संक्षिप्त परिचय
कवि मूलतः पहाड़ से आता है और पहाड़ अपने आप में प्राकृतिक सुषमा और अपने सौंदर्य के लिए जाना जाता है। किंतु उस प्रकृति को जीते हुए क्या कवि ने वह द्वंद्वात्मकता दृष्टि अर्जित की है या नहीं जिसमें जीवन के मर्म को समझा जा सके । इस हिमालयी कवि से मेरी पहली मुलाकात भीमताल में उत्तराखंड स्कूली शिक्षा हेतु पाठ्पुस्तकों के लेखन के दौरान हुई। हुआ यूं कि बात ही बात में मैंने कहा कि उत्तराखंड के युवा रचनाकारों में महेश पुनेठा का नाम अग्रणी है । क्या आप उन्हें जानते हैं मेरे सामने खड़े एक शक्स ने कहा। मैंने कहा हां उन्हें बहुत पढ़ता हूं लेकिन अभी देखा नहीं हूं । वह शक्स मुस्कराते हुए कहा मैं ही महेश हूं । फिर आप सुधीजन समझ सकते हैं हम लोगों का मिलाप ।
महेश जी मूलतः मनुष्य के जीवन और उसके द्वंद्व को परखने वाले कवि हैं । इनके यहॉ लोक परंपराओं का विकास एक नए ढंग से होता है। जीवन की विविधता अगर उसको गति नहीं देती तो यह मात्र एक स्थिर चित्र होकर रह जाएगी । महेश जी के संदर्भ में एक बात जो सबसे ज्यादा महत्वपूर्ण है वह यह है कि उनकी निजता का निर्माण सामूहिकता से ही होता है इसलिए कहीं भी बड़बोलापन, आत्मग्रस्तता नहीं मिलती जिससे आज की युवा कविता ज्यादा ही दो चार है। लगता है कवि को अपने को व्यक्त करने के हर उपकरण के बारे में पता है और वह उसे सीधे वहीं आसपास से उठा लेता है। जब मैं यह कह रहा हूं तो तमाम इधर लिखी जा रही कविताओं को सामने रखकर जैसे निर्माण करने को तो निकल पड़ा पर बॉस बल्ली की कोई खबर नहीं एक सधे रचनाकार को एक एक उपकरण का पता रहता है और वह उसका जरूरत पड़ने पर इस्तेमाल कर लेता है। यह सब इस कवि के पास है । अगर कोई कवि यह सब पा लेता है जो कि आसान बिल्कुल नहीं है तो वह एक लंबी यात्रा को निकल सकता है यह कवि यह सब संभावना जगाता है।
10 मार्च 1971 को पिथौरागढ़ के लम्पाटा में जन्मे महेश चंद्र पुनेठा ने राजनीति शास्त्र से एम0ए0 कियाहै ।
विभिन्न पत्र-पत्रिकाओं में इनकी सौ से अधिक कविताएं,एलघुकथा,आलोचनात्मक लेख व समीक्षाएं- वागर्थ,कथादेश,बया,समकालीन जनमत,वर्तमान साहित्य,कृति ओर,कथन, लेखन सूत्र,प्रगतिशील वसुधा,आजकल ,लोक गंगा,कथा, दि संडे पोस्ट,पाखी,आधार शिला ,पल प्रतिपल,उन्नयन,उत्तरा,पहाड़, तेवर,बहाव,प्रगतिशील आकल्प,प्रतिश्रुति,युगवाणी ,पूर्वापर में प्रकाशित हुई हैं ।
भय अतल में नाम से एक कविता संग्रह प्रकाशित । संकेत द्वारा कविता केंद्रित अंक।
हिमाल प्रसंग के साहित्यिक अंकों का संपादन ।
उत्तराखंड स्कूली शिक्षा हेतु पाठ्पुस्तकों का लेखन व संपादन ।
शिक्षा संबंधी अनेक राष्ट्रीय तथा राज्य स्तरीय कार्यशालाओं में प्रतिभाग ।
शैक्षिक नवाचारों में विशेष रूचि ।
संप्रति- अध्यापन
प्रस्तुत है यहां उनकी दो कविताएं -
