Thursday, September 29, 2011

जीवन की पहचान !

जीवन क्या है ------
रैन बसेरा .........
फिर वो बदला ....फिर वो बदला ...
साध लिया अब मन को मैंने
जीवन ज्योत बनी पहचान!!!!!!!!
गाती जाऊं फिर मैं गुनगुन -
लौट आई है वो मुस्कान---
जीवन ज्योत बनी पहचान'..
एक घनेरी छाया ढूँढू -
बैठ करूँ मैं कुछ विश्राम --
मंदिर की घंटी सुन जागी -
श्रवण श्रुति सुन नींद यूँ भागी ....
आ गए फिर मन में प्राण ...!!!!
लौट आई फिर वो मुस्कान ......
साध लिया अब मन को मैंने -
जीवन ज्योत बनी पहचान'' -!

- प्रकृति राय

Sunday, September 25, 2011

शेषधर तिवारी जी की कुछ कवितायेँ !!

मिला करता है अपने आप से भी बेरुखी से


मिला करता है अपने आप से भी बेरुखी से
बहुत मायूस हो बैठा है शायद ज़िंदगी से

अँधेरा ओढकर सूरज को झुठलाता मैं कब तक
निकल आया हूँ अब मैं जामे जम की तीरगी से

ख़याल अच्छा रहा होगा कभी, बहलाने को दिल
नहीं रिश्ता कोई सहरा का अब भी तिश्नगी से

खुदा आये न कोई ऐब मेरी शख्सियत में
मुतासिर सोच हो जाती है अंपनी ही कमी से

अदब में क्यूँ सियासत हो कि हो फिरकापरस्ती
कलम के जो सिपाही हैं लड़ा करते इन्ही से

हमारी खामुशी की चीख सुन लेता है मौला
मिला करता सदाए हक़, सदाक़त की हिसी से

समंदर पर भरोसा क्यूँ नहीं होता क़मर को
किये ही जा रहा तौज़ीन जाने किस सदी से


चलो हम आज इक दूजे में कुछ ऐसे सिमट जाएँ


चलो हम आज इक दूजे में कुछ ऐसे सिमट जाएँ
हम अपनी रंजिशों, शिकवाए ख्वारी से भी नट जाएँ

मेरी ख्वाहिश नहीं है वो अना की जंग में हारें
मगर दिल चाहता है आके वो मुझसे लिपट जाएँ

हमारी ज़िंदगी में तो मुसलसल जंग है जारी
है बेहतर भूल हमको आप खुद ही पीछे हट जाएँ

अलग हों रास्ते तो क्या है मंजिल एक ही सबकी
नहीं होता ये मुमकिन हम उसूलों से उलट जाएँ

चलें हम प्रेम और सौहार्द के रस्ते पे गर मिल के
तो झगडे बीच के खुद ही सलीके से निपट जाएँ

हमें तो चाह कर भी आप पर गुस्सा नहीं आता
कहीं गुस्से में जो खुद आप वादे से पलट जाएँ

भरोसा है हमें इक दूसरे पर ये तो अच्छा है
गुमां इतना न हो इसका कि हम दुनिया से कट जाएँ


मैं ही भगिनी मैं ही भार्या मैं जननी बन आई हूँ


मैं ही भगिनी मैं ही भार्या मैं जननी बन आई हूँ
जो चाहे कह लो मैं अपने साजन की परछाई हूँ

जोहूँ उनकी बाट बिछाऊँ पलकें उनकी राहों में
मेरा सारा दर्द मिटे जब सिमटूं उनकी बाहों में

कौन राम है कौन कृष्ण है मैं तो इनको न जानूँ
मेरे तो आराध्य देव मेरे प्रियतम हैं ये मानूँ

क्या बतलाऊँ कैसे साजन बिन हैं मेरे दिन कटते
मेरी तड़प सही न जाती देख मुझे बादल फटते

मेरी जुल्फें देख घनेरे बादल कारे हो जाते
मैं जिसकी भी ओर निहारूँ वारे न्यारे हो जाते

मेरा तेजस मुखमंडल सूरज को भी शर्माता है
दावा सूरज का झूठा वो चंदा को चमकाता है

चंदा होता दीप्तिमान बस देख हमारा ही मुखड़ा
दिन मेरा अहसानमंद अँधियारा रोता है दुखड़ा

कांति-श्रोत हैं मेरे प्रियतम मैं तो बस परछाई हूँ
तन-गागर में प्रियतम-प्रेम-सुधा भरकर बौराई हूँ

मेरे मन की अमराई में प्रेम-सिक्त हैं बौर खिले
साजन से बस मेरे साजन मुझे न कोई और मिले


आजमाइश की हदों को आजमाना चाहिए


मुश्किलों से लड़ इन्हें आसां बनाना चाहिए
तैर कर दरयाब के उस पार जाना चाहिए

जिस्म पर तम्गों कि सूरत जो हैं जख्मों के निशां
दिल में इनको अब करीने से सजाना चाहिए

ज़िंदगी जब जख्म पर दे जख्म तो हंस कर हमें
आजमाइश की हदों को आजमाना चाहिए

आईना कहता है क्या हो फिक्र इसकी क्यूँ हमें
अब ज़मीर-ओ-दिल को आईना बनाना चाहिए

देख ली दुनिया बहुत अब देखे ले दुनिया हमें
मौत को भी ज़िंदगी के गुर सिखाना चाहिए

क्या हुआ जो हमसफ़र कोई नहीं है साथ में
अब तो तनहा कारवाँ बनकर दिखाना चाहिए

ज़िंदगी खुद्दारियों के साथ जीने के लिए
जह्र पीकर शिव सा हमको मुस्कराना चाहिए

जिसके हर इक शेर ने तुम को नुमाया कर दिया
उस ग़ज़ल को ज़िंदगी भर गुनगुनाना चाहिए


उस ग़ज़ल को ज़िंदगी भर गुनगुनाना चाहता हूँ


मुश्किलों से लड़ इन्हें आसां बनाना चाहता हूँ
तैर कर दरयाब के उस पार जाना चाहता हूँ

जिस्म पर जो हैं निशां जख्मों के, हैं तम्गों सरीखे
मैं करीने से इन्हें दिल में सजाना चाहता हूँ

ज़िंदगी देती रहे यूँ जख्म मुझको बारहा, मैं
आजमाइश की हदों को आजमाना चाहता हूँ

क्यूँ करूँ मैं फिक्र कोई आईना क्या बोलता है
फैसला अपना मैं दुनियाँ को सुनाना चाहता हूँ

देख ली दुनिया बहुत अब देख ले दुनिया मुझे भी
मौत को भी ज़िंदगी के गुर सिखाना चाहता हूँ

क्या हुआ गर साथ मेरे हमसफ़र कोई नहीं है
मैं अकेले कारवाँ बनकर दिखाना चाहता हूँ

मैं जिऊंगा ज़िंदगी खुद्दार रहकर ज़िंदगी भर
जहर पीकर भी मैं शिव सा मुस्कराना चाहता हूँ

दी मुझे पहचान इक जिसके हसीं अशआर ने, मैं
उस ग़ज़ल को ज़िंदगी भर गुनगुनाना चाहता हूँ


"घूरे के भी दिन फिरते हैं"


हमारा ही लहू पीकर जो लालम लाल हैं देखो
वही सड़कों को कहते ओम् जी के गाल हैं देखो

जब इनके सामने हमने रखा इक आईना, भडके
विशेष अधिकार का लेकर खड़े अब ढाल हैं देखो

किरन जब भी निकलती है अँधेरा दूर होता है
ये नादां रोशनी पर फेंकते अब जाल हैं देखो

समझते थे जिसे थोथा चना वो बन गया "अन्ना"
ये पागल नोचते अब हर किसी के बाल हैं देखो

कहावत है कि "घूरे के भी दिन फिरते हैं" नेताजी
जहीं जो हैं बदल लेते खुद अपनी चाल हैं देखो

जुगनुओं की रोशनी से तीरगी घटती नहीं


जुगनुओं की रोशनी से तीरगी घटती नहीं
चाँद हो पूनम का चाहे पौ मगर फटती नहीं

ज़िंदगी में गम नहीं तो ज़िंदगी का क्या मजा
सिर्फ खुशियों के सहारे ज़िंदगी कटती नहीं

जैसी मुश्किल पेश आये कोशिशें वैसी करो
आसमां पर फूंकने से बदलियाँ छंटती नहीं

गर मिजाज़ अपना रखें नम दूसरों के वास्ते
शख्सियत अपनी किसी भी आँख से हटती नहीं

झूठ के बल पर कोई चेहरा बगावत क्या करे
आईने की सादगी से झूठ की पटती नहीं


- शेषधर तिवारी

अर्द्धनारीश्वर !

