Thursday, June 25, 2020

कुमार कर्ण की ग़ज़ल।

एक मुक़म्मल ग़ज़ल दोस्तों को सादर----
उम्र-भर की  जुदाई  मत  देना
इतनी  लंबी  लड़ाई  मत  देना

आपको हक है ज़ख़्म देने का
पर  कभी  जगहंसाई मत देना

कर लिया जब कफ़स में तुमने
अब  मुझे  तुम रिहाई मत देना

टूटते  देखूँ  दिल कभी   अपना
या  खुदा  वो  बिनाई   मत देना

बावफ़ा से किया है प्यार"करण"
अब  कभी  बेवफ़ाई  मत   देना

- कुमार कर्ण

Tuesday, June 23, 2020

आज एक हरियाणवी !

भूंडे की परिभासा के ?
खुरली म्हं गंडासा के ?

बात बणानी ना आई,
छप्पन गेल पचासा के ?

इंजण खू ग्या रस्ते म्हं,
के पटड़ी अर पासा के ?

चालू चाल चलत्तर की,
चाल चौधरी रासा के ?

रोट्टी, गोट्टी, मोट्टी का,
तकड़ा पान पतासा के ?
--योगेंद्र मौदगिल

तुम उतनी ही सुंदर रहना (3)

कोई कविता अंतिम होगी
शब्द शब्द थम जाएंगे
पर जितने भी शब्द लिख गया
वो तुमको ही गाएंगे

कवि नश्वर होते हैं लेकिन
कविता कभी नही मरती
कवि की प्रियवर ही कविता है
वो ही सदा अमर  रहती

बसी न हो जो तेरी खुश्बू
शब्द नही जी पाएंगें

दो पल का ये जीवन सारा
लम्हा लम्हा बीत रहा
चिर निंद्रा से पलकें बोझिल
पर होठों पर गीत रहा

तितली जैसे गीत न हों तो
फूल कहाँ खिल पाएंगें

- राजेश कुमार

तुम उतनी ही सुंदर रहना (2)

बीत गया जो तुम बिन प्रियतम
वो सब कुछ इतिहास हो गया
तुम आओगे  दिल में मेरे
आहट से आभाष हो गया

चंदन वन के कस्तूरी मृग
सी तेरी चितवन प्रियतम
सात आसमां तुझसे नीचे
तू इतनी पावन अनुपम

वक्त वहीं पर थम जाता है
जिस पल कोई खास हो गया

सदियाँ हार गईं हैं कितनी
जाने कितने पल जीते
तुम्हे सोच कर लम्हा लम्हा
इतंज़ार के युग बीते

आसमान को पता नही है
वो अब मेरे पास हो गया

फूलों की घायल घाटी में
तितली अब भी आती है
यमुना जल में आँसू कितने
राधा कहाँ बताती है

सरल प्रेम की कठिन व्याख्या
कान्हा तेरा रास हो गया

- राजेश कुमार

तुम उतनी ही सुंदर रहना (1)

हँसने वाली लड़की ऐसे 
मेरे मन में सजती है
वो कोमल मीठी सी धुन है
जैसे बंशी बजती है

बिना महावर बिछिया पायल
साँस साँस करती वो घायल
गंगोत्री की बूंद वो पहली
ग्रह नक्षत्र सब उसके कायल

दुग्ध धवल वो तब होती है
सात रंग जब तजती है

ओस धुले आंगन में उतरी
वो चाँदी से किरन सुहानी
रति ,वीनस सब उससे फीके
सिर्फ वही है रूप की रानी

मुस्कानो से बुनकर वो ही
गीत हमारे रचती है

-राजेश कुमार

Friday, June 19, 2020

चाय सिर्फ चाय नहीं होती...

जब कोई पूछता है 
"चाय पीयोगे ?"
तो वो ये नहीं पूछता तुमसे, 
चीनी और चायपत्ती
को उबालकर बनी हुई 
एक कप  चाय के लिए।

वो पूछता है...
क्या आप बांटना चाहेंगे
कुछ चीनी सी मीठी यादें
कुछ चायपत्ती सी कड़वी
दुःख भरी बातें..!

