Friday, November 27, 2015

घास की हरी पत्तियों में !

घास की हरी पत्तियों में
छिपी हुई पगडंडियाँ थीं
जिन पर हम चलते थे

हम चाहते थे कोई साँप हमें डस ले
मगर हर साँप चौंककर रास्ता छोड़ देता था
मृत्यु हर बार जीने का एक मौक़ा देती थी
और हम जिए चले जाते थे
अपने लिए कम
दूसरों के लिए ज़्यादा

हम खुश दिखते थे
क्योंकि जीने के लिए खुश दिखना था
इस समाज में

दुख के सिक्कों को
मिट्टी के गुल्लक में डालते हुए
इस तरह कि खन्न की भी कोई आवाज़ न हो।


- एकांत श्रीवास्तव
 

जख़्म !

इन गलियों से
बेदाग़ गुज़र जाता तो अच्छा था

और अगर
दाग़ ही लगना था तो फिर
कपड़ों पर मासूम रक्त के छीटें नहीं

आत्मा पर
किसी बहुत बड़े प्यार का जख़्म होता
जो कभी नहीं भरता ।

--------------
- कुँवर नारायण 


आप जैसा कुछ नहीं !

राह वैसे बंद कोई है नहीं .
बंदसा उपबंध कोई है नहीं .
प्रेयसी से द्वंद कोई है नहीं
सांवरी सी गौर राधा भी नहीं
गीत प्यारा छंद कोई है नहीं .

प्रेमिका कमसिन है कोमल कामिनी
गज नहीं हिरनी सरीखी गामिनी
लरजती है ना वो नाजुक बेल है .
पाश उसका है या कोई जेल है .
न्यायकर्ता उस सरीखी ना मिले
उसके सम्मुख तो विधाता फेल है .

उसके होनेके हैं अपने फायदे
इश्क है ना प्यार जैसे कायदे .
रूठना मनुहार जैसा कुछ नहीं
प्यार में व्यवहार जैसा कुछ नहीं .
बंधा रहता हूँ मैं कच्ची डोर से
समर्पण अभिसार जैसा कुछ नहीं .

बहूत सीधी बात तुमसे कह रहा
तुकों में अतुकांत जैसा बह रहा .
अन्गृल प्रलाप जैसा भी नहीं
शीत में उत्ताप जैसा कुछ नहीं
पुन्य है ना पाप जैसा कुछ नहीं
पत्नी हो ना - आप जैसा कुछ नहीं .

धऱती रंग का डिब्बा है ?

पड़ौसी को
चुकन्दर उखाड़ते हुए देखता हूँ
और आश्चर्य से भर जाता हूँ
कि धरती के भीतर
कितना जामुनी रंग है
और मूलियों की झक्क सफ़ेदी
और गाजरों की लाली
और आलुओं का
हमारी चमड़ी जैसा छिलका
कितने सारे कंद अलग अलग रंग के
प्याज का रंग अलग
लहसुन का अलग

धरती के पास
क्या रंगों का ड्राइंग बॉक्स है ?

---------------
- राजेश जोशी (अभी-अभी 'वसुधा' से पढ़कर)

बैर बढ़ाते मंदिर, मस्जिद !

27 नवंबर का दिन हो तो एक बारग़ी नहीं भुलाया जा सकता, आत्मकेंद्रित कवि मानकर - 1907 को आज के दिन जन्मे और सारे भारत के सर्वाधिक लोकप्रिय कवियों में एक हरिवंश राय 'बच्चन' जी को । उनके बहुत कुछ लिखे हुए में इतना तो याद आ ही जायेगा बरबस -

मुसलमान और हिन्दू दो हैं,
एक मगर उनका प्याला,
एक मगर उनका मदिरालय,
एक मगर उनकी हाला,
दोनों रहते एक न जब तक,
मंदिर, मस्जिद में जाते ,
बैर बढ़ाते मंदिर, मस्जिद,
मेल कराती मधुशाला ।


Wednesday, November 4, 2015

तेरी दाल मेरी दाल !

दाल के मुहावरे आपने पढ़े सुने होंगे- घर की मुर्गी..., दाल में काला आदि...
लीजिए कुछ नए मुहावरे-

चोरी की दाल बघारना
दूसरे की दाल गलाना
तेरी दाल मेरी दाल
मुट्ठी में दाल
ये मुंह और दाल
ऊंट के मुंह में दाल
आदमी क्या जाने दाल का स्वाद
दूसरे की थाली की दाल ज्यादा गाढ़ी/पीली
काले में दाल
नमक में दाल
घर की दाल बकरी बराबर
दाल के भाव
दाल कमाना
नाहक दाल पकाना
दाल है तो थाली है
खयाली दाल

Saturday, June 20, 2015

गमछा !

