Sunday, September 15, 2019

ऊंचा कद !

*चार महीने बीत चुके थे, बल्कि 10 दिन ऊपर हो गए थे, किंतु बड़े भइया की ओर से अभी तक कोई ख़बर नहीं आई थी कि वह पापा को लेने कब आएंगे. यह कोई पहली बार नहीं था कि बड़े भइया ने ऐसा किया हो. हर बार उनका ऐसा ही रवैया रहता है. जब भी पापा को रखने की उनकी बारी आती है, वह समस्याओं से गुज़रने लगते हैं. कभी भाभी की तबीयत ख़राब हो जाती है, कभी ऑफिस का काम बढ़ जाता है और उनकी छुट्टी कैंसिल हो जाती है. विवश होकर मुझे ही पापा को छोड़ने मुंबई जाना पड़ता है. हमेशा की तरह इस बार भी पापा की जाने की इच्छा नहीं थी, किंतु मैंने इस ओर ध्यान नहीं दिया और उनका व अपना मुंबई का रिज़र्वेशन करवा लिया.*
दिल्ली-मुंबई राजधानी एक्सप्रेस अपने टाइम पर थी. सेकंड एसी की निचली बर्थ पर पापा को बैठाकर सामने की बर्थ पर मैं भी बैठ गया. साथवाली सीट पर एक सज्जन पहले से विराजमान थे. बाकी बर्थ खाली थीं. कुछ ही देर में ट्रेन चल पड़ी. अपनी जेब से मोबाइल निकाल मैं देख रहा था, तभी कानों से पापा का स्वर टकराया, “मुन्ना, कुछ दिन तो तू भी रहेगा न मुंबई में. मेरा दिल लगा रहेगा और प्रतीक को भी अच्छा लगेगा.”
*पापा के स्वर की आर्द्रता पर तो मेरा ध्यान गया नहीं, मन-ही-मन मैं खीझ उठा. कितनी बार समझाया है पापा को कि मुझे ‘मुन्ना’ न कहा करें. ‘रजत’ पुकारा करें. अब मैं इतनी ऊंची पोस्ट पर आसीन एक प्रशासनिक अधिकारी हूं. समाज में मेरा एक अलग रुतबा है. ऊंचा क़द है, मान-सम्मान है. बगल की सीट पर बैठा व्यक्ति मुन्ना शब्द सुनकर मुझे एक सामान्य-सा व्यक्ति समझ रहा होगा. मैं तनिक ज़ोर से बोला, “पापा, परसों मेरी गर्वनर के साथ मीटिंग है. मैं मुंबई में कैसे रुक सकता हूं?” पापा के चेहरे पर निराशा की बदलियां छा गईं. मैं उनसे कुछ कहता, तभी मेरा मोबाइल बज उठा. रितु का फोन था. भर्राए स्वर में वह कह रही थी, “पापा ठीक से बैठ गए न.” “हां हां बैठ गए हैं. गाड़ी भी चल पड़ी है.”  “देखो, पापा का ख़्याल रखना. रात में मेडिसिन दे देना. भाभी को भी सब अच्छी तरह समझाकर आना. पापा को वहां कोई तकलीफ़ नहीं होनी चाहिए.”* “नहीं होगी.” मैंने फोन काट दिया. “रितु का फोन था न. मेरी चिंता कर रही होगी.” पापा के चेहरे पर वात्सल्य उमड़ आया था. रात में खाना खाकर पापा सो गए. थोड़ी देर में गाड़ी कोटा स्टेशन पर रुकी और यात्रियों के शोरगुल से हड़कंप-सा मच गया. तभी कंपार्टमेंट का दरवाज़ा खोलकर जो व्यक्ति अंदर आया, उसे देख मुझे बेहद आश्‍चर्य हुआ. मैं तो सोच भी नहीं सकता था कि रमाशंकर से इस तरह ट्रेन में मुलाक़ात होगी.