वो पूछता है..
क्या आप चाहेंगे
बाँटना मुझसे अपने कुछ
अनुभव, मुझसे कुछ आशाएं
कुछ नयी उम्मीदें..?

वो कहना चाहता है..
तुमसे तमाम किस्से
जो सुना नहीं पाया 
अपनों को कभी..

वो उस गर्म चाय की प्याली 
के साथ उठते हुए धुओँ के साथ
कुछ पल को अपनी
सारी फ़िक्र उड़ा देना चाहता है

इस दो कप चाय के साथ 
शायद इतनी बातें
दो अजनबी कर लेते हैं
जितनी तो अपनों के बीच 
भी नहीं हो पाती।

तो बस जब पूछे कोई
अगली बार तुमसे
"चाय पियोगे..?"

तो हाँ कहकर 
बाँट लेना उसके साथ
अपनी चीनी सी मीठी यादें
और चायपत्ती सी कड़वी 
दुखभरी  बातें..!!

चाय सिर्फ चाय नहीं होती...!

Monday, June 15, 2020

रावल जोगी

मैं गीतों का रावल जोगी चला किया अविराम।
 दिनभर अलख जगाई मैंने 
रात वृक्ष के नीचे काटी 
जुड़ी रही अनवरत राह से 
मेरी गैरिक वसना माटी
 इस बस्ती में भोर हुई तो उस बस्ती में शाम।
  मुझे कपटवेशी बतला कर 
 कहा किसी ने यह ढोंगी है 
कहा किसी ने बाहर जोगी 
लेकिन भीतर रसभोगी है 
जिसने  ठुकराया उसको भी मैंने किया प्रणाम। 
 मेरी क्या औकात, जिन्होंने 
जीवन में कितने दुख झेले
 संत्रासों से खपा  स्वयं को 
कितनी विपदाओं से खेले
 यह तुलसी की माटी जाने या तुलसी के राम।
 मेरे सिरजनहार समझ में 
आई नहीं तुम्हारी माया
 अंगारों के जंगल में दी
 तुमने पांच फूल की काया 
जिसकी हर कामना अधूरी हर  आंसू नाकाम। 
 बिजली जिसको आंख दिखाए 
जिसे बादलों ने भरमाया
 चक्रवात के पथ पर तुमने 
यह माटी का दीप जलाया 
चुटकी भर उजियारी लिख दी अगम तिमिर के नाम। 
 मेरा घट  खाली रखना था 
तो मुझको यह प्यास  न देते 
पंख नहीं देना था तो फिर 
मुझको तुम आकाश न देते 
इतनी पीर न  देनी थी जो कर दे नींद हराम। 
 आश्वासन देकर फूलों का 
 मुझको कांटे दिये  समय ने 
मेरे गीतों की झोली में 
कुछ आंसू कुछ टूटे सपने 
छोटी -सी पूंजी है वह भी गली -गली गली बदनाम।
 अंधकार के अभिनंदन में 
उजियाली ने  कविता बाँची 
यह  दरबार झूठ का जिसमें 
सारी रात सचाई   नाची
प्यासा मरा पपीहा  कोई  घटा न आई  काम। 
 अनबन के कांटे चुभते हैं 
नफरत के अंगारे फैले 
घूमा करते हैं सड़कों पर
भेष बदलकर नाग विषैले 
अंकुश नहीं हवा पर अफवाहों पर नहीं लगाम।

 @रूप नारायण त्रिपाठी

Friday, June 5, 2020

अभी इस समय !

अभी इस समय
कहीं बहुत नजदीक के घरों में 
कुछ लोगों के रोने की आवाज आ रही है।

निकल कर जानना चाहता हूं
लेकिन कुछ समझ नहीं पाता
और फिर अन्दर लौट आता हूं।

यही एक बात मुझे परेशान कर रही है इन दिनों
आदमी के दुःख का अनुमान भी नहीं मिल पाता

कल भी शायद न पता चले कि कौन लोग थे जो व्यथा से भर कर रोते रहे आज रात भर?

