Friday, October 14, 2011

मैं नारी हूं या महज स्तनों का एक जोड़ा..


आज पेश है अनीता शर्मा की कविताएँ. इन कविताओं में हर एक शब्द के दरमियान पोशीदा चिंगारी से अगर पाठक अपनी रूह न सेक सकें, तो समझिए कि आपका पढ़ना सार्थक नहीं रहाफिर से पढ़ना पड़ेगासच तो यह है कि इन कविताओं से जब भी कोई गुजरेगा, उसके जीवन में एक नई क्रान्ति घटित होगीआह की आंच पर पिघली ये कविताएँ नसों में बहते हुए खून की रफ़्तार को औरऔरऔर तेज़ कर देती हैएक ओर तो शब्द के मायने बदलने लगते वहीं स्त्री को देखने का नजरिया भीअनीता जी की सोच की सतह पर उभरे हुए इन मासूम एहसासों का मैं तह-ए-दिल से खुशामदीद करता हूँ और उम्मीद करता हूँ कि आगे भी अपनी रचनाओं से अपनी मौजूदगी दर्ज कराती रहेंगी

मेरा अस्तित्व: वीर्य सा

मेरा अस्तित्व
तुम्हारे हस्तमैथुन से
गिर पड़े उस वीर्य सा है,
जिसे फेंकना
तुम्हारे लिए
जरूरी होगा,
काश कि
मेरा अस्तित्व
किसी के पेट में पलते
तुम्हारे वीर्य के
उस कण सा होता
जिसे देखना
तुम्हारे लिए
सबसे जरूरी होगा


स्तनों का जोड़ा
अकसर देखती हूं,
राहगीर, नाते-रिश्तेदार
और यहां तक कि
मेरे अपने दोस्त-यार
उन्हें घूर-घूर कर देखते हैं,
उन की एक झलक को लालायित रहते हैं
आज मैं
उन लालायित आत्माओं को
कहना चाहती हूं,
जिनके लिए वे अकसर मर्यादा भूल जाते हैं,
वह मेरे शरीर का हिस्सा भर हैं
ठीक वैसे ही, जैसे
मेरे होंठ,
मेरी आंख
और मेरी नाक
या फिर मेरे पांव या हाथ
इसी के साथ
मैं उनसे अनुरोध करती हूं
मेरे मन में यह संशय न उठने दें
कि मैं नारी हूं या महज स्तनों का एक जोड़ा..


तुम्हारी यादें

तुम्हारी यादें
मासिक धर्म-सी
तकलीफ के साथ साथ
देती हैं नारीत्व का अहसास।


बनना और बिखरना

कभी नहीं चाहा था
कि मैं किसी के बिस्तर की,
सिलवट भर बन रहूं,
कुछ ऐसी
कि उठने पर,
उसे खुद न पता हो
कि किस करवट से,
उभर आई थी मैं.
जरा गौर से देखो,
हमारा रिश्ता,
कुछ ऐसा ही तो है,
हां,
मैं हमेशा चाहते,
न चाहते
तुम्हारे सामने बिछ जाती हूं,
तुम उठते हो
और मुझे झाड़ देते हो
सदा के लिए
तुम्हारी कसम
सच कहती हूं,
यह सोचकर अजीब लगता है
कि
मेरे अस्तित्व का बनना
और
बनकर बिखर जाना
तुम्हारे ऊपर ही निर्भर करता है

Tuesday, October 4, 2011

एक लम्हा !

जिन्दगी नाम है कुछ लम्हों का..
और उन में भी वही एक लम्हा
जिसमे दो बोलती आँखें
चाय की प्याली से जब उठे
तो दिल में डूबें
डूब के दिल में कहें
आज तुम कुछ न कहो
आज मैं कुछ न कहूँ
बस युहीं बैठे रहो
हाथ में हाथ लिए
गम की सौगात लिए..
गर्मी-ए जज़्बात लिए..
कौन जाने कि इस लम्हे में
दूर परबत पे कहीं
बर्फ पिघलने ही लगे....

ब्लॉग कानपुर मासिक पत्रिका से साभार.....

