Thursday, February 21, 2013

निवाला !


जीवन-बाला ने कल रात
सपने का एक निवाला तोड़ा
जाने यह खबर किस तरह
आसमान के कानों तक जा पहुँची

बड़े पंखों ने यह ख़बर सुनी
लंबी चोंचों ने यह ख़बर सुनी
तेज़ ज़बानों ने यह ख़बर सुनी
तीखे नाखूनों ने यह खबर सुनी

इस निवाले का बदन नंगा,
खुशबू की ओढ़नी फटी हुई
मन की ओट नहीं मिली
तन की ओट नहीं मिली

एक झपट्टे में निवाला छिन गया,
दोनों हाथ ज़ख्मी हो गये
गालों पर ख़राशें आयीं
होंटों पर नाखूनों के निशान

मुँह में निवालों की जगह
निवाले की बाते रह गयीं
और आसमान में काली रातें
चीलों की तरह उड़ने लगीं…

अमृता प्रितम
 

एक मुलाकात !

मैं चुप शान्त और अडोल खड़ी थी

सिर्फ पास बहते समुन्द्र में तूफान था……फिर समुन्द्र को खुदा जाने
क्या ख्याल आया
उसने तूफान की एक पोटली सी बांधी
मेरे हाथों में थमाई
और हंस कर कुछ दूर हो गया

हैरान थी….
पर उसका चमत्कार ले लिया
पता था कि इस प्रकार की घटना
कभी सदियों में होती है…..

लाखों ख्याल आये
माथे में झिलमिलाये

पर खड़ी रह गयी कि उसको उठा कर
अब अपने शहर में कैसे जाऊंगी?

मेरे शहर की हर गली संकरी
मेरे शहर की हर छत नीची
मेरे शहर की हर दीवार चुगली

सोचा कि अगर तू कहीं मिले
तो समुन्द्र की तरह
इसे छाती पर रख कर
हम दो किनारों की तरह हंस सकते थे

और नीची छतों
और संकरी गलियों
के शहर में बस सकते थे….

पर सारी दोपहर तुझे ढूंढते बीती
और अपनी आग का मैंने
आप ही घूंट पिया

मैं अकेला किनारा
किनारे को गिरा दिया
और जब दिन ढलने को था
समुन्द्र का तूफान
समुन्द्र को लौटा दिया….

अब रात घिरने लगी तो तूं मिला है
तूं भी उदास, चुप, शान्त और अडोल
मैं भी उदास, चुप, शान्त और अडोल
सिर्फ- दूर बहते समुन्द्र में तूफान है…..

अमृता प्रितम

आपकी नाकामयाबी !


नन्हा बच्चा
जिस भी उंगली को पकड़े
कस लेता है,
और
अपनी पकड़ की
मज़बूती का
रस लेता है।

आप कोशिश करिए
अपनी उंगली छुड़ाने की।
नहीं छुड़ा पाए न !

वो आपकी नाकामयाबी पर
हंस लेता है।

और पकड़ की
मज़बूती का
भरपूर रस लेता है।

अशोक चक्रधर

ग़जल !

सब आने वाले बहला कर चले गये
आँखो पर शीशे चमका कर चले गये

मलबे के नीचे आकर मालूम हुआ
सब कैसे दिवार गिराकर चले गये

लोग कभी लौटेंगे राख बटोरेंगे
जंगल मे जो आग लगा कर चले गये

गारे, चूने पत्थर के दुश्मन देखो
आहन की दीवार बना कर चले गये

दीवारे, दीवारो की जानिब सरकी
छ्त से बिस्तर लोग उठा कर चले गये॥ 


- बशीर बद्र

******मौन******


तुम्हारा मौन
कितना कोलाहल भरा था
लगा था
कहीं बादलों की गर्जन के साथ
बिलजी न तडक उठे
तुम्हारे मौन का गर्जन
शायद समुद्र के रौरव से भी
अधिक भयंकर रहा होगा
और उस में निरंतर
उठी होंगी उत्ताल तरंगें ,
तुम्हारे मौन में उठते ही रहे होंगे
भयंकर भूकम्प
जिन से हिल गया होगा
पृथ्वी से भी बड़ा तुम्हारा हृदय
इसी लिए मैं कहता हूँ कि
तुम अपना मौन तोड़ दो
और बह जाने दो
अपने प्रेम की अजस्र धारा
भागीरथी सी पवित्र व शीतल
दुग्ध सी धवल
ज्योत्स्ना सी स्निग्ध व सुंदर
और अमृत सी अनुपम॥

डा. वेद व्यतिथ

मै उड़ न सका !