          एक समय रमाशंकर मेरा पड़ोसी और सहपाठी था. हम दोनों के बीच मित्रता कम और नंबरों को लेकर प्रतिस्पर्धा अधिक रहती थी. हम दोनों ही मेहनती और बुद्धिमान थे, किंतु न जाने क्या बात थी कि मैं चाहे कितना भी परिश्रम क्यों न कर लूं, बाज़ी सदैव रमाशंकर के हाथ लगती थी. शायद मेरी ही एकाग्रता में कमी थी. कुछ समय पश्‍चात् पापा ने शहर के पॉश एरिया में मकान बनवा लिया. मैंने कॉलेज चेंज कर लिया और इस तरह रमाशंकर और मेरा साथ छूट गया. दो माह पूर्व एक सुबह मैं अपने ऑफिस पहुंचा. कॉरिडोर में मुझसे मिलने के लिए काफ़ी लोग बैठे हुए थे. बिना उनकी ओर नज़र उठाए मैं अपने केबिन की ओर बढ़ रहा था. यकायक एक व्यक्ति मेरे सम्मुख आया और प्रसन्नता के अतिरेक में मेरे गले लग गया, “रजत यार, तू कितना बड़ा आदमी बन गया. पहचाना मुझे? मैं रमाशंकर.” मैं सकपका गया. फीकी-सी मुस्कुराहट मेरे चेहरे पर आकर विलुप्त हो गई. इतने लोगों के सम्मुख़ उसका अनौपचारिक व्यवहार मुझे ख़ल रहा था. वह भी शायद मेरे मनोभावों को ताड़ गया था, तभी तो एक लंबी प्रतीक्षा के उपरांत जब वह मेरे केबिन में दाख़िल हुआ, तो समझ चुका था कि वह अपने सहपाठी से नहीं, बल्कि एक प्रशासनिक अधिकारी से मिल रहा था. उसका मुझे ‘सर’ कहना मेरे अहं को संतुष्ट कर गया. यह जानकर कि वह बिजली विभाग में महज़ एक क्लर्क है, जो मेरे समक्ष अपना तबादला रुकवाने की गुज़ारिश लेकर आया है, मेरा सीना अभिमान से चौड़ा हो गया. कॉलेज के प्रिंसिपल और टीचर्स तो क्या, मेरे सभी कलीग्स भी यही कहते थे कि एक दिन रमाशंकर बहुत बड़ा आदमी बनेगा. हुंह, आज मैं कहां से कहां पहुंच गया और वह… पिछली स्मृतियों को पीछे धकेल मैं वर्तमान में पहुंचा तो देखा, रमाशंकर ने अपनी वृद्ध मां को साइड की सीट पर लिटा दिया और स्वयं उनके क़रीब बैठ गया. एक उड़ती सी नज़र उस पर डाल मैंने अख़बार पर आंखें गड़ा दीं. तभी रमाशंकर बोला, “नमस्ते सर, मैंने तो देखा ही नहीं कि आप बैठे हैं.”  मैंने नम्र स्वर में पूछा, “कैसे हो रमाशंकर?”
“ठीक हूं सर.”
“कोटा कैसे आना हुआ?”
छोटी बुआ की बेटी की शादी में आया था. अब मुंबई जा रहा हूं. शायद आपको याद हो, मेरा एक छोटा भाई था. “छोटा भाई, हां याद आया, क्या नाम था उसका?” मैंने स्मृति पर ज़ोर डालने का उपक्रम किया जबकि मुझे अच्छी तरह याद था कि उसका नाम देवेश था. “सर, आप इतने ऊंचे पद पर हैं. आए दिन हज़ारों लोगों से मिलते हैं. आपको कहां याद होगा? देवेश नाम है उसका सर.” पता नहीं उसने मुझ पर व्यंग्य किया था या साधारण रूप से कहा था, फिर भी मेरी गर्दन कुछ तन-सी गई.  उस पर एहसान-सा लादते हुए मैं बोला,“देखो रमाशंकर, यह मेरा ऑफिस नहीं है, इसलिए सर कहना बंद करो और मुझे मेरे नाम से पुकारो. हां तो तुम क्या बता रहे थे, देवेश मुंबई में है?” “हां रजत, उसने वहां मकान ख़रीदा है. दो दिन पश्‍चात् उसका गृह प्रवेश है. चार-पांच दिन वहां रहकर मैं और अम्मा दिल्ली लौट आएंगे.” “इस उम्र में इन्हें इतना घुमा रहे हो?”  “अम्मा की आने की बहुत इच्छा थी. इंसान की उम्र भले ही बढ़ जाए, इच्छाएं तो नहीं मरतीं न.”
“हां, यह तो है. पिताजी कैसे हैं?” “पिताजी का दो वर्ष पूर्व स्वर्गवास हो गया था. अम्मा यह दुख झेल नहीं पाईं और उन्हें हार्टअटैक आ गया था, बस तभी से वह बीमार रहती हैं. अब तो अल्ज़ाइमर भी बढ़ गया है.” “तब तो उन्हें संभालना मुश्किल होता होगा. क्या करते हो? छह-छह महीने दोनों भाई रखते होंगे.” ऐसा पूछकर मैं शायद अपने मन को तसल्ली दे रहा था. आशा के विपरीत रमाशंकर बोला,  “नहीं-नहीं, मैं तो ऐसा सोच भी नहीं सकता. अम्मा शुरू से दिल्ली में रही हैं. उनका कहीं और मन लगना मुश्किल है. मैं नहीं चाहता, इस उम्र में उनकी स्थिति पेंडुलम जैसी हो जाए. कभी इधर, तो कभी उधर. कितनी पीड़ा होगी उन्हें यह देखकर कि पिताजी के जाते ही उनका कोई घर ही नहीं रहा. वह हम पर बोझ हैं.”
