तियाँ

1.


कुछ सपने कभी पूरे नहीं होते

आते हैं वे हमारी नींद में
पूरे न होने की अपनी नियति से बँधे

इस सच्चाई को हम जीवन भर नहीं जान पाते

नहीं जान पाते अपनी असमर्थता,
अपनी विवशताएँ, अपना निष्फल दुस्साहस

सपने जानते हैं इसे

आते हैं इसीलिए वे
ठीक हमारे जग पड़ने से पहले
2.


कुछ सपने दूसरों के होते हैं

जिन्हें पूरा करने के फेर में
हम देख नहीं पाते अपने सपने
3.


सपने अक्सर जन्म देते हैं

दूसरे सपनों को
इसी तरह वे रखते हैं
अपनी गिरफ़्त में आदमी को
4.


कुछ सपने मालिक होते हैं

कुछ होते हैं, ग़ुलाम

एक सपना पूरा करता है

दूसरे सपने की ख़्वाहिशें
दूसरा सपना तीसरे की

इसी तरह क़ायम होता है

सपनों का साम्राज्य
5.


कुछ सपने पीछा करते हैं हमारा

शिकारियों की तरह
बना लेते हैं हमें पालतू
अगर पकड़ पाते हैं हमें
6.


कुछ सपने याद नहीं आते

देखे जाने के बाद
वही होते हैं सबसे ज़रूरी
7.


सपने बेहद अराजक और निरंकुश होते हैं

तरह-तरह के छुपे हुए दरवाज़ों, ढँके गलियारों,
गुप्त द्वारों, भेद-भरी गलियों, रहस्यमय खाइयों,
तिलिस्मी फन्दों, गोरखधन्धों और पेचीदा प्रकोष्ठों से भरे
वे नहीं पूरा करने देते आपको अपनी दबायी गयी इच्छाएँ
ला खड़े करते हैं अबूझ अवरोध,
बदल देते हैं पटकथा की दिशा
अधबीच पहुँच कर कई बार भरते हुए आकुलता प्राणों में
नींद की निरापदता में आतंक की सृष्टि करते हुए
8.


सपनों को समझने का दावा करने वाले

छले जाते हैं
सबसे पहले
सपनों से
कोशिश बेकार है सपनों से
भविष्य बाँचने की
इन्सान का नसीबा तय हो चुका है
सपनों से बाहर
9.


अचानक झटके से टूटती है नींद

जैसे टूटता है काँच का गिलास
फ़र्श पर गिर कर
उठ कर बैठते-बैठते भी
गूँज बाक़ी होती है चीख़ की कानों में

किस का चीत्कार है यह

किस आकुल अन्तर का, मारे जा रहे
निरपराध का, चला आया है जो
इस तरह स्वप्न के बाहर
एक और भी अजीबो-ग़रीब जगत में
जहाँ गूँजता है अहर्निश
उससे भी तीखा हाहाकार

फ़र्क करना मुश्किल है अब

स्वप्न और वास्तविकता में
काया और माया में
आलोक और अन्धकार में
हुलास और हुंकार में


ब्लॉग पहली बार से साभार .....

Tuesday, September 20, 2011

हम मशीने नहीं हैं !

हम मशीने नहीं हैं
हम मशीने नहीं हैं ,
पशु पक्षी भी नहीं हैं हम ,
पेड़ , पौधे , वनस्पति भी नहीं हैं -
जो एक जगह उग कर वहीँ सुख जाते हैं .
हम मनुष्य हैं,
चलते रहना हमारा धर्म है,
हम रुकते नहीं हैं-
एक जगह पर,
हम होते हैं निराश कभी कभी -
पर खोते नहीं हैं विश्वास कभी भी ,
हम खो जाते हैं भीड़ में अक्सर -
किन्तु बिछड़ते नहीं एक दुसरे से कभी -
हो जाते हैं आँखों से ओझल ,
चले जाते हैं बहुत दूर कहीं ,
लगने लगता है -
नहीं मिलेंगे अब कभी भी कहीं भी,
किन्तु -
टकरा ही जाते हैं कहीं न कहीं -
किसी न किसी नए मोड़ पर ,
किसी न किसी नए रूप में,
फिर कभी -
प्रस्स्नता होती है इस मिलन से -
मन में उभरने लगती हैं सारी यादें -
चल चित्र की तरह ,
किन्तु हम -
एक दुसरे को देख कर -
निकल जाते हैं चुप चाप ,
अपनी अपनी राह पर ,
बिना कुछ बोले -
बिना कुछ सुने -
क्योंकि अब -
हम हम नहीं रह जाते ,
बदल जाते हैं हमारे रिश्ते -
बदल जाता है हमारा धर्म -
बदल जाती है हमारी सोच -
बदल जाते हैं हमारे विचार -
बदल जाती है हमारी मंजिल