रुकना साँस लेना मेरी ज़रूरत थी
जब भी मै रुका
दुनिया ने कह दिया मै पीछें रह गया
मै चलने के लिए बना था
वो कहते रहे मै उड़ न सका

विचार बीज थे
मै मिट्टी था
दुनिया से अलग सोचता
मै मिट्टी था
बारिश की बूदों पड़े तो मै खुशबू
सूरज की रोशनी में जादू
की विचारों में जिंदगी भर दू
उपजाऊ था
पर था तो मै मिट्टी ही
कइयो ने समझाया
सोना होना ज़रुरी है
मिट्टी का नहीं है मोल
सोना है अनमोल
मुझे खलिहानोँ में होना था
बारिश धुप में भिगोना था
पर भट्टी में जलाया गया मुझे
की लोगो की चाह में सोना था
पर मै मिट्टी था
मुझे मिट्टी ही होना था
मै चलने के लिए बना था
मै उड़ न सका

क्या सोना होना इतना ज़रुरी है
क्या सोना फसल बनेगा
क्या सोना पेट भरेगा
क्या सोना आस्मा से बरसेगा
और बीजो में जीवन भरेगा
सोना कीमती है
पर मै भी हू अनमोल
पर मुझे इतना तपाया गया
की मै मिट्टी भी न रह सका
विचार मेरे जल गए
नसों में लड़ने की कूबत थी
सब भाप बन निकल गए
मै चलने के लिए बना था
मै उड़ न सका

सासे लेना धडकना
दुनिया के रंग रंगना चहकना
ये मेरी ताकत थी
पर उसे समझ ना आया
जब भी तोला मुझे
उसने सोने के सिक्को से
हमेशा कम पाया
मै चलने के लिए बना था
मै उड़ न सका

 
शशिप्रकाश सैनी 

http://www.kavishashi.com/2011/12/blog-post_26.html#.UgmvcNIwcWY 

हिचकी !

हिचकी बीमारी है
या कोई याद
याद
पहाड़ के पत्थर पर
चुपचाप सिकुड़ी बैठी है
या मछुआरों के जाल से बचती
गहरे समुन्दरों में जा डूबी है ।

अष्टभुजाओं वाले आक्टोपस के
हाथ भी नहीं आ रही ,
नमकीन पानी में
घुल रही है याद ..

याद हिचकी लेकर आई है ।


- नीरू असीम (पंजाबी से अनुवादित)

अजीज आज़ाद की कवितायेँ !

१.

मैं तो बस ख़ाके-वतन हूँ गुलो-गौहर तो नहीं
मेरे ज़र्रों की चमक भी कोई कमतर तो नहीं

मैं ही मीरा का भजन हूँ मैं ही ग़ालिब की ग़ज़ल
कोई वहशत कोई नफ़रत मेरे अन्दर तो नहीं

मेरी आग़ोश तो हर गुल का चमन है लोगों
मैं किसी एक की जागीर कोई घर तो नहीं

मैं हूँ पैग़ाम-ए-मुहब्बत मेरी सरहद ही कहाँ
मैं किसी सिम्त चला जाऊं मुझे डर तो नहीं

गर वतन छोड़ के जाना है मुझे लेके चलो
होगा अहसास के परदेस में बेघर तो नहीं

मेरी आग़ोश तो तहज़ीब मरकज़ है 'अज़ीज़'
कोई तोहमत कोई इल्ज़ाम मेरे सर तो नहीं !


२.

ज़मीं है हमारी न ये आसमाँ है
जहाँ में हमारा बसेरा कहाँ है

ये कैसा मकाँ है हमारे सफ़र का
कोई रास्ता है न कोई निशाँ है

अभी हर तरफ़ है तसादुम की सूरत
सुकूँ ज़िन्दगी का यहाँ न वहाँ है

कभी हँसते-हँसते छलक आए आँसू
निगाहों के आगे धुआँ ही धुआँ है

शराफ़त को उजड़े मकानों में ढूँढो
शहरों में इसका ठिकाना कहाँ है

चलो फिर करेंगे उसूलों की बातें
अभी तो हमें इतनी फ़ुरसत कहाँ है !


