Friday, October 30, 2020

कैलाश गौतम की कविता- गाँव गया था, गाँव से भागा

गाँव गया था
गाँव से भागा ।
रामराज का हाल देखकर
पंचायत की चाल देखकर
आँगन में दीवाल देखकर
सिर पर आती डाल देखकर
नदी का पानी लाल देखकर
और आँख में बाल देखकर
गाँव गया था
गाँव से भागा ।

गाँव गया था
गाँव से भागा ।
सरकारी स्कीम देखकर
बालू में से क्रीम देखकर
देह बनाती टीम देखकर
हवा में उड़ता भीम देखकर
सौ-सौ नीम हक़ीम देखकर
गिरवी राम-रहीम देखकर
गाँव गया था
गाँव से भागा ।
जला हुआ खलिहान देखकर
गाँव गया था
गाँव से भागा ।
जला हुआ खलिहान देखकर
नेता का दालान देखकर
मुस्काता शैतान देखकर
घिघियाता इंसान देखकर
कहीं नहीं ईमान देखकर
बोझ हुआ मेहमान देखकर
गाँव गया था
गाँव से भागा ।

गाँव गया था
गाँव से भागा ।
नए धनी का रंग देखकर
रंग हुआ बदरंग देखकर
बातचीत का ढंग देखकर
कुएँ-कुएँ में भंग देखकर
झूठी शान उमंग देखकर
पुलिस चोर के संग देखकर
गाँव गया था
गाँव से भागा ।
बिना टिकट बारात देखकर
गाँव गया था
गाँव से भागा ।
बिना टिकट बारात देखकर
टाट देखकर भात देखकर
वही ढाक के पात देखकर
पोखर में नवजात देखकर
पड़ी पेट पर लात देखकर
मैं अपनी औकात देखकर
गाँव गया था
गाँव से भागा ।

गाँव गया था
गाँव से भागा ।
नए नए हथियार देखकर
लहू-लहू त्योहार देखकर
झूठ की जै-जैकार देखकर
सच पर पड़ती मार देखकर
भगतिन का शृंगार देखकर
गिरी व्यास की लार देखकर
गाँव गया था
गाँव से भागा ।
मुठ्ठी में कानून देखकर
गाँव गया था
गाँव से भागा ।
मुठ्ठी में कानून देखकर
किचकिच दोनों जून देखकर
सिर पर चढ़ा ज़ुनून देखकर
गंजे को नाख़ून देखकर
उज़बक अफ़लातून देखकर
पंडित का सैलून देखकर
गाँव गया था
गाँव से भागा ।

Friday, October 2, 2020

मैं खुद से मिलने जाता हूँ

मैं खुद से मिलने जाता हूँ
मैं खुद को ढूढ़ के लाता हूँ
मैं खुद से मिलने जाता हूँ

दुर्जम वन के अंधियारे में
धरती से दूर किनारे में
मैं खुद का पीछा करता हूँ
निर्जन मन के गलियारे में

कुछ खोता हूँ कुछ पाता हूँ
मैं खुद से मिलने जाता हूँ

कुछ साथ नही कुछ सोच नही
आशाओं का बोझ नही
दिल सीसे सा लाता हूँ
भावों का कोई खरोंच नही

फिर से सीसा चमकाता हूँ
मैं खुद से मिलने आता हूँ

नागफनी या बरगद हो
बड़ा हो या बौना कद हो
अंतर्मन की पर्तें खोलूं
हो गरल कहीं या कुछ मद हो

मद गरल वहीं खो आता हूँ
मैं खुद से मिलने जाता हूँ

जब खुद को खुद में पाता हूँ
तब ही मैं वापस मैं आता हूँ
मैं खुद से मिलने जाता हूँ 
मैं खुद से मिलने जाता हूँ

राजेश कुमार श्रीवास्तव

Friday, September 4, 2020

पत्थर पत्थर पत्थर!

तो तय हुआ कि अब
आगे लोग जेब में लेकर पत्थर निकलेंगे।

जेब पत्थर से भरी होगी
हाथों में पत्थर होगा
आंखें पथरा गई होंगी
स्वप्न पत्थर हो गए होंगे
सांसों और सोच में पत्थर होगा!

पत्थर हो गए शासन को पत्थर से तोड़ा जाएगा
पत्थरों का फूल बरसा कर झिंझोड़ा जाएगा

जिन्होंने रामायण पढ़ी हो वे जानते हैं
बंदरों ने लंका को पथराव से किया था पराजित
हर राक्षस व्यथित था बंदरों के पथराव से
रावण तक जाते थे पत्थर
वज्र से प्रहार करते।

हनुमान के दाह से भस्म हुई लंका
कांपती थी बंदरों के
पत्थरों से!

सुन लो लोगों
हर क्रूर शासक व्यथित होता रहा है
पत्थरों की मार से
वह जागता है पत्थरों की झंकार से।

निहत्थी प्रजा के आंसू हैं पत्थर!
मूक प्रजा की हुंकार हैं पत्थर!
कंकालों की आह हैं पत्थर!

पत्थर तोड़ती औरतें हथौड़ा फेंक कर
पथराव करने लगती हैं
धान लगाती औरतें
अपनी उदासी भूलकर चलाने लगती हैं पत्थर
वे शाप देती हैं पत्थर मार कर!

कई बार तो ऐसा भी होता है
पत्थर अपने आप चलने लगते क्रूरता के खिलाफ
सच्चे पत्थरों को अच्छा नहीं लगता
स्वप्नों का पत्थर हो जाना!

आगे फटी जेबें भरी होंगी
पत्थरों से
रसोई और थालियों में पत्थर का
भोजन और चबैना होगा।

भूखे लोग पत्थर खा लेते हैं
भूखे लोग पत्थर उठा लेते हैं
भूखे लोग 
हवा और धूल को जोड़ कर 
बना लेते हैं पत्थर!

गुलेलें चिडियों को मारना बंद कर देंगी
और उनके पत्थर 
शासकों की उड़ान में छेद कर देते हैं।

आगे ख़ाली गुल्लक 
पत्थरों की तरह उछाले जाएंगे
आगे पत्थर हो गए लोग
पत्थर लेकर निकलेंगे!