भारत में अर्द्धनारीश्वर की परिकल्पना हिन्दू मिथकों और विशेषकर शिव के अर्द्धनारी और अर्द्ध पुरुष रुप से जुड़े मिथक से पनपी है। यह सिर्फ मानव का लिंग निर्धारण करने वाले अंगों और उनमें किसी किस्म के अभाव आदि से जुड़ी छवि नहीं है बल्कि अर्द्धनारीश्वर रुप में शिव का पूरा शरीर ही स्त्री और पुरुष दो भागों का मिश्रण है।

तो ऐसे में किसी किन्नर को या किसी भी स्त्री या पुरुष को अर्द्धनारीश्वर कहा जाना संदेह उत्पन्न करता है। व्याकरण की दृष्टि से तो पता नहीं परंतु माइथोलॉजी की दृष्टि से तो ऐसा कहना गलत ही लगता है। यह तो ऐसा ही है जैसे किसी भी ब्राह्मण शूरवीर को परशुराम कहने लगो, और क्षत्रिय को रामराम और परशुराम नाम रखना और बात है या उन जैसा बताना और बात है परन्तु कोई कितना भी शूरवीर क्यों न हो, लोग उन्हे हिन्दू
माइथोलॉजी वाले राम और परशुराम तो नहीं कहने लगेंगे।

अर्द्धनारीश्वर, आधुनिक काल में ज्यादा उपयोग में आने वाले शब्द हरिजन जैसा शब्दमात्र नहीं है। अर्द्धनारीश्वरअर्द्धनारीश्वर के साथ ऐसा नहीं है। अर्द्धनारीश्वर एक अतिविशिष्ट शब्द है और इसके पीछे एक विशिष्ट कथा है, इसके साथ एक विशिष्ट मिथक का जुड़ाव रहा है। यह तो महेश, शंकर और रुद्र की भाँति शिव का ही एक रुप है। कोई खास वर्ग नहीं है। स्त्री, पुरुष और किन्नर तीन अलग अलग वर्ग हैं मनुष्य जाति के, पर

आम आदमी किन्नरों को भले ही एक ही परिभाषा से समझता हो या उनकी प्रकृति से अंजान रहता हो पर व्यवहार में यही देखने में आता है कि किन्नर भी अपने आप को स्त्री किन्नर या पुरुष किन्नर रुप में प्रस्तुत करते हैं हाँलाकि नाचने और गाने वाला काम करते हुये वे अधिकतर स्त्री वेश में ही ज्यादा देखे जाते हैं।

सिर्फ व्यवहार में ही ऐसा नहीं होता कि कोई स्त्री एक पुरुष जैसा व्यवहार करे उस जैसी आदतें और प्रवृति और प्रकृति रखे और कोई पुरुष एक स्त्री जैसा रहे बल्कि अस्तित्व की गहराई में तो हरेक स्त्री के अंदर एक पुरुष भी है और हरेक पुरुष के अंदर एक स्त्री। पुरुषों में ऊपरी सतह पर पुरुष गुण अधिकता में होते हैं और स्त्री में स्त्रियोचित गुणों की अधिकता होती है। पर बने तो दोनों स्त्री पुरुष के संगम से ही हैं।

मूल विषय पर वापिस आयें तो प्रश्न उठता है कि अर्द्धनारीश्वर तो छोड़िये क्या किन्नर को अर्द्धनारी भी कहा जा सकता है?

यदि हाँ तब तो अर्द्धपुरुष भी किन्नरों में ही होने चाहियें?

कोई जानकार इस बारे में कुछ कह पायेगा क्या? हो सकता है लोग अर्द्धनारीश्वर शब्द का प्रयोग किन्नर समुदाय के लोगों के लिये करते रहे हों पर क्या यह उचित है?

ऐसा देखा गया है कि प्राय: हिजड़ा शब्द तब प्रयोग में लाया जाता है जब सामान्य नर नारी किन्नरों को अपने से थोड़ा नीचे का दर्जा देकर देखते हैं और कई लोग तो इस वर्ग को अपमानित करने की मंशा से हिजड़ा शब्द का प्रयोग करते हैं। पुरुषों को अपमानित करने की मंशा से भी उन्हे हिजड़ा शब्द से सम्बोधित किया जाता है और ऐसा वातावरण तैयार करने में साहित्य और खास कर फिल्मों ने भी अपना भरपूर योगदान दिया है, मानो पुरुष का पौरुष सिर्फ उसकी सैक्सुअल संभावना और क्षमता से मापा जा सकता है!

किन्नर भारतीय संस्कृति में प्राचीन काल से चला रहा एक वृहद रुप से स्वीकृत नाम है और क्यों न इसी एक नाम का उपयोग किया जाये इस वर्ग को सम्बोधित करने के लिये!

शास्त्रों के मुताबिक शिव-शक्ति एक-दूसरे के बिना अधूरे हैं। शिव शक्ति के बल पर तो शक्ति शिव के सहारे जगत का तमाम सुखों से कल्याण करते हैं। जगत की सृजन, पालन व संहार में स्त्री-पुरुष के योगदान व महत्व को उजागर करने वाला शिव-शक्ति चरित्र से जुड़ा अर्द्धनारीश्वर रूप जगत प्रसिद्ध व पूजनीय है।
शिव का स्वरूप~~~
शिव की महिमा अनंत है। उनके रूप, रंग और गुण अनन्य हैं। समस्त सृष्टि शिवमयहै। सृष्टि से पूर्व शिव हैं और सृष्टि के विनाश के बाद केवल शिव ही शेष रहते हैं। ऐसा माना जाता है कि ब्रह्मा ने सृष्टि की रचना की, परंतु जब सृष्टि का विस्तार संभव न हुआ तब ब्रह्मा ने शिव का ध्यान किया और घोर तपस्या की। शिव अ‌र्द्धनारीश्वर रूप में प्रकट हुए। उन्होंने अपने शरीर के अ‌र्द्धभागसे शिवा (शक्ति या देवी) को अलग कर दिया। शिवा को प्रकृति, गुणमयीमाया तथा निर्विकार बुद्धि के नाम से भी जाना जाता है। इसे अंबिका, सर्वलोकेश्वरी,त्रिदेव जननी, नित्य तथा मूल प्रकृति भी कहते हैं। इनकी आठ भुजाएं तथा विचित्र मुख हैं। अचिंत्य तेजोयुक्तयह माया संयोग से अनेक रूपों वाली हो जाती है। इस प्रकार सृष्टि की रचना के लिए शिव दो भागों में विभक्त हो गए, क्योंकि दो के बिना सृष्टि की रचना असंभव है। शिव सिर पर गंगा और ललाट पर चंद्रमा धारण किए हैं। उनके पांच मुख पूर्वा, पश्चिमा, उत्तरा,दक्षिणा तथा ऊध्र्वाजो क्रमश:हरित,रक्त,धूम्र,नील और पीत वर्ण के माने जाते हैं। उनकी दस भुजाएं हैं और दसों हाथों में अभय, शूल, बज्र,टंक, पाश, अंकुश, खड्ग, घंटा, नाद और अग्नि आयुध हैं। उनके तीन नेत्र हैं। वह त्रिशूल धारी, प्रसन्नचित,कर्पूर गौर भस्मासिक्तकालस्वरूपभगवान हैं। उनकी भुजाओं में तमोगुण नाशक सर्प लिपटे हैं। शिव पांच तरह के कार्य करते हैं जो ज्ञानमय हैं। सृष्टि की रचना करना, सृष्टि का भरण-पोषण करना, सृष्टि का विनाश करना, सृष्टि में परिवर्तनशीलतारखना और सृष्टि से मुक्ति प्रदान करना। कहा जाता है कि सृष्टि संचालन के लिए शिव आठ रूप धारण किए हुए हैं। चराचर विश्व को पृथ्वी रूप धारण करते हुए वह शर्वअथवा सर्व हैं। सृष्टि को संजीवन रूप प्रदान करने वाले जलमयरूप में वह भव हैं। सृष्टि के भीतर और बाहर रहकर सृष्टि स्पंदित करने वाला उनका रूप उग्र है। सबको अवकाश देने वाला, नृपोंके समूह का भेदक सर्वव्यापी उनका आकाशात्मकरूप भीम कहलाता है। संपूर्ण आत्माओं का अधिष्ठाता, संपूर्ण क्षेत्रवासी, पशुओं के पाश को काटने वाला शिव का एक रूप पशुपति है। सूर्य रूप से आकाश में व्याप्त समग्र सृष्टि में प्रकाश करने वाले शिव स्वरूप को ईशान कहते हैं। रात्रि में चंद्रमा स्वरूप में अपनी किरणों से सृष्टि पर अमृत वर्षा करता हुआ सृष्टि को प्रकाश और तृप्ति प्रदान करने वाला उनका रूप महादेव है। शिव का जीवात्मा रूप रुद्र कहलाता है। सृष्टि के आरंभ और विनाश के समय रुद्र ही शेष रहते हैं। सृष्टि और प्रलय, प्रलय और सृष्टि के मध्य नृत्य करते हैं। जब सूर्य डूब जाता है, प्रकाश समाप्त हो जाता है, छाया मिट जाती है और जल नीरव हो जाता है उस समय यह नृत्य आरंभ होता है। तब अंधकार समाप्त हो जाता है और ऐसा माना जाता है कि उस नृत्य से जो आनंद उत्पन्न होता है वही ईश्वरीय आनंद है। शिव,महेश्वर, रुद्र, पितामह, विष्णु, संसार वैद्य, सर्वज्ञ और परमात्मा उनके मुख्य आठ नाम हैं। तेईस तत्वों से बाहर प्रकृति,प्रकृति से बाहर पुरुष और पुरुष से बाहर होने से वह महेश्वर हैं। प्रकृति और पुरुष शिव के वशीभूत हैं। दु:ख तथा दु:ख के कारणों को दूर करने के कारण वह रुद्र कहलाते हैं। जगत के मूर्तिमान पितर होने के कारण वह पितामह, सर्वव्यापी होने के कारण विष्णु, मानव के भव रोग दूर करने के कारण संसार वैद्य और संसार के समस्त कार्य जानने के कारण सर्वज्ञ हैं। अपने से अलग किसी अन्य आत्मा के अभाव के कारण वह परमात्मा हैं। कहा जाता है कि सृष्टि के आदि में महाशिवरात्रि को मध्य रात्रि में शिव का ब्रह्म से रुद्र रूप में अवतरण हुआ, इसी दिन प्रलय के समय प्रदोष स्थिति में शिव ने ताण्डव नृत्य करते हुए संपूर्ण ब्रह्माण्ड अपने तीसरे नेत्र की ज्वाला से नष्ट कर दिया। इसीलिए महाशिवरात्रि अथवा काल रात्रि पर्व के रूप में मनाने की प्रथा का प्रचलन है।




Thursday, September 22, 2011

कवि नीलाभ की कुछ कवितायेँ !!