नहीं है कहीं कोई चर्चा
घर से भाग गयी दो बच्चों की मॉ
अपने प्रेमी के संग
कस्बे भर में फैल गयी है यह चर्चा
जंगल की आग की तरह
चर्चा में अपनी .अपनी तरह से
उपस्थित हो रहे हैं लोग
जहॉ भी मिलते हैं
दो-चार
किसी न किसी बहाने
शुरू हो जाते हैं
फिर ही ही ही खी खी खी
एक मत हैं सभी
महिला के ऐसी -वैसी होने पर
सभी की सहानुभूति है
उसके पति और परिवार के साथ
बच्चों के साथ सहानुभूति तो
स्वाभाविक है
महिला को कोई छिनाल
कोई कुलटा
कोई कुलच्छनी
कोई पत्थर कह रहा है
किसी को आपत्ति है कि
ऊंची जाति के होते हुए भी साली
भागी एक छोटी जाति के पुरूष के साथ
मिर्च.मसाले के साथ
दो नई सुनी-सुनायी बातें जोड़कर
अखबार वालों ने भी छाप दी है खबर
इस तरह चर्चा पहुंच गयी है
दूर-दूर तक
चर्चा में सब कुछ है
जो-जो हो सकता है एक स्त्री के बारे में
पर आश्चर्य
कहीं नहीं है कोई भी चर्चा
उन कारणों की
जिनके चलते
लेना पड़ा होगा
दो बच्चों की मॉ को
घर छोड़ने का यह कठिन फैसला ।
भीमताल
देखा तुझे बहुत नजदीक से
महसूस किया
रूप एरसएगंध और स्पर्श तेरा
साथ रहा तेरा जितने भी दिन
नित नयी ताजगी का हुआ एहसास
कुहरे में लिपटा साथ तेरे
और बारिश में भीगा भी
रह-रहकर आता है याद
धूप में मुस्कराना तेरा
हवा के स्पर्श से रोमांचित हो उठना
मौन वार्तालाप चलता रहा तुझसे
एक कैनवास सी फैली तू
हर पल एक नया चित्र होता जिसमें
न जाने कौन था वो
पुराने को मिटा
नया बना जाता था जो
चुपचाप
सुबह जहॉ तैल रंगो से बना लैंडस्केप होता
शाम के आते-आते वहॉ
बिजलियों के पेड़ उग आते
और चॉदनी रात में
चॉद दिख जाता खुद को निहारते हुए
तुझ में
आस-पास बनी रहती थी जो हलचल
याद हो आती है वो पल-पल
वो भुट्टा भूनता हुआ अधेड़
छोटे-छोटे बच्चे
हाथ बॅटा रहे होते जिसका
कितने प्यार से
देता था भुना भुट्टा
नींबू और नमक लगाकर
एक पात में रख
पूछता आत्मीयता से.
कहॉ से आए हो बाबूजी
कैसा लगा तुम्हें यहॉ आ कर
फिर आग्रह करता
एक और भुट्टा खाने का
भुट्टे के स्वाद सा
व्यवहार उसका
वो नुक्कड़ में चाय वाला
जो गिलास में चीनी फेंटते-फेंटते
बताता अपनी और अपने इलाके की
बहुत सारी बातें
बाबू जी एयह झील नहीं होती तो
कैसे चलता अपना गुजारा
कहॉ से होता आप लोगों से मिलना
कहॉ ये बतकही
ऐसे बतियाता वो
जैसे हम हों उसके पौने
वो नाव वाला
चप्पू खींचते-खींचते जो
बताता था
बाबू साहब !कितना भरा रहता था इसमें पानी
कुछ बरस पहले तक
वो पल्ले किनारे तक डबाडब
खाली जगह नहीं दिखती थी ऐसी
पीढ़ी गुजर गई हमारी तो नाव चलाते -चलाते
उस समय से चला रहे हैं
जब इक्का-दुक्का होटल और मकान थे यहॉ
अब तो जहॉ देखो
होटल ही होटल और रिजॉर्ट ही रिजॉर्ट
वो कॉटा बिछाए मछुआरा
जो बैठा दिख जाता इंतजार में अक्सर
जो देखता रहता हर चहल-पहल को
इधर-उधर की
जो हॅसी.ठिठोली करता साथी मछुआरों से