और उन पर सरकार को बंदूकों से निकली गोली कोई असर नहीं डाल पाएगी
उनकी बंदूकों और उनका मुंह
पत्थरों से बंद कर दिया जाएगा!

बोधिसत्व, मुंबई

Thursday, July 2, 2020

जब दर्द होता है।

जब दर्द  होता है, तो आप  हमदर्द होते हैं!
जब आँसू  होते हैं, तो आप साथ  होते हैं!!

जब  रोग  सताते  है, तो  आप  उसे  दूर  भगाते हैं!
जब मन बेचैन होता है, तो डाॅक्टर ही चैन होता है!!

अपनों के दर्द में जब दिल रोता है, तो आप साहस की डोर होते हैं!
चिंतायुक्त उदासी  भरी  काली  रात  की  आप  ही  भोर  होते  हैं!!

जब कोई  त्रासदी आती है, तो  आप सैनिक  होते हैं!
परिस्थितियां कुछ भी हो, पर काम तो दैनिक होते हैं !!

दिल  की  धड़कनों  को  निरखने वाले आप ही हैं!
तन-मन की हलचलों को परखने वाले आप ही हैं!!

रोगों से  बचाने  वाले आप ही हैं!
जीवन  बचाने  वाले आप ही हैं!!

जीवन में आशा जगाने वाले आप ही हैं !
महकता संसार बनाने वाले आप ही हैं!!

दु:ख भरी घड़ियों में आस आप ही हैं!
मंजिल  का  अहसास  आप  ही   हैं!!

इसलिए हम सब आपको नमन करते हैं!
अंतस्तल से कोटि - कोटि वंदन करते हैं!

यूँ  ही आप हमारे कष्टनाशक बनते रहें!
ईश्वर  आपके   कष्ट   सब  हरते  रहें!!

©️ डॉ• राहुल शुक्ल साहिल

Thursday, June 25, 2020

कुमार कर्ण की ग़ज़ल।

एक मुक़म्मल ग़ज़ल दोस्तों को सादर----
उम्र-भर की  जुदाई  मत  देना
इतनी  लंबी  लड़ाई  मत  देना

आपको हक है ज़ख़्म देने का
पर  कभी  जगहंसाई मत देना

कर लिया जब कफ़स में तुमने
अब  मुझे  तुम रिहाई मत देना

टूटते  देखूँ  दिल कभी   अपना
या  खुदा  वो  बिनाई   मत देना

बावफ़ा से किया है प्यार"करण"
अब  कभी  बेवफ़ाई  मत   देना

- कुमार कर्ण

Tuesday, June 23, 2020

आज एक हरियाणवी !

भूंडे की परिभासा के ?
खुरली म्हं गंडासा के ?

बात बणानी ना आई,
छप्पन गेल पचासा के ?

इंजण खू ग्या रस्ते म्हं,
के पटड़ी अर पासा के ?

चालू चाल चलत्तर की,
चाल चौधरी रासा के ?

रोट्टी, गोट्टी, मोट्टी का,
तकड़ा पान पतासा के ?
--योगेंद्र मौदगिल

तुम उतनी ही सुंदर रहना (3)

कोई कविता अंतिम होगी
शब्द शब्द थम जाएंगे
पर जितने भी शब्द लिख गया
वो तुमको ही गाएंगे

कवि नश्वर होते हैं लेकिन
कविता कभी नही मरती
कवि की प्रियवर ही कविता है
वो ही सदा अमर  रहती

बसी न हो जो तेरी खुश्बू
शब्द नही जी पाएंगें

दो पल का ये जीवन सारा
लम्हा लम्हा बीत रहा
चिर निंद्रा से पलकें बोझिल
पर होठों पर गीत रहा

तितली जैसे गीत न हों तो
फूल कहाँ खिल पाएंगें

- राजेश कुमार

तुम उतनी ही सुंदर रहना (2)

बीत गया जो तुम बिन प्रियतम
वो सब कुछ इतिहास हो गया
तुम आओगे  दिल में मेरे
आहट से आभाष हो गया

चंदन वन के कस्तूरी मृग
सी तेरी चितवन प्रियतम
सात आसमां तुझसे नीचे
तू इतनी पावन अनुपम

वक्त वहीं पर थम जाता है
जिस पल कोई खास हो गया

सदियाँ हार गईं हैं कितनी
जाने कितने पल जीते
तुम्हे सोच कर लम्हा लम्हा
इतंज़ार के युग बीते

आसमान को पता नही है
वो अब मेरे पास हो गया

फूलों की घायल घाटी में
तितली अब भी आती है
यमुना जल में आँसू कितने
राधा कहाँ बताती है

सरल प्रेम की कठिन व्याख्या
कान्हा तेरा रास हो गया

- राजेश कुमार

तुम उतनी ही सुंदर रहना (1)

हँसने वाली लड़की ऐसे 
मेरे मन में सजती है
वो कोमल मीठी सी धुन है
जैसे बंशी बजती है

बिना महावर बिछिया पायल
साँस साँस करती वो घायल
गंगोत्री की बूंद वो पहली
ग्रह नक्षत्र सब उसके कायल

दुग्ध धवल वो तब होती है
सात रंग जब तजती है

ओस धुले आंगन में उतरी
वो चाँदी से किरन सुहानी
रति ,वीनस सब उससे फीके
सिर्फ वही है रूप की रानी

मुस्कानो से बुनकर वो ही
गीत हमारे रचती है

-राजेश कुमार

Friday, June 19, 2020

चाय सिर्फ चाय नहीं होती...

जब कोई पूछता है 
"चाय पीयोगे ?"
तो वो ये नहीं पूछता तुमसे, 
चीनी और चायपत्ती
को उबालकर बनी हुई 
एक कप  चाय के लिए।

वो पूछता है...
क्या आप बांटना चाहेंगे
कुछ चीनी सी मीठी यादें
कुछ चायपत्ती सी कड़वी
दुःख भरी बातें..!

वो पूछता है..
क्या आप चाहेंगे
बाँटना मुझसे अपने कुछ
अनुभव, मुझसे कुछ आशाएं
कुछ नयी उम्मीदें..?

वो कहना चाहता है..
तुमसे तमाम किस्से
जो सुना नहीं पाया 
अपनों को कभी..