          मैं मुस्कुराया, “रमाशंकर, इंसान को थोड़ा व्यावहारिक भी होना चाहिए. जीवन में स़िर्फ भावुकता से काम नहीं चलता है. अक्सर इंसान दायित्व उठाते-उठाते थक जाता है और तब ये विचार मन को उद्वेलित करने लगते हैं कि अकेले हम ही क्यों मां-बाप की सेवा करें, दूसरा क्यों न करे.” “पता नहीं रजत, मैं ज़रा पुराने विचारों का इंसान हूं. मेरा तो यह मानना है कि हर इंसान की करनी उसके साथ है. कोई भी काम मुश्क़िल तभी लगता है, जब उसे बोझ समझकर किया जाए. मां-बाप क्या कभी अपने बच्चों को बोझ समझते हैं? आधे-अधूरे कर्त्तव्यों में कभी आस्था नहीं होती रजत, मात्र औपचारिकता होती है और सबसे बड़ी बात जाने-अनजाने हमारे कर्म ही तो संस्कार बनकर हमारे बच्चों के द्वारा हमारे सम्मुख आते हैं. समय रहते यह छोटी-सी बात इंसान की समझ में आ जाए, तो उसका बुढ़ापा भी संवर जाए.” मुझे ऐसा लगा, मानो रमाशंकर ने मेरे मुख पर तमाचा जड़ दिया हो. मैं नि:शब्द, मौन सोने का उपक्रम करने लगा, किंतु नींद मेरी आंखों से अब कोसों दूर हो चुकी थी. रमाशंकर की बातें मेरे दिलोदिमाग़ में हथौड़े बरसा रही थीं. इतने वर्षों से संचित किया हुआ अभिमान पलभर में चूर-चूर हो गया था. प्रशासनिक परीक्षा की तैयारी के लिए इतनी मोटी-मोटी किताबें पढ़ता रहा, किंतु पापा के मन की संवेदनाओं को, उनके हृदय की पीड़ा को नहीं पढ़ सका. क्या इतना बड़ा मुक़ाम मैंने स़िर्फ अपनी मेहनत के बल पर पाया है. नहीं, इसके पीछे पापा-मम्मी की वर्षों की तपस्या निहित है. आख़िर उन्होंने ही तो मेरी आंखों को सपने देखने सिखाए. जीवन में कुछ कर दिखाने की प्रेरणा दी. रात्रि में जब मैं देर तक पढ़ता था, तो पापा भी मेरे साथ जागते थे कि कहीं मुझे नींद न आ जाए. मेरे इस लक्ष्य को हासिल करने में पापा हर क़दम पर मेरे साथ रहे और आज जब पापा को मेरे साथ की ज़रूरत है, तो मैं व्यावहारिकता का सहारा ले रहा हूं. दो वर्ष पूर्व की स्मृति मन पर दस्तक दे रही थी. सीवियर हार्टअटैक आने के बाद मम्मी बीमार रहने लगी थीं. एक शाम ऑफिस से लौटकर मैं पापा-मम्मी के बेडरूम में जा रहा था, तभी अंदर से आती आवाज़ से मेरे पांव ठिठक गए. मम्मी पापा से कह रही थीं, “इस दुनिया में जो आया है, वह जाएगा भी. कोई पहले, तो कोई बाद में. इतने इंटैलेक्चुअल होते हुए भी आप इस सच्चाई से मुंह मोड़ना चाह रहे हैं.”
          “मैं क्या करूं पूजा? तुम्हारे बिना अपने अस्तित्व की कल्पना भी मेरे लिए कठिन है. कभी सोचा है तुमने कि तुम्हारे बाद मेरा क्या होगा?” पापा का कंठ अवरुद्ध हो गया था, किंतु मम्मी तनिक भी विचलित नहीं हुईं और शांत स्वर में बोलीं थीं, “आपकी तरफ़ से तो मैं पूरी तरह से निश्‍चिंत हूं. रजत और रितु आपका बहुत ख़्याल रखेंगे, यह एक मां के अंतर्मन की आवाज़ है, उसका विश्‍वास है जो कभी ग़लत नहीं हो सकता.” इस घटना के पांच दिन बाद ही मम्मी चली गईं थीं. कितने टूट गए थे पापा. बिल्कुल अकेले पड़ गए थे. उनके अकेलेपन की पीड़ा को मुझसे अधिक मेरी पत्नी रितु ने समझा. यूं भी वह पापा के दोस्त की