उनका दुःख क्या था
उस व्यथा का क्या हुआ निदान?

वहां कुछ और लोग हैं जो रुलाई के दर्शक हैं
श्रोता हैं साक्षी हैं
खिड़कियां खुल कर बंद हो जा रही हैं
मदद के हाथ बढ़ा कर पीछे हट जा रहे हैं लोग

पूर्णिमा है या अमावस सबका रंग
क्षीण हो गया है!
प्रकाश होने न होने से 
बहुत अंतर नहीं पड़ता मन पर।

सोच रहा हूं
रात की जगह दिन होता तो भी ऐसा ही होता
सब कुछ दूर हो गया है
और समझ के बाहर भी।

कोई कहता है मुझसे
"तुम्हें जागना हो तो जागते रहो रात भर
सोना हो तो सो जाओ
तुम्हें रोना है तो रो भी लो
कर लो जो जितना कुछ कर पाओ"
कौन था यह देखने की कोशिश की तो ओह
यह क्या
यह तो सरदार पटेल हैं
आंखों से निथर रहा है गाढ़ा खून
कुछ देख नहीं पा रहे
टटोल कर चलते गिरते उठते
अपनी आंखों के खून से भीगे
भूख से परास्त पटेल
अपनी ही मूर्ति के आगे 
कटोरा लिए बैठे पटेल!

मैं उनसे कहता हूं
"आप क्यों निकले इस अकाल बेला में
और आंख का निदान क्यों नहीं करवाते आप?

वे बोलते हैं 
"धीरे बोलो
इतना धीरे की मेरी मूर्ति भी 
न सुन पाए हमारी बातें
मूर्तियों से डर लगता है
मैं अपने ये खून के आंसू 
छिपाता हुआ आया हूं यहां तक
अपनी भूख
अपने घाव
अपने अभाव
सब छिपाओ और चुप रहने का अभ्यास करो"

मैं दौड़ता हूं पोछ दूं पटेल के रक्त अश्रु
लेकिन पटेल खो जाते हैं 
एक विशाल इस्पात मूर्ति में।

उनके खून का निशान धोया जा रहा है
अनेक तरह से साफ किया जा रहा है
उन के खून का हर कण!

उनको भी बांधा जा रहा है
लौह श्रृंखलाओं से
उसी भयानक डरावनी मूर्ति में
जिसमें वे समाहित हो गए
अभी अभी!

मैं सोचता बैठा हूं
अपने छोटे से कमरे में
क्यों आए पटेल यहां
आंख में खून के आंसू थे तो पूरा गुजरात पार कर कैसे आए वे मेरे पास?

जब दुःख दिखाना मना है
वे कैसे निकल पाए होंगे?

मैं भूल जाता हूं कि मैं घर में नहीं
सड़क पर हूं
और राह भटक कर चला आया हूं
पटेल के पास!

यह जो विलाप है क्या 
यह सरदार पटेल का ही रोना है?

नहीं नहीं नहीं
सरदार नहीं उनकी मूर्ति की छाया में घायल पड़े हैं
विनोबा यह उनकी रुलाई है?
या मोहनदास कर्म चंद गांधी तो नहीं?

ऐसी साधारण जन सी रुलाई कौन रो सकता है
जो चतुर्दिक सुनाई दे
हर आदमी के फेफड़े में
हर आदमी के मस्तिष्क में
हर आदमी के पराजय में
जो रोर बन कर गूंज जाए
यह किसकी रुलाई है?

अरे अरे यह तो गांधी ही हैं
अपने फेफड़े में धंसी पिस्टल की गोलियां
अपने हाथों से निकाल कर गांधी भागते जा रहे हैं
रोते हुए न करते हुए फरियाद
न बचाव के लिए राम को पुकारते
न अपना दुःख किसी को दिखाते
न गोलियों से बने घाव से बहता रक्त रोकते।

लेकिन पैदल पैदल कहां तक भाग पाएंगे गांधी?
कितनी दूर है उनका गांव
उनका अपना पोरबंदर सेवाग्राम!