वो उस गर्म चाय की प्याली 
के साथ उठते हुए धुओँ के साथ
कुछ पल को अपनी
सारी फ़िक्र उड़ा देना चाहता है

इस दो कप चाय के साथ 
शायद इतनी बातें
दो अजनबी कर लेते हैं
जितनी तो अपनों के बीच 
भी नहीं हो पाती।

तो बस जब पूछे कोई
अगली बार तुमसे
"चाय पियोगे..?"

तो हाँ कहकर 
बाँट लेना उसके साथ
अपनी चीनी सी मीठी यादें
और चायपत्ती सी कड़वी 
दुखभरी  बातें..!!

चाय सिर्फ चाय नहीं होती...!

Monday, June 15, 2020

रावल जोगी

मैं गीतों का रावल जोगी चला किया अविराम।
 दिनभर अलख जगाई मैंने 
रात वृक्ष के नीचे काटी 
जुड़ी रही अनवरत राह से 
मेरी गैरिक वसना माटी
 इस बस्ती में भोर हुई तो उस बस्ती में शाम।
  मुझे कपटवेशी बतला कर 
 कहा किसी ने यह ढोंगी है 
कहा किसी ने बाहर जोगी 
लेकिन भीतर रसभोगी है 
जिसने  ठुकराया उसको भी मैंने किया प्रणाम। 
 मेरी क्या औकात, जिन्होंने 
जीवन में कितने दुख झेले
 संत्रासों से खपा  स्वयं को 
कितनी विपदाओं से खेले
 यह तुलसी की माटी जाने या तुलसी के राम।
 मेरे सिरजनहार समझ में 
आई नहीं तुम्हारी माया
 अंगारों के जंगल में दी
 तुमने पांच फूल की काया 
जिसकी हर कामना अधूरी हर  आंसू नाकाम। 
 बिजली जिसको आंख दिखाए 
जिसे बादलों ने भरमाया
 चक्रवात के पथ पर तुमने 
यह माटी का दीप जलाया 
चुटकी भर उजियारी लिख दी अगम तिमिर के नाम। 
 मेरा घट  खाली रखना था 
तो मुझको यह प्यास  न देते 
पंख नहीं देना था तो फिर 
मुझको तुम आकाश न देते 
इतनी पीर न  देनी थी जो कर दे नींद हराम। 
 आश्वासन देकर फूलों का 
 मुझको कांटे दिये  समय ने 
मेरे गीतों की झोली में 
कुछ आंसू कुछ टूटे सपने 
छोटी -सी पूंजी है वह भी गली -गली गली बदनाम।
 अंधकार के अभिनंदन में 
उजियाली ने  कविता बाँची 
यह  दरबार झूठ का जिसमें 
सारी रात सचाई   नाची
प्यासा मरा पपीहा  कोई  घटा न आई  काम। 
 अनबन के कांटे चुभते हैं 
नफरत के अंगारे फैले 
घूमा करते हैं सड़कों पर
भेष बदलकर नाग विषैले 
अंकुश नहीं हवा पर अफवाहों पर नहीं लगाम।

 @रूप नारायण त्रिपाठी

Friday, June 5, 2020

अभी इस समय !

अभी इस समय
कहीं बहुत नजदीक के घरों में 
कुछ लोगों के रोने की आवाज आ रही है।

निकल कर जानना चाहता हूं
लेकिन कुछ समझ नहीं पाता
और फिर अन्दर लौट आता हूं।

यही एक बात मुझे परेशान कर रही है इन दिनों
आदमी के दुःख का अनुमान भी नहीं मिल पाता

कल भी शायद न पता चले कि कौन लोग थे जो व्यथा से भर कर रोते रहे आज रात भर?

उनका दुःख क्या था
उस व्यथा का क्या हुआ निदान?

वहां कुछ और लोग हैं जो रुलाई के दर्शक हैं
श्रोता हैं साक्षी हैं
खिड़कियां खुल कर बंद हो जा रही हैं
मदद के हाथ बढ़ा कर पीछे हट जा रहे हैं लोग

पूर्णिमा है या अमावस सबका रंग
क्षीण हो गया है!
प्रकाश होने न होने से 
बहुत अंतर नहीं पड़ता मन पर।

सोच रहा हूं
रात की जगह दिन होता तो भी ऐसा ही होता
सब कुछ दूर हो गया है
और समझ के बाहर भी।

कोई कहता है मुझसे
"तुम्हें जागना हो तो जागते रहो रात भर
सोना हो तो सो जाओ
तुम्हें रोना है तो रो भी लो
कर लो जो जितना कुछ कर पाओ"
कौन था यह देखने की कोशिश की तो ओह
यह क्या
यह तो सरदार पटेल हैं
आंखों से निथर रहा है गाढ़ा खून
कुछ देख नहीं पा रहे
टटोल कर चलते गिरते उठते
अपनी आंखों के खून से भीगे
भूख से परास्त पटेल
अपनी ही मूर्ति के आगे 
कटोरा लिए बैठे पटेल!

मैं उनसे कहता हूं
"आप क्यों निकले इस अकाल बेला में
और आंख का निदान क्यों नहीं करवाते आप?

वे बोलते हैं 
"धीरे बोलो
इतना धीरे की मेरी मूर्ति भी 
न सुन पाए हमारी बातें
मूर्तियों से डर लगता है
मैं अपने ये खून के आंसू 
छिपाता हुआ आया हूं यहां तक
अपनी भूख
अपने घाव
अपने अभाव
सब छिपाओ और चुप रहने का अभ्यास करो"

मैं दौड़ता हूं पोछ दूं पटेल के रक्त अश्रु
लेकिन पटेल खो जाते हैं 
एक विशाल इस्पात मूर्ति में।

उनके खून का निशान धोया जा रहा है
अनेक तरह से साफ किया जा रहा है
उन के खून का हर कण!

उनको भी बांधा जा रहा है
लौह श्रृंखलाओं से
उसी भयानक डरावनी मूर्ति में
जिसमें वे समाहित हो गए
अभी अभी!

मैं सोचता बैठा हूं
अपने छोटे से कमरे में
क्यों आए पटेल यहां
आंख में खून के आंसू थे तो पूरा गुजरात पार कर कैसे आए वे मेरे पास?

जब दुःख दिखाना मना है
वे कैसे निकल पाए होंगे?