वह पता नहीं कितने समय से टंगा रहा था
बाबा के कंधे पर
बाद फिर पिता के कंधे पर
पिता को उसकी पगड़ी पहनाई गई थी
बाबा की तेरही के दिन
पिता खूब रोते रहे रोती रही घर की सभी औरतें
मैं उस समय चुप
सोच रहा था कि मुझे भी रोना चाहिए या नहीं
देखता सबकुछ
निर्दोष - विचलित
पगड़ी दी गई थी पिता को
अब वे खानदान के मालिक थे
उनके सिर से उठकर गमछा
अब आ गया था कंधे पर एक जिम्मेवारी की तरह
उनके न रहने पर जिसे सौंपा जाना था
घर के किसी और योग्य व्यक्ति को
कि सबसे बड़े बेटे को
घर का सबसे बड़ा बेटा मैं
बहुत दिन हुए छोड़ आया हूं गांव का वह घर
पिता के गमछे की छाया
उनके मालिकत्व और स्नेह की परछाई से
दूर चला आया हूं इस शहर में
लेकिन मैं जानता हूं एक दिन जब नहीं रहेंगे पिता
गमछे की पगड़ी पहनाई जाएगी मुझे भी
पिता को याद कर रोऊंगा मैं भी जार-जार
सोचकर यह कि उनके अंतिम समय में
नहीं रह पाया मैं उनके पास
कोई सेवा टहल नहीं कर पाया पिता का
गमछा मेरे कंधे पर भी आकर बैठ जाएगा
उम्र भर के लिए जैसे पिता की आत्मा
हर रात मैं दौड़कर जाऊंगा अपने गांव अपने खेत
पेड़ों के बीच जिनकी रक्षा की जिम्मेवारी मेरी
और हांफते हुए पसीने-पसीने उठ बैठूंगा
नरम बिस्तर पर भी घबराया - और लहूलुहान
और एक दिन मैं छोड़कर चला जाऊंगा वह गमछा
घर की रेंगनी पर सूखता – लहराता
इस संबंधहीन समय में
इस विश्वास के बिना ही
कि उसे कोई योग्य घर का
कि कोई बड़ा बेटा
धारण करेगा एक और पगड़ी के रूप में
मेरे जेहन में हांफते हुए गांव-घर को बचाएगा
गमछा वह लटका रहेगा सदियों वहीं
उसी घर की रेंगनी पर
जैसे पृथ्वी और आकाश के बीच
एक कंधे की प्रतीक्षा में...।।

( तस्वीर - पिता की - छोटे भाई के कैमरे से)
- विमलेश तिवारी 

सभी माताओं-बहनों-बेटियों को समर्पित !

१. बेटियाँ !

बेटियाँ पीहर आती हैं
अपनी जड़ों को सींचने के लिए
तलाशने आती हैं भाई की खुशियाँ
वे ढूंढने आती हैं अपना सलोना बचपन
वे रखने आती हैं आँगन में स्नेह का दीपक
बेटियाँ कुछ लेने नहीं आती हैं पीहर
बेटियाँ
ताबीज बांधने आती हैं दरवाजे पर
कि नजर से बचा रहे घर
वे नहाने आती हैं ममता कि निर्झरनी में
देने आती हैं अपने भीतर से
थोडा-थोडा सबको
बेटियाँ कुछ लेने नहीं आती हैं पीहर
बेटियाँ
जब भी लौटती हैं ससुराल
बहुत सारा वहीं छोड़ जाति हैं
तैरती रह जाती हैं
घर भर की नाम आँखों में
उनकी प्यारी सी मुस्कान
तब भी आती हैं वे लुटाने ही आती हैं
अपना वैभव
बेटियाँ कुछ लेने नहीं आती हैं पीहर !

२. बेटियों का नसीब !

बेटी बनकर आई हूँ
माँ-बाप के जीवन में
बसेरा होगा कल मेरा
किसी और के आँगन में

क्यों ये रीत "रब" ने बनाई होगी
कहते हैं आज नहीं तो कल
तू पराई होगी,
देके जनम "पाल-पोसकर"
जिसने हमें बड़ा किया,
और वक्त आया तो
उन्ही हाथों ने हमें विदा किया,
टूट के बिखर जाती है
हमारी जिन्दगी वहीं
पर फिर भी उस बंधन में प्यार मिले
जरुरी तो नहीं

क्यों रिश्ता हमारा
इतना अजीब होता है
क्या बस यही "बेटियों" का
नसीब होता है ?

३. खुदा की नेमत हैं बेटियाँ !

बहुत चंचल
बहुत खुशनुमा सी
होती हैं बेटियाँ
नाजुक सा दिल रखती हैं
मासूम सी
होती हैं बेटियाँ
बात-बात पर रोती हैं
नादान सी
होती हैं बेटियाँ
रहमत से भरपूर
खुदा की नेमत हैं बेटियाँ
घर महक उठता है
जब मुस्कुराती हैं बेटियाँ
अजीब सी तकलीफ़ होती है
जब दूसरे घर जाती हैं बेटियाँ
घर लगता है सूना-सूना
कितना रुला के जाती हैं बेटियाँ
"खुशी की झलक"
"बाबुल की लाडली"
होती हैं बेटियाँ
ये हम नहीं कहते
यह तो रब कहता है
कि जब मैं बहुत खुश होता हूँ
तो जन्म लेती हैं
"प्यारी सी" बेटियाँ !

Friday, June 19, 2015

कौन किसके साथ !