पांव कट गए हैं
उनकी लाठी छीन ली है किसी ने
उनका खून सोखने उनके घावों से चिपक गए हैं ये कौन लोग?

और उस पर भी जब नहीं मरते गांधी 
नहीं गिड़गिड़ाते गांधी
फिर भी
उनके पीछे दौड़ रहे हैं रिवाल्वर लिए कितने लोग
निशाना साधे 
घेरते गांधी को
विनोबा को!

यह गांधी ऐसे क्यों रो रहे?
क्यों गिड़गिड़ा नहीं रहे
मांग नहीं क्यों रहे प्राण की भीख
आखिर इतने बेगाने क्यों हैं पिता?

कौन लोग हैं जो गांधी की हत्या में सुख पाने का उपाय खोज रहे हैं
कोई चेहरा छिपा नहीं है अब
फिर भी पहचान करना कठिन कैसे हो रहा है?

मैं जोर देता हूं
लेकिन हजारों चेहरे मिल कर एक हो गए हैं
और इतने अभिभूत हैं सब की हत्यारों की शिनाख्त से अधिक उनके प्रभा मंडल पर है सबकी आंखें
और वहां मेला सा लग गया है 
गांधी का शरीर
गांधी का खून सब
उज्जवल होकर एक पवित्र द्रव में 
परिवर्तित हो गया है
जिससे तिलक लगा कर
लोग लगातार पवित्र होते जा रहे हैं।

ऐसे लोगों की भीड़ इतनी अधिक हो गई है
पटेल की मूर्ति के पीछे कि 
अब गांधी के रोने की वजह भी 
पता नहीं चल पा रही है।

मैं खुद से पूछता हूं कि क्यों रो रहे होंगे गांधी
उनको क्या दुःख था
क्यों बह रहा है पटेल की आंखों से खून
क्यों विक्षिप्त से घूम रहे विनोबा
उनको 
उन सब को अभी क्या तकलीफ है?

एक साथ हजारों लोग डपटते हैं
मुझे कि 
"अपना उपचार कराओ
कहीं कोई नहीं रो रहा
यह तुम्हारा भ्रम है
और ऐसा ही है तो सुनो संसार भर की रुलाई
तुमको किसने रोका है
जो नहीं सुनाई पड़ रही हैं उनको भी सुनो
फिर संसार भर की दिख रही और 
छुपी सारी रुलाइयों को गूंथ कर
एक कविता बनाओ!
तुम उनका दुःख भले न समझ पाओ
पर उनके दुःख को 
अपनी विकलता से जोड़ जाओ
कविता से हमको फर्क नहीं पड़ता है"

मैं अपने को समझाता हूं
सुबह बात करूंगा आस पड़ोस में
पूछूंगा गांधी को रोते सुना क्या?
पटेल तुम्हारे पास भी आए थे
आंखों से बहाते रक्त अश्रु
तुमने गांधी के फेफड़े में फंसी वह गोली देखी क्या?

कोई सीधे बात नहीं करता
और उधर पटेल की मूर्ति की छाया में
गांधी को घेर कर जलाया जा रहा है
जीवित जल रहे हैं गांधी!

उधर बहुत कोलाहल है
बहुत विजय उल्लास है उधर!

उसी उल्लास के 
आस पास से लगातार
अनेक लोगों के 
रोने की आवाजें आ रही हैं
मैं स्वयं एक विलाप में परिवर्तित हो गया हूं! 

पटेल की आंख का रक्त अश्रु हूं मैं
गांधी का छिदा हुआ रक्त हीन शरीर हूं मैं
बहुत करीब से कहीं से 
आ रहा वह रुदन हूं मैं!

ओह भाव की सारी बातें खून से सुगंधित हो चली हैं
मैं किसी दिशा में निकलता हूं
विदा मित्रों विदा!

बोधिसत्व, मुंबई

Thursday, June 4, 2020

"बहू बदनाम रहेगी"

बेटा चुप रहे तो 
बहू ने मुट्ठी मे कर रक्खा है !

बेटा कुछ बोले तो 
देखो बहू की जुबान बोलता है !