मैं भूल जाता हूं कि मैं घर में नहीं
सड़क पर हूं
और राह भटक कर चला आया हूं
पटेल के पास!

यह जो विलाप है क्या 
यह सरदार पटेल का ही रोना है?

नहीं नहीं नहीं
सरदार नहीं उनकी मूर्ति की छाया में घायल पड़े हैं
विनोबा यह उनकी रुलाई है?
या मोहनदास कर्म चंद गांधी तो नहीं?

ऐसी साधारण जन सी रुलाई कौन रो सकता है
जो चतुर्दिक सुनाई दे
हर आदमी के फेफड़े में
हर आदमी के मस्तिष्क में
हर आदमी के पराजय में
जो रोर बन कर गूंज जाए
यह किसकी रुलाई है?

अरे अरे यह तो गांधी ही हैं
अपने फेफड़े में धंसी पिस्टल की गोलियां
अपने हाथों से निकाल कर गांधी भागते जा रहे हैं
रोते हुए न करते हुए फरियाद
न बचाव के लिए राम को पुकारते
न अपना दुःख किसी को दिखाते
न गोलियों से बने घाव से बहता रक्त रोकते।

लेकिन पैदल पैदल कहां तक भाग पाएंगे गांधी?
कितनी दूर है उनका गांव
उनका अपना पोरबंदर सेवाग्राम!

पांव कट गए हैं
उनकी लाठी छीन ली है किसी ने
उनका खून सोखने उनके घावों से चिपक गए हैं ये कौन लोग?

और उस पर भी जब नहीं मरते गांधी 
नहीं गिड़गिड़ाते गांधी
फिर भी
उनके पीछे दौड़ रहे हैं रिवाल्वर लिए कितने लोग
निशाना साधे 
घेरते गांधी को
विनोबा को!

यह गांधी ऐसे क्यों रो रहे?
क्यों गिड़गिड़ा नहीं रहे
मांग नहीं क्यों रहे प्राण की भीख
आखिर इतने बेगाने क्यों हैं पिता?

कौन लोग हैं जो गांधी की हत्या में सुख पाने का उपाय खोज रहे हैं
कोई चेहरा छिपा नहीं है अब
फिर भी पहचान करना कठिन कैसे हो रहा है?

मैं जोर देता हूं
लेकिन हजारों चेहरे मिल कर एक हो गए हैं
और इतने अभिभूत हैं सब की हत्यारों की शिनाख्त से अधिक उनके प्रभा मंडल पर है सबकी आंखें
और वहां मेला सा लग गया है 
गांधी का शरीर
गांधी का खून सब
उज्जवल होकर एक पवित्र द्रव में 
परिवर्तित हो गया है
जिससे तिलक लगा कर
लोग लगातार पवित्र होते जा रहे हैं।

ऐसे लोगों की भीड़ इतनी अधिक हो गई है
पटेल की मूर्ति के पीछे कि 
अब गांधी के रोने की वजह भी 
पता नहीं चल पा रही है।

मैं खुद से पूछता हूं कि क्यों रो रहे होंगे गांधी
उनको क्या दुःख था
क्यों बह रहा है पटेल की आंखों से खून
क्यों विक्षिप्त से घूम रहे विनोबा
उनको 
उन सब को अभी क्या तकलीफ है?

एक साथ हजारों लोग डपटते हैं
मुझे कि 
"अपना उपचार कराओ
कहीं कोई नहीं रो रहा
यह तुम्हारा भ्रम है
और ऐसा ही है तो सुनो संसार भर की रुलाई
तुमको किसने रोका है
जो नहीं सुनाई पड़ रही हैं उनको भी सुनो
फिर संसार भर की दिख रही और 
छुपी सारी रुलाइयों को गूंथ कर
एक कविता बनाओ!
तुम उनका दुःख भले न समझ पाओ
पर उनके दुःख को 
अपनी विकलता से जोड़ जाओ
कविता से हमको फर्क नहीं पड़ता है"

मैं अपने को समझाता हूं
सुबह बात करूंगा आस पड़ोस में
पूछूंगा गांधी को रोते सुना क्या?
पटेल तुम्हारे पास भी आए थे
आंखों से बहाते रक्त अश्रु
तुमने गांधी के फेफड़े में फंसी वह गोली देखी क्या?

कोई सीधे बात नहीं करता
और उधर पटेल की मूर्ति की छाया में
गांधी को घेर कर जलाया जा रहा है
जीवित जल रहे हैं गांधी!

उधर बहुत कोलाहल है
बहुत विजय उल्लास है उधर!

उसी उल्लास के 
आस पास से लगातार
अनेक लोगों के 
रोने की आवाजें आ रही हैं
मैं स्वयं एक विलाप में परिवर्तित हो गया हूं! 

पटेल की आंख का रक्त अश्रु हूं मैं
गांधी का छिदा हुआ रक्त हीन शरीर हूं मैं
बहुत करीब से कहीं से 
आ रहा वह रुदन हूं मैं!

ओह भाव की सारी बातें खून से सुगंधित हो चली हैं
मैं किसी दिशा में निकलता हूं
विदा मित्रों विदा!

बोधिसत्व, मुंबई

Thursday, June 4, 2020

"बहू बदनाम रहेगी"

बेटा चुप रहे तो 
बहू ने मुट्ठी मे कर रक्खा है !

बेटा कुछ बोले तो 
देखो बहू की जुबान बोलता है !

बेटा क्रोध करे तो 
जरूर बहू की संगति का असर है!

बेटा कमरे मे जाए तो 
बहू ने मोहजाल में फंसा रक्खा है!

बेटा असहमत नज़र आए तो 
जरूर बहू ने ही पाठ पढ़ाया होगा!

बेटा नज़रअंदाज करे तो 
जरूर बहू ने ही सब सिखाया होगा !

घर की बातें बाहर जाए तो 
बहू पेट मे कुछ पचा नही पाती
हालत ऐसी है बहू की कि
पति पर हक भी जता नही पाती

इतना ही नहीं....

घर टूटा तो बहू जिम्मेदार
कुछ फूटा तो बहू जिम्मेदार
जिम्मेदारी की बात न पूछो
कोई रूठा तो बहू जिम्मेदार

अब इतनी परेशानी है बहू से
तो बहू लेकर ही क्यूं आते हो
बना कर रखेंगे बेटी, बहू को
भ्रम-जाल ये क्यूं बिछाते हो..