नीलाभ



नीलाभ का जन्म १६ अगस्त १९४५ को मुम्बई में हुआ. इलाहाबाद विश्वविद्यालय से एम ए. पढाई के दौरान ही लेखन की शुरूआत. आजीविका के लिए आरंभ में प्रकाशन. फिर ४ वर्ष तक बी बी सी की विदेश प्रसारण सेवा में प्रोड्यूसर. १९८४ में भारत वापसी के बाद लेखन पर निर्भर.
'संस्मरणारंभ', 'अपने आप से लम्बी बातचीत', 'जंगल खामोश हैं', 'उत्तराधिकार', 'चीजें उपस्थित हैं'. 'शब्दों से नाता अटूट हैं', 'शोक का सुख' , 'खतरा अगले मोड़ की उस तरफ हैं','ईश्वर को मोक्ष' नीलाभ के अब तक प्रकाशित कविता संग्रह हैं.

शेक्सपियर, ब्रेख्त तथा लोर्का के नाटकों के रूपांतर - 'पगला राजा', 'हिम्मत माई', 'आतंक के साये', 'नियम का रंदा', 'अपवाद का फंदा', और 'यर्मा' बहुत बार मंच पर प्रस्तुत हुए हैं. इसके अलावा मृच्छकटिक का रूपांतर 'तख्ता पलट दो' के नाम से. रंगमंच के अलावा टेलीविजन, रेडियो, पत्रकारिता, फिल्म, ध्वनि प्रकाश कार्यक्रमों तथा नृत्य नाटिकाओं के लिए पटकथाएं तथा आलेख.


जीवनानन्द दास, सुकांत भट्टाचार्य, एजरा पाउंड,ब्रेख्त, ताद्युस रोदेविच, नाजिम हिकमत, अर्नेस्तो काडिनल, निकानोर पार्रा, और नेरुदा की कविताओं के अलावा अरुंधती राय के उपन्यास 'डी गाड ऑफ़ स्माल थिन्ग्स' का अनुवाद 'मामूली चीजों का देवता', नेरुदा की लम्बी कविता 'माच्चू पिच्चू के शिखर' का अनुवाद बहुचर्चित। मंटो की कहानियो के प्रतिनिधि चयन 'मंटो की ३० कहानियाँ' का संपादन, २ खंडो में गद्य 'प्रतिमानों की पुरोहिती' और 'पूरा घर है कविता', हिंदी के साहित्यिक विवादों, साहित्यिक केंद्रो, और मौखिक इतिहास पर शोधपरक परियोजना स्मृति संवाद (४ खण्डों में) फिल्म, चित्र कला, जैज, तथा भारतीय कला में ख़ास दिलचस्पी ।
संपर्क - २१९/९, ब्लोक- ए २, भगत कालोनी, वेस्ट संत नगर, बुराड़ी, दिल्ली, ११००८४ । मोबाइल- ०९९१०१७२९०३, फोन: आवास- ०११- २७६१७६२५



गुज़ारिश

मैं अँधेरे का दस्तावेज़ हूँ

राख को चिडि़या में बदलने की तासीर हूँ
मीर हूँ अपने उजड़े हुए दयार का
परचम हूँ प्यार का

मैं आकाश के पंख हूँ

समन्दर में पलती हुई आग हूँ
राग हूँ जलते हुए देश का
धरती की कोख तक उतरी जड़ें हूँ
अन्तरतारकीय प्रकाश हूँ

मैं लड़ाई का अलम हूँ

सम हूँ मैं ज़ुल्म को रोकने वाला
हर लड़ने वाले का हमदम हूँ
बड़े-बड़ों से बहुत बड़ा
छोटे-से-छोटे से बहुत कम हूँ


हिजरत - 1


हिजरत में है सारी कायनात

एक मुसलसल प्रवास, एक अनवरत जलावतनी

पेड़ जगह बदल रहे हैं, हवाएँ अपनी दिशाएँ,

वर्षा ने रद्द कर दिया है आगमन और प्रस्थान का
टाइमटेबल, वनस्पतियों ने
चुका दिया है आख़िरी भाड़ा पर्वतों को
और बाँध लिये हैं होल्डॉल,
पर्वत भी अब गाहे-बगाहे अलसायी आँखें खोल
अन्दाज़ने लगे हैं समन्दर का फ़ासला
समन्दर सुनामी में बदल रहा है
बदल रहे हैं द्वीप अद्वीपों में

एक हरारत-ज़दा हरकत-ज़दा हैरत-ज़दा कायनात है यह


सबको मिल ही जायेंगे नये ठिकाने मनुष्यों की तरह

और अगर कुछ बीच राह सिधार भी गये तो भी
वे अनुसरण कर रहे होंगे मनुष्यों का ही
जिनके किये से वे हुए थे बेघर


हिजरत - 2


सब लौट कर जाने को तैयार बैठे हैं


पहाड़ से आये कवि, पूरब से आये पत्रकार,

बिहार से आये अध्यापक, केरल से आयी नर्सें,
तमिलनाडु के अफ़सर, तेलंगाना के बाबू,
कर्नाटक के संगीतकार, अवध के संगतकार
यहाँ तक कि छत्तीसगढ़ से आयी रामकली भी
पिछले बीस बरस नेहरू प्लेस की झुग्गी में
गुज़ारने के बाद बिलासपुर जाने को तैयार है

बाबर को समरकन्द याद आता है,

महमूद को ग़ज़नी, अफ़नासी निकेतिन को ताशकन्द
हरेक को याद हैं अपनी जड़ें या जड़ों के रेशे
या रेशों की स्मृतियाँ या स्मृतियों का लोक
हरेक के दिल में है हिजरत का शोक
लेकिन मैं अब भी सफ़र में हूँ

बम्बई से इलाहाबाद, इलाहाबाद से लन्दन,

लन्दन से दिल्ली
शहरों के नाम कौंधते हैं रेलगाड़ी से देखे
स्टेशनों की तरह

बस दो नाम ग़ायब हैं इनमें

जहाँ मुझे होना था, जहाँ मैं हो सकता था

लाहौर जहाँ जली हुई शक्ल में

अब भी मौजूद है मेरा ननिहाल
और जालन्धर जहाँ पुरखों के घर में आ
बसे हैं ज़मीनों के सौदागर


सीकरी


हमेशा सुनाई देती थी

पैसे की आवाज़

बजता रहता था

लगातार
व्यवसाय का हॉर्न,
या बाज़ार का शोर,
या सिक्कों का संगीत

टूटती थी पनहिया

हमेशा
सीकरी आते-जाते
बिसर जाता था
नाम ही नहीं घर का पता भी

मोतियों से भरे मुँह लिये

लौटते थे कवि अपने देस
फिर गा नहीं पाते थे
अपने गान


सपनों के बारे में कुछ सूक्तियाँ

1.


कुछ सपने कभी पूरे नहीं होते

आते हैं वे हमारी नींद में
पूरे न होने की अपनी नियति से बँधे

इस सच्चाई को हम जीवन भर नहीं जान पाते

नहीं जान पाते अपनी असमर्थता,
अपनी विवशताएँ, अपना निष्फल दुस्साहस

सपने जानते हैं इसे

आते हैं इसीलिए वे
ठीक हमारे जग पड़ने से पहले
2.


कुछ सपने दूसरों के होते हैं

जिन्हें पूरा करने के फेर में
हम देख नहीं पाते अपने सपने
3.


सपने अक्सर जन्म देते हैं

दूसरे सपनों को
इसी तरह वे रखते हैं
अपनी गिरफ़्त में आदमी को
4.


कुछ सपने मालिक होते हैं

कुछ होते हैं, ग़ुलाम

एक सपना पूरा करता है

दूसरे सपने की ख़्वाहिशें
दूसरा सपना तीसरे की

इसी तरह क़ायम होता है

सपनों का साम्राज्य
5.


कुछ सपने पीछा करते हैं हमारा

शिकारियों की तरह
बना लेते हैं हमें पालतू
अगर पकड़ पाते हैं हमें
6.


कुछ सपने याद नहीं आते

देखे जाने के बाद
वही होते हैं सबसे ज़रूरी
7.