जब तक है साँस
जब तक सब है साथ
जब रुक गई साँस
कोई नहीं रहेगा तेरे साथ
इसलिए विचार...
क्या रहेगा तेरे साथ
साँस रुकने के बाद ...
बस उस पर कर विश्वास
और उसी को बनाये रखने का
कर प्रयास --- अपने साथ
क्षणिक भावों पर मत दे ध्यान
लक्ष्य निर्धारित कर –
बस उसी पर रख अपनी आँख
कोई बोले कुछ भी
समता से लो उसका संज्ञान
मरण को सुधरने की मत कर बात
करण सुधरने का कर विचार
समता से सुधरता वर्तमान
और भविष्य भी बनता वर्धमान ...
इतनी ले तू बस बात मान –
जो दिख रहा साथ
छूट जायेगा ये सब – जब रुक जाएगी साँस
कषाय भाव को तजकर
समता से लगा आत्म तत्व पर ध्यान
पा लेगा तुरंत आनंद
और परंपरा से मिल जायेगा केवलज्ञान ...
बस समता ही है सब दुःख का इलाज

 कौन किसके साथ
“कौन किसके साथ” ?


- श्रवण दुबे 

मिलें तो मैल न रहे मन में !

मिलें तो मैल न रहे मन में
जैसे यात्रा के बाद
अप्रासंगिक हो जाते है रेल और हवाई जहाज के टिकट
कई बार अप्रासंगिक हो जाते है लोग
अलग हो जाना चाहिए

मगर इस तरह,
मिलें तो
मैल न रहे मन में

एक के लिखे पर दूसरे नाम का
चिपकना देखा है मैने , सिरियल सिनेमा के घाघो की
डकार सुनी है मैने,जाने कितने कितने घाघो की डकार
मेरा रचनाकार अपमानित हुआ है
दिल्ली के एक अखबार से
अपने लिखे का मांगना पडा था नाम

ये है जिनकी रचना का समय
जिन्होने समय को यहां तक पहुंचाया है
अप्रासंगिक हो चुके है मेरे लिए

समाज के सबसे निचले पायदान पर खडे
आदमी के लिए,साहित्य को
समाज की मुख्य धारा बनाने का स्वप्न देख रहा हू

जिनके पास यह स्वप्न न होगा
उनसे कडियां टूटेंगी. संबन्ध विखरेंगे
विदा, निवेदन बस इतना
मिलें तो मैल न रहे मन में !


- निलय उपाध्याय

गीत !

न मैं तुमसे कोई उम्मीद रखूँ दिलनवाज़ी की
न तुम मेरी तरफ देखो गलत अंदाज़ नज़रों से
न मेरे दिल की धड़कन लडखडाये मेरी बातों में
न ज़ाहिर हो तुम्हारी कश्म-कश का राज़ नज़रों से

चलो एक बार फिर से, अजनबी बन जायें हम दोनों
चलो एक बार फिर से, अजनबी बन जाये हम दोनों

तुम्हें भी कोई उलझन रोकती है पेशकदमी से
मुझे भी लोग कहते हैं, की ये जलवे पराये हैं
मेरे हमराह भी रुसवाइयां हैं मेरे माज़ी की
मेरे हमराह भी रुसवाइयां हैं मेरे माज़ी की
तुम्हारे साथ भी गुजरी हुई रातों के साये हैं

चलो एक बार फिर से, अजनबी बन जाये हम दोनों
चलो एक बार फिर से, अजनबी बन जाये हम दोनों

तार्रुफ़ रोग हो जाए तो उसको भूलना बेहतर
ताल्लुक बोझ बन जाए तो उसको तोड़ना अच्छा
वो अफसाना जिसे अंजाम तक लाना न हो मुमकिन
वो अफसाना जिसे अंजाम तक लाना न हो मुमकिन
उसे एक खूबसूरत मोड़ देकर छोड़ना अच्छा

चलो एक बार फिर से, अजनबी बन जाये हम दोनों
चलो एक बार फिर से, अजनबी बन जाये हम दोनों 


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राजधानी में बैल !

सूर्य सबसे पहले बैल के सींग पर उतरा
फिर टिका कुछ देर चमकता हुआ
हल की नोक पर

घास के नीचे की मिट्टी पलटता हुआ सूर्य
बार-बार दिख जाता था
झलक के साथ
जब-जब फाल ऊपर उठते थे
इस फ़सल के अन्न में
होगा
धूप जैसा आटा
बादल जैसा भात
हमारे घर के कुठिला में
इस साल
कभी न होगी रात ।

  
- उदय प्रकाश

Saturday, June 6, 2015

लेखक व चित्रकार रवीन्द्र कुशवाहा जी के कुछ रेखाचित्र !






















मेरा भी गाँव है ।

यादों की नाँव है
मेरा भी एक गाँव है
जहाँ मेरा बचपन खेला है
अब यहाँ शहर का मेला है।

गाँव जाने के नाम पर
मन हो जाता तैयार तत्पर
एक नशा छा जाता हृदय पर
खुशियाँ बढ़ जाती मन-भर
महीनों पहले होती तैयारी
समय न कटता, होती बेकरारी
ज्यों-ज्यों दिन निकट थे आते
मन ही मन हम अति हर्षाते
जब-जब हम थे गाँव को जाते
प्यार हजारों, लाखों खुशियाँ थे पाते।

कल्पना के घोड़े पे सवार हो
चल पड़ते नदियों के पार हो
चल पड़ती कैसी बयार हो
जैसे हर पल बसन्त बहार हो
गाँव की मिट्टी सोंधी सुगन्ध हो
हर पल, हर क्षण उसमें जाते खो
सुवासित होता दिक्-दिगन्त हो
ग्राम्य जीवन जैसे अनन्त हो।