कुछ भी हो जाए ग़लत अगर
इल्ज़ाम बहू पर लगाते हो
इंसा है वो भी मूरत नहीं
बात इतनी समझ ना पाते हो

गलत हो बहू तो उससे कहो
गलती सुधारने की सीख भी दो
बाहर बहू के किस्से सुनाते हो
खुद बदनाम उसे कर जाते हो

मन से ना चाहोगे तो पराई लगेगी
चाहें जितना भी वो काम करेगी
कल भी थी और वो आज भी है
बहू कल भी यूं ही बदनाम रहेगी।

©मनीषा दुबे (मुक्ता)

Wednesday, June 3, 2020

शब्दों के बाहर था यह सब

विजय कुमार जी की एक कविता

शब्दों के बाहर था यह सब
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शब्द   जब साथ नहीं दे रहे थे 
तब भी मैं शब्दों की ओर ही लौटा
जबकि
भाषा का अब कोई अर्थ नहीं रह गया था।

यातनाओं के वे पल
केवल दृश्य थे 
केवल दृश्य।
सुबह से शाम तक 
देर रात तक केवल दृश्य 

तपती धूप , कँकरीली सड़क
टूटी सी चप्पलें
असहनीय भूख 
सूनी सूनी आँखें
पाँवों के छाले,
औरतें उनके टूटे हुए शरीर
और वे  कितना सह सकती हैं 
औरत होने के मायने भी खत्म हुए  वहां 

मुरझाए हुए बच्चों की रुलाई
वह बच्चा आखिर कितनी देर रो सकता है?

बारह सौ मील का यह फासला 
यह कटेगा
कटेगा हाँ कटेगा 
कहा उसने दृश्य में
आसमान को देखते 
चुप्पियों और
खामोशियों के पार
कहा  कुछ उसने
अपने नसीब पर 
कल पर
उसके अगले कल पर ।

ज़िन्दगी एक गट्ठर है 
नहीं कहा उसने 

कहा उसने
सोचने को होगा कुछ 
पर अभी तो बस यह धूप है 
हवा है 
यह आसमान है
सांस है 
ज़िंदगी है ।

बूझते रहो तुम मायने इनके

हमारे पास तो बस  यह एक ज़िंदगी  
और 
क्या करें
वो शब्दों में समाती नहीं।

* विजय कुमार जी मुंबई में रहते हैं और अपने ढंग के विरले कवियों में हैं। इन्होंने कविता के हर होड़ से अपने को बाहर रखा और अपनी अनोखी कहन शैली विकसित की। अपनी पीढ़ी के उन कुछ कवियों में शामिल हैं जिनका काव्य वैभव चकित भी करता है आमंत्रित भी। आज जब एक पूरी पीढ़ी पदयात्री हो गई है विजय जी ने उस यातना को अपने रंग में अंतरंगता और संवेदना के संवेग के साथ दर्ज किया है। आप लोग पढ़ें और देखें कि कैसे कविता व्यथा से आगे जा कर औचक अनेक अंधेरों को उजागर करती है।

बोधिसत्व, मुंबई

Tuesday, May 12, 2020

किसका दोष ?

साल 1992 में ही भविष्यदृष्टा कवि/लेखक जयनाथ प्रसाद ‘सात्विक’ जी ने कविता लिखी जो आज के कोरोना दौर में बिल्कुल सटीक बैठती है -

हे उद्धत मानव !
बहुत खाये
तुमने
ज्ञानवृक्ष के वर्जित फल
और
अब
अपच हो गया है
तुम्हें।

इसकी मिठास ने
मोहित कर दिया है तुम्हें।
और
तुम
समाज से
बहुत ऊपर अत्यन्त विशिष्ट
समझने लगे हो
अपने को
इसीलिए
तुम्हें झेलनी पड़ रही है
एकांतवास की
पीड़ा
जिसका
न ओर है, न छोर।
फिर भी नहीं चेतते
ओ पगले !

तो इसमें किसका दोष ?



- जयनाथ प्रसाद ‘‘सात्विक’’

Sunday, May 10, 2020

मातृ दिवस के अवसर पर माँ के लिए कुछ पंक्तियाँ.......

लेती नहीं दवाई "माँ",
जोड़े पाई-पाई "माँ"।

दुःख थे पर्वत, राई "माँ",
हारी नहीं लड़ाई "माँ"।

इस दुनियां में सब मैले हैं,
किस दुनियां से आई "माँ"।

दुनिया के सब रिश्ते ठंडे,
गरमागर्म रजाई "माँ" ।

जब भी कोई रिश्ता उधड़े,
करती है तुरपाई "माँ" ।

बाबू जी तनख़ा लाये बस,
लेकिन बरक़त लाई "माँ"।

बाबूजी थे सख्त मगर ,
माखन और मलाई "माँ"।

बाबूजी के पाँव दबा कर
सब तीरथ हो आई "माँ"।

नाम सभी हैं गुड़ से मीठे,
मां जी, मैया, माई, "माँ" ।

सभी साड़ियाँ छीज गई थीं,
मगर नहीं कह पाई  "माँ" ।

घर में चूल्हे मत बाँटो रे,
देती रही दुहाई "माँ"।

बाबूजी बीमार पड़े जब,
साथ-साथ मुरझाई "माँ" ।

रोती है लेकिन छुप-छुप कर,
बड़े सब्र की जाई "माँ"।

लड़ते-लड़ते, सहते-सहते,
रह गई एक तिहाई "माँ" ।

बेटी रहे ससुराल में खुश,
सब ज़ेवर दे आई "माँ"।

"माँ" से घर, घर लगता है,
घर में घुली, समाई "माँ" ।

बेटे की कुर्सी है ऊँची,
पर उसकी ऊँचाई "माँ" ।

दर्द बड़ा हो या छोटा हो,
याद हमेशा आई "माँ"।

घर के शगुन सभी "माँ" से,
है घर की शहनाई "माँ"।

सभी पराये हो जाते हैं,
होती नहीं पराई मां ।।

कवि योगेंद्र मौदगिल के फेसबुक पेज से ........