बेटी थी और बचपन से पापा से दिल से जुड़ी हुई थी. उसने कभी नहीं चाहा, पापा को अपने से दूर करना, किंतु मेरा मानना था कि कोरी भावुकता में लिए गए फैसले अक्सर ग़लत साबित होते हैं. इंसान को प्रैक्टिकल अप्रोच से काम लेना चाहिए. अकेले मैं ही क्यों पापा का दायित्व उठाऊं? दोनों बड़े भाई क्यों न उठाएं? जबकि पापा ने तीनों को बराबर का स्नेह दिया, पढ़ाया, लिखाया, तो दायित्व भी तीनों का बराबर है. छह माह बाद मम्मी की बरसी पर यह जानते हुए भी कि दोनों बड़े भाई पापा को अपने साथ रखना नहीं चाहते, मैंने यह फैसला किया था कि हम तीनों बेटे चार-चार माह पापा को रखेंगे. पापा को जब इस बात का पता चला, तो कितनी बेबसी उभर आई थी उनके चेहरे पर. चेहरे की झुर्रियां और गहरा गई थीं. उम्र मानो 10 वर्ष आगे सरक गई थी. सारी उम्र पापा की दिल्ली में गुज़री थी. सभी दोस्त और रिश्तेदार यहीं पर थे, जिनके सहारे उनका व़क्त कुछ अच्छा बीत सकता था, किंतु… सोचते-सोचते मैंने एक गहरी सांस ली. आंखों से बह रहे पश्‍चाताप के आंसू पूरी रात मेरा तकिया भिगोते रहे. उफ्… यह क्या कर दिया मैंने. पापा को तो असहनीय पीड़ा पहुंचाई ही, मम्मी के विश्‍वास को भी खंडित कर दिया. आज वह जहां कहीं भी होंगी, पापा की स्थिति पर उनकी आत्मा कलप रही होगी. क्या वह कभी मुझे क्षमा कर पाएंगी? रात में कई बार अम्मा का रमाशंकर को आवाज़ देना और हर बार उसका चेहरे पर बिना शिकन लाए उठना, मुझे आत्मविश्‍लेषण के लिए बाध्य कर रहा था. उसे देख मुझे एहसास हो रहा था कि इंसानियत और बड़प्पन हैसियत की मोहताज नहीं होती. वह तो दिल में होती है. अचानक मुझे एहसास हुआ, मेरे और रमाशंकर के बीच आज भी प्रतिस्पर्धा जारी है. इंसानियत की प्रतिस्पर्धा, जिसमें आज भी वह मुझसे बाज़ी मार ले गया था. पद भले ही मेरा बड़ा था, किंतु रमाशंकर का क़द मुझसे बहुत ऊंचा था. गाड़ी मुंबई सेंट्रल पर रुकी, तो मैं रमाशंकर के क़रीब पहुंचा. उसके दोनों हाथ थाम मैं भावुक स्वर में बोला, “रमाशंकर मेरे दोस्त, चलता हूं. यह सफ़र सारी ज़िंदगी मुझे याद रहेगा.” कहने के साथ ही मैंने उसे गले लगा लिया. आश्‍चर्यमिश्रित ख़ुशी से वह मुझे देख रहा था. मैं बोला, “वादा करो, अपनी फैमिली को लेकर मेरे घर अवश्य आओगे.” “आऊंगा क्यों नहीं, आखिऱ इतने वर्षों बाद मुझे मेरा दोस्त मिला है.” ख़ुशी से उसकी आवाज़ कांप रही थी. अटैची उठाए पापा के साथ मैं नीचे उतर गया. स्टेशन के बाहर मैंने टैक्सी पकड़ी और ड्राइवर से एयरपोर्ट चलने को कहा. पापा हैरत से बोले, “एयरपोर्ट क्यों?” भावुक होकर मैं पापा के गले लग गया और रुंधे कंठ से बोला, “पापा, मुझे माफ़ कर दीजिए. हम वापिस दिल्ली जा रहे हैं. अब आप हमेशा वहीं अपने घर में रहेंगे.” पापा की आंखें नम हो उठीं और चेहरा खुशी से खिल उठा. “जुग जुग जिओ मेरे बच्चे.” वह बुदबुदाए. कुछ पल के लिए उन्होंन अपनी आंखें बंद कर लीं, फिर चेहरा उठाकर आकाश की ओर देखा. मुझे ऐसा लगा मानो वह मम्मी से कह रहे हों, देर से ही सही, तुम्हारा विश्‍वास सही निकला. आप किस राह पर हैं,??