३.

तुम ज़रा प्यार की राहों से गुज़र कर देखो
अपने ज़ीनो से सड़क पर भी उतर कर देखो

धूप सूरज की भी लगती है दुआओं की तरह
अपने मुर्दार ज़मीरों से उबर कर देखो

तुम हो खंज़र भी तो सीने में समा लेंगे तुम्हें
प' ज़रा प्यार से बाँहों में तो आ कर देखो

मेरी हालत से तो ग़ुरबत का गुमाँ हो शायद
दिल की गहराई में थोड़ा-सा उतर कर देखो

मेरा दावा है कि सब ज़हर उतर जायेगा
तुम मेरे शहर में दो दिन तो ठहर कर देखो

इसकी मिट्टी में मुहब्बत की महक आती है
चाँदनी रात में दो पल तो पसर कर देखो

कौन कहता है कि तुम प्यार के क़ाबिल ही नहीं
अपने अन्दर से भी थोड़ा सा संवर कर देखो !
 

सपनों के लिए !


एक-एक कर
उधड़ गए
वे सारे सपने
जिन्हें बुना था
अपने ही खयालों में
मान कर अपने !

सपनों के लिए
चाहिए थी रात
हम ने देख डाले
खुली आंख
दिन में सपने
किया नहीं
हम ने इंतजार
सपनों वाली रात का
इस लिए
हमारे सपनों का
एक सिरा
रह जाता था
कभी रात के
कभी दिन के हाथ में
जिस का भी
चल गया जोर
वही उधेड़ता रहा
हमारे सपने !

अब तो
कतराने लगे हैं
झपकती आंख
और
सपनों की उधेड़बुन से !

ओम पुरोहित "कागद"

अमृता प्रीतम की रचनाएँ !

१. 

आज हमने एक दुनिया बेची
और एक दीन ख़रीद लिया
हमने कुफ़्र की बात की

सपनों का एक थान बुना था
एक गज़ कपड़ा फाड़ लिया
और उम्र की चोली सी ली

आज हमने आसमान के घड़े से
बादल का एक ढकना उतारा
और एक घूँट चाँदनी पी ली

यह जो एक घड़ी हमने
मौत से उधार ली है
गीतों से इसका दाम चुका देंगे ! 


२.

सिर्फ़ दो रजवाड़े थे –
एक ने मुझे और उसे
बेदखल किया था
और दूसरे को
हम दोनों ने त्याग दिया था।

नग्न आकाश के नीचे –
मैं कितनी ही देर –
तन के मेंह में भीगती रही,
वह कितनी ही देर
तन के मेंह में गलता रहा।

फिर बरसों के मोह को
एक ज़हर की तरह पीकर
उसने काँपते हाथों से
मेरा हाथ पकड़ा!
चल! क्षणों के सिर पर
एक छत डालें
वह देख! परे – सामने उधर
सच और झूठ के बीच –
कुछ ख़ाली जगह है…!!  

यातनाएं !


बदला कुछ भी नहीं
यह देह उसी तरह दर्द का कुआं है।
इसे खाना, सांस लेना और सोना होता है।
इस पर होती है महीन त्वचा
जिसके नीचे ख़ून दौड़्ता रहता है।
इसके दांत और नाख़ून होते हैं।
इसकी हड्डियां होती हैं जिन्हें तोड़ा जा सकता है।
जोड़ होते हैं जिन्हें खींचा जा सकता है।

बदला कुछ भी नहीं।
देह आज भी कांपती है उसी तरह
जैसे कांपती थी
रोम के बसने के पूर्व और पश्चात्।
ईसा के बीस सदी पूर्व और पश्चात्
यातनाएं वही-की-वही हैं
सिर्फ़ धरती सिकुड़ गई है
कहीं भी कुछ होता है
तो लगता है हमारे पड़ोस में हुआ है।

बदला कुछ भी नहीं।
केवल आबादी बढ़ती गई है।
गुनाहों के फेहरिस्त में कुछ और गुनाह जुड़ गए हैं
सच्चे, झूठे, फौरी और फर्जी।
लेकिन उनके जवाब में देह से उठती हुई चीख
हमेशा से बेगुनाह थी, है और रहेगी।