किसी विदेशी मैम को देख
याद आता है जब
तेरा सिमटना सिकुड़ना
घूमने लगते हैं ऑखों के सामने
इन सबके मुरझाते हुए चेहरे
सूखते हुए सपने
और चारों ओर बन आए रिजार्ट
दानवी आशियानों की तरह
निकलती हैं जिनसे रह.रहकर
अजीब-अजीब सी आवाजें डरावनी
किसी दुस्वप्न की तरह
काठ हो चुकी नावें
खेतों में खड़े-खड़े ठस हो चुके भुट्टे
खूंटी में टॅग चुकी जालें
चाय के खुमचों में जम चुकी काई
तू आज भी शांत होगी हमेशा की तरह
पर मैं जानता हूं
ऊपर से शांत दिखाई देने का मतलब
भीतर से शांत होना नहीं होता
जैसे बाहर से दिखाई देने वाला सत्य ही
नहीं होता अंतिम सत्य
जानने के लिए उसे
उतरना पड़ता है भीतर और भीतर
तेरा जन ही तेरा मन है
मुझे विश्वास है तुझे बचाएंगे भी वही
नहीं बचा पाएगा कोई कवि
या कोई प्रेमी युगल
जिसने दिए होंगे अनेकानेक रूपक
इक-दूजे को
तेरे जल में बनती बिगड़ती
पल-प्रतिपल छवियों के
साथ-साथ देखे होंगे अक्स
वो तो सिर्फ याद भर ही करेंगे तुझे
तेरी मधुर स्मृतियॉ बची रहेंगी उनके पास
हमेशा-हमेशा के लिए
पर तुझे बचाएंगे तेरे जन ही
रिजॉर्ट या होटल मालिक नहीं ।
संपर्क- जोशी भवन ,निकट लीड बैंक चिमस्यानौला पिथौरागढ़ 262501 मो0-९४११७०७४७०
आपके जाने के बाद हमने छोड़ दिया रूठना
अम्मा ने बात-बात पर तुनकना
भइया ने ठहाके लगाकर हंसना
... हम सब ने स्वाभिमान से जीना...
बदल-बदलकर घर उकता गए हम
तस्वीरे, फर्नीचर, गुलदान बदले
नहीं बदल पाए तो वह है घर में परसी उदासी
भौतिक तरक्की खूब की हमने
एक दूसरे से मिलना भी छूट गया
अस्त व्यस्त होते गए हम, साथ जीना मरना भी छूट गया
ठठरी ठठरी सी हो गई अम्मा..जोगी जोगी सा हो गया भइया
तितर-बितर आपके हीरा मोती
आपके जाने के बाद पता चला
आपका होना कितना जरूरी था....पिताजी की पुण्यतिथि में उन्हें याद करते हुए - साधना उपाध्याय (लखनऊ)
अपनों में नहीं रह पाने का गीत
उन्होंने मुझे इतना सताया
कि मैं उनकी दुनिया से रेंगता आया
मैंने उनके बीच लौटने की गरज से
बार-बार मुड़कर देखा
मगर उन्होंने मुझे एकबार भी नहीं बुलाया
ऐसे अलग हुआ मैं अपनों से
ऐसे हुआ मैं पराया
समुदायों की तरह टूटता बिखरता गया
मेरे सपनों का पिटारा
अकेलेपन की दुनिया में रहना ही पड़ा तो रहूँगा
मगर ऐसे नहीं जैसे बेचारा
क्योंकि मेरी समस्त यादें
सतायी हुई नहीं हैं
विरक्ति
जब तुम विरक्त हुए
तुम्हारे भीतर इस अहसास के लिए
जगह बनाना मुमकिन नहीं रहा होगा
कि तुम विरक्त हो रहे हो
बाद में परिभाषित हुआ होगा कि तुम विरक्त हो
अकेलेपन टूटन असहायता और घुटन ने जब
धीरे-धीरे बंजर किया होगा तुम्हारा जीवन
तुमने जीवन की भूमि बदलने के बारे में सोचा होगा
जीवन के लिए दूसरी भूमि की तलाश में तुमने पायी होगी
यह अकेले आदमी की बस्ती
जिसे कहा जा रहा है विरक्ति
इस झोंपड़ी में