- "चरण"

Sunday, September 18, 2011

मैं भ्रम बेचता हूँ।

जी हां मैं भ्रम बेचता हूं।
इस गणतन्त्र की हाट में
मैं भ्रम बेचता हूं
सब तरह के भ्रम
रखे हैं मेरे झोले में
अलग अलग रंग
अलग अलग छाप के
पूरा विश्वास है आपको
आपकी पसन्द का भ्रम भी दे पाऊंगा
बताईये कैसा भ्रम ढूंढ रहें हैं आप
रंग बताइये आकार समझाइये
हां क्या कहा आपने
सफेद रंग में चाहिये है आपको
तो ले जाइये यह हाथ छाप भ्रम
पिछले पचास साल से एक ही माडल
ज्यों गुजरे समय की
अम्बासडर कार
मार्क एक से मार्क चार तक
कुछ अलग दिखने का भ्रम
फर्क सिर्फ नाम का
न फर्क किसी काम का
सिर्फ़ एक अकेला बिक रहा था इस बाजार में
यह तो पिछले पचास सालों में खुब बिका है

आपकी गराबी हटायेगा
आपके लिये
21 वीं सदी को सीधे सूर्य से
मोल ले आयेगा
भई खूब बिका है यह भ्रम

अच्छा कोई दूसरा माल दिखाऊं
तो भई ये ले जाइये
लाल रंग का भ्रम
इसके wrapper पर
छपी है एक मजदूर की तस्वीर
दम है कि इससे मिलता है
सर्वहारा वर्ग तक को
सुख और खुशहाली का भ्रम
इस भ्रम ने भारत में
मजदूरों के आराम के लिये
व्यापार-उद्योग बन्द करवाये
काम हराम है की धुन बजाई
निठल्लेपन के आराम से
बहुत ही दिलवाया है खुशहाली का भ्रम।


या ये ले जाइये भगवे रंग का भ्रम
इसकी विशेषता
जो wrapper पर छपी है
वह है राम के राज्य की तस्वीर
इसे मन्दिर की
लुभावनी शक्ल में ले जाइये
इस भ्रम से
लोगों को चमक तो नहीं
हां अपनी "SHINING" के ढेर
सारे नारे जरूर मिले


और भी बहुत से रंग व आकार
के भ्रम हैं मेरे झोले में
काले,हरे व पीले रंग के भ्रम

क्या पूछते हैं
कौन सा भ्रम मुझे पसन्द है
जिसे मैं पालता हूं
तो भाई साहब वह है
यह, बिन रंग व wrapper का
एक बेचारा सा भ्रम
जम्हूरियत में
एक आम आदमी,
एक अपग से आम आदमी की
लाचारी को परोसता
हर सवाल पर निरुत्तरित रह जाता
सर झुकाये पीठ पर
ढोता नामर्दगी
और पालता
अपने मर्द होने का भ्रम
अपने जिन्दा होने का भ्रम।

आईना !

जब कभी आईना देखता हूँ
सिहर उठता हूँ
हर बार एक नया चेहरा
हर बार आईना
एक बिना धार के चाकु से
मेरे व्यक्तित्व का
कुछ न कुछ अंश
तराश ही देता है।
और फिर मुझे
इस क्षीण होते
व्यक्तित्व की विभीषिका
से भय लगता है।
कभी कभी प्रतीत होता है
कि सम्भवतः अगली बार
जब आईना देखूं
तो उसमें,
मेरा लुप्तप्रायः व्यक्तित्व
शायद नजर ही न आए।
अब अब इस सम्भावना से निजात हेतू
मैने हाल के
अपने बिखरे छितरे चेहरे को
समेट कर
उसकी एक तस्वीर बनवा ली है
समय कहीं बदरंग न कर दे,
इसीलिये इस तस्वीर को शीशे में मढ़ दिया है।
अब आईने में न सही
आईने के बाहर तो
कम से कम कहीं तो बचा रहेगा मेरा व्यक्तित्व
जिसे मैं खुद भी निहार पाउंगा
और परीचितों के समकक्ष भी
चाहे निष्प्राण ही
प्रस्तुत कर पाउंगा।
कहीं तो, इसी तरह बाकी रह जायेगा
ये मेरा चहरा।