बेटा क्रोध करे तो 
जरूर बहू की संगति का असर है!

बेटा कमरे मे जाए तो 
बहू ने मोहजाल में फंसा रक्खा है!

बेटा असहमत नज़र आए तो 
जरूर बहू ने ही पाठ पढ़ाया होगा!

बेटा नज़रअंदाज करे तो 
जरूर बहू ने ही सब सिखाया होगा !

घर की बातें बाहर जाए तो 
बहू पेट मे कुछ पचा नही पाती
हालत ऐसी है बहू की कि
पति पर हक भी जता नही पाती

इतना ही नहीं....

घर टूटा तो बहू जिम्मेदार
कुछ फूटा तो बहू जिम्मेदार
जिम्मेदारी की बात न पूछो
कोई रूठा तो बहू जिम्मेदार

अब इतनी परेशानी है बहू से
तो बहू लेकर ही क्यूं आते हो
बना कर रखेंगे बेटी, बहू को
भ्रम-जाल ये क्यूं बिछाते हो..

कुछ भी हो जाए ग़लत अगर
इल्ज़ाम बहू पर लगाते हो
इंसा है वो भी मूरत नहीं
बात इतनी समझ ना पाते हो

गलत हो बहू तो उससे कहो
गलती सुधारने की सीख भी दो
बाहर बहू के किस्से सुनाते हो
खुद बदनाम उसे कर जाते हो

मन से ना चाहोगे तो पराई लगेगी
चाहें जितना भी वो काम करेगी
कल भी थी और वो आज भी है
बहू कल भी यूं ही बदनाम रहेगी।

©मनीषा दुबे (मुक्ता)

Wednesday, June 3, 2020

शब्दों के बाहर था यह सब

विजय कुमार जी की एक कविता

शब्दों के बाहर था यह सब
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शब्द   जब साथ नहीं दे रहे थे 
तब भी मैं शब्दों की ओर ही लौटा
जबकि
भाषा का अब कोई अर्थ नहीं रह गया था।

यातनाओं के वे पल
केवल दृश्य थे 
केवल दृश्य।
सुबह से शाम तक 
देर रात तक केवल दृश्य 

तपती धूप , कँकरीली सड़क
टूटी सी चप्पलें
असहनीय भूख 
सूनी सूनी आँखें
पाँवों के छाले,
औरतें उनके टूटे हुए शरीर
और वे  कितना सह सकती हैं 
औरत होने के मायने भी खत्म हुए  वहां 

मुरझाए हुए बच्चों की रुलाई
वह बच्चा आखिर कितनी देर रो सकता है?

बारह सौ मील का यह फासला 
यह कटेगा
कटेगा हाँ कटेगा 
कहा उसने दृश्य में
आसमान को देखते 
चुप्पियों और
खामोशियों के पार
कहा  कुछ उसने
अपने नसीब पर 
कल पर
उसके अगले कल पर ।

ज़िन्दगी एक गट्ठर है 
नहीं कहा उसने 

कहा उसने
सोचने को होगा कुछ 
पर अभी तो बस यह धूप है 
हवा है 
यह आसमान है
सांस है 
ज़िंदगी है ।

बूझते रहो तुम मायने इनके

हमारे पास तो बस  यह एक ज़िंदगी  
और 
क्या करें
वो शब्दों में समाती नहीं।

* विजय कुमार जी मुंबई में रहते हैं और अपने ढंग के विरले कवियों में हैं। इन्होंने कविता के हर होड़ से अपने को बाहर रखा और अपनी अनोखी कहन शैली विकसित की। अपनी पीढ़ी के उन कुछ कवियों में शामिल हैं जिनका काव्य वैभव चकित भी करता है आमंत्रित भी। आज जब एक पूरी पीढ़ी पदयात्री हो गई है विजय जी ने उस यातना को अपने रंग में अंतरंगता और संवेदना के संवेग के साथ दर्ज किया है। आप लोग पढ़ें और देखें कि कैसे कविता व्यथा से आगे जा कर औचक अनेक अंधेरों को उजागर करती है।

बोधिसत्व, मुंबई