रजत या रमाशंकर
विचारणीय

Sunday, August 4, 2019

कुछ दोस्त बहुत याद आते हैं।

मैं यादों का
      किस्सा खोलूँ तो,
      कुछ दोस्त बहुत याद आते हैं,
मैं गुजरे
      पल को सोचूँ  तो,
      कुछ दोस्त बहुत याद आते हैं,
अब जाने कौन सी नगरी में,
     आबाद हैं जाकर मुद्दत से,
मैं देर रात तक जागूँ तो,
      कुछ दोस्त बहुत याद आते हैं,
कुछ बातें थीं फूलों जैसी,
      कुछ लहजे खुशबू जैसे थे,
मैं शहर-ए-चमन में टहलूँ तो,
      कुछ दोस्त बहुत याद आते हैं।
सबकी जिंदगी बदल गयी,
      एक नए सिरे में ढल गयी,
किसी को नौकरी से फुरसत नहीं,
      किसी को दोस्तों की जरुरत नहीं,
सारे यार गुम हो गये हैं,
      "तू" से "तुम" और "आप" हो गये हैं,
मैं गुजरे पल को सोचूँ तो,
      कुछ दोस्त बहुत याद आते हैं,
धीरे धीरे उम्र कट जाती है,
      जीवन यादों की पुस्तक बन जाती है,
कभी किसी की याद बहुत तड़पाती है
और कभी
यादों के सहारे ज़िन्दगी कट जाती है।
किनारों पे सागर के खजाने नहीं आते,
      फिर जीवन में दोस्त पुराने नहीं आते,
जी लो इन पलों को हंस के ऐ दोस्त,
      फिर लौट के दोस्ती के जमाने नहीं आते ।।
- हरिवंशराय बच्चन

Thursday, August 1, 2019

गायत्री निवास

बच्चों को स्कूल बस में बैठाकर वापस आ शालू खिन्न मन से टैरेस पर जाकर बैठ गई. सुहावना मौसम, हल्के बादल और पक्षियों का मधुर गान कुछ भी उसके मन को वह सुकून नहीं दे पा रहे थे, जो वो अपने पिछले शहर के घर में छोड़ आई थी. शालू की इधर-उधर दौड़ती सरसरी नज़रें थोड़ी दूर एक पेड़ की ओट में खड़ी बुढ़िया पर ठहर गईं. ‘ओह! फिर वही बुढ़िया, क्यों इस तरह से उसके घर की ओर ताकती है?’ शालू की उदासी बेचैनी में तब्दील हो गई, मन में शंकाएं पनपने लगीं. इससे पहले भी शालू उस बुढ़िया को तीन-चार बार नोटिस कर चुकी थी. दो महीने हो गए थे शालू को पूना से गुड़गांव शिफ्ट हुए, मगर अभी तक एडजस्ट नहीं हो पाई थी. पति सुधीर का बड़े ही शॉर्ट नोटिस पर तबादला हुआ था, वो तो आते ही अपने काम और ऑफ़िशियल टूर में व्यस्त हो गए. छोटी शैली का तो पहली क्लास में आराम से एडमिशन हो गया, मगर सोनू को बड़ी मुश्किल से पांचवीं क्लास के मिड सेशन में एडमिशन मिला. वो दोनों भी धीरे-धीरे रूटीन में आ रहे थे, लेकिन शालू, उसकी स्थिति तो जड़ से उखाड़कर दूसरी ज़मीन पर रोपे गए पेड़ जैसी हो गई थी, जो अभी भी नई ज़मीन नहीं पकड़ पा रहा था. सब कुछ कितना सुव्यवस्थित चल रहा था पूना में. उसकी अच्छी जॉब थी. घर संभालने के लिए अच्छी मेड थी, जिसके भरोसे वह घर और रसोई छोड़कर सुकून से ऑफ़िस चली जाती थी. घर के पास ही बच्चों के लिए एक अच्छा-सा डे केयर भी था. स्कूल के बाद दोनों बच्चे शाम को उसके ऑफ़िस से लौटने तक वहीं रहते. लाइफ़ बिल्कुल सेट थी, मगर सुधीर के एक तबादले की वजह से सब गड़बड़ हो गया. यहां न आस-पास कोई अच्छा डे केयर है और न ही कोई भरोसे लायक मेड ही मिल रही है. उसका करियर तो चौपट ही समझो और इतनी टेंशन के बीच ये विचित्र बुढ़िया. कहीं छुपकर घर की टोह तो नहीं ले रही? वैसे भी इस इलाके में चोरी और फिरौती के लिए बच्चों का अपहरण कोई नई बात नहीं है. सोचते-सोचते शालू परेशान हो उठी. दो दिन बाद सुधीर टूर से वापस आए, तो शालू ने उस बुढ़िया के बारे में बताया. सुधीर को भी कुछ चिंता हुई, “ठीक है, अगली बार कुछ ऐसा हो, तो वॉचमैन को बोलना वो उसका ध्यान रखेगा, वरना फिर देखते हैं, पुलिस कम्प्लेन कर सकते हैं.” कुछ दिन ऐसे ही गुज़र गए. शालू का घर को दोबारा ढर्रे पर लाकर नौकरी करने का