बदला कुछ भी नहीं
सिवाय तौर-तरीकों, तीज-त्यौहारों और नृत्य-समारोहों के।
अलबत्ता मार खाते हुए सिर के बचाव में उठे हुए हाथ की मुद्रा वही रही।
शरीर को जब भी मारा-पीटा, धकेला-घसीटा
और ठुकराया जाता है,
वह आज भी उसी तरह तड़पता ऐंठता
और लहूलुहान हो जाता है।

बदला कुछ भी नहीं
सिवाय नदियों, घाटियों, रेगिस्तानों
और हिमशिलाओं के आकारों के।
हमारी छोटी-सी आत्मा दर-दर भटकती फिरती है।
खो जाती है, लौट आती है।
क़्ररीब होती है और दूर निकल जाती है
अपने आप से अजनबी होती हुई।
अपने अस्तित्व को कभी स्वीकारती और कभी नकारती हुई।
जब कि देह बेचारी नहीं जानती
कि जाए तो कहां जाए।

विस्सावा शिंबोर्स्का (अनुवाद: विजय अहलूवालिय)

जय हिन्द.........

है समय नदी की बाढ़ कि जिसमें सब बह जाया करते हैं।
है समय बड़ा तूफ़ान प्रबल पर्वत झुक जाया करते हैं ।।
अक्सर दुनियाँ के लोग समय में चक्कर खाया करते हैं।
लेकिन कुछ ऐसे होते हैं, इतिहास बनाया करते हैं ।।

यह उसी वीर इतिहास-पुरुष की अनुपम अमर कहानी है।
जो रक्त कणों से लिखी गई,जिसकी जयहिन्द निशानी है।।
प्यारा सुभाष, नेता सुभाष, भारत भू का उजियारा था ।
पैदा होते ही गणिकों ने जिसका भविष्य लिख डाला था।।

यह वीर चक्रवर्ती होगा , या त्यागी होगा सन्यासी।
जिसके गौरव को याद रखेंगे, युग-युग तक भारतवासी।।
सो वही वीर नौकरशाही ने,पकड़ जेल में डाला था ।
पर क्रुद्ध केहरी कभी नहीं फंदे में टिकने वाला था।।

बाँधे जाते इंसान,कभी तूफ़ान न बाँधे जाते हैं।
काया ज़रूर बाँधी जाती,बाँधे न इरादे जाते हैं।।
वह दृढ़-प्रतिज्ञ सेनानी था,जो मौका पाकर निकल गया।
वह पारा था अंग्रेज़ों की मुट्ठी में आकर फिसल गया।।

जिस तरह धूर्त दुर्योधन से,बचकर यदुनन्दन आए थे।
जिस तरह शिवाजी ने मुग़लों के,पहरेदार छकाए थे ।।
बस उसी तरह यह तोड़ पींजरा , तोते-सा बेदाग़ गया।
जनवरी माह सन् इकतालिस,मच गया शोर वह भाग गया।।

वे कहाँ गए, वे कहाँ रहे,ये धूमिल अभी कहानी है।
हमने तो उसकी नयी कथा,आज़ाद फ़ौज से जानी है।।

-- गोपालदास व्यास

स्‍वतंत्र भावना का स्‍वतंत्र गान !


घोर अंधकार हो, चल रही बयार हो,
आज द्वार द्वार पर यह दिया बुझे नहीं।

यह निशीथ का दिया ला रहा विहान है।
शक्ति का दिया हुआ, शक्ति को दिया हुआ,
भक्ति से दिया हुआ, यह स्‍वतंत्रता दिया,
रुक रही न नाव हो, जोर का बहाव हो,
आज गंगधार पर यह दिया बुझे नहीं!

यह स्‍वदेश का दिया हुआ प्राण के समान है!
यह अतीत कल्‍पना, यह विनीत प्रार्थना,
यह पुनीत भवना, यह अनंत साधना,
शांति हो, अशांति हो, युद्ध, संधि, क्रांति हो,
तीर पर, कछार पर, यह दिया बुझे नहीं!

देश पर, समाज पर, ज्‍योति का वितान है!
तीन चार फूल है, आस पास धूल है,
बाँस है, फूल है, घास के दुकूल है,
वायु भी हिलोर से, फूँक दे, झकोर दे,
कब्र पर, मजार पर, यह दिया बुझे नहीं!