Malignant Mesothelioma

सामानों का बलात्कार !

उफ्फ ये पकौड़े क्यों जल गये
क्योंकि जब मैं कढ़ाई में पकौड़े तल रही थी
मानस में रात की फिल्म चल रही थी
वो अभिसार था या था वो व्याभिचार...
पकौड़े अब जल कर काले हो गये थे
हां रात जब तुहारी इच्छा मेरी अनिच्छा पर भारी थी
क्या मैं समझौता कर हारी थी
पकौड़ों से अब धुआं निकल रहा था...
मानस कर रहा था कुछ प्रश्न
क्या विवाह का पर्याय है रति
क्या सेक्स ही है सात फेरों की परिणिति ।
मैं गैस पन्द कर सोचने लगी.....
जब भी मेरी अनिच्छा पर तुम्हारी इच्छा बली हुयी है
तब पतिव्रता की तमाम बातें मुझे बेहद खली हैं
हां मैं अगर हारी हूं
तो जीता कौन है???
अन्दर तो कोलाहल है
लब लेकिन मौन हैं।
बलात्कारी कब किससे जीत पाया है
सर्वप्रथम वह तो खुद से ही हारता आया है।
गणिका की भले ही इच्छा नहीं लेकिन सहमति तो होती है।
मैं तुम्हारी सहचरी की न इच्छा,न सहमति सिर्फ दुर्गति होती है।

मेरी इच्छा और दुर्गति के अन्तराल को

समाज समझे या न समझे
तुम तो समझ लो
प्यार और बलात्कार में फर्क होता है
तुम्हारे मन में भले ही प्रेम का भ्रम पला हो
मैं जानती हूं कि मैने
मौन रह कर भी
सिर्फ तुम्हें छला है।
लेकिन तुम भला कैसे जान पाते
ये बातें
क्योंकि तुम मुझसे नहीं,
सिर्फ मेरी देह से बातें कर रहे थे
तुमने तो सुना ही नहीं मेरे नयन क्या कह रहे थे ।
सुनते तो क्या सह पाते मेरे अंतर्नाद को
शायद बधिर होना आक्रान्ता की पहली आवश्यकता है
अब दोबारा बेसन घोल कर एक नयी सूर्य की अभ्यर्थना
के साथ एक नया निश्चय
अब और ऐसा नहीं चलने दूंगी
न मैं जलुंगी
न मेरे पकौड़े जलने दूंगी।


कविता की समाधि !

तुम वह जो टीला देख रहे हो
वह कविता की समाधि है।
कविता जो कभी वेदनाओं का मूर्त रुप हुआ करती थी
उपभोक्तावाद की संवेदनहीनता ने
उसकी हत्या कर दी है।
कविता जो चित्र बनाती थी
कविता जो संगीत सृजन करती थी
कविता जो भाव उद्वेलित करती थी
अब टी वी के हास्य मुकाबलों ,
मञ्चीय हास्य कवि सम्मेलनों
और ब्लौग्गरस की दुनिया में
शेष हो गयी है।
आज का युवा
बारहवीं पास या फेल
काल सेन्टर में बैठ
अमीरीकियों की नकल कर
शिकागो में होने की गलतफहमी का शिकार
विवेकानन्द हो गया है।
भाव कविता की पंक्तियों से निकल
शेयर बाजार और सेन्सेक्स के पर्याय हो गये हैं।
कविता अब प्रेम की भाषा नहीं
सड़क छाप Romeo’s की सेक्सी शायरी हो गयी है।
आज विवाह जब evolution के प्रकरण से दूर
वाणिज्यिक गठ बन्धन हो गया है
और तमाम सम्बन्धों की नींव
स्वार्थ की सीमेंट से जुड़ी हों
नित नये नये भगवानों
व आराध्यों के गढ़ने की प्रक्रिया में
हनुमान चालीसा से लालु चालीसा
का सफर तय करने में
कविता की मौत एक स्वाभाविक उपसंहार है।


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त्रिशंकु !