प्यारे थे कितने गाँव-वासी
प्यारे-प्यारे दादा-दादी
करते थे हमको कितना प्यार
होते थे कितने दोस्त यार
हम जाते थे मन को हार
सबके मन में अपनत्व था
एक-दूसरे का महत्व था।

पूरा गाँव था एक परिवार
सच्ची लगन व बात-ब्यौहार
था एक-दूजे पर प्राण निछावर
जैसे जीत हो हर निशा पर
वैसे ही वश था हर दिशा पर
अपनी खुशियाँ सबकी खुशियाँ थी
था दूसरों का दुख, अपना दुख पर।

पर शहर की तरह ही
आज गाँव क्यों अभिशप्त है
घोर दिखावा छल-कपट है
शहर की तरह ही
आज गाँव बाहरी उन्नति को प्राप्त है
किन्तु अन्तर से अवनति की गिरफ्त है
शहर की तरह ही
आज गाँव की खुशियाँ समाप्त हैं
घोर निराशा व अन्धकार व्याप्त है
शहर की तरह ही
आज एक-दूजे की लाज-लिहाज न कद्र है
पर यह अन्यायी कौन अभद्र है
इसका जिम्मेदार कौन ?
यह प्रश्न है !!






- रवीन्द्र कुशवाहा
मो०: 9450635436

गति-मति !

क्यूँ बांधते हो
अपने को.…
अपनों को।
बंधन के तीन  कारण
भाव, स्वभाव और अभाव
और दो  विकल्प है ,
मन और  जिस्म।
मन की गति अद्भुत है.…
जब अपना न बन्ध  सका ,
तो पराये  पर जोर कैसा ?
बंधना - बांधना छोड़ो---दृष्टा बनो ....
क्या कहा ?
बंधोगे जिस्म को ....
अरे उसकी गति तो
मन से भी द्रुत है
फ़ना हो जायेगा
और पता भी नहीं चलेगा।


-  साभार हिन्द-युग्म

तुम हो !

हवाओं की ताजगी तुम हो, 
मासूम आज भी तुम हो, 
गुलाबों की खुशबु तुम हो, 
बला का जादू तुम हो !  

सागर सी धीर तुम हो, 
झरनों का नीर तुम हो, 
कामदेव का तीर तुम हो, 
हुस्न की नजीर तुम हो !  

फूलों सी कोमल तुम हो, 
गंगा सी निर्मल तुम हो, 
अद्भुत इक मोती तुम हो, 
मेरे जीवन की ज्योति तुम हो !!  

- संजीव मित्तल

गजल !

खो जाने का डर है घर में
इक सूना सा घर है घर में
छत और दीवारों में रंजिश
ये कैसा मंजर है घर में
बाहर उठ के जो चलता है
वो ही झुका हुआ सर है घर में
अक्सर मुझको यूँ लगता है
मुझ जैसा खण्डहर है घर में
भटक गये सब रिश्ते-नाते
यूँ तो इक रहबर है घर में
सुनने की आजादी है बस
पहरा हर लैब पर है घर में
तुम भी कह दो जो कहना है
हर इल्जाम मेरे सर है घर में
मुझको ऐ 'इरशाद' बता तू
आखिर क्यूं बेघर है घर में !

- मोहम्मद इरशाद

Friday, May 29, 2015

होना - न होना !

सदा संभव रहता है
जो नहीं हुआ उसका हो जाना

न होना
नहीं हो पाता
कभी किसी हुए का

-------------
- कुलजीत सिंह
 

प्रस्तुति - जय प्रकाश मानस

लायब्रेरी समृद्ध हुई !

आज दो किताबें मिलीं-सौगात में । आदरणीय हरीश पाठक जी से । पहली 'सोलह कहानियाँ' और दूसरी 'त्रिकोण के तीनों कोण' ।
हरीश जी देश के उन प्रतिष्ठित पत्रकार और कथाकारों में एक हैं जिन्हें दिल्ली प्रेस समूह, धर्मयुग, दैनिक हिन्दुस्तान, नवभारत समूह और राष्ट्रीय सहारा जैसे बड़े प्रतिष्ठानों में संपादक होने का गौरव हासिल है ।
नौ साल तक धर्मयुग में प्रकाशित उनके स्तंभ 'सुर्खियों के पीछे' को कैसे भूला जा सकता है । इसके लिए उन्हें उत्तरप्रदेश शासन का गणेश शंकर विद्यार्थी पुरस्कार मिला । जीटीवी के इलेक्शन स्पेशल में 110 कड़ियों में प्रसारित धारावाहिक जन गण मन और 60 कड़ियों में प्रसारित पोल टाइम्स का लेखन भी श्री पाठकजी ने किया । उन्हें मध्यप्रदेश शासन का राजेद्र माथुर स्मृति पत्रकारिता फैलोशिप भी हस्तगत हो चुका है ।
ऐसे रचनाकारों की किताबें पाकर किसकी लायब्रेरी समृद्ध नहीं होगी ।
पाठक दादा, आभार आपका !

प्रस्तुति  - जय प्रकाश मानस

मेरे परिवार के सदस्य !