यह किसी शहीद का पुण्‍य प्राणदान है!
झूम झूम बदलियाँ, चुम चुम बिजलियाँ
आँधियाँ उठा रही, हलचले मचा रही!
लड़ रहा स्‍वदेश हो, शांति का न लेश हो
क्षुद्र जीत हार पर, यह दिया बुझे नहीं!

यह स्‍वतंत्र भावना का स्‍वतंत्र गान है!

 
गोपाल सिंह नेपाली

दुष्यंत कुमार की कवितायें !

१.
आज सड़कों पर लिखे हैं सैकड़ों नारे न देख,
पर अँधेरा देख तू आकाश के तारे न देख।

एक दरिया है यहाँ पर दूर तक फैला हुआ,
आज अपने बाज़ुओं को देख पतवारें न देख।

अब यकीनन ठोस है धरती हकीकत की तरह,
यह हकीकत देख लेकिन खौफ के मारे न देख।

वे सहारे भी नहीं अब जंग लड़नी है तुझे,
कट चुके जो हाथ उन हाथों में तलवारें न देख।

ये धुंधलका है नजर का तू महज मायूस है,
रोजनों को देख दीवारों में दीवारें न देख।

राख कितनी राख है, चारों तरफ बिखरी हुई,
राख में चिनगारियाँ ही देख अंगारे न देख।


 २.

ये सच है कि पाँवों ने बहुत कष्ट उठाए
पर पाँवों किसी तरह से राहों पे तो आए

हाथों में अंगारों को लिए सोच रहा था
कोई मुझे अंगारों की तासीर बताए

जैसे किसी बच्चे को खिलोने न मिले हों
फिरता हूँ कई यादों को सीने से लगाए

चट्टानों से पाँवों को बचा कर नहीं चलते
सहमे हुए पाँवों से लिपट जाते हैं साए

यों पहले भी अपना—सा यहाँ कुछ तो नहीं था
अब और नज़ारे हमें लगते हैं पराए॥  


३. चीथड़े में हिन्दुस्तान

एक गुडिया की कई कठपुतलियों में जान है,
आज शायर ये तमाशा देख कर हैरान है।

ख़ास सड़कें बंद हैं तब से मरम्मत के लिए,
यह हमारे वक्त की सबसे सही पहचान है।

एक बूढा आदमी है मुल्क में या यों कहो,
इस अँधेरी कोठारी में एक रौशनदान है।

मस्लहत-आमेज़ होते हैं सियासत के कदम,
तू न समझेगा सियासत, तू अभी नादान है।

इस कदर पाबंदी-ए-मज़हब की सदके आपके
जब से आज़ादी मिली है, मुल्क में रमजान है।

कल नुमाइश में मिला वो चीथड़े पहने हुए,
मैंने पूछा नाम तो बोला की हिन्दुस्तान है।

मुझमें रहते हैं करोड़ों लोग चुप कैसे रहूँ,
हर ग़ज़ल अब सल्तनत के नाम एक बयान है।
 

गजल !

' उन्हें क्या खोजना जो घर जलाएं ?
वो अपने घर गए, हम घर बनाएं ।

हकीकत जान जाती है ये दुनिया
मुखौटे आप हम जितने लगाएं !

मैं गजलें पढ रहा, शामेसुखन है
मेरे कातिल से कहिए,सर छुपाएं !

यहीं पर खत्म ये किस्सा नहीं था,
मगर तुम सो गए तो क्या सुनाएं !

उचट जाती है अब भी नींद मेरी
महज कर याद, तेरी वो सदाएं !

अकेले हम चलेंगे राहेमकतल
कोई देखे तो जीने की अदाएं!

ये लम्बी दास्तां है, जिन्दगी-सी
तुम्हें अच्छी लगी तो कल सुनाएं !! 


रविकेश मिश्र

भोजपुरी गीत !

हियरा में उठत हिलोर,पिया हो,
अइसे जनि ताकऽ

लहके अगिन पोरेपोर,पिया हो,
अइसे जनि ताकऽ

छुइ जाला देहिया,अङरि जाला मनवां
छोट लागे घर,छोट लागे असमनवां!

प्रनवा के देला झकझोर,पिया हो,
अइसे जनि ताकऽ!
मनवां में मचत मरोर, धनी तूँ,
धरतिया न ताकऽ!