इस झोंपड़ी में इतनी जगह शेष है कि
बीस व्यक्ति खड़े रह सकें यहाँ आकर
मगर इसके वीरान हाहाकार में
मैं किसी को आने नहीं देना चाहता
फिर भी आ ही जाता है कोई न कोई
सूखी घास सरीखी मेरी इच्छा को कुचलता हुआ
कोई भी आ जाता है कोई भी दाना ढूंढती चींटी
सूनी गाय भटकता कुत्ता
मुझे हिचक होती है उनसे मना करने में
यही है अनंत मामलों में मेरे चुप रहने की वजह
शाम
धीमा पड़ गया है सुनने और देखने के कारखाने का संगीत
मंद पड़ गई है पेड़ों की सरसराहट की रोशनी
आपस में मिल गए हैं दुनिया की सभी नदियों के किनारे
पृथ्वी महसूस कर रही है आसमान का स्पर्श
नीले अंधेरे के कुरछुल में रात ला रही है सितारे की आग
पीला फूल चाँद
मैं उस गाय की तरह हो गया हूँ
जिसने बछड़े को जन्म दिया है
या कह लो उस सूअरी की तरह
जिसने पूरे बारह बच्चे जने
और अब उनकी सुरक्षा में डुकरती है
आज मैं एक सूम काले पडरेट को जन चुकी
भैंस के पेट की तरह हल्का हो गया हूँ
या कह लो उस भेड़ की तरह खुश
जिसने जन्मा है काली मुंडी और सफेद शरीर वाले मेमने को
आज ऐसा हुआ है
जिससे मिला है आत्मा को सुकून
कल की रात का चाँद
अभी तक लग रहा है छाती पर गिर रहे
सुलगते कोयले की तरह
पर आज की रात
आत्मा पर झर चुका है
पीले फूल की तरह चाँद
याद
बारिश को याद किया
फुहारों ने भिगो दिया चेहरा
हवा को याद किया
फड़फड़ाने लगी पहनी हुई सफेद शर्ट
आसमान को याद किया
याद आए वे दिन जब अकेला नहीं था
मिट्टी को याद किया
उगने-उगने को हो आया भीतर कुछ
तुम्हें याद किया
बैचैनी से बंद हो गए दुनिया के सभी दरवाजे
सुख दुख
उनकी अपनी किस्म की अराजकता है मेरे भीतर
सिर्फ दुखों की नहीं है
सुखों की भी है
एक कविता पैदल चलने के लिए
1
आषा न हो तो कौन चले पैदल आशा के लिए
आशा न हो तो कौन नदी पार करे आशा के लिए
आशा न हो तो कौन घुसे जलते घर में आशा के लिए
2
जंगल से निकल कर आ रही परछाई
आशा नहीं भी तो हो सकती है
पर कोई समझता है कि वह आशा ही है
पहाड़ से उतरती हुई परछाई
आशा नहीं भी तो हो सकती है
पर कोई समझता है कि वह आशा ही है
गठरी सिर पर धरे जा रही परछाई
आशा नहीं भी तो हो सकती है
पर कोई समझता है कि वह आशा ही है
जो आशा को खोजता फिरता है
उसे दुनिया की हर परछाई में आशा दिखती है
3
पेड़ पर फूटा नया पत्ता आशा का है
ठिठुरती नदी पर धूप का टुकड़ा आशा का है
रेत की पगडंडी पर पांव का छापा आशा का है
तुम्हारे चेहरे को आकर थामा है जिन दो हाथों ने आशा के हैं
दुनिया में क्या है जो आशा का नहीं है
सभी कुछ तो आशा का है
एक सुख था
मृत्यु से बहुत डरने वाली बुआ के बिल्कुल सामने आकर बैठ गई थी मृत्यु
किसी विकराल काली बिल्ली की तरह सबको बहुत साफ दिखायी
और सुनायी देती हुई
मगर तब भी, अपनी मृत्यु के कुछ क्षण पहले तक भी
उतनी ही हंसोड़ बनी रही बुआ
