Tuesday, June 26, 2012

बड़ी आरज़ू थी मुलाक़ात की !

न जी भर के देखा न कुछ बात की
बड़ी आरज़ू थी मुलाक़ात की

कई साल से कुछ ख़बर ही नहीं
कहाँ दिन गुज़ारा कहाँ रात की

उजालों की परियाँ नहाने लगीं
नदी गुनगुनाई ख़यालात की

मैं चुप था तो चलती हवा रुक गई
ज़ुबाँ सब समझते हैं जज़्बात की

सितारों को शायद ख़बर ही नहीं
मुसाफ़िर ने जाने कहाँ रात की

मुक़द्दर मेरे चश्म-ए-पुर'अब का
बरसती हुई रात बरसात की

"बशीर बद्र"

Friday, June 22, 2012

चलो मै कबूलती हूँ !

चलो मै कबूलती हूँ अपना हर वह अपराध
अति व्यस्ततम लोगों के चेहरे पढने की मैंने की कोशिश
अपने अपनों की कतराती आँखों में मैंने फिर से झांकना चाहा
नज़र से नज़र मिला कर देती रही हर जवाब
माँ बाप की सीख गुरु के आदर्शों की जिम्मेदारी निभाती रही बैकुंठ

आखिर वे ही मुंसिफ हैं आज इस अदालत के
जिन्होंने चाहा मेरी हर कोशिश हर साहस हर जिम्मेदारी की हत्या हो जाए
उनकी उपस्थिति और अनुपस्थिति में भी मै कबूलती हूँ
अपना हर वह अपराध

भगवान् तुम्हे बीच में आने की इज़ाज़त भी नहीं
न न तरस खाने की जरुरत भी नहीं
मुझे तुमसे अधिक फिक्र है न्याय की कानून की दंड संहिता की
और इन सबसे कहीं अधिक ......
दुनिया को बेदाग रखने की तो चलो मै कबूलती हूँ अपना हर वह अपराध

.... डॉ सुधा उपाध्याय

आवो सुलह कर लें !

आवो सुलह कर लें ,गहरी साँसे भर लें
आवो मिलकर किताबों से धुल झाडें
चलो फिर से आईने को मुंह चिढ़ाएं...
रेल की पटरी पर दौड़ें बेतहाशा
अपना अपना फटा झोला सिल लें
पुरानी चुन्नियों का झूला बनायें
गौरैये के बच्चे से बतियाएं
चलो न बूढी अम्मा को सताएं ....हाय
मन को मुक्त करने वाले उन सारे बंधनों में
फिर से जकड जाएँ ...हाय आवो न सुलह कर लें ...डॉ सुधा उपाध्याय

जो अम्मा ने थमाई थी !

सुनो मैंने आज भी सहेज कर रखा है
वह सबकुछ जो अम्मा ने थमाई थी
घर छोर कर आते हुवे
तुम्हारे लिए अगाध विश्वास
सच्ची चाहत ,धुले पूछे विचार
संवेदनशील गीत ,कोयल की कुहुक
बुलबुलों की उड़ान ,ताज़े फूलों की महक
तितली के रंग ,इतर की शीशी
कुछ कढाई वाले रुमाल
सोचती हूँ हवाई उड़ान भरते भरते
जब तुम थक जाओगे
मैं इस्सी खुरदुरी ज़मीन पर तुम्हे फिर मिल जाउंगी
जहाँ हम घंटों पसरे रहते थे मन गीला किये हुवे
वे सब धरोहर दे दूँगी ख़ुशी से वे तुम्हारे ही थे
अक्षत तुम्हारे ही रहेंगे ....डॉ सुधा उपाध्याय

कौन हूँ मैं ...

नहीं
जानती कौन हूँ मैं ...

रुदाली या विदूषक ,
मृत्यु का उत्सव मनाती ,
बुत की तरह शून्य में ताकते लोगों में संवेदना जगाती
इस संवेदन शून्य संसार में मुझी से कायम होगा संवाद
भाषा की पारखी दुनिया में मैं तो केवल
भाव की भूखी हूँ .....
फिर फिर कैसे संवाद शून्य संवेदन में भर दूं स्पंदन .....डॉ सुधा उपाध्याय

तुम्हारे बगैर !

अम्मा
मेरी हर वो जिद नाकाम ही रही

जो तुम्हारे बिना सोने जागने उगने डूबने
बुनने बनाने बड़े होने या....
सब कुछ हो जाने की थी

अब जैसे के तुम नहीं हो कहीं नहीं हो
कुछ नहीं हो पाता तुम्हारे बगैर

नींदों में सपनो का आना जाना
जागते हुवे नयी आफत को न्योता देना
चुनौतियों को ललकारना
अब मुनासिब नहीं ....डॉ सुधा उपाध्याय

उपेक्षा !

जागी उकताई रात ने
पैदा किया एक और
आवारा सूरज
भौर से संध्या तक
भटकता - झुलसता रहा ,
कोण बदल बदल कर,
देखता रहा धरा को,
शायद कही ....
छाँव मिल जाय
प्यार मिल जाय
पनाह मिल जाय
प्यार-छांह-पनाह तो दूर
किसी ने एक दृष्टि ना दी आभार में,
हर कोई उपभोग करता रहा
रोशनी का
पर किसी ने झाँका तक नहीं
सूरज क़ी ओर,
उपेक्षा क़ी आग लिए सीने में
जलाता रहा दिन भर,
जब घिन्न आने लगी
थोथे स्वार्थी संबंधों पर
डूब मरा समंदर में जाकर कही
और रात ..........
फिर से गर्भवती हो गई

* विनय के. जोशी

उफ! ये सोच।

सोचते-सोचते…
दिमाग की नसें फूल गई हैं
ये भूल गई हैं सोना
साथ ही भूल गई हैं
सोते हुए ‘इस आदमी’ को
सपने दिखाना
रात-दिन बस एक काम
सोचना...सोचना...सोचना
विचार की सूखी-बंज़र धरती को
खोदकर पानी निकालने की कोशिश में
पता है…
हर रोज़ तारीख़ें ही नहीं बदल रही
बहुत कुछ बदल रहा है....

कुछ पहचान वालों की
उधार बढ़ती जा रही है
और उधार देनेवालों की फेहरिस्त भी
कुछ पहचानवालों की
बेचैनी बढ़ गई है...
वो अनजान बन जाने के लिए
बेचैन हो उठे हैं....
और दिमाग है
कि कमबख़्त सोचता जा रहा है...

पेट की आग कुरेदती है...
तो भूख सोचती है..
पहचानवालों की उधार से
ये आग बुझ जाती है
तो फिर दिन सोचता है...
रात सोचती है
प्राइवेट नौकरी की मार सोचती है
बॉस की फटकार सोचती है..
बेगार सोचता है…
फटी जेब का फटेहाल सोचता है

एक आम आदमी का दिमाग
इक्कसवीं सदीं में भी…
बा-ख़ुदा !!!
क्या-क्या जंजाल सोचता है???