एक ग़ज़ल

राजनीत के वरदहस्त ने क्या-क्या दिन दिखलाये जी ।
  झुक-झुक कर सब पांव बहाने गला दबाने आये जी ।

जिस गीली मिट्टी से वो बंदूक बनाने वाले थे, 
 कईं खिलौने उस मिट्टी से जनता ने बनवाये जी ।
खबर छपी थी हरम के मालिक मौतों के सौदागर हैं,
  रब जाने मासूम यहां पर किससे मिलने आये जी ।
हिरणी के आगोश में बैठा उसका बच्चा सोच रहा,
  नदिया की नदिया जहरीली, ये कैसे दिन आये जी ।
हवा ने फिर पीपल को शायद कोई खबर सुनाई है, 
 पत्तो ने जो जोर-जोर से पंछी निरे उड़ाये जी ।





Sunday, March 29, 2020

शहर मेरा आज गांव हो गया है....!

शहर मेरा आज गांव हो गया है...
पड़ोसी कौन है मालूम हो गया है....!!
गाड़ी मोटर की आवाज नही है
पंछियों की आवाज से सबेरा हो गया है..!!
शहर मेरा आज गाँव हो गया है...!!!!

सड़को के दर्द को महसूस कर रहा हूँ....
पेड़ पौधों को सुकून की सांस दे रहा हूँ....
दौड़ भाग भरी जिंदगी मे सुकून हो गया है ....
शहर मेरा आज गांव हो गया है....!!!!

वो कुकर कि सीटियां सुन रहा हूँ ....
वो छत पे झगड़ते बच्चो को देख रहा हूँ ....
पेड पे हिलते पत्ते भी आवाज करते है ....
बहती हवा का भी आभास हो गया है ....
शहर मेरा आज गांव हो गया है....!!!!

समझ आ रहा है दो निवाले बहुत थे ....
गाड़ी बंगला सब फिजुल  हो गया है ....
देखा देखी मे क्या क्या जाने जोड़ गया है....
शहर मेरा आज गांव हो गया है.....!!!!

समझूंगा बैठ कर विज्ञान से क्या जिंदगी आसान बनायी है ....?
पसीना बहाना छोड़ कर पसीना आना सिखायी है.....?
कुदरत से कहीं खिलवाड़ ज्यादा तो नही हो गया है .....
यार शहर मेरा आज गांव हो गया है....!!!!

बीमारी से निपटने को साथ खड़े हो गये है ....
हम सब खुद का भूल आज अपनो के लिये लड़ रहे है ....
ये अपना पन दिल को आज सुकून दे गया है ....
सुनो, शहर मेरा आज गांव हो गया है...