तू मचलता क्यों नहीं ?

ऐ थके हारे समंदर तू मचलता क्यों नहीं
तू उछलता क्यों नहीं .

साहिलों को तोड़ के बाहर निकलता क्यों नहीं
तू मचलता क्यों नहीं
तू उछलता क्यों नहीं

तेरे साहिल पर सितम की बस्तियाँ आबाद हैं,
शहर के मेमार’ सारे खानमाँ-बरबाद’ हैं
ऐसी काली बस्तियों को तू निगलता क्यों नहीं

तू मचलता क्यों नहीं
तू उछलता क्यों नहीं

तुझ में लहरें हैं न मौज न शोर..
जुल्म से बेजार दुनिया देखती है तेरी ओर
तू उबलता क्यों नहीं

तू मचलता क्यों नहीं
तू उछलता क्यों नहीं

ऐ थके हारे समंदर

तू मचलता क्यों नहीं
तू उछलता क्यों नहीं

ब्लॉग कानपुर मासिक पत्रिका से साभार.....

ये रिश्ता क्या कहलाता है ?

ये रिश्ता क्या कहलाता है
रिश्तो की डोर रिश्तो से है कमज़ोर
रिश्ते ही थामे है जीवन की बागडोर
आखिर ये रिश्ता क्या कहलाता है
कभी अपनों को सहलाता कभी है बहलाता
...कभी हाथ मिलाकर कभी गले लगाकर
कभी हस कर तो कभी रो कर
रिश्ते अपनों की याद दिलाते
आखिर ये रिश्ता क्या कहलाता है ...
फिर क्यों रिश्ते टूटते जाते है
रिश्ते क्यों बदनाम होते जाते है ..
कभी गुरु का शिष्य से कभी पिता का पुत्री से
कभी भगवान का भक्त से कभी इन्सान का इन्सान से
आखिर ये रिश्ता क्या कहलाता है ? ...

ब्लॉग कानपुर मासिक पत्रिका से साभार.....

ख़लील ज़िब्रान की एक कविता का अंश !

आपके बच्चे
सिर्फ आपके बच्चे नहीं।
आपके जरिये वे इस धरती पर
आये जरूर हैं
पर पूरे के पूरे आपके नहीं।

आप उन्हें प्यार दे सकते हैं
पर उनके विचारों को
नियंत्रित नहीं कर सकते
उनके रक्त-मांस के शरीर को
पाल-पोसकर इत्ते-से इत्ता बना सकते हैं
पर उनकी आत्मा को बांध नहीं सकते।

इसलिए उन्हें अपने सांचे में
ढालने की कोशिश कभी न करें;
बल्कि चाहें तो कोशिश करें
खुद उनकी तरह बनने की।

माँ तुम में सब कुछ है ॥

जिसको देखा करते थे आसमान में चमकते हुए
आज उसी मां को देखते है सरे राह तडपते हुए
रोती थी वो बिलखती थी वो सारी रात
पर पहले नहीं थे उसके ऐसे हालात
अपनी इज्ज़त अपने घर में ही तो है ऐसा कहते थे वो
लेकिन अपनी माँ को नीलाम घर पर ही तो करते थे वो
इन चंद नेताओ ने कर दिया अपनी माँ का सौदा
क्या कभी कोई बेटा करता था ऐसा
इन मतलबी लोगों ने कर दिया अपनी माँ को नीलाम
क्या उस माँ ने पाला था ऐसा अरमान
जो देती थी भूखे पेट को भरी हुई थाली
आज उसी माँ को देते है वो गाली
कभी रोते हुए बेटो को दिया करती थी अपनी अंचल का छाव
आज वही दिया करते उस छाती पर तरह तरह के घाव
गर्मी की तेज़ धुप हो जाड़े की सर्द राते
आज लगती है उनको बेमानी वो राते
क्योंकि उनको मिला किसी और का साथ
इसलिए ही तो छोड़ दिया अपनी माँ का साथ......

ब्लॉग कानपुर मासिक पत्रिका से साभार.....

आखिर क्यों .....?