संघर्ष  जारी था, पर इससे बाहर आने की कोई सूरत नज़र नहीं आ रही थी. एक दिन सुबह शालू ने टैरेस से देखा, वॉचमैन उस बुढ़िया के साथ उनके मेन गेट पर आया हुआ था. सुधीर उससे कुछ बात कर रहे थे. पास से देखने पर उस बुढ़िया की सूरत कुछ जानी पहचानी-सी लग रही थी. शालू को लगा उसने यह चेहरा कहीं और भी देखा है, मगर कुछ याद नहीं आ रहा था. बात करके सुधीर घर के अंदर आ गए और वह बुढ़िया मेन गेट पर ही खड़ी रही. “अरे, ये तो वही बुढ़िया है, जिसके बारे में मैंने आपको बताया था. ये यहां क्यों आई है?” शालू ने चिंतित स्वर में सुधीर से पूछा. “बताऊंगा तो आश्चर्यचकित रह जाओगी. जैसा तुम उसके बारे में सोच रही थी, वैसा कुछ भी नहीं है. जानती हो वो कौन है?” शालू का विस्मित चेहरा आगे की बात सुनने को बेक़रार था. “वो इस घर की पुरानी मालकिन हैं.” “क्या? मगर ये घर तो हमने मिस्टर शांतनु से ख़रीदा है.” “ये लाचार बेबस बुढ़िया उसी शांतनु की अभागी मां है, जिसने पहले धोखे से सब कुछ अपने नाम करा लिया और फिर ये घर हमें बेचकर विदेश चला गया, अपनी बूढ़ी मां गायत्री देवी को एक वृद्धाश्रम में छोड़कर. छी… कितना कमीना इंसान है, देखने में तो बड़ा शरीफ़ लग रहा था.” सुधीर का चेहरा वितृष्णा से भर उठा. वहीं शालू याद्दाश्त पर कुछ ज़ोर डाल रही थी. “हां, याद आया. स्टोर रूम की सफ़ाई करते हुए इस घर की पुरानी नेमप्लेट दिखी थी. उस पर ‘गायत्री निवास’ लिखा था, वहीं एक राजसी ठाठ-बाटवाली महिला की एक पुरानी फ़ोटो भी थी. उसका चेहरा ही इस बुढ़िया से मिलता था, तभी मुझे लगा था कि  इसे कहीं देखा है, मगर अब ये यहां क्यों आई हैं? क्या घर वापस लेने? पर हमने तो इसे पूरी क़ीमत देकर ख़रीदा है.” शालू चिंतित हो उठी. “नहीं, नहीं. आज इनके पति की पहली बरसी है. ये उस कमरे में दीया जलाकर प्रार्थना करना चाहती हैं, जहां उन्होंने अंतिम सांस ली थी.” “इससे क्या होगा, मुझे तो इन बातों में कोई विश्वास नहीं.” “तुम्हें न सही, उन्हें तो है और अगर हमारी हां से उन्हें थोड़ी-सी ख़ुशी मिल जाती है, तो हमारा क्या घट जाएगा?” “ठीक है, आप उन्हें बुला लीजिए.” अनमने मन से ही सही, मगर शालू ने हां कर दी. गायत्री देवी अंदर आ गईं. क्षीण काया, तन पर पुरानी सूती धोती, बड़ी-बड़ी आंखों के कोरों में कुछ जमे, कुछ पिघले से आंसू. अंदर आकर उन्होंने सुधीर और शालू को ढेरों आशीर्वाद दिए. नज़रें भर-भरकर उस पराये घर को देख रही थीं, जो कभी उनका अपना था. आंखों में कितनी स्मृतियां, कितने सुख और कितने ही दुख एक साथ तैर आए थे. वो ऊपरवाले कमरे में गईं. कुछ देर आंखें बंद कर बैठी रहीं. बंद आंखें लगातार रिस रही थीं. फिर उन्होंने दीया जलाया, प्रार्थना की और फिर वापस से दोनों को आशीर्वाद देते हुए कहने लगीं, “मैं इस घर में दुल्हन बनकर आई थी. सोचा था, अर्थी पर ही जाऊंगी, मगर…” स्वर भर्रा आया था. “यही कमरा था मेरा. कितने साल हंसी-ख़ुशी बिताए हैं यहां अपनों के साथ, मगर शांतनु के पिता के जाते ही…” आंखें पुनः भर आईं. शालू और सुधीर नि:शब्द बैठे रहे. थोड़ी देर घर से जुड़ी बातें कर गायत्री देवी भारी क़दमों से उठीं और चलने लगीं. पैर जैसे इस घर की चौखट छोड़ने को तैयार ही न थे, पर जाना तो था ही. उनकी इस हालत को वो दोनों भी महसूस कर रहे थे. “आप ज़रा बैठिए, मैं अभी आती हूं.” शालू गायत्री देवी को रोककर कमरे से बाहर चली गई और इशारे से सुधीर को भी बाहर बुलाकर कहने लगी, “सुनिए, मुझे एक बड़ा अच्छा आइडिया आया है, जिससे हमारी लाइफ़ भी सुधर जाएगी और इनके टूटे दिल को भी आराम मिल जाएगा. क्यों न हम इन्हें यहीं रख लें? अकेली हैं, बेसहारा हैं और इस घर में इनकी जान बसी है. यहां से कहीं जाएंगी भी नहीं और हम यहां वृद्धाश्रम से अच्छा ही खाने-पहनने को देंगे उन्हें.” “तुम्हारा मतलब है, नौकर की तरह?” “नहीं, नहीं. नौकर की तरह नहीं. हम इन्हें कोई तनख़्वाह नहीं देंगे. काम के लिए तो मेड भी है. बस, ये घर पर रहेंगी, तो घर के आदमी की तरह मेड पर, आने-जानेवालों पर नज़र रख सकेंगी. बच्चों को देख-संभाल सकेंगी.  