Saturday, March 14, 2020

ब्राह्मण_और_जनेऊ।

पिछले दिनों मैं हनुमान जी के मंदिर में गया था जहाँ पर मैंने एक ब्राह्मण को देखा, जो एक जनेऊ हनुमान जी के लिए ले आये थे। संयोग से मैं उनके ठीक पीछे लाइन में खड़ा था, मैंने सुना वो पुजारी से कह रहे थे कि वह स्वयं का काता (बनाया) हुआ जनेऊ हनुमान जी को पहनाना चाहते हैं, पुजारी ने जनेऊ तो ले लिया पर पहनाया नहीं। जब ब्राह्मण ने पुन: आग्रह किया तो पुजारी बोले, यह तो हनुमान जी का श्रृंगार है इसके लिए बड़े पुजारी (महन्थ) जी से अनुमति लेनी होगी, आप थोड़ी देर प्रतीक्षा करें, वो आते ही होंगे। मैं उन लोगों की बातें गौर से सुन रहा था, जिज्ञासावश मैं भी महन्थ जी के आगमन की प्रतीक्षा करने लगा। थोड़ी देर बाद जब महन्थ जी आए तो पुजारी ने उस ब्राह्मण के आग्रह के बारे में बताया। महन्थ जी ने ब्राह्मण की ओर देख कर कहा कि देखिए हनुमान जी ने जनेऊ तो पहले से ही पहना हुआ है और यह फूलमाला तो है नहीं कि एक साथ कई पहना दी जाए। आप चाहें तो यह जनेऊ हनुमान जी को चढ़ाकर प्रसाद रूप में ले लीजिए। इस पर उस ब्राह्मण ने बड़ी ही विनम्रता से कहा कि मैं देख रहा हूँ कि भगवान ने पहले से ही जनेऊ धारण कर रखा है परन्तु कल रात्रि में चन्द्रग्रहण लगा था और वैदिक नियमानुसार प्रत्येक जनेऊ धारण करने वाले को ग्रहणकाल के उपरांत पुराना बदलकर नया जनेऊ धारण कर लेना चाहिए, बस यही सोच कर सुबह सुबह मैं हनुमान जी की सेवा में यह ले आया था, प्रभु को यह प्रिय भी बहुत है। हनुमान चालीसा में भी लिखा है कि - "हाथ बज्र और ध्वजा विराजे, कांधे मूज जनेऊ साजे"।
           अब महन्थ जी थोड़ी सोचनीय मुद्रा में बोले कि हम लोग बाजार का जनेऊ नहीं लेते, हनुमान जी के लिए शुद्ध जनेऊ बनवाते हैं, आपके जनेऊ की क्या शुद्धता है। इस पर वह ब्राह्मण बोले कि प्रथम तो यह कि ये कच्चे सूत से बना है, इसकी लम्बाई 96 चउवा (अंगुल) है, पहले तीन धागे को तकली पर चढ़ाने के बाद तकली की सहायता से नौ धागे तेहरे गये हैं, इस प्रकार 27 धागे का एक त्रिसुत है जो कि पूरा एक ही धागा है कहीं से भी खंडित नहीं है, इसमें प्रवर तथा गोत्रानुसार प्रवर बन्धन है तथा अन्त में ब्रह्मगांठ लगा कर इसे पूर्ण रूप से शुद्ध बनाकर हल्दी से रंगा गया है और यह सब मैंने स्वयं अपने हाथ से गायत्री मंत्र जपते हुए किया है। ब्राह्मण देव की जनेऊ निर्माण की इस व्याख्या से मैं तो स्तब्ध रह गया। मन ही मन उन्हें प्रणाम किया, मेंने देखा कि अब महन्त जी ने उनसे संस्कृत भाषा में कुछ पूछने लगे, उन लोगों का सवाल - जबाब तो मेरी समझ में नहीं आया पर महन्त जी को देख कर लग रहा था कि वे ब्राह्मण के जवाब से पूर्णतया सन्तुष्ट हैं। अब वे उन्हें अपने साथ लेकर हनुमान जी के पास पहुँचे जहाँ मन्त्रोच्चारण कर महन्त व अन्य 3 पुजारियों के सहयोग से हनुमान जी को ब्राह्मण देव ने जनेऊ पहनाया तत्पश्चात पुराना जनेऊ उतार कर उन्होंने बहते जल में विसर्जन करने के लिए अपने पास रख लिया। मंदिर तो मैं अक्सर आता हूँ पर आज की इस घटना ने मन पर गहरी छाप छोड़ दी, मैंने सोचा कि मैं भी तो ब्राह्मण हूं और नियमानुसार मुझे भी जनेऊ बदलना चाहिए, उस ब्राह्मण के पीछे-पीछे मैं भी मंदिर से बाहर आया उन्हें रोककर प्रणाम करने के बाद अपना परिचय दिया और कहा कि मुझे भी एक जोड़ी शुद्ध जनेऊ की आवश्यकता है, तो उन्होंने असमर्थता व्यक्त करते हुए कहा कि इसे तो वह बस हनुमान जी के लिए ही ले आये थे। हां यदि आप चाहें तो मेरे घर कभी भी आ जाइएगा घर पर जनेऊ बनाकर मैं रखता हूँ जो लोग जानते हैं वो आकर ले जाते हैं। मैंने उनसे उनके घर का पता लिया और प्रणाम कर वहां से चला आया। शाम को उनके घर पहुंचा तो देखा कि वह अपने दरवाजे पर तखत पर बैठे एक व्यक्ति से बात कर रहे हैं। गाड़ी से उतरकर मैं उनके पास पहुंचा मुझे देखते ही वो खड़े हो गए, और मुझसे बैठने का आग्रह किया अभिवादन के बाद मैं बैठ गया। बातों बातों में पता चला कि वह अन्य व्यक्ति भी पास का रहने वाला ब्राह्मण है तथा उनसे जनेऊ लेने ही आया है। ब्राह्मण अपने घर के अन्दर गए। इसी बीच, उनकी दो बेटियाँ जो क्रमश: 12 वर्ष व 8 वर्ष की रही होंगी। एक के हाथ में एक लोटा पानी तथा दूसरी के हाथ में एक कटोरी में गुड़ तथा दो गिलास था, हम लोगों के सामने गुड़ व पानी रखा गया। मेरे पास बैठे व्यक्ति ने दोनों गिलास में पानी डाला फिर गुड़ का एक टुकड़ा उठा कर खाया और पानी पी लिया तथा गुड़ की कटोरी मेरी ओर खिसका दी, पर मैंने पानी नहीं पिया। इतनी देर में ब्राह्मण अपने घर से बाहर आए और एक जोड़ी जनेऊ उस व्यक्ति को दिए, जो पहले से बैठा था। उसने जनेऊ लिया और 21 रुपए ब्राह्मण को देकर चला गया। मैं अभी वहीं रुका रहा इस ब्राह्मण के बारे में और अधिक जानने का कौतुहल मेरे मन में था। उनसे बात-चीत में पता चला कि वह संस्कृत से स्नातक हैं। नौकरी मिली नहीं और पूँजी ना होने के कारण कोई व्यवसाय भी नहीं कर पा। घर में बृद्ध मां, पत्नी दो बेटियाँ तथा एक छोटा बेटा है, एक गाय भी है। वे बृद्ध मां और गौ-सेवा करते हैं। दूध से थोड़ी सी आय हो जाती है और जनेऊ बनाना उन्होंने अपने पिता व दादा जी से सीखा है। यह भी उनके गुजर-बसर में सहायक है। इसी बीच उनकी बड़ी बेटी पानी का लोटा वापस ले जाने के लिए आई किन्तु अभी भी मेरी गिलास में पानी भरा था। उसने मेरी ओर देखा, लगा कि उसकी आँखें मुझसे पूछ रही हों कि मैंने पानी क्यों नहीं पिया? मैंने अपनी नजरें उधर से हटा लीं, वह पानी का लोटा गिलास वहीं छोड़ कर चली गयी। शायद उसे उम्मीद थी कि मैं बाद में पानी पी लूंगा। अब तक मैं इस परिवार के बारे में काफी हद तक जान चुका था। मेरे मन में दया के भाव भी आ रहे थे। खैर ब्राह्मण ने मुझे एक जोड़ी जनेऊ दिया तथा कागज पर एक मंत्र लिख कर दिया और कहा कि जनेऊ पहनते समय इस मंत्र का उच्चारण अवश्य करूं -- ।
          मैंने सोच समझ कर 500 रुपए का नोट ब्राह्मण की ओर बढ़ाया तथा जेब और पर्स में एक का सिक्का तलाशने लगा, मैं जानता था कि 500 रुपए एक जोड़ी जनेऊ के लिए बहुत अधिक है पर मैंने सोचा कि इसी बहाने इनकी थोड़ी मदद हो जाएगी।ब्राह्मण हाथ जोड़ कर मुझसे बोले कि सर 500 सौ का फुटकर तो मेरे पास नहीं है, मैंने कहा अरे फुटकर की आवश्यकता नहीं है आप पूरा ही रख लीजिए। तो उन्होंने कहा नहीं बस मुझे मेरी मेहनत भर का 21 रुपए दे दीजिए। मुझे उनकी यह बात अच्छी लगी कि गरीब होने के बावजूद वो लालची नहीं हैं। पर मैंने भी पांच सौ ही देने के लिए सोच लिया था इसलिए मैंने कहा कि फुटकर तो मेरे पास भी नहीं हैं, आप संकोच मत करिए पूरा रख लीजिए आपके काम आएगा। उन्होंने कहा अरे नहीं मैं संकोच नहीं कर रहा, आप इसे वापस रखिए जब कभी आपसे दुबारा मुलाकात होगी तब 21रु. दे दीजिएगा। इस ब्राह्मण ने तो मेरी आँखें नम कर दीं। उन्होंने कहा कि शुद्ध जनेऊ की एक जोड़ी पर 13-14 रुपए की लागत आती है। 7-8 रुपए अपनी मेहनत का जोड़कर वह 21 रु. लेते हैं। कोई-कोई एक का सिक्का न होने की बात कह कर बीस रुपए ही देता है। मेरे साथ भी यही समस्या थी। मेरे पास 21रु. फुटकर नहीं थे, मैंने पांच सौ का नोट वापस रखा और सौ रुपए का एक नोट उन्हें पकड़ाते हुए बड़ी ही विनम्रता से उनसे रख लेने को कहा। इस बार वह मेरा आग्रह नहीं टाल पाए और 100 रुपए रख लिए और मुझसे एक मिनट रुकने को कहकर घर के अन्दर गए, बाहर आकर और चार जोड़ी जनेऊ मुझे देते हुए बोले... मैंने आपकी बात मानकर सौ रु. रख लिए। अब मेरी बात मान कर यह चार जोड़ी जनेऊ और रख लीजिए ताकी मेरे मन पर भी कोई भार ना रहे। मैंने मन ही मन उनके स्वाभिमान को प्रणाम किया साथ ही उनसे पूछा कि इतना जनेऊ लेकर मैं क्या करूंगा तो वो बोले कि मकर संक्रांति, पितृ विसर्जन, चन्द्र और सूर्य ग्रहण, घर पर किसी हवन पूजन संकल्प, परिवार में शिशु जन्म के सूतक आदि अवसरों पर जनेऊ बदलने का विधान है, इसके अलावा आप अपने सगे सम्बन्धियों रिश्तेदारों व अपने ब्राह्मण मित्रों को उपहार भी दे सकते हैं जिससे हमारी ब्राह्मण संस्कृति व परम्परा मजबूत हो, साथ ही साथ जब आप मंदिर जाएं तो विशेष रूप से गणेश जी, शंकर जी व हनुमान जी को जनेऊ जरूर चढ़ाएं... उनकी बातें सुनकर वह पांच जोड़ी जनेऊ मैंने अपने पास रख लिया और खड़ा हुआ, वापसी के लिए बिदा मांगी, तो उन्होंने कहा कि आप हमारे अतिथि हैं पहली बार घर आए हैं हम आपको खाली हाथ कैसे जाने दो सकते हैं। इतना कह कर उनहोंने अपनी बिटिया को आवाज लगाई, वह बाहर निकाली तो ब्राह्मण देव ने उससे इशारे में कुछ कहा तो वह उनका इशारा समझकर जल्दी से अन्दर गयी और एक बड़ा सा डंडा लेकर बाहर निकली, डंडा देखकर मेरी समझ में नहीं आया कि मेरी कैसी बिदायी होने वाली है। अब डंडा उसके हाथ से ब्राह्मण देव ने अपने हाथों में ले लिया और मेरी ओर देख कर मुस्कराए... जबाब में मैंने भी मुस्कराने का प्रयास किया। वह डंडा लेकर आगे बढ़े तो मैं थोड़ा पीछे हट गया। उनकी बिटिया उनके पीछे पीछे चल रह थी। मैंने देखा कि दरवाजे की दूसरी तरफ दो पपीते के पेड़ लगे थे। डंडे की सहायता से उन्होंने एक पका हुआ पपीता तोड़ा। उनकी बिटिया वह पपीता उठा कर अन्दर ले गयी और पानी से धोकर एक कागज में लपेट कर मेरे पास ले आयी। अपने नन्हें नन्हे हाथों से मेरी ओर बढ़ा दिया। उसका निश्छल अपनापन देख मेरी आँखें भर आईं। मैं अपनी भीग चुकी आंखों को उससे छिपाता हुआ दूसरी ओर देखने लगा। तभी मेरी नजर पानी के उस लोटे और गिलास पर पड़ी जो अब भी वहीं रखा था। इस छोटी सी बच्ची का अपनापन देख मुझे अपने पानी न पीने पर ग्लानि होने लगी। मैंने झट से एक टुकड़ा गुड़ उठाकर मुँह में रखा और पूरी गिलास का पानी एक ही साँस में पी गया। बिटिया से पूछा कि क्या एक गिलास पानी और मिलेगा... वह नन्ही परी फुदकती हुई लोटा उठाकर ले गयी और पानी भर लाई, फिर उस पानी को मेरी गिलास में डालने लगी। उसके होंठों पर तैर रही मुस्कराहट जैसे मेरा धन्यवाद कर रही हो। मैं अपनी नजरें उससे छुपा रहा था। पानी का गिलास उठाया और गर्दन ऊंची कर के वह अमृत पीने लगा... पर अपराधबोध से दबा जा रहा था। अब बिना किसी से कुछ बोले पपीता गाड़ी की दूसरी सीट पर रखा, और घर के लिए चल पड़ा, घर पहुंचने पर हाथ में पपीता देख कर मेरी पत्नी ने पूछा कि यह कहां से ले आए.... तो बस मैं उससे इतना ही कह पाया कि एक ब्राह्मण के घर गया था तो उन्होंने खाली हाथ आने ही नहीं दिया

