Monday, September 23, 2013

गजल !

तू दर्दे-दिल को आईना  बना लेती  तो  अच्छा था
मोहब्बत की कशिश दिल में सजा लेती तो अच्छा था

बचाने के लिए तुम खुद को आवारा-निगाही से
निगाहे-नाज को खंजर बना लेती तो अच्छा था

तेरी पलकों के गोशे में कोई आंसू जो बख्शे तो
उसे तू खून का दरिया बना लेती तो अच्छा था

सुकूं मिलता जवानी की तलातुम-खेज मौजों को
किसी का ख्वाब आंखों में बसा लेती तो अच्छा था

ये चाहत है तेरी मरजी, मुझे  चाहे न चाहे तू
हां, मुझको देखकर तू मुस्कुरा देती तो अच्छा था

तुम्हारा हुस्ने-बेपर्दा  कयामत-खेज है कितना
किसी के इश्क को पर्दा बना लेती तो अच्छा था

तेरी निगहे-करम के तो दिवाने हैं सभी लेकिन
झुका पलकें किसी का दिल चुरा लेती तो अच्छा था

किसी के इश्क में आंखों से जो बरसात होती है
उसी बरसात में तू भी नहा लेती तो अच्छा था

तेरे जाने की आहट से किसी की जां निकलती है
खुदारा तू किसी की जां बचा लेती तो अच्छा था

 
- रचनाकार वसीम अकरम

बात पर बात होता बात ओराते नइखे !

बात पर बात होता बात ओराते नइखे
कवनो दिक्कत के समाधान भेंटाते नइखे

भोर के आस में जे बूढ़ भइल, सोचत बा
मर गइल का बा सुरुज रात ई जाते नइखे

लोग सिखले बा बजावे के सिरिफ ताली का
सामने जुल्म के अब मुठ्ठी बन्हाते नइखे

कान में खोंट भरल बा तबे तऽ केहू के
कवनो अलचार के आवाज़ सुनाते नइखे

ओद काठी बा, हवा तेज बा,किस्मत देखीं
तेल भरले बा, दिया-बाती बराते नइखे

मन के धृतराष्ट्र के आँखिन से सभे देखत बा
भीम असली ह कि लोहा के, चिन्हाते नइखे

बर्फ हऽ, भाप हऽ, पानी हऽ कि कुछुओ ना हऽ
जिन्दगी का हवे, ई राज बुझाते नइखे

दफ्न बा दिल में तजुर्बा त बहुत, ए ‘भावुक’
छंद के बंध में सब काहें समाते नइखे


- मनोज सिंह 'भावुक'

भवन माहात्म्य !

भवन मनुज की सभ्यता, ईश्वर का वरदान।
रहना चाहें भवन में, भू पर आ भगवान।१।

भवन बिना हो जिंदगी, आवारा-असहाय।
अपने सपने ज्यों 'सलिल', हों अनाथ-निरुपाय।२।

मन से मन जोड़े भवन, दो हों मिलकर एक।
सब सपने साकार हों, खुशियाँ मिलें अनेक।३।

भवन बचाते ज़िन्दगी, सड़क जोड़ती देश।
पुल बिछुडों को मिलाते, तरु दें वायु हमेश।४।

राष्ट्रीय संपत्ति पुल, सड़क इमारत वृक्ष।
बना करें रक्षा सदा, अभियंतागण दक्ष।५।

भवन सड़क पुल रच बना, आदम जब इंसान।
करें देव-दानव तभी, मानव का गुणगान।६।

कंकर को शंकर करें, अभियंता दिन-रात।
तभी तिमिर का अंत हो, उगे नवल प्रभात७।

भवन सड़क पुल से बने, देश सुखी संपन्न।
भवन सेतु पथ के बिना, होता देश विपन्न।८।

इमारतों की सुदृढ़ता, फूंके उनमें जान।
देश सुखी-संपन्न हो, बढ़े विश्व में शान।९।

भारत का नव तीर्थ है, हर सुदृढ़ निर्माण।
स्वेद परिश्रम फूँकता, निर्माणों में प्राण।१०।