ये घर पर रहेंगी, तो मैं भी आराम से नौकरी पर जा सकूंगी. मुझे भी पीछे से घर की, बच्चों के खाने-पीने की टेंशन नहीं रहेगी.” “आइडिया तो अच्छा है, पर क्या ये मान जाएंगी?” “क्यों नहीं. हम इन्हें उस घर में रहने का मौक़ा दे रहे हैं, जिसमें उनके प्राण बसे हैं, जिसे ये छुप-छुपकर देखा करती हैं.” “और अगर कहीं मालकिन बन घर पर अपना हक़ जमाने लगीं तो?” “तो क्या, निकाल बाहर करेंगे. घर तो हमारे नाम ही है. ये बुढ़िया क्या कर सकती है.” “ठीक है, तुम बात करके देखो.” सुधीर ने सहमति जताई. शालू ने संभलकर बोलना शुरू किया, “देखिए, अगर आप चाहें, तो यहां रह सकती हैं.” बुढ़िया की आंखें इस अप्रत्याशित प्रस्ताव से चमक उठीं. क्या वाक़ई वो इस घर में रह सकती हैं, लेकिन फिर बुझ गईं. आज के ज़माने में जहां सगे बेटे ने ही उन्हें घर से यह कहते हुए बेदख़ल कर दिया कि अकेले बड़े घर में रहने से अच्छा उनके लिए वृद्धाश्रम में रहना होगा. वहां ये पराये लोग उसे बिना किसी स्वार्थ के क्यों रखेंगे? “नहीं, नहीं. आपको नाहक ही परेशानी होगी.” “परेशानी कैसी, इतना बड़ा घर है और आपके रहने से हमें भी आराम हो जाएगा.” हालांकि दुनियादारी के कटु अनुभवों से गुज़र चुकी गायत्री देवी शालू की आंखों में छिपी मंशा समझ गईं, मगर उस घर में रहने के मोह में वो मना न कर सकीं. गायत्री देवी उनके साथ रहने आ गईं और आते ही उनके सधे हुए अनुभवी हाथों ने घर की ज़िम्मेदारी बख़ूबी संभाल ली. सभी उन्हें  अम्मा कहकर ही बुलाते. हर काम उनकी निगरानी में सुचारु रूप से चलने लगा. घर की ज़िम्मेदारी से बेफ़िक्र होकर शालू ने भी नौकरी ज्वॉइन कर ली. सालभर कैसे बीत गया, पता ही नहीं चला. अम्मा सुबह दोनों बच्चों को उठातीं, तैयार करतीं, मान-मनुहार कर खिलातीं और स्कूल बस तक छोड़तीं. फिर किसी कुशल प्रबंधक की तरह अपनी देखरेख में बाई से सारा काम करातीं. रसोई का वो स्वयं ख़ास ध्यान रखने लगीं, ख़ासकर बच्चों के स्कूल से आने के व़क़्त वो नित नए स्वादिष्ट और पौष्टिक व्यंजन तैयार कर देतीं. शालू भी हैरान थी कि जो बच्चे चिप्स और पिज़्ज़ा के अलावा कुछ भी मन से न खाते थे, वे उनके बनाए व्यंजन ख़ुशी-ख़ुशी खाने लगे थे. बच्चे अम्मा से बेहद घुल-मिल गए थे. उनकी कहानियों के लालच में कभी देर तक टीवी से चिपके रहने वाले बच्चे उनकी हर बात मानने लगे. समय से खाना-पीना और होमवर्क निपटाकर बिस्तर में पहुंच जाते. अम्मा अपनी कहानियों से बच्चों में एक ओर जहां अच्छे संस्कार डाल रही थीं, वहीं हर व़क़्त टीवी देखने की बुरी आदत से भी दूर ले जा रही थीं. शालू और सुधीर बच्चों में आए सुखद परिवर्तन को देखकर अभिभूत थे, क्योंकि उन दोनों के पास तो कभी बच्चों के पास बैठ बातें करने का भी समय नहीं होता था. पहली बार शालू ने महसूस किया कि घर में किसी बड़े-बुज़ुर्ग की उपस्थिति, नानी-दादी का प्यार, बच्चों पर कितना सकारात्मक प्रभाव डालता है. उसके बच्चे तो शुरू से ही इस सुख से वंचित रहे, क्योंकि उनके जन्म से पहले ही उनकी नानी और दादी दोनों गुज़र चुकी थीं.