सपने बेहद अराजक और निरंकुश होते हैं

तरह-तरह के छुपे हुए दरवाज़ों, ढँके गलियारों,
गुप्त द्वारों, भेद-भरी गलियों, रहस्यमय खाइयों,
तिलिस्मी फन्दों, गोरखधन्धों और पेचीदा प्रकोष्ठों से भरे
वे नहीं पूरा करने देते आपको अपनी दबायी गयी इच्छाएँ
ला खड़े करते हैं अबूझ अवरोध,
बदल देते हैं पटकथा की दिशा
अधबीच पहुँच कर कई बार भरते हुए आकुलता प्राणों में
नींद की निरापदता में आतंक की सृष्टि करते हुए
8.


सपनों को समझने का दावा करने वाले

छले जाते हैं
सबसे पहले
सपनों से
कोशिश बेकार है सपनों से
भविष्य बाँचने की
इन्सान का नसीबा तय हो चुका है
सपनों से बाहर
9.


अचानक झटके से टूटती है नींद

जैसे टूटता है काँच का गिलास
फ़र्श पर गिर कर
उठ कर बैठते-बैठते भी
गूँज बाक़ी होती है चीख़ की कानों में

किस का चीत्कार है यह

किस आकुल अन्तर का, मारे जा रहे
निरपराध का, चला आया है जो
इस तरह स्वप्न के बाहर
एक और भी अजीबो-ग़रीब जगत में
जहाँ गूँजता है अहर्निश
उससे भी तीखा हाहाकार

फ़र्क करना मुश्किल है अब

स्वप्न और वास्तविकता में
काया और माया में
आलोक और अन्धकार में
हुलास और हुंकार में


ब्लॉग पहली बार से साभार .....

Tuesday, September 20, 2011

हम मशीने नहीं हैं !

हम मशीने नहीं हैं
हम मशीने नहीं हैं ,
पशु पक्षी भी नहीं हैं हम ,
पेड़ , पौधे , वनस्पति भी नहीं हैं -
जो एक जगह उग कर वहीँ सुख जाते हैं .
हम मनुष्य हैं,
चलते रहना हमारा धर्म है,
हम रुकते नहीं हैं-
एक जगह पर,
हम होते हैं निराश कभी कभी -
पर खोते नहीं हैं विश्वास कभी भी ,
हम खो जाते हैं भीड़ में अक्सर -
किन्तु बिछड़ते नहीं एक दुसरे से कभी -
हो जाते हैं आँखों से ओझल ,
चले जाते हैं बहुत दूर कहीं ,
लगने लगता है -
नहीं मिलेंगे अब कभी भी कहीं भी,
किन्तु -
टकरा ही जाते हैं कहीं न कहीं -
किसी न किसी नए मोड़ पर ,
किसी न किसी नए रूप में,
फिर कभी -
प्रस्स्नता होती है इस मिलन से -
मन में उभरने लगती हैं सारी यादें -
चल चित्र की तरह ,
किन्तु हम -
एक दुसरे को देख कर -
निकल जाते हैं चुप चाप ,
अपनी अपनी राह पर ,
बिना कुछ बोले -
बिना कुछ सुने -
क्योंकि अब -
हम हम नहीं रह जाते ,
बदल जाते हैं हमारे रिश्ते -
बदल जाता है हमारा धर्म -
बदल जाती है हमारी सोच -
बदल जाते हैं हमारे विचार -
बदल जाती है हमारी मंजिल

- "चरण"

Sunday, September 18, 2011

मैं भ्रम बेचता हूँ।

जी हां मैं भ्रम बेचता हूं।
इस गणतन्त्र की हाट में
मैं भ्रम बेचता हूं
सब तरह के भ्रम
रखे हैं मेरे झोले में
अलग अलग रंग
अलग अलग छाप के
पूरा विश्वास है आपको
आपकी पसन्द का भ्रम भी दे पाऊंगा
बताईये कैसा भ्रम ढूंढ रहें हैं आप
रंग बताइये आकार समझाइये
हां क्या कहा आपने
सफेद रंग में चाहिये है आपको
तो ले जाइये यह हाथ छाप भ्रम
पिछले पचास साल से एक ही माडल
ज्यों गुजरे समय की
अम्बासडर कार
मार्क एक से मार्क चार तक
कुछ अलग दिखने का भ्रम
फर्क सिर्फ नाम का
न फर्क किसी काम का
सिर्फ़ एक अकेला बिक रहा था इस बाजार में
यह तो पिछले पचास सालों में खुब बिका है

आपकी गराबी हटायेगा
आपके लिये
21 वीं सदी को सीधे सूर्य से
मोल ले आयेगा
भई खूब बिका है यह भ्रम

अच्छा कोई दूसरा माल दिखाऊं
तो भई ये ले जाइये
लाल रंग का भ्रम
इसके wrapper पर
छपी है एक मजदूर की तस्वीर
दम है कि इससे मिलता है
सर्वहारा वर्ग तक को
सुख और खुशहाली का भ्रम
इस भ्रम ने भारत में
मजदूरों के आराम के लिये
व्यापार-उद्योग बन्द करवाये
काम हराम है की धुन बजाई
निठल्लेपन के आराम से
बहुत ही दिलवाया है खुशहाली का भ्रम।


या ये ले जाइये भगवे रंग का भ्रम
इसकी विशेषता
जो wrapper पर छपी है
वह है राम के राज्य की तस्वीर
इसे मन्दिर की
लुभावनी शक्ल में ले जाइये
इस भ्रम से
लोगों को चमक तो नहीं
हां अपनी "SHINING" के ढेर
सारे नारे जरूर मिले


और भी बहुत से रंग व आकार
के भ्रम हैं मेरे झोले में
काले,हरे व पीले रंग के भ्रम

क्या पूछते हैं
कौन सा भ्रम मुझे पसन्द है
जिसे मैं पालता हूं
तो भाई साहब वह है
यह, बिन रंग व wrapper का
एक बेचारा सा भ्रम
जम्हूरियत में
एक आम आदमी,
एक अपग से आम आदमी की
लाचारी को परोसता
हर सवाल पर निरुत्तरित रह जाता
सर झुकाये पीठ पर
ढोता नामर्दगी
और पालता
अपने मर्द होने का भ्रम
अपने जिन्दा होने का भ्रम।

आईना !

जब कभी आईना देखता हूँ
सिहर उठता हूँ
हर बार एक नया चेहरा
हर बार आईना
एक बिना धार के चाकु से
मेरे व्यक्तित्व का
कुछ न कुछ अंश
तराश ही देता है।
और फिर मुझे
इस क्षीण होते
व्यक्तित्व की विभीषिका
से भय लगता है।
कभी कभी प्रतीत होता है
कि सम्भवतः अगली बार
जब आईना देखूं
तो उसमें,
मेरा लुप्तप्रायः व्यक्तित्व
शायद नजर ही न आए।
अब अब इस सम्भावना से निजात हेतू
मैने हाल के
अपने बिखरे छितरे चेहरे को
समेट कर
उसकी एक तस्वीर बनवा ली है
समय कहीं बदरंग न कर दे,
इसीलिये इस तस्वीर को शीशे में मढ़ दिया है।
अब आईने में न सही
आईने के बाहर तो
कम से कम कहीं तो बचा रहेगा मेरा व्यक्तित्व
जिसे मैं खुद भी निहार पाउंगा
और परीचितों के समकक्ष भी
चाहे निष्प्राण ही
प्रस्तुत कर पाउंगा।
कहीं तो, इसी तरह बाकी रह जायेगा
ये मेरा चहरा।


Malignant Mesothelioma

सामानों का बलात्कार !

उफ्फ ये पकौड़े क्यों जल गये
क्योंकि जब मैं कढ़ाई में पकौड़े तल रही थी
मानस में रात की फिल्म चल रही थी
वो अभिसार था या था वो व्याभिचार...
पकौड़े अब जल कर काले हो गये थे
हां रात जब तुहारी इच्छा मेरी अनिच्छा पर भारी थी
क्या मैं समझौता कर हारी थी
पकौड़ों से अब धुआं निकल रहा था...
मानस कर रहा था कुछ प्रश्न
क्या विवाह का पर्याय है रति
क्या सेक्स ही है सात फेरों की परिणिति ।
मैं गैस पन्द कर सोचने लगी.....
जब भी मेरी अनिच्छा पर तुम्हारी इच्छा बली हुयी है
तब पतिव्रता की तमाम बातें मुझे बेहद खली हैं
हां मैं अगर हारी हूं
तो जीता कौन है???
अन्दर तो कोलाहल है
लब लेकिन मौन हैं।
बलात्कारी कब किससे जीत पाया है
सर्वप्रथम वह तो खुद से ही हारता आया है।
गणिका की भले ही इच्छा नहीं लेकिन सहमति तो होती है।
मैं तुम्हारी सहचरी की न इच्छा,न सहमति सिर्फ दुर्गति होती है।

मेरी इच्छा और दुर्गति के अन्तराल को

समाज समझे या न समझे
तुम तो समझ लो
प्यार और बलात्कार में फर्क होता है
तुम्हारे मन में भले ही प्रेम का भ्रम पला हो
मैं जानती हूं कि मैने
मौन रह कर भी
सिर्फ तुम्हें छला है।
लेकिन तुम भला कैसे जान पाते
ये बातें
क्योंकि तुम मुझसे नहीं,
सिर्फ मेरी देह से बातें कर रहे थे
तुमने तो सुना ही नहीं मेरे नयन क्या कह रहे थे ।
सुनते तो क्या सह पाते मेरे अंतर्नाद को
शायद बधिर होना आक्रान्ता की पहली आवश्यकता है
अब दोबारा बेसन घोल कर एक नयी सूर्य की अभ्यर्थना
के साथ एक नया निश्चय
अब और ऐसा नहीं चलने दूंगी
न मैं जलुंगी
न मेरे पकौड़े जलने दूंगी।


कविता की समाधि !