अभियंता तकनीक से, करते नव निर्माण।
होता है जीवंत तब, बिना प्राण पाषाण।११।

भवन सड़क पुल ही रखें, राष्ट्र-प्रगति की नींव।
सेतु बना- तब पा सके, सीता करुणासींव।१२।

करे इमारत को सुदृढ़, शिल्प-ज्ञान-तकनीक।
लगन-परिश्रम से बने, बीहड़ में भी लीक।१३।

करें कल्पना शून्य में, पहले फिर साकार।
आंकें रूप अरूप में, यंत्री दे आकार।१४।

सिर्फ लक्ष्य पर ही रखें, हर पल अपनी दृष्टि।
अभियंता-मजदूर मिल, रचें नयी नित सृष्टि।१५।

सडक देश की धड़कनें, भवन ह्रदय पुल पैर।
वृक्ष श्वास-प्रश्वास दें, कर जीवन निर्वैर।१६।

भवन सेतु पथ से मिले, जीवन में सुख-चैन।
इनकी रक्षा कीजिए, सब मिलकर दिन-रैन।१७।

काँच न तोड़ें भवन के, मत खुरचें दीवार।
याद रखें हैं भवन ही, जीवन के आगार।१८।

भवन न गन्दा हो 'सलिल', सब मिल रखें खयाल।
कचरा तुरत हटाइए, गर दे कोई डाल।१९।

भवनों के चहुँ और हों, ऊँची वृक्ष-कतार।
शुद्ध वायु आरोग्य दे, पायें ख़ुशी अपार।२०।

कंकर से शंकर गढ़े, शिल्प ज्ञान तकनीक।
भवन गगनचुम्बी बनें, गढ़ सुखप्रद नव लीक।२१।

वहीं गढ़ें अट्टालिका जहाँ भूमि मजबूत।
जन-जीवन हो सुरक्षित, खुशियाँ मिलें अकूत।२२।

ऊँचे भवनों में रखें, ऊँचा 'सलिल' चरित्र।
रहें प्रकृति के मित्र बन, जीवन रहे पवित्र।२३।

रूपांकन हो भवन का, प्रकृति के अनुसार।
अनुकूलन हो ताप का, मौसम के अनुसार।२४।


वायु-प्रवाह बना रहे, ऊर्जा पायें प्राण।
भवन-वास्तु शुभ कर सके, मानव को सम्प्राण।२५।

- आचार्य संजीव 'सलिल'

मुक्तकंठ !

शहादतों को भूलकर सियासतों को जी रहे
पड़ोसियों से पिट रहे हैं और होंठ सी रहे
कुर्सियों से प्यार है, न खुद पे ऐतबार है-
नशा निषेध इस तरह कि मैकदे में पी रहे 

जो सच कहा तो घेर-घेर कर रहे हैं वार वो
हद है ढोंग नफरतों को कह रहे हैं प्यार वो
सरहदों पे सर कटे हैं, संसदों में बैठकर-
एक-दूसरे को कोस, हो रहे निसार वो 

मुफ़्त भीख लीजिए, न रोजगार माँगिए
कामचोरी सीख, ख्वाब अलगनी पे टाँगिए
फर्ज़ भूल, सिर्फ हक की बात याद कीजिए-
आ रहे चुनाव देख, नींद में भी जागिए

और का सही गलत है, अपना झूठ सत्य है
दंभ-द्वेष-दर्प साध, कह रहे सुकृत्य है
शब्द है निशब्द देख भेद कथ्य-कर्म का-
वार वीर पर अनेक कायरों का कृत्य है 

प्रमाणपत्र गैर दे: योग्य या अयोग्य हम?
गर्व इसलिए कि गैर भोगता, सुभोग्य हम
जो न हाँ में हाँ कहे, लांछनों से लाद दें -
शिष्ट तज, अशिष्ट चाह, लाइलाज रोग्य हम 