भूलि जाला बेद,भूलि जाइले पुरनवां!
मोरे अंकवारी नाहीं आंटेला जहनवां!

चनवां के देखेला चकोर, धनी तूँ,
धरतिया न ताकऽ!
रविकेश मिश्र

जहां बरसात में हम तरबतर रहे !


छतों पे पड़ती रही धूप
वो बंद कमरों में हर पहर रहे
कभी हवाओ से जूझें नहीं
जहां बरसात में हम तरबतर रहे
उनके छाते छूटे नहीं
पानी से डरते इस कदर रहे

न चले घास पे चमकती ओस पे
चप्पल उतरे नहीं कही
न पैरों में कभी पर रहे
ख्वाबो को आज़ाद छोडना था
भरने उड़ान असमान की
क्यों फिर ज़मी पर रहे

मेरी सुनता नहीं है वो
दी मुझे जिंदगी नहीं
दुनिया की ली खबर
बस मुझी से क्यों बेखबर रहे
ना आंखे खोली कभी
ना सवेरा देखा
और खुदा पे लगाते रहे इलज़ाम
अंधेरा मेरे घर रहे

शशिप्रकाश सैनी

Saturday, February 16, 2013

ढाई आखर प्रेम के !

आंखें भीगी
पलकों में नमी सी है
न जाने क्यूँ ये लब
हंसी को कम

अश्को को ज्यादा चूमने लगे हैं...
मौन था मन ,ह्रदय निस्पंद
झुके हैं चक्षु ,मंजुकपोल
और वो न जाने क्यूँ
छुपाते रहे सूखे पड़े उन
अधरों की सुर्ख़ियों में

वो ढाई आखर प्रेम के.....
- राहुल त्रिपाठी

मन ये ही चाहता है !

ना जाऊं इस नगरी से ..
मन ये ही चाहता है..
जो जाना हुआ ..
ना रुक पाऊँगी ..
ना रोक पाऊँगी..
उसे तो मिल जाना है सागर में..
बहती धारा को रोका किसने है..
आंसुओं की धारों से गुजरकर..
सारे मोह को त्यागकर ..
जाना तो है..
पर पुरानी चीजों से मोह कहाँ जाता है..
- सुमन पाठक 

Friday, February 1, 2013

ग्लोबलाइजेशन !

खुश होता था कभी
ग्लोबलाइजेशन के नाम से
इसी के तो देखता था
सपने साहित्य में
दुनिया सब एक हो
सबमें हो भाई-चारा
करें सब विकास मिल.
लेकिन मैं ठगा गया
नाम तो वही था पर
छद्म वेश धारण कर
कोई और आ गया.
करता ही जा रहा यह
हत्याएँ गाँवों की
नष्ट कर सब संस्कृतियाँ
अपने ही पैर यह
फैलाए जा रहा
अरे, कोई मारो इसे
यह तो हत्यारा है!
नष्ट करता जा रहा
खेत-खलिहानों और
गाँवों-जवारों को.
सुनता पर कोई नहीं चीख मेरी
शामिल हैं लोग उसके साथ सब
लड़ते हैं गुरिल्ला जो
लैस वे भी दीखते हैं
उसी के हथियारों से.
महँगा सौदा
कारण तो कुछ भी नहीं
खुश है पर आज मन.
बैठता जब सोचने
आता है याद आज
घटी नहीं कोई दुर्घटना
नींद में भी आया नहीं
कोई दुस्वप्न.
जानता हूँ ऐसा तो
था नहीं हमेशा से
घोर अभावों में भी
मिलती थी नींद भरपूर कभी.
दूर अब अभाव सारे कर लिये
सुविधाएँ हासिल सब हो गईं
लेकिन जो पास था सुकून तब
दूर वही हो गया
जाना पड़ता है अब
हँसने को लाफ्टर क्लब
आती नहीं नींद गोलियों से भी
तरक्की तो हो रही है रोज-रोज
तेजी से भागता मैं जा रहा
छूटता ही जा रहा पर
सुख-चैन पीछे.
सोचता हूँ कभी-कभी
सौदा महँगा तो नहीं !


- हेमधर शर्मा

अक्स विहीन आईना !