मैं भी आज त्रिशंकु सा
विमूढ
टंगा हुआ हूं
एक नितान्त व निजी
व्यक्तिगत स्वर्ग के भ्रम में
मन रोजमर्रे की जिन्दगी
से उपर
कुछ उठना चाहता है।
मन नहीं मानता
गुरुत्वाकर्षण शक्ति के सहज नियम।
लेकिन मानस तो मानता है
सिर्फ दृष्टिगोचर को
अगोचर व्योम को पाने की
आकांक्षायें लिये
लियोनार्डो सा पंख फड़फड़ाता हूं
यह विश्वमित्र की समिधा की शक्ति है
या मेरी अपनी हठधर्मिता
व्योम हठात कुछ पास चला आता है।
मैं विगत कल
व आगामी कल
के मध्य तलाश रहा हूं
सत्य का धरातल॥
मिथ्या जगत से
सत्य या ब्रह्म
तक पहुंचने की उड़ान
में मुख्य व्यवधान
स्वयं मैं हूं।
मेरा अहम्
अपने स्थूल स्वरूप से बद्ध
गुरुत्वाकर्षण शक्ति की परिधि से
निकल नहीं पाता है
और मेरा आरोहण
बीच में थम जाता है।

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flickrbilder

आजकल !

जब कई हाथ
उठते हैं साथ साथ
और कुछ उंचे स्वर में
हो रही हो बात
तब सत्ता चौंक कर
ढुंढती है
कहां बिछी है बिसात
उसे तो दिखती है सिर्फ शह और मात
सत्ता के अन्य संवेदना तंतु
तो दफ़न हैं बर्फ के नीचे
सत्तधारियों को सिर्फ
उठती हुयी हथेलियों की
उष्मा से बचा रखना है
उस संवेदना तंतु के उपर जमीं बर्फ को
यह बर्फ अगर पिघल गयी तो
सत्ता की सुरक्षा खतरे में होगी
बचा कर रखें उस बर्फ को
संवेदना तंतुओं को जिन्दा होने से रोके
तब ही यह सत्ता की कागज की नाव
अगले चुनाव तक
तैरती रह पायेगी
जब चुनाव जीतना
साधन न हो साध्य हो जाता है
तब चाहे कोई जीते
राष्ट्र हर हाल में
हारता आता है।
जब चारण चाणक्य का पद पाता है
तब नीति शास्त्र के नाम
प्रशस्ति गीत गाया जाता है
जब इन्दिरा इन्डिया का पर्याय कहाती हैं
तब भूखे अधनंगे भारत की थाली में
आंकड़ों की रोटी परोसी जाती है।
जन साधारण की जिजिविषा
में उन्हे दिखता है राजद्रोह
इस दृष्टिभ्रम की
वजह है सत्तधारियों की
पैसे की भूख
और सत्ता का मोह
जब नागरिकों के विरोध के स्वर को
को कानुन व सुरक्षा
के डण्डे से शान्त किया जाता है
तब जलियां वाला बाग याद आता है।
लेकिन सत्तधारी नहीं मानते
जिये हुये ऐतिहासिक सत्य को
कि निरीह जनता जब
राष्ट्र या राष्ट्रीयता से विमुख हो जाती है
तब ही विदेशी शक्तियां दांत गड़ाती हैं
कोई सैन्य दल तब काम नहीं आता है
और देश पर बाह्य शक्तियों का कब्जा हो जाता है।



केशव तिवारी की एक कविता !