गंद घोल गंग में तन के मुस्कुराइए
अनीति करें स्वयं दोष प्रकृति पर लगाइए
जंगलों के, पर्वतों के नाश को विकास मान-
सन्निकट विनाश आप जान-बूझ लाइए 

स्वतंत्रता है, आँख मूँद संयमों को छोड़ दें
नियम बनायें और खुद नियम झिंझोड़-तोड़ दें
लोक-मत ही लोकतंत्र में अमान्य हो गया-
सियासतों से बूँद-बूँद सत्य की निचोड़ दें 

हर जिला प्रदेश हो, राग यह अलापिए
भाई-भाई से भिड़े, पद पे जा विराजिए
जो स्वदेशी नष्ट हो, जो विदेशी फल सके-
आम राय तज, अमेरिका का मुँह निहारिए 

धर्महीनता की राह, अल्पसंख्यकों की चाह
अयोग्य को वरीयता, योग्य करे आत्म-दाह
आँख मूँद, तुला थाम, न्याय तौल बाँटिए-
बहुमतों को मिल सके नहीं कहीं तनिक पनाह 

नाम लोकतंत्र, काम लोभतंत्र कर रहा
तंत्र गला घोंट लोक का विहँस-मचल रहा
प्रजातंत्र की प्रजा है पीठ, तंत्र है छुरा-
राम हो हराम, तज विराम दाल दल रहा 

तंत्र थाम गन न गण की बात तनिक मानता
स्वर विरोध का उठे तो लाठियां है भांजता
राजनीति दलदली जमीन कीचड़ी मलिन-
लोक जन प्रजा नहीं दलों का हित ही साधता 

धरें न चादरों को ज्यों का त्यों करेंगे साफ़ अब
बहुत करी विसंगति करें न और माफ़ अब
दल नहीं, सुपात्र ही चुनाव लड़ सकें अगर-
पाक-साफ़ हो सके सियासती हिसाब तब 

लाभ कोई ना मिले तो स्वार्थ भाग जाएगा
देश-प्रेम भाव लुप्त-सुप्त जाग जाएगा
देस-भेस एक आम आदमी सा तंत्र का-
हो तो नागरिक न सिर्फ तालियाँ बजाएगा 

धर्महीनता न साध्य, धर्म हर समान हो
समान अवसरों के संग, योग्यता का मान हो
तोडिये न वाद्य को, बेसुरा न गाइए-
नाद ताल रागिनी सुछंद ललित गान हो 

शहीद जो हुए उन्हें सलाम, देश हो प्रथम
तंत्र इस तरह चले की नयन कोई हो न नम
सर्वदली-राष्ट्रीय हो अगर सरकार अब
सुनहरा हो भोर, तब ही मिट सके तमाम तम 

- आचार्य संजीव 'सलिल'

इस आभासी जग में !

इस आभासी जग में सचमुच, कोई न पहरेदार
शिक्षित-बुद्धिमान हमलावर, देते कष्ट हजार

जिनसे जानते हैं जीवन में, उन्हें बनायें मित्र
'सलिल' सुरक्षित आप रहेंगे, मलिन न होगा चित्र

भली-भाँति कर जाँच- बाद में, भले मित्र लें जोड़
संख्या अधिक बढ़ाने की प्रिय!, कभी न करिए होड़

नकली खाते बना-बनाकर, छलिए ठगते मीत
प्रोफाइल लें जाँच, यही है, सीधी-सच्ची रीत

पढ़ें पोस्ट खाताधारी की, कितनी-कैसे लेख
लेखक मन की देख सकेंगे, रचनाओं में रेख

नकली चित्र लगाते हैं जो, उनसे रहिए दूर
छल करना ही उनकी फितरत, रही सजग जरूर

खाताधारक के मित्रों को देखें, चुप सायास
वस्त्र-भाव मुद्राओं से भी, होता कुछ आभास 

देह-दर्शनी मोहकतामय, व्याल-जाल जंजाल
दिखें सोचिए इनके पीछे, कैसा है कंकाल?
 