'पशु' शब्द अपनी लाक्षणिकता में भले ही उपेक्षणीय हो और भले ही हम उन्हें आज लगातार भूला रहे हैं, लेकिन एक महादेवी वर्माजी थीं, जिन्हें पशु-पक्षियों से अगाध स्नेह था ।
वे पहली ऐसी रचनाकार हैं जिन्होंने पशु-पक्षियों को 'मेरा परिवार' कहा ।
उनके परिवार के आँगन में तभी तो नीलकंठ मोर, राधा मोरनी, गिल्लू गिलहरी, सोना हिरनी, दुर्मुख खरगोश, गौरा गाय, नीलू कुत्ता, मूँगा मुर्गी, निक्की नेवला, रोजी कुत्तिया, रानी घोड़ी, आदि मज़े-मज़े में रहते हैं ।
आपके 'परिवार' में कौन-कौन रहते हैं ?
 प्रस्तुति - जय प्रकाश मानस

मैं शराब कैसे पी सकती हूँ ?

मीना कुमारी अभिनय और कला के लिए कितनी समर्पित थी, यह साबित होती है - साहब, बीबी और गुलाम फ़िल्म से ।
गुरुदत्त इस फ़िल्म के लिए जब मीना कुमारी के पास गए तो एकबारगी मीना से साफ़ इनकार करते हुए कहा कि पर्दे पर मैं शराब कैसे पी सकती हूँ ? भारतीय दर्शकों में मेरी इमेज़ से तो आप परिचित ही हैं ।
गुरुदत्त के चले जाने के बाद मीना ने सोचा कि, गुरुदत्त जैसे संजीदा और प्रतिभाशाली निर्माता और निर्देशक मेरे पास ही क्यों आए ? मीना ने विमल मित्र के उपन्यास 'साहिब, बीबी और गुलाम' को पढ़ा, जिसको आधार बनाकर फ़िल्म का निर्माण होना था । उपन्यास को पढ़ने के बाद मीना ने तुरंत ही गुरुदत्त को फ़ोन किया और कहा कि 'छोटी बहू' की भूमिका के लिए किसी अन्य को चुन न लिया हो तो मैं यह करने को तैयार हूँ । ('इंद्रप्रस्थ भारती' का नया अंक पढ़ते हुए)

प्रस्तुति  - जय प्रकाश मानस

माधव राव सप्रे पत्रकारिता सम्मान विजय को !

नेपाल में आयोजित दसवें अंतरराष्ट्रीय हिन्दी सम्मेलन में देश के प्रतिभावान पत्रकार विजय शंकर चतुर्वेदी को माधवराव सप्रे सम्मान से विभूषित किया गया ।
छत्तीसगढ़ में पत्रकारिता के भीष्मपितामह कहे जाने वाले माधवराव सप्रे की स्मृति में दिया जानेवाला 2015 का यह सम्मान नेपाल और भारत की प्रमुख हस्तियों द्वारा पोखरा ( नेपाल ) में प्रदान किया गया ।
नेपाल के पूर्व सांसद, प्रख्यात साहित्यकार व प्रलेस, नेपाल के वाइस प्रेसीडेंट श्री गोपाल ठाकुर, डॉ. रंजना अरगड़े, डॉ. प्रेम जनमेजय, गिरीश पंकज, रामकिशोर उपाध्याय, राकेश अचल आदि अतिथियों द्वारा श्री चतुर्वेदी को अंगवस्त्रम्, प्रशस्ति पत्र व स्मृतिचिन्ह आदि भेंट किया गया ।
उल्लेखनीय है कि पत्रकारिता में उल्लेखनीय योगदान के लिए 16 अप्रैल को लखनऊ में महामहिम राज्यपाल द्वारा और 6 मई को नारद जयंती पर वाराणसी में नेशनल बुक ट्रस्ट के चेयरमैन बलदेव भाई शर्मा और काशी हिन्दू विश्वविद्यालय के उपकुलपति गिरीश चंद्र त्रिपाठी द्वारा सम्मानित किया गया था ।
श्री चतुर्वेदी देश के प्रमुख पत्र-पत्रिकाओं से जुड़े रहे हैं व वर्तमान में विन्ध्य न्यूज़ नेटवर्क के सभी प्रकाशनों के ग्रुप एडिटर हैं । आपकी आधा दर्जन पुस्तकें प्रकाशित हैं व कई देशों में आप व्याख्यान दे चुके हैं ।

प्रस्तुति  - जय प्रकाश मानस

Monday, May 25, 2015

लङ़की पैदा करने की है सख्त मनाही !

