Saturday, June 6, 2015

मेरा भी गाँव है ।

यादों की नाँव है
मेरा भी एक गाँव है
जहाँ मेरा बचपन खेला है
अब यहाँ शहर का मेला है।

गाँव जाने के नाम पर
मन हो जाता तैयार तत्पर
एक नशा छा जाता हृदय पर
खुशियाँ बढ़ जाती मन-भर
महीनों पहले होती तैयारी
समय न कटता, होती बेकरारी
ज्यों-ज्यों दिन निकट थे आते
मन ही मन हम अति हर्षाते
जब-जब हम थे गाँव को जाते
प्यार हजारों, लाखों खुशियाँ थे पाते।

कल्पना के घोड़े पे सवार हो
चल पड़ते नदियों के पार हो
चल पड़ती कैसी बयार हो
जैसे हर पल बसन्त बहार हो
गाँव की मिट्टी सोंधी सुगन्ध हो
हर पल, हर क्षण उसमें जाते खो
सुवासित होता दिक्-दिगन्त हो
ग्राम्य जीवन जैसे अनन्त हो।

प्यारे थे कितने गाँव-वासी
प्यारे-प्यारे दादा-दादी
करते थे हमको कितना प्यार
होते थे कितने दोस्त यार
हम जाते थे मन को हार
सबके मन में अपनत्व था
एक-दूसरे का महत्व था।

पूरा गाँव था एक परिवार
सच्ची लगन व बात-ब्यौहार
था एक-दूजे पर प्राण निछावर
जैसे जीत हो हर निशा पर
वैसे ही वश था हर दिशा पर
अपनी खुशियाँ सबकी खुशियाँ थी
था दूसरों का दुख, अपना दुख पर।

पर शहर की तरह ही
आज गाँव क्यों अभिशप्त है
घोर दिखावा छल-कपट है
शहर की तरह ही
आज गाँव बाहरी उन्नति को प्राप्त है
किन्तु अन्तर से अवनति की गिरफ्त है
शहर की तरह ही
आज गाँव की खुशियाँ समाप्त हैं
घोर निराशा व अन्धकार व्याप्त है
शहर की तरह ही
आज एक-दूजे की लाज-लिहाज न कद्र है
पर यह अन्यायी कौन अभद्र है
इसका जिम्मेदार कौन ?
यह प्रश्न है !!






- रवीन्द्र कुशवाहा
मो०: 9450635436

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