संचित चित्रों-सामग्री को, देख करें अनुमान
जुड़ें-ना जुड़ें आप सकेंगे, उनका सच पहचान

शिक्षा, स्वजन, जीविका पर भी, तनिक दीजिए ध्यान 
चिंतन धरा से भी होता, चिन्तक का अनुमान 


नेता अभिनेता फूलों या, प्रभु के चिपका चित्र
जो परदे में छिपे- न उसका, विश्वसनीय चरित्र 


स्वजनों के प्रोफाइल देखें, सच्चे या अनमेल?
गलत जानकारी देकर, कर सके न कोई खेल 


शब्द और भाषा भी करते, गुपचुप कुछ संकेत
देवमूर्ति से तन में मन का, स्वामी कहीं न प्रेत

आक्रामक-अपशब्दों का जो, करते 'सलिल' प्रयोग 
दूर रहें ऐसे लोगों से- हैं समाज के रोग

पासवर्ड हो गुप्त- बदलते रहिए बारम्बार
जान न पाए अन्य, सावधानी की है दरकार


- आचार्य संजीव 'सलिल'

साँच को आँच नहीं !

जो बात झूठ है वो बार-बार कहनी पड़ती है। दोहरानी पड़ती है। क्योंकि किसी को यक़ीन नहीं होता। हत्यारा बार-बार कहता है- मैंने ख़ून नहीं किया। प्रेमी बार-बार कहता है- आई लव यू! झूठ है। इसीलिए बार-बार कहना पड़ता है। प्रेमिका को भरोसा दिलाना पड़ता है -सच में करता हूँ प्यार! सोचिए अगर आप रोज़ सुबह-शाम सड़कों पर खड़े होकर चिल्लाएं कि सूरज गरम है। लोग पागल समझेंगे। जो बात सत्य उसे किसी प्रमाण किसी गवाही की ज़रूरत नहीं। वो सूर्य के समान सबके सामने स्पष्ट है। ईश्वर के साथ भी यही है। बार-बार कहना पड़ता है। ईश्वर है! और एक ही ईश्वर है। फिर भी कोई नहीं मानता। सर सब हिलाते हैं कि एक ही है। पर भीतर संशय-शंका से भरा पड़ा है। क्योंकि कभी देखा नहीं, कभी मिले नहीं, कोई पहचान नहीं। किसी महात्मा ने कहा- हमने मान लिया। पर जाना नहीं। ईश्वर को जानने का समय किसके पास है? संसार और शरीर हमें इतना उलझाए रखता है कि भीतर झांकने की फ़ुर्सत ही नहीं।

- ओम्

Sunday, September 1, 2013

मां को कैसा लगता होगा ?


सारे दुःख भूली होगी
देख अपने लाल का मुंह ।

मां को कैसा लगता होगा?
बढ़ते हुए बच्चों को देख
हर सपने पूरी करने को
होगी तत्पर मिट जाने को।

मां को कैसा लगता होगा?
बच्चे हुए होंगे जब बड़े
और सफल हो जीवन में
नाम कमाएं होंगे ख़ूब ।

मां को कैसा लगता होगा?
बच्चे समझ कर उनको बोझ
गिनने लगे निवाले रोज़
देते होंगे ताने रोज़।

मां को कैसा लगता होगा?
करके याद बातें पुरानी
देने को सारे सुख उनको
पहनी फटा और पी पानी।

मां को कैसा लगता होगा?
होगी जब जाने की बारी
चाहा होगा पी ले थोड़ा
बच्चों के हाथों से पानी।

मां को कैसा लगता होगा?
जा बसने में बच्चों से दूर
टकटकी बांधें देखती होगी
उसी प्यार से भरपूर।

मां को कैसा लगता होगा?
मां को कैसा लगता होगा?

अपराध और दंडहीनता !