आखिर क्यों सभी चिल्लाते है पोस्टर लगाते है कहते है " सेव गर्ल चाइल्ड " आखिर क्यों क्या इसलिए की लड़की कभी माँ बन कर कभी बहन बन कर और कभी पत्नी बन कर इन इंसानों के अत्याचारों को सहे... क्या इसलिए की आज का इन्सान अकेला पा कर भूखे भेड़िये की तरह टूट पड़ता है न उम्र देखता है न सम्बन्ध सिर्फ इस लिए की मैं एक लड़की हु.... इस समाज में लड़की होना एक जुर्म हो गया है ..विधायक हो या पुलिस शिक्षक हो या पिता क्या सभी के मस्तिष्क में एक ही विचार है .....
क्या करुँगी मैं इस दुनिया में आकार जब मैं पहले से ही देखती हु अरुशी को दिव्या शीलू और कविता के रूप में अपने आप को , और न जाने कितनी वो जो अखबारों की सुर्खिया न बन पाई ...आखिर क्योँ आऊँ और मैं इस दुनिया में क्या इसलिए की माँ बन कर बच्चो का पालन करू और बच्चे बड़े हो कर मुझे ही सड़क पर छोड़ दे तडपने के लिए ... क्या इसलिए की बहन बन कर भाई का प्यार बनू और वही भाई पैसो के खातिर मुझे ही बेच दे ... क्या इसलिए की एक बेटी बन कर आऊं वही पिता अपनी ही बेटी को हवस का शिकार बना डाले आखिर क्यों आऊँआखिर क्यों आऊँ मैं इस दुनिया में जब मैं अन्दर से ही सुनती हु और देखती हु अपनी माँ को दादी के ताने देते हुए की गर लड़की हुई तो घर से बाहर कर दूंगी और पापा भी लड़की होने के पीछे भी माँ को ही दोष देते है और पंडित से भी तो मेरे न आने के लिए ही उपाय किये जाते है , और देवी मंदिरों में जा कर लोग लड़का ही तो मांगते है लेकिन शायद वो उस समय ये भूल जाते है की वो देवी भी एक लड़की का स्वरूप है .... 21 शदी में भी आने के बाद क्या आज भी लड़की एक अभिशाप है क्या सब कुछ बदल रहा है पर इन्सान की सोच लडकियों के बारे में क्यों नहीं बदलती ... कभी कूडे के ढेर में तो कभी रेलवे ट्रेक पर तो कभी अस्पताल की छत पर सेफैक दी जाती हु मैं क्यों क्या माँ निर्दयी होती है नहीं लेकिन समाज की नजरे और सोच उस समय एक माँ को कातिल कुमाता जैसे शब्दों से बुलाते है लेकिन वो ममता की देवी जानती है की अभी मर गई तो एक बार ही मरेगी लेकिन अगर जी गए तो न जाने कितने बार मर मर कर जीना पडे ...क्योंकि समाज के भेड़िये के सामने बेटी को पालना कितना कष्ट कारक होगा ....घर से लेकर स्कूल तक लड़की कही भी सुरक्षित न रह पायेगी ...वो समय न देखना पडे इस लिए ही तो मैं आज तुम्हे मुक्त कर रही हुई ...माँ ने मार दिया मुझको .... क्योंकि अन्दर से हर लड़की अपनी माँ से यही कहती है " माँ मार दो मुझको " .... आखिर क्यों लड़की के साथ ही धोखा होता है ... मुझे याद है की जब मैं जन्मी थी उस समय मेरी माँ और पापा की आखो से आंशु छलके थे सभी बड़े रो रहे थे मुझे ख़ुशी हुई की मैं इस दुनिया में आई लेकिन जब मैने सबकी बाते सुनी तो मेरे भी आखो से आंशु निकलने लगे मैं भी जोर जोर से रोने लगी .. क्योंकि वो माँ और पिता