केशव तिवारी समकालीन कविता में लोक चेतना को आवाज़ देने वाले महत्वपूर्ण कवि हैं । समय का दंश उनकी इस कविता में रेखांकित करने लायक है ।
हम खड़े थे (केशव तिवारी की एक कविता)
किससे बोलता झूठ
और किससे चुराता मुँह
किसकी करता मुँहदेखी
किसके आगे हाँकता शेखी
हर तरफ़ अपना ही तो चेहरा था
नावे तों बहुत थी
नदारद थी तो बस नदी
चेहरों पर थी दुखों की झाँई
जिसे समय ने रगड-रगड़ कर
और चमका दिया था
सारी कला एक अदद
शोकगीत लिखनें में बिला रही थी
जिसने भी रखा पीठ पर हाथ
बस टटोलने लगा रीढ़
हम खड़े थे समय के सामने
जैसे लगभग ढह चुकी
दीवारों वाले घर की चौखट पर
खड़ा हो कोई एक
मज़बूत दरवाज़ा ॥

इतना भी न हुआ..

जीने की तरह जीना,
मरने की तरह मरना
इतना भी न हुआ
कि बोलूं तो सुना जाऊं दूर तक
चलूं तो पथ में न आएं बाधाएं
गाऊं अपनी पसन्द के गीत कभी भी
बनाऊं कहीं भी सपनों का नीड़
इतना भी न हुआ.. न हुआ इतना भी
कि विश्वास के बदले पाऊं विश्वास
श्रम के बदले रोटी-पानी ।

गहराती रात जैसी नींद से निकल
पलकों की पीठ पर
सपनों की गठरी लिए
चल पड़ूं उछलता-कूदता
न हुआ इतना भी, इतना भी न हुआ
बांझ कोख सी उदासी में
डूबी है दुनिया
जिसकी बेहतरी की उम्मीद में
जागती आंखें झुकी रहती हैं
क्षमा-प्रार्थना की मुद्रा में इन दिनों
होठों से धीमे- धीमे
निकलता है स्वर,
क्षमा ! क्षमा ! बस क्षमा !! कहते हैं हम एक-दूसरे से ।

क्षमा हे पितरों
तार नहीं सके हम तुम्हें
मुक्त न कर सके तुमको
आवागमन के दुश्चक्र से
कुन्द पड़ चुके हमारे इरादे
कौंधते और बुझते रहे अंधेरों में
हमारी स्मृतियों की गंगा में
आज भी तैरते हैं शव तुम्हारे
जिन्हें खींच कर तट पर लाएं
यह साहस हम जुटा ही नहीं पाए ।
क्षमा हे पृथ्वी
जल पावक गगन समीर
तुम्हारी विस्फोटक रोशनी में
चमक न सके हम कुन्दन बन
कात न सके चदरिया झीनी,
मिठास बिना ही ज़िन्दगी जीनी
नागवार हमें भी गुजरती थी।

क्या करें, कि एक शीर्षक-हीन कविता थे हम
पढ़े जा सकते थे बिना ओर-छोर
कहीं से भी, बीच में छोड़े जा सकते थे हम,
ज़िल्दों में बन्द, कुछ शब्द, हमें पता नहीं था
आलोचकों की भूमिका के बारे में
जैसे पता नहीं था पितरों को
मुक्ति का खुफ़िया रास्ता ।
एक शब्द चमक सकता था
अंधेरे में जुगनू बन
एक शब्द कहीं धमाके के साथ
फट सकता था
सोई चेतना के ऊसर में
एक शब्द को लोहे में
बदल सकते थे हम
धारदार बना सकते थे उसे
हमसे नहीं हुआ इतना भी, इतना भी न हुआ

क्षमा ! हे शब्द-ब्रह्म, क्षमा !!
बहुत पीछे छूट चुका बचपन
ठिठका खड़ा है
अन्धे कुंए की ओट पर
विस्फ़ारित मुंह उस कुंए के
एक अधर पर धरे पांव
अड़ा है, कहां है सुरसा मुंह कुंए का
दूसरा अधर
शून्य में उठा दूसरा पांव
आकाश में लटका पड़ा है ।
समय की तेज रफ़्तार सड़क पर
कई प्रकाश वर्ष पीछे
ठिठका खड़ा बचपन
भींगता है अदद एक
बरसाती घोंघे के बिना
गल जाती हैं किताबें
स्कूल जाने के रास्ते में
खेत की डांड़ पर
भींग जाता है किताबों का बेठन,
किताबों से प्रिय थे जिसे
इमली बेर आम चिलबिल
और रेडियो पर बजता विविध-भारती
उस बचपन से क्षमा,
कि हम अपराधी उस बचपन के
कुंए की तरह खड़े रहे हम
उसके रास्ते में
बिछ सकें नर्म घास की तरह
उभर सकें पांवों तले
ज़मीन की तरह
न हुआ इतना भी, इतना भी न हुआ..