हिंद-युग्म के मार्च माह के यूनिकवि दर्पण साह की कविताओं से गुजरना अपने समय की युवा चेतना की आत्मसंशय की वीथियों से गुजरने जैसा है। उनकी कविताएं आशावाद के सतही काव्यमय आश्वासन देने की बजाय अपने युग के कड़वे सच से साक्षात्कार करते हुए व्यथित करती हैं। उनकी कविताओं को पढ़ते हुए पाठक को प्रथमदृष्ट्या कविता मे उपस्थित वैचारिक नैराश्य और आत्मवंचना असहज लग सकती है। मगर ध्यान से पढने पर हम देखते हैं कि कविता मे किसी एक मनुष्य का व्यक्तिगत दुःख नही वरन्‌ स्वप्नभंग से पीडित पूरी पीढ़ी की व्यथा प्रतिध्वनित होती है। यह समय वैसे भी मोहभंग का समय है। बाजारवाद के बढ़ते हमले के बीच धनवान और निर्धन के बीच की बढती खाई और भ्रष्टाचार का अंतहीन उत्कर्ष हमारी सामाजिक और राजनैतिक व्यवस्था की विफलता की कहानी ही कह रहे हैं। समय की इन विद्रूपताओं को कविताबद्ध करते हुए दर्पण हमारे आत्ममुग्धता के आवरण को उघाडने की कोशिश करते हुए आत्मसाक्षात्कार का कड़वा आइना हमारे सामने रखने का प्रयास करते हैं। उनकी कविताएं समस्याओं का कोई आदर्शोन्मुख हल नही सुझाती बल्कि समस्याओं को उनके असली चेहरे मे हमे दिखाती हैं। वे कविताओं मे मौजूद हकीकत की तल्खी को आत्मव्यंग्य से संतुलित करने की कोशिश करते हैं। अपने निजी भाषिक विन्यास को परिपक्व करते हुए वो कविता मे शब्दों के इतर प्रतीकों का भी सावधानी से इस्तेमाल करते हैं। पिछली प्रकाशित कविता ’लोकतंत्र बहरहाल’ के बाद प्रस्तुत है उनकी निम्न कविता।


मुझे विश्वास है,
एक दिन हमारे सभी अपराध क्षम्य होंगे,
अपराधों की बढ़ती गहनता के कारण,
और ऐसा,
किसी बड़ी लकीर के खींच दिए जाने सरीखा होगा.
हमारे द्वारा किये गए सामूहिक नरसंहार...
क्षम्य होंगे !
किसी 'फ्रेशर' के ए. सी. रूम में लिए गए,
'ब्रेन-स्टोर्मिंग' इंटरव्यू से तुलनात्मक अध्ययन के बाद.
निश्चित ही,
'उफनते उत्साह' के उन कुछ सालों में,
पूरी एक पीढ़ी को,
घेर-घेर के हतोत्साहित किया जाना
सबसे बड़ा पाप है,
नरसंहार 'साली' क्या चीज़ है !

क़यामत के समय...
बख्श दिए जायेंगे हमारे 'डकैती' और 'चोरी' के
सभी सफल/असफल प्रयास.
क्यूंकि ईश्वर व्यस्त होगा...
...कुछ उससे आवश्यक,
बहुत आवश्यक निर्णयों को 'एग्ज़ीक्यूट' करने में.
मसलन...
'पादरियों', 'पंडितों' और 'शेखों' को...
...जलती कढ़ाई में झोंक देने का निर्णय.
मसलन...
'राजनेताओं', 'वैज्ञानिकों' और 'अर्थशास्त्रियों'
को उल्टा लटका देने का निर्णय.
'न्यायधीशों' को...
..ख़ैर छोड़िये !
और ज़ाम का दौर शुरू करिए...
क्यूंकि मैं जानता हूँ,
हम  सारे 'नशेडियों' को तो
बस एक ही 'दंड' में नाप दिया जाएगा.
दंड बस दस कोड़ों का...
..या बहुत से बहुत बीस !


ब्लॉग  हिन्द-युग्म से साभार.........