के ख़ुशी के आंशु नहीं थे वो तो लड़की के पैदा होने के दुःख के आंशु थे .. सभी मुझे किनारे लगाने की बात कर रहे थे और रात के अंधेरे में मुझे मेरे पापा कूड़े के ढेर में फैक आए और रात भरमैं शर्द रातो में रोती रही चीखती रही की भगवान क्यों मुझे भेजा इस दुनिया में .... सुबह होते ही सभी उस कूडे के ढेर के पास से निकले और देखना तो दूर सभी मुह्ह मे कपडा लगाय ही थे क्योंकि मैं वहा पड़ी थी नहीं जहा जोर दार बदबू थी लोग उस जगह के पास से निकलना की भी नहीं सोचते है मैने तो एक रात वहा बिताई है ......और कुत्ते सुबह होते भोजन की तलाश में कूडे के ढेर में मुह मारते है लेकिन कुछ ही पालो में उनको मेरी गंध लग जाती है और सभी मुझे नोचने लगते है और मैं चीखती रहती हु लेकिन मैं खुश भी थी की मैं मौत के मुह में जा रही हु कम से कम उन इंसानी कुतो के मुह्ह से तो बच गई जो बार बार मार के भी जीने पर मजबूर करते ... आखिर ये समाज चहाता क्या है न ही हमे पडने दे रहा है न ही आगे बडने दे रहा है और न इस धरती पर जन्म लेने दे रहा है फिर मैं क्योँ जन्म लू इस धरती पर ॥
अगर आकडे देख ले तो लगातार इस भारत में लडकियों की संख्या कम होती जा रही है लेकिन फिर भी किसी को चिंता ही नहीं है लेकिन जो बची है उनके साथ तो अन्याय मत करो लेकिन नहीं ये समाज की मानसिकता है ये शायद नहीं बदलेगी तभी तो अनुराधा और सोनाली ने इन समाज की नजरो से अपने को बचाया वही इनके अपनों ने इनका साथ नहीं दिया क्योँ .. आखिर क्योँ उनके साथ ऐसा हुआ जो सात महीने तक और न जाने कितने दिनों तक और बंद रहती वो .. क्या उसके भाई का फ़र्ज़ ये नहीं था की वो अपनी बहनों को ख्याल रखता जिन बहनों ने अपने जीवन के बारे में न सोच कर अपने करिएर के बारे में न सोच कर अपने छोटे भाई को पाला लेकिन छोटा जब बड़ा हुआ तो छोड़ दिया उनको उनके हालतों पर, मैं पूछना चाहती हु की जब बचपन में एक बार में कोई चीज़ समझ में नहीं आती थी तो सोनाली और अनुराधा दस बार समझाती थी तब उन्होने एक बार भी नहीं कहा की मैं तुम्हारा साथ नहीं दे पाऊँगी उन्होने तो तुम्हारे सपनो में अपने सपने देखे थे .. लेकिन उन्हे नहीं मालूम था सपने चाहे खुली आखो से देखो या बंद सपने सपने ही होते है .. इसलिए ही तो भाई जब काबिल हो गया तो छोड़ दिया बहनों को मरने के लिए ..अब जब ये हालात है लडकियों के तो क्या करू मैं जन्म ले कर... आखिर क्यों समाज के ठेकेदार नेता और अभिनेता सभी ये गुजारिश करते है की " सेव द गर्ल चाइल्ड " आखिर क्यों ये सवाल मैं आप सब से पूछती हु और माँ से यही कहती हु " माँ मार दो मुझको " माँ मार दो मुझको............ माँ मार दो मुझको...........
भारत की जन संख्या २०११ के मुताबिक
जनसंख्या कुल 1,210,193,422
पुरुष 623,724,248
महिलायें 586,469,174
साक्षरता कुल 74.04%
पुरुष 82.14%
महिलायें 65।46%