पेड़ पर आधा अमरूद !

एक सुन्दर कविता की तरह
वह लटका है
पेड़ की कमसिन शाख पर

आते-जाते रहते हैं
फलों के आलोचक
कभी सुग्गे की तरह
तो कभी गौरैया की तरह

मुझे इतना पता है
कि परिन्दे जब आते हैं
पेड़ों पर, अपनी नुकीली ठोर से
कुरेदते हैं जब किसी
मीठे फल की पीठ,
तो उनके इस सुलूक में
उनके विवेक की भूमिका
उतनी नहीं होती
जितनी कि उनकी भूख की
हो सकती है

और, इतना तो आप भी
देख ही रहे होंगे
कि पेड़ पर कुछ अमरूद हैं
आधे खाए-जा-चुके

यह पूस का महीना है
एक फलते-फूलते मौसम में
यह कविता के अमरूद होने का समय है

एक दिन आऊंगा !

एक दिन आऊंगा
खटखटाऊंगा तुम्हारा दरवाज़ा
मुझसे पीछा छुड़ाने की कोशिश में
तुम पूछोगे मेरे आने का मकसद
विरक्ति में डूबी आंखों से ।

उस दिन धीरे से चुपचाप
थमा जाऊंगा तुम्हें
जो कुछ भी होगा
मेरी झोली में ।

वह अगरबत्ती का एक
पैकेट भी हो सकता है
या फिर आधी-जली
मोमबत्ती का टुकड़ा, कोई मुरझाया सा फूल
या पुरानी ज़िल्द वाली
कोई किताब ।

कुछ नहीं पूछोगे तुम मुझसे
अगरबत्ती के बारे में, कि वह
जलेगी तो कमरों में कितनी
देर तक रहेगी सन्दल की ख़ुशबू
या कितनी दूर तलक जाएगी
मोगरे की गन्ध ।

मुझे यह भी बताने की
जरूरत नहीं होगी बाकी
कि मोमबत्ती के भीतर की
सुतली के जलने के दरम्यान
कितनी मोम पिघल कर
फैल गई है हमारे एकान्त में
या फिर कालिख की तरह
जम गई है हमारी सांसों में ।

और ताज्जुब तो यह कि
तुम जानना भी नहीं चाहोगे
कैसे मुरझा जाते हैं फूल दबे-दबे
किताबों के भीतर, और फैल जाता है
एक हाहाकार शब्दार्थों के बाहर की दुनिया में ।

उस दिन, न तो पूछ ही सकोगे तुम
न ही बता सकूंगा मैं
एक किताब की ज़िल्द के
पुराने होते जाने की इतिकथा, उस दिन, अभिव्यक्ति पाए बिना ही उठेंगी
कुछ कविताएं , भाप बन कर , पुरानी ज़िल्द वाली किताब से
और फुसफुसाती हुई कानों में
बताएंगी मेरे आने का मकसद ।

मुझसे पीछा छुड़ाना
नहीं होगा इतना आसान
कि मेरे पास होंगी कुछ
मामूली चीजें, मसलन एक अगरबत्ती का पैकेट
एक आधी-जली हुई मोमबत्ती
एक मुरझाया-सा फूल , या
पुरानी ज़िल्द वाली एक किताब ।

चुपचाप थाम लोगे तुम कोई एक

मामूली सी चीज मेरे हाथों से
और मैं लौटूंगा अपनी झोली में
सहेज कर कोई बहुत पुराना ख़त
जिसे तुमने संभालकर रखा होगा
मेरे लिये स्मृतियों के सन्दूक में ।

उस दिन
, आंखों में झिलमिलाते
तरल सन्धिपत्रों पर होंगे हमारे
अमिट हस्ताक्षर ।

कैसा यह देना
-लेना साथी, कैसा नक़द - उधार
कैसा अद्भुत यह जीवन व्यापार ।