तुम वह जो टीला देख रहे हो
वह कविता की समाधि है।
कविता जो कभी वेदनाओं का मूर्त रुप हुआ करती थी
उपभोक्तावाद की संवेदनहीनता ने
उसकी हत्या कर दी है।
कविता जो चित्र बनाती थी
कविता जो संगीत सृजन करती थी
कविता जो भाव उद्वेलित करती थी
अब टी वी के हास्य मुकाबलों ,
मञ्चीय हास्य कवि सम्मेलनों
और ब्लौग्गरस की दुनिया में
शेष हो गयी है।
आज का युवा
बारहवीं पास या फेल
काल सेन्टर में बैठ
अमीरीकियों की नकल कर
शिकागो में होने की गलतफहमी का शिकार
विवेकानन्द हो गया है।
भाव कविता की पंक्तियों से निकल
शेयर बाजार और सेन्सेक्स के पर्याय हो गये हैं।
कविता अब प्रेम की भाषा नहीं
सड़क छाप Romeo’s की सेक्सी शायरी हो गयी है।
आज विवाह जब evolution के प्रकरण से दूर
वाणिज्यिक गठ बन्धन हो गया है
और तमाम सम्बन्धों की नींव
स्वार्थ की सीमेंट से जुड़ी हों
नित नये नये भगवानों
व आराध्यों के गढ़ने की प्रक्रिया में
हनुमान चालीसा से लालु चालीसा
का सफर तय करने में
कविता की मौत एक स्वाभाविक उपसंहार है।


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त्रिशंकु !

मैं भी आज त्रिशंकु सा
विमूढ
टंगा हुआ हूं
एक नितान्त व निजी
व्यक्तिगत स्वर्ग के भ्रम में
मन रोजमर्रे की जिन्दगी
से उपर
कुछ उठना चाहता है।
मन नहीं मानता
गुरुत्वाकर्षण शक्ति के सहज नियम।
लेकिन मानस तो मानता है
सिर्फ दृष्टिगोचर को
अगोचर व्योम को पाने की
आकांक्षायें लिये
लियोनार्डो सा पंख फड़फड़ाता हूं
यह विश्वमित्र की समिधा की शक्ति है
या मेरी अपनी हठधर्मिता
व्योम हठात कुछ पास चला आता है।
मैं विगत कल
व आगामी कल
के मध्य तलाश रहा हूं
सत्य का धरातल॥
मिथ्या जगत से
सत्य या ब्रह्म
तक पहुंचने की उड़ान
में मुख्य व्यवधान
स्वयं मैं हूं।
मेरा अहम्
अपने स्थूल स्वरूप से बद्ध
गुरुत्वाकर्षण शक्ति की परिधि से
निकल नहीं पाता है
और मेरा आरोहण
बीच में थम जाता है।

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आजकल !

जब कई हाथ
उठते हैं साथ साथ
और कुछ उंचे स्वर में
हो रही हो बात
तब सत्ता चौंक कर
ढुंढती है
कहां बिछी है बिसात
उसे तो दिखती है सिर्फ शह और मात
सत्ता के अन्य संवेदना तंतु
तो दफ़न हैं बर्फ के नीचे
सत्तधारियों को सिर्फ
उठती हुयी हथेलियों की
उष्मा से बचा रखना है
उस संवेदना तंतु के उपर जमीं बर्फ को
यह बर्फ अगर पिघल गयी तो
सत्ता की सुरक्षा खतरे में होगी
बचा कर रखें उस बर्फ को
संवेदना तंतुओं को जिन्दा होने से रोके
तब ही यह सत्ता की कागज की नाव
अगले चुनाव तक
तैरती रह पायेगी
जब चुनाव जीतना
साधन न हो साध्य हो जाता है
तब चाहे कोई जीते
राष्ट्र हर हाल में
हारता आता है।
जब चारण चाणक्य का पद पाता है
तब नीति शास्त्र के नाम
प्रशस्ति गीत गाया जाता है
जब इन्दिरा इन्डिया का पर्याय कहाती हैं
तब भूखे अधनंगे भारत की थाली में
आंकड़ों की रोटी परोसी जाती है।
जन साधारण की जिजिविषा
में उन्हे दिखता है राजद्रोह
इस दृष्टिभ्रम की
वजह है सत्तधारियों की
पैसे की भूख
और सत्ता का मोह
जब नागरिकों के विरोध के स्वर को
को कानुन व सुरक्षा
के डण्डे से शान्त किया जाता है
तब जलियां वाला बाग याद आता है।
लेकिन सत्तधारी नहीं मानते
जिये हुये ऐतिहासिक सत्य को
कि निरीह जनता जब
राष्ट्र या राष्ट्रीयता से विमुख हो जाती है
तब ही विदेशी शक्तियां दांत गड़ाती हैं
कोई सैन्य दल तब काम नहीं आता है
और देश पर बाह्य शक्तियों का कब्जा हो जाता है।



केशव तिवारी की एक कविता !

केशव तिवारी समकालीन कविता में लोक चेतना को आवाज़ देने वाले महत्वपूर्ण कवि हैं । समय का दंश उनकी इस कविता में रेखांकित करने लायक है ।
हम खड़े थे (केशव तिवारी की एक कविता)
किससे बोलता झूठ
और किससे चुराता मुँह
किसकी करता मुँहदेखी
किसके आगे हाँकता शेखी
हर तरफ़ अपना ही तो चेहरा था
नावे तों बहुत थी
नदारद थी तो बस नदी
चेहरों पर थी दुखों की झाँई
जिसे समय ने रगड-रगड़ कर
और चमका दिया था
सारी कला एक अदद
शोकगीत लिखनें में बिला रही थी
जिसने भी रखा पीठ पर हाथ
बस टटोलने लगा रीढ़
हम खड़े थे समय के सामने
जैसे लगभग ढह चुकी
दीवारों वाले घर की चौखट पर
खड़ा हो कोई एक
मज़बूत दरवाज़ा ॥

इतना भी न हुआ..

जीने की तरह जीना,
मरने की तरह मरना
इतना भी न हुआ
कि बोलूं तो सुना जाऊं दूर तक
चलूं तो पथ में न आएं बाधाएं
गाऊं अपनी पसन्द के गीत कभी भी
बनाऊं कहीं भी सपनों का नीड़
इतना भी न हुआ.. न हुआ इतना भी
कि विश्वास के बदले पाऊं विश्वास
श्रम के बदले रोटी-पानी ।

गहराती रात जैसी नींद से निकल
पलकों की पीठ पर
सपनों की गठरी लिए
चल पड़ूं उछलता-कूदता
न हुआ इतना भी, इतना भी न हुआ
बांझ कोख सी उदासी में
डूबी है दुनिया
जिसकी बेहतरी की उम्मीद में
जागती आंखें झुकी रहती हैं
क्षमा-प्रार्थना की मुद्रा में इन दिनों
होठों से धीमे- धीमे
निकलता है स्वर,
क्षमा ! क्षमा ! बस क्षमा !! कहते हैं हम एक-दूसरे से ।

क्षमा हे पितरों
तार नहीं सके हम तुम्हें
मुक्त न कर सके तुमको
आवागमन के दुश्चक्र से
कुन्द पड़ चुके हमारे इरादे
कौंधते और बुझते रहे अंधेरों में
हमारी स्मृतियों की गंगा में
आज भी तैरते हैं शव तुम्हारे
जिन्हें खींच कर तट पर लाएं
यह साहस हम जुटा ही नहीं पाए ।
क्षमा हे पृथ्वी
जल पावक गगन समीर
तुम्हारी विस्फोटक रोशनी में
चमक न सके हम कुन्दन बन
कात न सके चदरिया झीनी,
मिठास बिना ही ज़िन्दगी जीनी
नागवार हमें भी गुजरती थी।

क्या करें, कि एक शीर्षक-हीन कविता थे हम
पढ़े जा सकते थे बिना ओर-छोर
कहीं से भी, बीच में छोड़े जा सकते थे हम,
ज़िल्दों में बन्द, कुछ शब्द, हमें पता नहीं था
आलोचकों की भूमिका के बारे में
जैसे पता नहीं था पितरों को
मुक्ति का खुफ़िया रास्ता ।
एक शब्द चमक सकता था
अंधेरे में जुगनू बन
एक शब्द कहीं धमाके के साथ
फट सकता था
सोई चेतना के ऊसर में
एक शब्द को लोहे में
बदल सकते थे हम
धारदार बना सकते थे उसे
हमसे नहीं हुआ इतना भी, इतना भी न हुआ

क्षमा ! हे शब्द-ब्रह्म, क्षमा !!
बहुत पीछे छूट चुका बचपन
ठिठका खड़ा है
अन्धे कुंए की ओट पर
विस्फ़ारित मुंह उस कुंए के
एक अधर पर धरे पांव
अड़ा है, कहां है सुरसा मुंह कुंए का
दूसरा अधर
शून्य में उठा दूसरा पांव
आकाश में लटका पड़ा है ।
समय की तेज रफ़्तार सड़क पर
कई प्रकाश वर्ष पीछे
ठिठका खड़ा बचपन
भींगता है अदद एक
बरसाती घोंघे के बिना
गल जाती हैं किताबें
स्कूल जाने के रास्ते में
खेत की डांड़ पर
भींग जाता है किताबों का बेठन,
किताबों से प्रिय थे जिसे
इमली बेर आम चिलबिल
और रेडियो पर बजता विविध-भारती
उस बचपन से क्षमा,
कि हम अपराधी उस बचपन के
कुंए की तरह खड़े रहे हम
उसके रास्ते में
बिछ सकें नर्म घास की तरह
उभर सकें पांवों तले
ज़मीन की तरह
न हुआ इतना भी, इतना भी न हुआ..