           आज शालू का जन्मदिन था. सुधीर और शालू ने ऑफ़िस से थोड़ा जल्दी निकलकर बाहर डिनर करने का प्लान बनाया था. सोचा था, बच्चों को अम्मा संभाल लेंगी, मगर घर में घुसते ही दोनों हैरान रह गए. बच्चों ने घर को गुब्बारों और झालरों से सजाया हुआ था. वहीं अम्मा ने शालू की मनपसंद डिशेज़ और केक बनाए हुए थे. इस सरप्राइज़ बर्थडे पार्टी, बच्चों के उत्साह और अम्मा की मेहनत से शालू अभिभूत हो उठी और उसकी आंखें भर आईं. इस तरह के वीआईपी ट्रीटमेंट की उसे आदत नहीं थी और इससे पहले बच्चों ने कभी उसके लिए ऐसा कुछ ख़ास किया भी नहीं था. बच्चे दौड़कर शालू के पास आ गए और जन्मदिन की बधाई देते हुए पूछा, “आपको हमारा सरप्राइज़ कैसा लगा?” “बहुत अच्छा, इतना अच्छा, इतना अच्छा… कि क्या बताऊं…” कहते हुए उसने बच्चों को बांहों में भरकर चूम लिया. “हमें पता था आपको अच्छा लगेगा. अम्मा ने बताया कि बच्चों द्वारा किया गया छोटा-सा प्रयास भी मम्मी-पापा को बहुत बड़ी ख़ुशी देता है, इसीलिए हमने आपको ख़ुशी देने के लिए ये सब किया.” शालू की आंखों में अम्मा के लिए कृतज्ञता छा गई. बच्चों से ऐसा सुख तो उसे पहली बार ही मिला था और वो भी उन्हीं के संस्कारों के कारण. केक कटने के बाद गायत्री देवी ने अपने पल्लू में बंधी लाल रुमाल में लिपटी एक चीज़ निकाली और शालू की ओर बढ़ा दी. “ये क्या है अम्मा?” “तुम्हारे जन्मदिन का उपहार.” शालू ने खोलकर देखा तो रुमाल में सोने की चेन थी. वो चौंक पड़ी, “ये तो सोने की मालूम होती है.” “हां बेटी, सोने की ही है. बहुत मन था कि तुम्हारे जन्मदिन पर तुम्हें कोई तोहफ़ा दूं. कुछ और तो नहीं है मेरे पास, बस यही एक चेन है, जिसे संभालकर रखा था. मैं अब इसका क्या करूंगी. तुम पहनना, तुम पर बहुत अच्छी लगेगी.” शालू की अंतरात्मा उसे कचोटने लगी. जिसे उसने लाचार बुढ़िया समझकर स्वार्थ से तत्पर हो अपने यहां आश्रय दिया, उनका इतना बड़ा दिल कि अपने पास बचे इकलौते स्वर्णधन को भी वह उसे सहज ही दे रही हैं. “नहीं, नहीं अम्मा, मैं इसे नहीं ले सकती.” “ले ले बेटी, एक मां का आशीर्वाद समझकर रख ले. मेरी तो उम्र भी हो चली. क्या पता तेरे अगले जन्मदिन पर तुझे कुछ देने के लिए मैं रहूं भी या नहीं.” “नहीं अम्मा, ऐसा मत कहिए. ईश्वर आपका साया हमारे सिर पर सदा बनाए रखे.” कहकर शालू उनसे ऐसे लिपट गई, जैसे बरसों बाद कोई बिछड़ी बेटी अपनी मां से मिल रही हो. वो जन्मदिन शालू कभी नहीं भूली, क्योंकि उसे उस दिन एक बेशक़ीमती उपहार मिला था, जिसकी क़ीमत कुछ लोग बिल्कुल नहीं समझते और वो है नि:स्वार्थ मानवीय भावनाओं से भरा मां का प्यार. वो जन्मदिन गायत्री देवी भी नहीं भूलीं, क्योंकि उस दिन उनकी उस घर में पुनर्प्रतिष्ठा हुई थी. घर की बड़ी, आदरणीय, एक मां के रूप में, जिसकी गवाही उस घर के बाहर लगाई गई वो पुरानी नेमप्लेट भी दे रही थी, जिस पर लिखा था
           गायत्री निवास

Tuesday, April 16, 2019

अक्सर

जिन लोगों के पास 
नहीं होती रोशनी
अक्सर वही ढूंढ़ लेते हैं 
रात का मुकाम पोस्ट
जिन लोगों के पास 
नहीं होती चाॅ॑दनी
अक्सर वही तलाश लेते हैं 
सवेरे का जनपद
अक्सर वही जानते हैं 
चिट्ठी छाॅ॑टना
जिन लोगों के पास 
नहीं होता डाकखाना
डाकिए अक्सर नहीं जानते 
सही-सही बाॅ॑चना।