Tuesday, August 22, 2017

धूप !

धूप !
तुम धूप सी महका करो
तनिक झुक जाओ
इतनी मत तना करो

धूप !
तुम पीठ पर रेंगो
रेशमी छुअन बन

बिच्छू बन दंश न् दिया करो

धूप !
तुम दिसंबरी बनो
जेठ की  कामना मत बनो

धूप !
तुम हर उस जगह जरूर पहुंचो
जहां नमी है , सीलन भी

उगाओ कुछ धरती के फूल
मत झुलसाओ

बहार ले आओ

राघवेंद्र,
अभी-अभी

यकीन करो (एक अराजनीतिक कविता)

मैं नहीं रहूँगा तो तुम्हारी दुनिया
कितनी सूनी और बेरौनक हो जाएगी ।
इसकी सारी चहल पहल
इसका सारा जगर मगर मेरे होने से है ।

एक मेरे उदास होने से
दूर का चाँद उदास होता है
एक मेरे खोने से
तुम्हारा सूरज भी आस खोता है ।

एक दिन सब यकीन करेंगे
कि कोई बागड़ बिल्ला नहीं
कोई अवतार और उसका लल्ला नहीं
थे संसार के संचालक ।

यकीन करेंगे एक दिन सब
कि किसी शेष के फन नहीं
किसी महेश के त्रिशूल नहीं
मेरे माथे पर टिकी थी तुम्हारी वसुंधरा
मेरी हंसी खुशी से
यह जग था हरा भरा ।

जब मैं न रहूँगा
देखना
दुनिया एकदम निस्तेज और बेजान हो जाएगी
हवा मुझे न पाकर
आकाश के शून्य में खो जाएगी
यकीन करो ।

कभी सोचा है
तुम्हारे ताले की चाभी कौन बनाएगा
तुम्हारे दरवाजे का कुंडा कौन लगाएगा
तुम्हारे दरो दीवार को कौन सजाएगा
तुम्हारे शिथिल मन को कौन
रंगारंग कर जाएगा
तुम्हारे माथे की खिसकी बिंदी को
कौन बीचों बीच लगाएगा
तुम्हारे सलमा सितारे कौन खिलाएगा
तुम्हारे पीताम्बर में जरी गोटे कौन लगाएगा
तुम्हारे नाम का जैकारा कौन लगाएगा ।

यकीन करो माँ भारती
तुम बहुत सुशोभित होती हो मुझे निहारती
बहुत प्रिय लगती हो मुझे पुकारती
मुझे पुचकारती दुलारती
बहुत भली लगती हो
यकीन करो ।

बोधिसत्व, मुंबई

Sunday, August 20, 2017

तमाशा।

तमाशा हो रहा है
और हम ताली बजा रहे हैं

मदारी
पैसे से पैसा बना रहा है
हम ताली बजा रहे हैं

मदारी साँप को
दूध पिला रहा हैं
हम ताली बजा रहे हैं

मदारी हमारा लिंग बदल रहा है
हम ताली बजा रहे हैं

अपने जमूरे का गला काट कर
मदारी कह रहा है-
'ताली बजाओ जोर से'
और हम ताली बजा रहे हैं।

बोधिसत्व, मुंबई

जीवन कभी नहीं रुकता है ।

भले रोक दे राज्य तुम्हारा रथ फिर भी,
भले रोक दे भाग्य तुम्हारा पथ फिर भी,
जीवन  कभी नहीं  रुकता है, चाहे वक्त ठहर जाए।

जीवन तो  पानी  जैसा  है, राह  मिली  बह जाएगा,
चाहे जितना कठिन सफ़र हो, राह  बनाता जाएगा,
कोई सुकरात नहीं मरता है, चाहे  ज़हर उतर जाए।

काट  फेंक  दे  मिट्टी में, जीवन फिर से उग आएगा,
चाहे जितनी मिले पराजय, फिर भी स्वप्न सजायेगा,
बढ़ा  क़दम  बढ़ता  जाएगा, चाहे  जो  मंज़र आए।

सब कुछ हो प्रतिकूल किन्तु वक्त  गुजर ही जाता है,
रात  अंधेरी  होती  जितनी,  सुखद  सवेरा  आता है,
जा  पहुँचेगा  तैराक  किनारे, चाहे बड़ी लहर आए।

जलती बाती बिना तेल की, धुआँ धुआँ सा उठता है,
चुपके से आकर अँधियारा, स्वत्व  दीप का लुटता है,
अपने हाँथो कवच बना लो, लौ की तेज उभर आए।

कहीं  चुरा  ले  नियति  न  सपने, तुमने सदा सँजोए,
कहीं  बुझा  दे  प्रीति  न  कोई,  तुमने  सदा  अँजोए,
इसके पहले नाव खोल दो, कहीं न  रात उतर आए।

                            (.......रविनंदन सिंह)

Monday, June 5, 2017

इलाहाबाद संग्रहालय की वर्तमान दशा पर माननीय मुख्यमंत्री जी से निवेदन ।

हम बस आपसे निवेदन करते हैं,
कि प्रत्येक शहर में एक लाइब्रेरी होती है
और हमारे शहर इलाहाबाद में भी एक लाइब्रेरी है
जो अब कबूतरों और धूल का अड्डा बन चुकी है
कभी गुलजार रहने वाले उनके बगीचे 