पेड़ पर आधा अमरूद !

एक सुन्दर कविता की तरह
वह लटका है
पेड़ की कमसिन शाख पर

आते-जाते रहते हैं
फलों के आलोचक
कभी सुग्गे की तरह
तो कभी गौरैया की तरह

मुझे इतना पता है
कि परिन्दे जब आते हैं
पेड़ों पर, अपनी नुकीली ठोर से
कुरेदते हैं जब किसी
मीठे फल की पीठ,
तो उनके इस सुलूक में
उनके विवेक की भूमिका
उतनी नहीं होती
जितनी कि उनकी भूख की
हो सकती है

और, इतना तो आप भी
देख ही रहे होंगे
कि पेड़ पर कुछ अमरूद हैं
आधे खाए-जा-चुके

यह पूस का महीना है
एक फलते-फूलते मौसम में
यह कविता के अमरूद होने का समय है

एक दिन आऊंगा !

एक दिन आऊंगा
खटखटाऊंगा तुम्हारा दरवाज़ा
मुझसे पीछा छुड़ाने की कोशिश में
तुम पूछोगे मेरे आने का मकसद
विरक्ति में डूबी आंखों से ।

उस दिन धीरे से चुपचाप
थमा जाऊंगा तुम्हें
जो कुछ भी होगा
मेरी झोली में ।

वह अगरबत्ती का एक
पैकेट भी हो सकता है
या फिर आधी-जली
मोमबत्ती का टुकड़ा, कोई मुरझाया सा फूल
या पुरानी ज़िल्द वाली
कोई किताब ।

कुछ नहीं पूछोगे तुम मुझसे
अगरबत्ती के बारे में, कि वह
जलेगी तो कमरों में कितनी
देर तक रहेगी सन्दल की ख़ुशबू
या कितनी दूर तलक जाएगी
मोगरे की गन्ध ।

मुझे यह भी बताने की
जरूरत नहीं होगी बाकी
कि मोमबत्ती के भीतर की
सुतली के जलने के दरम्यान
कितनी मोम पिघल कर
फैल गई है हमारे एकान्त में
या फिर कालिख की तरह
जम गई है हमारी सांसों में ।

और ताज्जुब तो यह कि
तुम जानना भी नहीं चाहोगे
कैसे मुरझा जाते हैं फूल दबे-दबे
किताबों के भीतर, और फैल जाता है
एक हाहाकार शब्दार्थों के बाहर की दुनिया में ।

उस दिन, न तो पूछ ही सकोगे तुम
न ही बता सकूंगा मैं
एक किताब की ज़िल्द के
पुराने होते जाने की इतिकथा, उस दिन, अभिव्यक्ति पाए बिना ही उठेंगी
कुछ कविताएं , भाप बन कर , पुरानी ज़िल्द वाली किताब से
और फुसफुसाती हुई कानों में
बताएंगी मेरे आने का मकसद ।

मुझसे पीछा छुड़ाना
नहीं होगा इतना आसान
कि मेरे पास होंगी कुछ
मामूली चीजें, मसलन एक अगरबत्ती का पैकेट
एक आधी-जली हुई मोमबत्ती
एक मुरझाया-सा फूल , या
पुरानी ज़िल्द वाली एक किताब ।

चुपचाप थाम लोगे तुम कोई एक

मामूली सी चीज मेरे हाथों से
और मैं लौटूंगा अपनी झोली में
सहेज कर कोई बहुत पुराना ख़त
जिसे तुमने संभालकर रखा होगा
मेरे लिये स्मृतियों के सन्दूक में ।

उस दिन
, आंखों में झिलमिलाते
तरल सन्धिपत्रों पर होंगे हमारे
अमिट हस्ताक्षर ।

कैसा यह देना
-लेना साथी, कैसा नक़द - उधार
कैसा अद्भुत यह जीवन व्यापार ।
नीलम सिंह की कविताएँ

नीलम सिंह का जन्म १३ जुलाई १९६७ को वाराणसी, उत्तर-प्रदेश में हुआ।पिछले बीस-पच्चीस वर्षों से ये कविताएं लिख रही हैं।इन्हें मुक्तिबोध स्मृति सम्मान (१९९१),राजीव गांधी युवा कवि पुरस्कार(१९९१) आदि महत्वपूर्ण सम्मानों से नवाज़ा जा चुका है।इनका पहला काव्य संग्रह"शब्द ईश्वर होते हैं" २००८ में प्रकाशित हुआ। नीलम सिंह ने "प्रेमचंद की कथा-भाषा एवं कथा-संवेदना" विषय पर डा. परमानन्द श्रीवास्तव के निर्देशन में शोध-कार्य किया और सम्प्रति कोलकाता में अध्यापन-कार्य से जुड़ी हैं।नीलम सिंह मूलत: भाव-बोध की कवि हैं।समकालीन कविता परिदृश्य में उपस्थित स्त्री-चेतना की कवियों के बीच इनकी कविताएं अपनी अलग पहचान बनाने में सक्षम हैं। प्रस्तुत हैं नीलम सिंह की कुछ कविताएं


.एक पैगाम आकाश के नाम

आकाश, कब तक ओढ़ोगे
परंपरा की पुरानी चादर,
ढोते रहोगे
व्यापक होने का झूठा दंभ,
तुम्हारा उद्देश्यहीन विस्तार
नहीं ढक सका है
किसी का नंगापन
छोड़कर कल्पना, वास्तविकता पर उतर आओ,
भाई, अपने नीले फलक पर
इन्द्रधनुष नहीं
रोटियां उगाओ।

.कविता

शब्दों के जोड़-तोड़ से
गणित की तरह
हल की जा रही है जो
वह कविता नहीं है
अपनी सामर्थ्य से दूना
बोझ उठाते-उठाते
चटख गयी हैं जिनकी हड्डियाँ
उन मजदूरों के
जिस्म का दर्द है कविता
भूख से लड़ने के लिये
तवे पर पक रही है जो
उस रोटी की गंध है कविता
उतार सकता है जो
खुदा के चेहरे से भी नकाब
वो मजबूत हाथ है कविता
जीती जा सकती है जिससे
बड़ी से बड़ी जंग
वह हथियार है कविता
जिसके आंचल की छाया में
पलते हैं हमारी आँखों के
बेहिसाब सपने
उस माँ का प्यार है कविता
जिसके तुतलाते स्वर
कहना चाहते हैं बहुत कुछ
उस बच्चे की नयी वर्णमाला का
अक्षर है कविता
कविता एकलव्य का अँगूठा नहीं है
कि गुरुदक्षिणा के बहाने
कटवा दिया जाय
वह अर्जुन का गाण्डीव है, कृष्ण का सुदर्शन चक्र।
कविता नदी की क्षीण रेखा नहीं
समुद्र का विस्तार है
जो गुंजित कर सकती है
पूरे ब्रह्माण्ड को
वह झंकार है कविता।

.याचना

पुरवा, जब मेरे देश जाना
मेरी चंदन माटी की गंध
अपनी साँसों में भर लेना,
नाप लेना मेरे पोखर मेरे तालाब की थाह
कहीं वे सूखे तो नहीं,
झाँक लेना मेरी मैना की कोटर में
उसके अण्डे फूटे तो नहीं, लेकिन पुरवा
जब चंपा की बखरी में जाना
उसकी पलकों को धीरे से सहलाना
देखना, उसके सपने रूठे तो नहीं,
मेरी अमराईयों में गूँजती कोयल की कूक
कनेर के पीले फूल
सबको साक्षी बनाना
पूछना, धरती आकाश के रिश्ते
कहीं टूटे तो नहीं, क्या, मेरी सोनजुही
मुझे अब भी याद करती है
उसके वादे,झूठे तो नहीं।

.भूल जाओ वामन

नहीं काट सकते
अतल में धँसी
मेरी जड़ों को
तुम्हारी नैतिकता के
जंग लगे भोथरे हथियार
मत आँको मेरा मूल्य
धरती आकाश से नहीं
आकाश धरती से सार्थक है
तुम्हारे पाँव हर बार की तरह
आदर्श का लम्बा रास्ता भूलकर
मेरे अस्तित्व की छोटी पगडण्डी
पर ही लौट आयेंगे
अपना विस्तार,भूल जाओ वामन
मेरी अस्मिता नापने में
तुम्हारे तीन पग छोटे पड़ जायेंगे।

Tuesday, September 13, 2011

माँ !