अपने पूरे अतीत को ऐसे सुनाती रही जैसे वह कोई लघु हास्य नाटिका हो
यह एक दृष्यांश ही काफी होगा-जिसमें बुआ के देखते-देखते निष्प्राण हो गए फूफा
गांव में कोई नहीं था
पक्षी भी जैसे सबके सब किसानों के साथ ही चले गए गांव खाली कर खेतों और जंगल में
कैसा रहा होगा पूरे गांव में सिर्फ एक जीवित और एक मृतक का होना
कैसे किया होगा दोनों ने एक दूसरे का सामना
इससे पहले कि जीवन छोड़े दे
मरणासन्न को खाट से नीचे उतार लेने का रिवाज है
बुआ बहुत सोचने के बावजूद ऐसा नहीं कर सकी
अकेली थी
और फूफा, मरने के बाद भी उनसे कतई उठने वाले नहीं थे
जाने क्या सोच बुआ ने मरने के बाद खाट को टेढ़ा कर
फूफा को जमीन पर लुढ़का दिया
अब रोती तो कोई सुनने वाला नहीं था
बिना सुनने वालों के पहली बार रो रही थी वह जीवन में
इस अजीब सी बात की ओर ध्यान जाते ही रोते-रोते हंसी फूट पड़ी बुआ की
बुआ जीवन में रोने के लम्बे अनुभव और अभ्यास के बावजूद
चाहकर भी रो न सकी
मृतक के पास वह जीवित
बैठी रही सूर्यास्त की प्रतीक्षा करती हुई
इस तरह जीवन को चुटकलों की तरह सुनाने वाली बुआ के जीवन का चुटकला
पिच्चासी वर्ष की बखूब अवस्था में जब पूरा हो गया
कुछ लोग हंसे, कुछ ने गीत गाये,कुछ को आयी रुलायी
बूढ़ी बुआ हमारे जीवन में अभी भी है
उतनी ही अटपटी, उतनी ही भोली, उतनी ही गंवई
मगर खेत की मेड़ के गिर गए रूंख सी
कहीं भी नहीं दिखाई देती हुई
यह बात भी अब तो चार बरस पुरानी हुई
चार बरस पहले
एक सुख था जीवन में
- कवि प्रभात
रोटी और बेटी
दोनों बहुत जरूरी है ,
इन्सान को इन्सान बनाने के लिए
औरत के मन को समझने,
स्नेह - नेह की डोर पकड़ने
रिस्तो को संजीदगी से निभाने के लिए ,
क्योकि यही वह रिश्ता है, जो कभी
अपने आप को बाप होने का
अच्छे संकल्पों के साथ जीने का
नारी को सम्मान देने का
हरपल एहसास दिलाता है,
चंचल मन को आदर्शवादिता
का, समाज के मूल्यों के साथ
कदमताल कर चलने की नशीहत
देकर औरो से यही ब्यवहार करने का
नैतिक धर्म का पाठ पढाता है
बेटी जब कुछ घंटे के लिए
घर से बाहर जाती है,
बाप को उसके सुरक्षित घर
लौटने की कामना सताती है
बेटी जब अपने घर जाती है ,
बाप को उसके जीवन भर की
सुरक्षा की चिंता सताती है .
और यदि बेटी बाप के जीतेजी
दुनिया से कूच कर जाये तो
मारे गम, बाप की खुबसूरत
बगिया ही उजड़ जाती है
रोटी और बेटी दोनों अनमोल है ,
एक जीवन की राह को कठोर बनाती है,
दूसरी अपने मुस्कान से जीवन में मुस्कान लाती है
एक के लिए हर रोज इन्सान मरता है
दूसरे की खुसी के लिए वह हस कर कुर्बानी चढ़ता है
देह की
देह में आहुति
ये कैसा होम है
इरोम शर्मिला
... बिखरी पड़ी हैं
अनगिन सूखी समिधायें
हवि होने
पर जाने
किस पल को ताकती
टोहती
बेबस हो
एक मूक बेचारगी
दिशाओं में फैली
जाने काल की किस
शुभ घड़ी की प्रतीक्षा
तुमसे एक विनती
मेरी सखी!!