अब घास और झाड़ियों से अटे पड़े हैं
और साइकिल स्टैण्ड जुआरियों 

और नशेडियों की पनाहगाह।

ऐसा लगता है मानो पिछले कई दशकों से 

किसी भी सरकार ने उनकी सुध लेने की नहीं सोची
कही पर मालवीय जी के नाम पर बना 

पुस्तकालय जर्जर खड़ा है
तो कहीं पर टैगोर, गाँधी और विवेकानन्द जी के 

नाम पर बना पुस्तकालय
तालों के पीछे अपने समृद्ध इतिहास को 

ओढ़े उदास सा खड़ा है
हर शहर में ऐसी लाइब्रेरी होती थी 

जो अब वीरान पड़ी है
या फिर विकास के रास्ते से भटक चुकी है
अब वक्त आ गया है कि
मुख्यमंत्री जी आप स्वयं 

उन स्थानों का गौरव फिर से लौटाने का प्रयत्न करें
ताकि नई पीढ़ी को भी शहर के कौतुहल में 

दिमागी कसरत के लिए माहौल मिल सके ।

(क्योंकि पढ़ेगा इण्डिया तभी तो बढ़ेगा इण्डिया)

Tuesday, January 10, 2017

मेरा रायपुर शहर अब बदल चला है !

कुछ अजीब सा माहौल हो चला है,
मेरा रायपुर अब बदल चला है….

ढूंढता हूँ उन परिंदों को,
जो बैठते थे कभी घरों के छज्ज़ो पर
शोर शराबे से आशियाना
अब उनका उजड़ चला है,
मेरा रायपुर अब बदल चला है…..

होती थी ईदगाह भाटा से
कभी तांगे की सवारी,
मंज़िल तो वही है
मुसाफिर अब आई सिटी बस में
चढ़ चला है
मेरा रायपुर अब बदल चला है…

भुट्टे, चूरन, ककड़ी, इमली
खाते थे कभी हम
स्कूल कॉलेजो के प्रांगण में,
अब तो बस मैकडोनाल्ड,
पिज़्जाहट और
कैफ़े कॉफ़ी डे का दौर चला है
मेरा रायपुर अब बदल चला है….

वो राज, आनंद, बाबूलाल के दीवाने थे आप हम,
अब आइनॉक्स, बिग सिनेमा,
और पीवीआर का शोर चला है
मेरा रायपुर अब बदल चला हैै….

रायपुर के धडी चौक
, केटी चौराहे पर रुक कर बतियाते
थे दोस्त घंटों तक
अब तो बस शादी, पार्टी या
उठावने पर मिलने का ही दौर चला है
मेरा रायपुर अब बदल चला है….

वो टेलीफोन के पीसीओ से फोन
उठाकर खैर-ख़बर पूछते थे,
अब तो स्मार्टफोन से फेसबुक, व्हाटसऐप और ट्वीटर का रोग चला है
मेरा रायपुर अब बदल चला है…..

मोती बाग; गाँधी उधान और
अनुपम गाडेनृ में फलली, भेल, मुंगोडी का ज़ायका रंग जमाता था
अब तो सेन्डविच, पिज़्ज़ा, बर्गर और पॉपकॉर्न की और चला है
मेरा रायपुर अब बदल चला है….

वो साइकिल पर बैठकर
दूर टाटीबंद की डबल सवारी,
कभी होती उसकी,
कभी हमारी बारी,
अब तो बस फर्राटेदार
बाइक का फैशन चला है
मेरा रायपुर अब बदल चला है….

जाते थे कभी ट्यूशन
पढ़ने साहू सर के वहाँ,
बैठ जाते थे फटी दरी पर भी
पाँव पसार कर ,
अब तो बस ए.सी.कोचिंग क्लासेस
का धंधा चल पड़ा है,
मेरा रायपुर अब बदल चला है…..

खो-खो, लोहा-लंगड,
क्रिकेट, गुल्लिडंडा, पिटटूल
खेलते थे गलियों और
मोहल्लों में कभी,
अब तो न वो पुरानी बस्ती की गलियाँ रही
न बूढातालाब न वो सपऱे का खेल का मैदान,
सिर्फ और सिर्फ कम्प्यूटर गेम्स
का दौर चला है,
मेरा रायपुर अब बदल चला हैं…..

रंग मंदिर में अल-सुबह तक चलते क्लासिकल गाने-बजाने के सिलसिले
अब तो क्लब; पब, और डीजे का
वायरल चल पड़ा है,
मेरा रायपुर अब बदल चला है….

दानी, सालेम, डागा, डिगीृ कॉलेज की लड़कियों से
बात करना तो दूर
नज़रें मिलाना भी मुश्किल था
अब तो बेझिझक हाय ड्यूड,
हाय बेब्स का रिवाज़ चल पड़ा है
मेरा रायपुर अब बदल चला है….

घर में तीन भाइयों में
होती थी एकाध साइकिल
बाबूजी के पास स्कूटर,
अब तो हर घर में कारों
और बाइक्स का काफ़िला चल पड़ा है
मेरा रायपुर अब बदल चला है….

खाते थे राठौर चौक के समोसे,
सदर की कचोरी, साहू की जलेबी, शारदा चौक का फालूदा, गरमा-गरम बालूशाही रामजी में,
अब वहाँ भी चाउमिन, नुडल्स,
मन्चूरियन का स्वाद चला हैं
मेरा रायपुर अब बदल चला है….

कोई बात नहीं;
सब बदले लेकिन मेरे रायपुर के
खुश्बू में रिश्तों की गर्मजोशी
बरकरार रहे
आओ सहेज लें यादों को
वक़्त रेत की तरह सरक रहा है…
मेरा रायपुर अब बदल चला हैैं…


- श्रीराम द्विवेदी
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