ब्लॉग कानपुर मासिक पत्रिका से साभार.....

" माँ मार दो मुझको अभी....."

एक दिन खोई थी मैं अपने ही सपनो में ,
तनहा थी जबकि मैं बैठी थी अपनों में ....
आवाज़ दी मुझको किसी ने पर वहा कोई न था
गूंज मेरे कानो में गूंजती फिर भी रही

मनो मुझसे कह रही हो माँ मुझे तुम मत बुलाओ
दुनिया की इस आग में घुट - घुट के मुझे मत जलाओ
मानव रूपी दानव मुझे समाज में जीने न देगा
मस्त परिंदे की तरह मुझे आकाश में उड़ने न देगा
रौंदकर देह मेरी कुचलेगा सपनो को मेरे
काट देगा पंख मेरे छोड़ देगा रक्त रंजित ,
रक्तरंजित.........
क्या मेरे इस दर्द को तब सहन कर पाओगी ?
मेरे ह्रदय की वेदना को दुनिया से कह पाओगी ?
माँ अभी हु मैं अजन्मी, जान हू तेरी अभी ,
दिल पर पत्थर रख लो माँ
मार दो मुझको अभी ....
मार दो मुझको अभी अभी अभी अभी ..........

... संध्याशिश त्रिपाठी

Saturday, October 1, 2011

प्रिये ! अब तो आ जाओ !

मचल रहा तूफान हृदय में
प्रिये, अब तो आ जाओ

दिन लगते वर्षों जैसे
रातें युग सी लगती हैं
लम्हा-लम्हा इंतजार का
तेरी कमी खटकती है

बाट देखते आंखें थक गईं
लगता जैसे सांसें रुक गईं
नयनों से बहती निर्झरणी
वक्त थमा,घडियां रुक गईं

तेरा मन निर्मल,निश्छल है
मेरे मन का तू संबल है
आस है तू,विश्‍वास है तू
तेरा वजूद मेरा बल है

माना कि अभी है प्रीति नई
पर लगता सदियां गुजर गईं
तेरी बाट निहार रहा हूं
कब से तुझे पुकार रहा हूं

अब इतना भी न तडपाओ
प्रिये,अब तो आ जाओ

- ओंकार मणि त्रिपाठी

जाओ तुमको मुक्त किया !

जाओ तुमको मुक्त किया,
अब आवाज नहीं दूंगा।
यह भी आंखों का धोखा था,
मन को मैं समझा लूंगा।
क्या समझा था,तुम निकले क्या,
... तुम तो सबसे बदतर निकले।
देखा था मैंने एक रुप,
पर,रुप तेरे कितने निकले।
है खेल खेलना शौक तुम्हारा,
पर,जज्बातों से तुम मत खेलो।
विष दे दो,पर विश्वास न तोडो,
थोडा तुम खुद को बदलो।

- ओंकार मणि त्रिपाठी

मैं !

मैं नारी हूँ ,स्वर्ग से उतरी
अमृत की वह पवित्र बूंद
जिसको पीने से ,
... अमरत्व की प्राप्ति होती है ,

पर क्या ,आज भी वह दर्जा आ सकी हूँ मैं ??
जो मेरा भी जन्मसिद्ध अधिकार होना चाहिए .
सबको नज़र आता है , तो ,
सिर्फ मेरा रूप ,
टिकती हैं सबकी आँखें ,मेरी आँखें , मेरे होंठ , मेरे वक्ष पर ...
क्या मेरी आँखों में झांक कर देखी है , किसीने , मेरी वेदना , ,
सुना है मेरा मूक चीत्कार ,क्या सुने हैं किसीने ,
मेरे होंठों के अनकहे शब्द ??

क्या किसी ने कभी सोचा ,
कि ,मेरे अंदर एक हृदय है ,जो संवेदनशील है ,
जो धड़कता है , जो धधकता है ,
जब तुम मुझे खुद से ,
छोटा , हीन और कम अक्ल मानते हो .।
क्या तुम कभी माप पाये ,मेरे हृदय की अंतहीन सीमारेखा ?
तुम तो मुझे देवी बना कर पूजते रहे ,
पर देवी तो पाषाण है ,
मैं तो इन्सान हूँ
मगर तुम मुझे इन्सान मानते तो , कभी दोयम दर्जा ना देते .
दोयम मैं हूँ भी नहीं ..
तुम नर हो ,
मुझमें तुमसे दो मात्राएँ अधिक हैं , मैं नारी हूँ ,
तुमसे कहीं अधिक सबल ,तुमसे कहीं अधिक सशक्त ..
मैं पराधीन नहीं मैं पराधीन नहीं ....

- सुलेखा पाण्डेय ...