Sunday, March 8, 2020

नदी और औरत।

किसी झरने का नदी बन जाना 
ठीक वैसे ही तो 
जैसे किसी लड़की का औरत बन जाना 
जैसे एकवचन से बहुवचन हो जाना 
जैसे अपने लिए जीना छोड़कर
दुनिया के लिए जीना 
जैसे दूसरों को अमृत पिला 
खुद जहर पीना 
अद्भुत सी समानताएं हैं 
नदी और औरत में 
दोनों ही से मिलकर 
धुल जाते हैं कलुष 
तन और मन के 
तृप्त हो जाती है आत्मा भी
मिलती है अद्भुत सी शांति
रेतीले, पथरीले, जंगल, पहाड़ से 
गुजरती है नदी कितनी ही चोटें खाकर 
खुशहाली पहुंचाती है मगर 
नगर-नगर हर गाँव-घर जाकर
भले ही मिलता हो उसे बदले में 
इंसानी गन्दगी का दलदल 
पिता हो, पति हो, या पुत्र 
औरत भी तो ले लेती है 
सबकी थकान और चिंताएं अपने ही सर 
फिर भी कोई गिला नहीं दोनों ही को 
खुशियाँ बांटती जा मिलती हैं 
अपने-अपने समंदर को 
                     (कृष्ण धर शर्मा)
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