कब्र के आगोश में जब थक के सो जाती है माँ,
तब कहीं जा कर, ज़रा थोड़ा सुकूँ पाती है माँ।

फिक्र में बच्चों की कुछ ऐसी घुल जाती है माँ,
नौजवाँ हो कर के भी, बूढ़ी नज़र आती है माँ।

रूह के रिश्तों की ये गहराइयाँ तो देखिये,
चोट लगती है हमारे और चिल्लाती है माँ।

कब ज़रूरत हो मेरी बच्चों को इतना सोच कर,
जागती रहती हैं आँखें और सो जात है माँ।

चाहे हम खुशियों में माँ को भूल जायें दोस्तों,
जब मुसीबत सर पे आ जाए, तो याद आती है माँ।

लौट कर सफर से वापस जब कभी आते हैं हम,
डाल कर बाहें गले में सर को सहलाती है माँ।

हो नही सकता कभी एहसान है उसका अदा,
मरते मरते भी दुआ जीने की दे जाती है माँ।

मरते दम बच्चा अगर आ पाये न परदेस से,
अपनी दोनो पुतलियाँ चौखट पे धर जाती है माँ।

प्यार कहते है किसे और ममता क्या चीज है,
ये तो उन बच्चों से पूँछो, जिनकी मर जाती है माँ।

Sunday, September 11, 2011

सुरेश सेन निशांत की कुछ कविताएँ !!

गोपी ढाबे वाला !

बहुत दिनों बाद हुआ आना
इस पुराने शहर में
वहीं रुकता हूँ
वहीं खाता हूँ खाना
उसी बरसों पुरानी मेज पर
उस पुराने से ढाबे में।

कुछ भी नहीं बदला है

नहीं बदली है गोपी ढाबे वाले की
वह पुरानी-सी कमीज
काँधें पे पुराना गमछा
बातचीत का उसका अंदाज।

वैसा ही था

तड़के वाली दाल का भी स्वाद
तंदुरी रोटी की महक।

कुछ भी नहीं बदला

यहाँ तक की ग्राहकों की शक्लें
उनकी बोल-चाल का ढंग
ढाबे के बाहर खड़े सुस्ता रहे
खाली रिक्शों की उदासी तक।

उस कोने वाली मेज पर

वैसे ही बैठा खा रहा है खाना
चुपचाप एक लड़का
कुछ सोचता हुआ-सा, चिन्तित
शायद वह भी ढूँढ़ रहा है ट्यूशन
या कोई पार्ट टाईम जॉब
शायद करना है जुगाड़
अभी उसे कमरे के किराया का।

सोच-सोच कर कुम्हला रहा है उसका मन

कि कर भी पाएगा पढ़ाई पूरी
या धकेल देगा वापिस यह शहर
उन पथरीले पहाड़ों पर
जहाँ उगती है ढेर सारी मुसीबतें-ही-मुसीबतें
जहाँ दीमक लगे जर्जर पुलों को
ईश्वर के सहारे लाँघना पड़ता है हर रोज।

जहाँ जरा-सा बीमार होने का मतलब है

जिन्दगी के दरवाजे पर
मौत की दस्तक।

हैरान हूँ और खुश भी

दस वर्षों के बाद भी
नहीं भूला है गोपी
अपने ग्राहकों की शक्लें
पूछता रहा आत्मीयता से
घर-परिवार की सुख शान्ति।

इस बीच बहुत कुछ बदल गया

इस शहर में
बड़े-बड़े माल सेन्टरों ने
दाब लिया है
बड़े-बड़े लोगों का व्यापार
बड़ी-बड़ी अमीर कंपनियाँ
समा गई हैं बड़ी विदेशी
कंपनियों के पेट में।

नाम-निशान तक नहीं रहा

कई नामचीन लोगों का।

पुराने दोस्त इस तरह मिले

इतना भर दिया वक्त
जैसे पूछ रहा हो कोई अजनबी उनसे
अपने गंतव्य का पता।

निरन्तर विकसित हो रहे इस शहर में

उस गोपी ढाबे वाले की आत्मीयता ने
बचाए रखी मेरे सामने मेरी ही लाज।

सभी पुराने दोस्तों के बारे में भी

पूछता रहा बार-बार।

खास हिदायत देकर कहा उसने

रोटी बाँटने वाले लड़के को
बाबू जी खाना खाते हुए
पानी में नींबू लेते हैं जरूर।

मैं हैरान था और खुश भी

कि इस तरह की बातें तो
माँएँ ही रखती हैं याद
अपने बेटों के बारे में।

क्या इतना गहरे बैठे हुए थे

उसके अंतस में हम।

खाने के बाद गोपी ढाबे वाले ने

मुझसे पैसे नहीं लिये रोटी के
मेरे लाख अनुनय के बावजूद।

मैं इस तरह निकला वहाँ से

आँखें पोंछता हुआ
जैसे माँ की रसोई से निकला होऊँ
बरसों बाद खाना खा कर।

पहुँचना !

मैं चाहता हूँ पहुँचना
तुम्हारे पास
जैसे दिन भर
काम पे गयी
थकी माँ पहुँचती है
अपने नन्हे बच्चे के पास।

सबसे कीमती पल होते हैं
इस धरती के वे
उसी तरह के
किसी कीमती पल-सा
पहुँचना चाहता हूँ तुम्हारे पास।

मैं चाहता हूँ पहुँचना
तुम्हारे पास
जैसे बरसों बंजर पड़ी
धरती के पास पहुँचते हैं
हलवाहे के पाँव
बैलों के खुर
और पोटली में रखे बीज
धरती की खुशियों में उतरते हुए
मैं पहुँचना चाहता हूँ तुम्हारे पास।

मैं चाहता हूँ
बारिश के इस जल सा
धरती की नसों में चलते-चलते
पेड़ों की हरी पत्तियों तक पहुँचूँ
फलों की मुस्कुराहट में उतरूँ
उनकी मीठास बन
तुम्हारे ओंठों तक पहुँचना चाहता हूँ

अँधेरे घर में
ढिबरी में पड़े तेल सा
जलते हुए
तुम्हारे साथ-साथ
अँधेरे से उजाले तक का
सफर तय करना चाहता हूँ।

निराशा भरे इस समय में
मैं तुम्हारे पास
संतों के प्रवचनों-सा नहीं
विज्ञापनों में फैली
व्यापारियों की चिकनी भाषा-सा नहीं
मैं कविता की गोद में बैठी
किसी सरल आत्मीय पंक्ति-सा
पहुँचना चाहता हूँ।

मैं चाहता हूँ
मैं पहुँचूँ तुम्हारे पास
जैसे कर्जे में फँसे
बूढ़े किसान पिता के पास
दूर कमाने गये
बेटे का मनीऑर्डर पहुँचता है।

आँखों में खुशी के आँसू छलकता
एक उम्मीद-सा
मैं पहुँचना चाहता हूँ
तुम्हारे पास
तुम्हारे हाथों में
तुम्हारी आँखों में

दुखों भरी बर्फ !

दुखों भरी बर्फ जब पिघलेगी
तो खिलेंगे फूल-ही-फूल
इन पतझरी वृक्षों पर।
इन घासनियों में
उग आएगी नर्म हरी घास खूब
हम खुशी-खुशी घूमेंगे
इन घाटियों में अपने मवेशियों संग
मन पसंद गीत गुनगुनाते हुए।
दुखों भरी बर्फ जब पिघलेगी
दोस्त बिना बुलाए ही
आ जाएँगे हमारे घर
अचानक आ मिली खुशी की तरह
आ बैठेंगे हमारी देहरी पर
गुनगुनी धूप-सा मुस्कराते हुए।
हवा में भीनी गंध
अपने पंखों पे लादे
आ बैठेगी बसंत की चिड़िया
हमारे आँगन में
चहल कदमी करता
दूर से देखेगा हमें
हमारा छोटा-सा शर्मिला सुख।
दुखों भरी बर्फ जब पिघलेगी
हमारी जंग लगी दरातियों के चेहरों पर
आ जाएगी अनोखी उत्साह से भरी चमक
खेतों के चेहरे खिल उठेंगे
धूप हमारी आगवानी में
निखर-निखर जाएगी
हम मधुमक्खियों की तरह गुनगुनाते हुए
निकलेंगे अपने काम पर
नहीं फिसलेंगे
उस फिसलन भरी पगडंडी पर
किसी मवेशी के पाँव
नहीं मरेगी किसी की दुधारू गाय
नहीं बिकेगा कभी किसी का कोई खेत।
दुख भरी बर्फ का रंग
पहाड़ों पर गिरी इस मासूम बर्फ-सा
सफेद नहीं होता।
वह बादलों से नन्हें कणों के रूप में
नहीं झरती हमारे खेतों, घरों और देह पर
वह गिरती है कीच बनकर
धसकते पहाड़ों पर से
वह गिरती है शराब का रूप धर
पिता के जिस्म पर
माँ के कलेजे पर
हमारे भविष्य पर।
बदसलूकी की तरह गिरती है
जंगल में लकड़ियाँ लाने गई
बहिन की जिंदगी पर।
दुखों भरी बर्फ रोक देती है
स्कूल जाते बच्चों के रास्ते
उनके ककहरों के रंगों को
कर देती है धुंधला
छीन लेती है उनके भविष्य के चेहरों से
मासूम चमक
उनके हथेलियों को
बना देती है खुरदरा
भर देती है जख्मों से
उनके नन्हें कोमल पाँव।
दुखों भरी बर्फ पर
सूरज की तपिश का
नहीं होता कोई असर
अपने आप नहीं पिघलती।
वह पिघलती है
बुलंद हौंसलों से
विचारों की तपिश से
हमारे लड़ने के अंदाज से।
दुखों भरी बर्फ जब पिघलेगी
तो खिलेंगे फूल-ही-फूल
इन पतझरी वृक्षों पर।

- सुरेश सेन निशांत

इंद्रियाँ और दिमाग़ !

