Saturday, June 6, 2015

गजल !

खो जाने का डर है घर में
इक सूना सा घर है घर में
छत और दीवारों में रंजिश
ये कैसा मंजर है घर में
बाहर उठ के जो चलता है
वो ही झुका हुआ सर है घर में
अक्सर मुझको यूँ लगता है
मुझ जैसा खण्डहर है घर में
भटक गये सब रिश्ते-नाते
यूँ तो इक रहबर है घर में
सुनने की आजादी है बस
पहरा हर लैब पर है घर में
तुम भी कह दो जो कहना है
हर इल्जाम मेरे सर है घर में
मुझको ऐ 'इरशाद' बता तू
आखिर क्यूं बेघर है घर में !

- मोहम्मद इरशाद

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