कोर्ट में एक अजीब मुकदमा आया
एक सिपाही एक कुत्ते को बांध कर लाया
सिपाही ने जब कटघरे में आकर कुत्ता खोला
कुत्ता रहा चुपचाप, मुँह से कुछ ना बोला..!
नुकीले दांतों में कुछ खून-सा नज़र आ रहा था
चुपचाप था कुत्ता, किसी से ना नजर मिला रहा था
फिर हुआ खड़ा एक वकील ,देने लगा दलील
बोला, इस जालिम के कर्मों से यहाँ मची तबाही है
इसके कामों को देख कर इन्सानियत घबराई है
ये क्रूर है, निर्दयी है, इसने तबाही मचाई है
दो दिन पहले जन्मी एक कन्या, अपने दाँतों से खाई है
अब ना देखो किसी की बाट
आदेश करके उतारो इसे मौत के घाट
जज की आँख हो गयी लाल
तूने क्यूँ खाई कन्या, जल्दी बोल डाल
तुझे बोलने का मौका नहीं देना चाहता
लेकिन मजबूरी है, अब तक तो तू फांसी पर लटका पाता
जज साहब, इसे जिन्दा मत रहने दो
कुत्ते का वकील बोला, लेकिन इसे कुछ कहने तो दो
फिर कुत्ते ने मुंह खोला ,और धीरे से बोला
हाँ, मैंने वो लड़की खायी है
अपनी कुत्तानियत निभाई है
कुत्ते का धर्म है ना दया दिखाना
माँस चाहे किसी का हो, देखते ही खा जाना
पर मैं दया-धर्म से दूर नही
खाई तो है, पर मेरा कसूर नही
मुझे याद है, जब वो लड़की छोरी कूड़े के ढेर में पाई थी
और कोई नही, उसकी माँ ही उसे फेंकने आई थी
जब मैं उस कन्या के गया पास
उसकी आँखों में देखा भोला विश्वास
जब वो मेरी जीभ देख कर मुस्काई थी
कुत्ता हूँ, पर उसने मेरे अन्दर इन्सानियत जगाई थी
मैंने सूंघ कर उसके कपड़े, वो घर खोजा था
जहाँ माँ उसकी थी, और बापू भी सोया था
मैंने भू-भू करके उसकी माँ जगाई
पूछा तू क्यों उस कन्या को फेंक कर आई
चल मेरे साथ, उसे लेकर आ
भूखी है वो, उसे अपना दूध पिला
माँ सुनते ही रोने लगी
अपने दुख सुनाने लगी
बोली, कैसे लाऊँ अपने कलेजे के टुकड़े को
तू सुन, तुझे बताती हूँ अपने दिल के दुखड़े को
मेरी सासू मारती है तानों की मार
मुझे ही पीटता है, मेरा भतार
बोलता है लङ़का पैदा कर हर बार
लङ़की पैदा करने की है सख्त मनाही
कहना है उनका कि कैसे जायेंगी ये सारी ब्याही
वंश की तो तूने काट दी बेल
जा खत्म कर दे इसका खेल
माँ हूँ, लेकिन थी मेरी लाचारी
इसलिए फेंक आई, अपनी बिटिया प्यारी
कुत्ते का गला भर गया
लेकिन बयान वो पूरे बोल गया....!
बोला, मैं फिर उल्टा आ गया
दिमाग पर मेरे धुआं सा छा गया
वो लड़की अपना, अंगूठा चूस रही थी
मुझे देखते ही हंसी, जैसे मेरी बाट में जग रही थी
कलेजे पर मैंने भी रख लिया था पत्थर
फिर भी काँप रहा था मैं थर-थर
मैं बोला, अरी बावली, जीकर क्या करेगी
यहाँ दूध नही, हर जगह तेरे लिए जहर है, पीकर क्या करेगी
हम कुत्तों को तो, करते हो बदनाम
परन्तु हमसे भी घिनौने, करते हो काम
जिन्दी लड़की को पेट में मरवाते हो
और खुद को इंसान कहलवाते हो
मेरे मन में, डर कर गयी उसकी मुस्कान
लेकिन मैंने इतना तो लिया था जान
जो समाज इससे नफरत करता है
कन्याहत्या जैसा घिनौना अपराध करता है
वहां से तो इसका जाना अच्छा
इसका तो मर जान अच्छा
तुम लटकाओ मुझे फांसी, चाहे मारो जूत्ते
लेकिन खोज के लाओ, पहले वो इन्सानी कुत्ते
लेकिन खोज के लाओ, पहले वो इन्सानी कुत्ते ..!!

मेरे मन का विस्तार इतने से भी ज़्यादा ...

खोलो मन के द्वार
बन्द क्यों हैं किवाड़
आने दो अतिथि को
और ताज़ी हवा

बन्द दरवाजों के भीतर
सीलन पैदा हो जाती
जाले बना लेतीं हमारी आशंकाओं की मकड़ी
हम उदासी कैद कर लेते

खुले दरवाजों से अवसर आते
ईश्वर भी नहीं चाहता बन्द हों कभी
मन के दरवाजों पर ताला
किसे लुभाता ?


 - राघव ,
अभी-अभी

Saturday, May 9, 2015

गजल !

मुलाकातें हमारी, तिश्नगी से
किसी दिन मर न जाएँ हम ख़ुशी से

मुहब्बत यूँ मुझे है बतकही से
निभाए जा रहा हूँ ख़ामुशी से

ये कैसी बेख़ुदी है जिसमे मुझको
मिलाया जा रहा हैं अब मुझी से

उतारो भी मसीहाई का चोला
हँसा बोला करो हर आदमी से

ख़बर से जी नहीं भरता हमारा
मजा आता है केवल सनसनी से

उजाला बांटने वालों के सदके
हमारी निभ रही है तीरगी से

ये बेदारी, ये बेचैनी का आलम
मैं आजिज़ आ गया हूँ शाइरी से


साभार  - वीनस केशरी
एक बात कहूं -
छोडो चलो जाने दो। 

अब कह भी दो - यारा
गले में लफ्ज अटक जाते हैं
उन्हें लबों तलक तो आने दो।

जो दिल में कैद बाते हैं
अब उन्हें - खुलके
बिखर जाने दो - जो आँखें
कह रही हैं - प्यार है तुमसे
चलो - अब इन्हें भी आजमाने दो।

गेसुओं में बदलियाँ हैं
बिजलियाँ - आज जीभर के
चमक जाने दो .
सूखे मुरझाये पड़े हैं ख्वाब -कई
इन्हें बारिश में और भीग जाने दो।

इतनी छोटी सी गुजारिश है
तुझसे मेरे खुदा। 

महुब्बत गर - उन्हें
हमी से है - ये बात यार -
जरा उनसे भी मनवाने दो !