इंद्रियाँ तो कठपुतलियाँ हैं
सबसे ऊपर बैठे दिमाग़ की
उसी के इशारों पर नाचती हैं
इंद्रियों को तो पता भी नहीं होता
कि वो आखिर कर क्या रही हैं
आवश्यकता से अधिक सुख सुविधाएँ
जिन्हें वो गलत तरीके से इकट्ठा कर रही हैं
उन्हें या तो निकम्मा बना देंगी
या रोगी
और अगर पकड़ी गईं
तो सारी सजा मिलेगी इंद्रियों को
बलि की बकरियाँ हैं इंद्रियाँ।

इंद्रियाँ करें भी तो क्या करें

आदिकाल से
नियम ही ऐसे बनते आये हैं
जिससे सारी सजा इंद्रियों को ही मिले,
हर देवता, हर महात्मा ने
हमेशा यही कहा है
कि इंद्रियों पर नियंत्रण रखो
दिमाग़ की तरफ़ तो
कभी भूल कर भी उँगली नहीं उठाई गई
कैसे उठाई जाती
उँगली भी तो आखिरकार
दिमाग़ के नियंत्रण में थी।

मगर कलियुग आने का

पुराने नियमों से विश्वास उठने का
एक फायदा तो हुआ है
अब यदा कदा कोई कोई
उँगली दिमाग़ की तरफ भी उठने लगी है,
ज्यादातर तो तोड़ दी जाती हैं
या जहर फैल जाएगा कहकर काट दी जाती हैं
मगर क्या करे दिमाग़
अनिश्चितता का सिद्धांत तो वो भी नहीं बदल सकता
कि उठने वाली हर उँगली तोड़ी नहीं जा सकती,
कोई न कोई उँगली बची रह ही जाएगी
तथा उस उँगली की सफलता को देखकर
उसके साथ और भी उँगलियाँ उठ खड़ी होंगी,
अन्ततः दिमाग को
उँगलियों की सम्मिलित शक्ति के सामने
सर झुकाना ही पड़ेगा
अपनी असीमित शक्ति का दुरुपयोग
रोकना ही पड़ेगा।

- धर्मेन्द्र कुमार सिंह

सपना मकान का !

सपना मकान का
अपने मकान का
कैसे हो पूरा
खाली पेट
लंगोटी बांधे
सोच रहा है घूरा
सोच रहा है घूरा कैसे
कटेगी ये बरसात
पैताने बैठा है कुत्ता
नहीं छोडता साथ
घरवालों की होती इज़्ज़त
चाहे हों आवारा
बेघर और बेदर को समझे
चोर ज़माना सारा
खाते पीते लोगों को ही
बैंकों से मिलता लोन
जिनका कोई नाथ पगहा
उनके लिए सब मौन
काहे देखे घूरा सपना
काहे दांत निपोरे
कह दो उससे नंगा-बूचा
धोए क्या निचोडे......
सपना मकान का
देख रहा है घूरा!

- अनवर सुहैल

Saturday, September 10, 2011

नई उपमा !

उसकी आँखे
कि बारिश में
भीगी कोई लड़की
बार-बार
बदन को छूते कपड़े
छुड़ाए

उसकी बातें

कि माँ सामने बैठा कर
खाना खिलाए
और रोटी पलटना ही भूल जाए


उसका रूठना
कि मुँह फुलाए बच्चे के गाल पर
काटे चिकोटी,माथा चूमें और मुस्कुरा दे


उसका मनाना
कि कोई हो इतना मजबूर
कि न होंठ हँसे खुल के न आँखों में आँसू आए


उसका चलना
कि उफने कोई बरसाती नदी
और अचानक मुड़ जाए


उसका होना
कि होना हो सब कुछ का


उसका न होना

कि ........

कवि- मनीष वंदेमातरम्

दोस्ती का पैगाम !

दोस्त तुम यादों में हो, वादों में हो, संवादों में हो
गीतों में हो, ग़ज़लों में हो, ख़्वाबों में हो
चुप्पी में हो, खामोशी में हो, तन्हाई में हो
महफिल में हो, कहकहो में हो और बेवफाई में भी हो
तुम उन चिट्ठियों में हो जो तुम्हें दे न सका
तुम उस टीस में भी हो जो तुम देते रहे
और मैं उस मीठे दर्द को अल्फाजों में बदलता रहा
तुम उस खुशी में भी हो जो तुमने मुझे अनजाने में दी
...इतना कुछ होने के बाद तुम अगर मुझसे रूठ भी जाओ
तो अलग कैसे हो पावोगे?
नाराज होकर फेसबुक से अन्फ्रेंड कर दोगे
डायरी से फाड़ दोगे, ग्रीटिंग्स कार्ड जला दोगे
लेकिन मेरी यादें?
जानते हो...
यादें और चुप्पियाँ एक-दूसरे की डायरेक्टली प्रपोशनल होती हैं
चुप्पियाँ, यादों के समन्दर में डूबोती चली जाती हैं
कहते हैं... खामोशी और बोलती है... प्रतिध्वनि भी करती है
पगला देती है आदमी को
इसलिए शब्दों का और आँसुओं का बाहर निकलना बहुत जरूरी है
मैं बाहर निकल आया हूँ, तुम भी बाहर आ जाओ
अपने ईगो के खोल से
मैं भी सॉरी बोलता हूँ, तुम भी बोलो
...बोलो, तुम्हारा भी कद ऊँचा हो जाएगा
अब छोड़ो भी इन बातों को, गलती किसी की भी हो
पर हत्या तो दोस्ती की हुई न?
...और हमारी दोस्ती इतने कमजोर धागों से नहीं बँधी है
कि एवीं टूट जाय
न दोस्ती को एवीं टूटने देंगे... न जिन्दगी को
क्योंकि दोनों अनमोल हैं।

कवि- मनोज भावुक

इनार का विवाह !

ढोलकी की थाप और गीतों की धुन पर
झूमती-गाती चली जा रही थीं औरतें
इनार की ओर
कि बस गंगा माँ पैठ जाएँ इनार में
जैसे समा गई थीं जटा के भीतर

धूम-धाम से हो रहा था विवाह
कि भूल कर भी नहीं पीना चाहिए
कुँआर इनार का पानी

विवाह से पहले
नये लकड़ी के बने ‘कलभुत’* को
विधिवत लगाई गई हल्दी
पहनाया गया चकचक कोरा धोती,
और पल भर के लिए भी नहीं रुके गीत

गीत! विवाह के गीत
मटकोड़वा के गीत
चउकापुराई के गीत
गंगा माई के गीत

चली जा रही थी बारात
पर एक भी मर्द नहीं था बराती
जल-जीवन बचाने की जंग का
ये पूरा मोरचा टिका था
सिर्फ जननी के कंधों पर
कि पाताल फोड़, बस चली आएँ भगीरथी
जैसे उतर आती हैं कोख में

लकड़ी का ‘दुल्हा’ गोदी उठाए
आगे-आगे चली जा रही थीं श्यामल बुआ
मन ही मन कुछ बुदबुदाती
मानो जोड़ रही हों
दुनिया की सभी जलधाराओं का
आपस में नाभि-नाल।
चिर पुरातन चिर नवीन प्रकृति माँ से
मांगा जा रहा था वरदान
इनार की जनन शक्ति का

आदिम गीतों के अटूट स्वरों में
पूरे मन से हो रही थी प्रार्थना
कि कभी न चूके इनार का स्रोत
कभी न सूखे हमारे कंठ
हमेशा गीली रहे गौरैया की चोंच
माँ हरदम रहें मौजूद
आँखों की कोर से ईख की पोर तक में

दोनो हाथ जोड़े माताएँ टेर रहीं थीं गंगा माँ को
उनकी गीतों की गूँज टकरा रही थी
तमाम ग्रह-नक्षत्रों पर एक बूँद की तलाश में
जीवन खपा देने वाले वैज्ञानिकों की प्यास से
गीतों की गूँज दम देती थी
सहारा के रेगिस्तान में ओस चाटते बच्चों को।
गूंज भरोसा दे रही थी
तीसरे विश्वयुद्ध से सहमे नागरिकों को।
गीत पैठती जा रही थी
दुनिया भर की गगरियों और मटकों में
जो टिके थे
औरतों के माथे और कमर पर

गीतों के सामने टिकने की
भरपूर कोशिश कर रही थी प्यास
पर अपनी बेटियों के दर्द में बंधी
गंगा माँ
हमारे तमाम गुनाहों को माफ करती
धीरे-धीरे समाती जा रही थीं
ईनार में।

*लकड़ी से बना इनार का दुल्हा


-प्रमोद कुमार तिवारी (9868097199)