अपनी देह में प्रज्ज्वलित
अग्नि नद की
सुर्ख़ धार
के रास्ते खोल दो
बरसों से ठंडे पड़े
अपनी गौरवगाथा में लीन
अनगिन नदी-नालो के लिये.......
मन को मथता पाठ....
दोहों की दीपावली, रमा भाव-रस खान.
श्री गणेश के बिम्ब को, अलंकार अनुमान..
दीप सदृश जलते रहें, करें तिमिर का पान.
सुख समृद्धि यश पा बनें, आप चन्द्र-दिनमान..
अँधियारे का पान कर करे उजाला दान.
माटी का दीपक 'सलिल', सर्वाधिक गुणवान..
मन का दीपक लो जला, तन की बाती डाल.
इच्छाओं का घृत जले, मन नाचे दे ताल..
दीप अलग सबके मगर, उजियारा है एक.
राह अलग हर पन्थ की, ईश्वर सबका एक..
बुझ जाती बाती 'सलिल', मिट जाता है दीप.
यही सूर्य का वंशधर, प्रभु के रहे समीप..
दीप अलग सबके मगर, उजियारा है एक.
राह अलग हर पन्थ की, लेकिन एक विवेक..
दीपक बाती ज्योति को, सदा संग रख नाथ!
रहें हाथ जिस पथिक के, होगा वही सनाथ..
मृण्मय दीपक ने दिया, सारा जग उजियार.
तभी रहा जब परस्पर, आपस में सहकार..
राजमहल को रौशनी, दे कुटिया का दीप.
जैसे मोती भेंट दे, खुद मिट नन्हीं सीप..
दीप ब्रम्ह है, दीप हरी, दीप काल सच मान.
सत-शिव-सुन्दर है यही, सत-चित-आनंद गान..
मिले दीप से दीप तो, बने रात भी प्रात.
मिला हाथ से हाथ लो, दो शह भूलो मात..
ढली सांझ तो निशा को, दीप हुआ उपहार.
अँधियारे के द्वार पर, जगमग बन्दनवार..
रहा रमा में मन रमा, किसको याद गणेश.
बलिहारी है समय की, दिया जलाये दिनेश..
लीप-पोतकर कर लिया, जगमग सब घर-द्वार.
तनिक न सोचा मिट सके, मन की कभी दरार..
सरहद पर रौशन किये, शत चराग दे जान.
लक्ष्मी नहीं शहीद का, कर दीपक गुणगान..
दीवाली का दीप हर, जगमग करे प्रकाश.
दे संतोष समृद्धि सुख, अब मन का आकाश..
कुटिया में पाया जनम, राजमहल में मौत.
आशा-श्वासा बहन हैं, या आपस में सौत?.
पर उन्नति लख जल मरी, आप ईर्ष्या-डाह.
पर उन्नति हित जल मरी, बाती पाई वाह..
तूफानों से लड़-जला, अमर हो गया दीप.
तूफानों में पल जिया, मोती पाले सीप..
तन माटी का दीप है, बाती चलती श्वास.
आत्मा उर्मिल वर्तिका, घृत अंतर की आस..
जीते की जय बोलना, दुनिया का दस्तूर.
जलते दीपक को नमन, बुझते से जग दूर..
मातु-पिता दोनों गए, भू को तज सुरधाम.
स्मृति-दीपक बालकर, करता 'सलिल' प्रणाम..
जननि-जनक की याद है, जीवन का पाथेय.
दीप-ज्योति में बस हुए, जीवन-ज्योति विधेय..
नन्हें दीपक की लगन, तूफां को दे मात.
तिमिर रात का मिटाकर, 'सलिल' उगा दे प्रात..
दीप-ज्योति तन-मन 'सलिल', आत्मा दिव्य प्रकाश.
तेल कामना को जला, तू छू ले आकाश..