- सतीश चंद्र शर्मा

बिटिया !

घर आने पर दौड़ कर जो पास आये, उसे कहते हैं "बिटिया"
थक जाने पर प्यार से जो माथा सहलाए, उसे कहते हैं "बिटिया"
"कल दिला देंगे" कहने पर जो मान जाये, उसे कहते हैं "बिटिया"
हर रोज़ समय पर दवा की जो याद दिलाये, उसे कहते हैं "बिटिया"
घर को मन से फूल सा जो सजाये, उसे कहते हैं "बिटिया"
सहते हुए भी अपने दुख जो छुपा जाये, उसे कहते हैं "बिटिया"
दूर जाने पर जो बहुत रुलाये, उसे कहते हैं "बिटिया"
पति की होकर भी पिता को जो ना भूल पाये, उसे कहते हैं "बिटिया"
मीलों दूर होकर भी पास होने का जो एहसास ''दिलाये, उसे कहते हैं "बिटिया"
"अनमोल हीरा" जो कहलाये, उसे कहते हैं "बिटिया" 

भगवान हर पिता को एक बेटी जरुर दे।

साभार  - दीपक बहल

एक युवक....

मैं तकरीबन 20 साल के बाद अपने शहर लौटा था!
बाज़ार में घुमते हुए सहसा मेरी नज़रें सब्जी का ठेला
लगाये एक बूढे पर जा टिकीं, बहुत कोशिश के बावजूद
भी मैं उसको पहचान नहीं पा रहा था !
लेकिन न जाने बार बार ऐसा क्यों लग रहा था की मैं
उसे बड़ी अच्छी तरह से जनता हूँ !
मेरी उत्सुकता उस बूढ़े से भी छुपी न रही , उसके
चेहरे पर आई अचानक मुस्कान से मैं समझ गया था
कि उसने मुझे पहचान लिया था !
काफी देर की जेहनी कशमकश के बाद जब मैंने उसे
पहचाना तो मेरे पाँव के नीचे से मानो ज़मीन खिसक
गई !
जब मैं विदेश गया था तो इसकी एक बहुत बड़ी आटा
मिल हुआ करती थी नौकर चाकर आगे पीछे घूमा करते
थे ! धर्म कर्म, दान पुण्य में सब से अग्रणी इस
दानवीर पुरुष को मैं ताऊजी कह कर बुलाया करता था !
वही आटा मिल का मालिक और
आज सब्जी का ठेला लगाने पर मजबूर?
मुझसे रहा नहीं गया और मैं उसके पास जा पहुँचा और
बहुत मुश्किल से रुंधे गले से पूछा :
"ताऊ जी, ये सब कैसे हो गया?"
भरी ऑंखें लिए मेरे कंधे पर हाथ रख उसने उत्तर
दिया:-
"बच्चे बड़े हो गए हैं बेटा" !


- साभार  अमित त्रिपाठी

रक्त में ख़ुशी !

मैंने पूछा
थोड़े संकोच थोड़े स्नेह से

कैसे हैं पति
हैं तुम्हारे अनुकूल

उसने कहा
मुदित मन से लजाते हुए

जी बहुत सहयोगी हैं
समझते हैं मेरी सीमा
अपनी भी

उस दिन मेरा मन बतियाता रहा हवाओं से फूलों से
पूछता रहा हालचाल राह के पत्थरों से
प्रसन्नता छलकती रही रोम-रोम से
यूँ ही टहलते हुए चबा गया नीम की पत्तियाँ
पर ख़ुशी इस क़दर थी रक्त में कि कम न हुई मन की मिठास

मैंने ख़ुद से कहा
चलो ख़ुश तो है एक बेटी किसी की
और भी होंगी धीरे-धीरे 


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- जितेन्द्र श्रीवास्तव
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Tuesday, April 21, 2015

***गजले मीर रहेगी***

जब तक दिल में पीर रहेगी.
गजलों की जागीर रहेगी.
खीर अगर नमकीन बना दो,
तो फिर क्या वो खीर रहेगी ?
राँझे तब तक पैदा होंगे,
जब तक कोई हीर रहेगी.
बँटवारे में सब कुछ ले लो,
मेरे सँग तकदीर रहेगी.
दिल में इमारत बन जाये तो,
होकर वो तामीर रहेगी.
महँगी मढ़ने से क्या हरदम,
ज्यों की त्यों तस्वीर रहेगी ?
हम न रहेंगे तो भी क्या है,
अपनी एक नजीर रहेगी.
कल भी अदब की बातें होंगी,
कल भी गजले-मीर रहेगी. 


डाॅ.कमलेश द्विवेदी
मो.9415474674

Friday, February 13, 2015

आओ अपनी-अपनी क़िस्मत बदलते हैं..

आओ अपनी-अपनी क़िस्मत बदलते हैं..

अपना गुज़रा हुआ कल अभी ज़्यादा पीछे नहीं गया है
फिर उसी सिफ़र से शुरू करते हैं
नाम-रंग-जाति-धर्म हर कुछ
जिन-जिन का वास्ता है क़िस्मत के साथ
उन सबको बदलते हैं
आओ अपनी-अपनी क़िस्मत बदलते हैं...
 
मैं कुछ भी नहीं सोचूंगा... तुम सोचना
मैं कुछ भी नहीं बोलूंगा.... तुम बोलना
मैं किसी से नहीं लडूंगा... तुम लड़ना
मैं कुछ नहीं चाहूंगा... तुम चाहना
तुम सपने देखना... तुम ही उन्हें पूरा करना
हां तुम्हारी शर्तों पर ही ये खेल खेलते हैं
आओ अपनी-अपनी क़िस्मत बदलते हैं...

तुम मेरी ज़िन्दगी बस एक बार जी लो
मैं तुम्हारी हर ज़िन्दगी बग़ैर शिक़ायत किए जी लूंगा
चलो तुम्हारी मनचाही मुराद पूरी करते हैं
आओ अपनी-अपनी क़िस्मत बदलते हैं...

चलो एक और वादा करता हूं
मैं नहीं चिढ़ाउंगा तुम्हें हर हार पर
जैसे तुम और बाक़ी लोग चिढ़ाया करते थे
मैं नहीं जलील होने दूंगा तुम्हें सबके सामने
और हां आईने में शक़्ल देखने से भी नहीं रोकूंगा

 क़बूल कर लो कि अब ये मेरी भी ख़्वाहिश है
आओ एक-दूसरे की ज़िन्दगी जीते हैं
आओ अपनी-अपनी क़िस्मत बदलते हैं...

साभार  - हिन्द-युग्म

Thursday, February 5, 2015

कहना है माटी को आभार !

कहना है
माटी को दिल से आभार !
एक तुम्हीं जिसमें मैं अँकुराया, खिलखिलाया
छू सका असीम का विस्तार

कहना ही है उन संगी-साथियों को
जो गलियों में उबे बिना अगोरते रहे
और भूलूँ कैसे पेड़ों की वे डालियाँ
उदासियों में मुझे जो झकझोरते रहे

आभार उस झरने का
जिसने मुझे बहना सिखाया
दरअसल पत्थरों को गहना बताया

माँ की छाती का आभार
जहाँ मैंने पाया जीवन का अमृत
अपरिमित, अपार

आभार ! आभार !! आभार !!!
उन सारे बुरे दिनों के प्रति
जो दिखते नहीं अब कहीं
पर रह-रहकर आते हैं जब कभी याद
तब-तब मुझसे करता है जीवन डरकर संवाद ।

कहना है माटी को आभार 
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कहना है  
माटी को दिल से आभार ! 
एक तुम्हीं जिसमें मैं अँकुराया, खिलखिलाया
छू सका असीम का विस्तार 

कहना ही है उन संगी-साथियों को  
जो गलियों में उबे बिना अगोरते रहे
और भूलूँ कैसे पेड़ों की वे डालियाँ 
उदासियों में मुझे जो झकझोरते रहे 

आभार उस झरने का 
जिसने मुझे बहना सिखाया
दरअसल पत्थरों को गहना बताया 

माँ की छाती का आभार 
जहाँ मैंने पाया जीवन का अमृत
अपरिमित, अपार  

आभार ! आभार !! आभार !!!
उन सारे बुरे दिनों के प्रति
जो दिखते नहीं अब कहीं 
पर रह-रहकर आते हैं जब कभी याद 
तब-तब मुझसे करता है जीवन डरकर संवाद ।
 साभार  :- जय प्रकाश "मानस"

जनम-जनम का साथ !

तुम अकेले रह गए तो भोर का तारा बनूं मै।
मै अकेला रह गया तो रात बनकर पास आना।

तुम कलम की नोक से उतरे हो अक्षर की तरह।
मै समय के मोड़ पर बिखरा हूँ प्रस्तर की तरह।
तुम अकेले बैठकर बिखरी हुई प्रस्तर शिला पर,
सांध्य का संगीत कोई मौन स्वर में गुनगुनाना।

एक परिचय था पिघलकर घुल गया है सांस में।
रात भर जलता रहा दीपक सृजन की आस में।
दृश्य अंकित है तुम्हारा मिट न पाया आज तक
बिखरे हुए सपनों को चुनकर प्यार का एक घर बसाना।

बह रहा दरिया न रोको भंवर का परिहास देखो।
कह रहा उठ गिर कहानी लहर का अनुप्रास देखो।
एक कश्ती की तरह मै तुम किनारे के पथिक हो
शाम होते ही नदी से अपने घर को लौट जाना।

पर्वतों के पार जाकर मै तुम्हे आवाज दूंगा।
प्रीति के तारों से निर्मित मै तुम्हें एक साज दूंगा।
मेरी नज़रों में उतरकर आखिरी अनुबंध कर लो
हर जनम में साथ रहना हर समय तुम मुस्कराना।


रविनन्दन सिंह जी ने 6 अप्रैल 2014 को अपने वैवाहिक जीवन के 14 वर्ष पूरे किये। इस अवसर पर उनके द्वारा लिखी, उनकी  पत्नी पारुल सिंह को समर्पित एक कविता ---- आप इनसे संपर्क कर सकते हैं - https://www.facebook.com/profile.php?id=100005480228674&fref=nf