आज उतार लायी हूँ
अपनी भावनाओं की पोटली
मन की दुछत्ती से
बहुत दिन हुये
जिन्हें बेकार समझ
पोटली बना कर
डाल दिया था
किसी कोने में ,
आज थोड़ी फुर्सत थी
तो खंगाल रही थी ,
कुछ संवेदनाओं का
कूड़ा - कचरा ,
एक तरफ पड़ा था
मोह - माया का जाल ,
इन्हीं  सबमें  खुद को ,
हलकान करती हुई
ज़िंदगी को दुरूह
बनाती जा रही हूँ ।
आज मैंने झाड दिया है
इन सबको
और बटोर कर
फेंक आई हूँ बाहर ,
मेरे  मन का घर
चमक रहा है
आईने की तरह , लेकिन
अब  इस आईने में
कोई अक्स नहीं दिखता ।

- संगीता स्वरुप

(ब्लाग ‘गीत मेरी अनुभूतियाँ’ से साभार)

अंतहीन यात्रा !

जब भी लगता है सब ठीक-ठाक
और नहीं घेरती मन को चिंता
घबरा जाता हूँ अचानक
टटोलता हूँ अपनी सम्वेदनाएँ
कि मरीं तो नहीं वे!
दरअसल समय इतना कठिन है
कि चिंतामुक्त रहना भी अपराध है
मिले हैं मुङो विरासत में
प्रदूषित पृथ्वी और रुग्ण समाज
खूब कमाना और खूब खाना ही है
मेरे समकालीनों का जीवन लक्ष्य
कि त्याग का मतलब अब
तपस्या नहीं पागलपन है
फिर कैसे रह सकता भला मैं चिंतामुक्त!
इसीलिये आता जब
कभी क्षण खुशी का
होता भयभीत भी हूँ साथ ही
कि पथरा तो गईं नहीं सम्वेदनाएँ!
टूटता है बदन और
आँखें भी बोझिल हैं नींद से
फिर भी लिखता कविता
डरता हूँ सोने से
कि नींद अगर रास्ते में आ गई
तो शायद कभी न हो सवेरा ।


- हेमधर शर्मा

प्यार की क्या - पहचान है ?

प्यार की क्या -
पहचान है .
कहाँ मिलता है
क्या कीमत - मोल
क्या भाव .

कोई बतायेगा -
क्या ढूँढने से मिल जाएगा
या फिर लाटरी है -
नम्बर निकल आएगा .

कुछ भी तय नहीं -
सब भाग्याधीन -
मिले भी - और
ना भी मिले .

फिर लोग क्यों कहते
रहते हैं - प्रेम कर
प्रेम पायें -
अरे बाबा - बताओ
कहाँ से रिक्मैंड कराएं
किस सरकारी -
ऑफिस के चक्कर लगाएं . 
- सतीश  शर्मा 

कविता के साथ-साथ !

हो सकता है कि अच्छी न बने कविता
क्योंकि आँखों में नींद और सिर में भरा है दर्द
पर स्थगित नहीं हो सकता लिखना
लिखा था कभी
कि जीवन की लय को पाना ही कविता है
लय तो अभी भी टूटी नहीं
पर सराबोर है यह कष्टों और संघर्षो से
नहीं रोकूँगा अब इन्हें
कविता में आने से.
ओढ़ँगा-बिछाऊँगा
रखूँगा अब साथ-साथ कविता को.
जानता हूँ कठिन है
इजाफा ही करेगी यह
कष्टों-संघर्षो में
लेकिन मंजूर है यह.
साथ रही कविता तो
भयानक लगेगी नहीं मौत भी
कविता के बिना लेकिन
रास नहीं आयेगा जीवन भी.
कठिन विकल्प
गुजरता हूँ जब गहन पीड़ा से
जन्म लेती हैं तभी, महान कविताएँ
इसीलिये नहीं करता मन
भागने का, अब कष्टों से
चुनता हूँ वही विकल्प
जो सर्वाधिक कठिन हो.
हताशा लेकिन होती है
शक्ति के अभाव में जब
चिड़चिड़ा उठता है मन.
होती महसूस तब
प्रार्थना की जरूरत
इसलिये नहीं कि कम हो जायँ दुख-कष्ट
बल्कि शक्ति मिले उन्हें सहने की.
इसीलिये बार-बार
हार कर भी आता उसी जगह पर
चुनता हूँ कठिन विकल्प
स्वेच्छा से दुख-कष्ट.
फीनिक्स पक्षी की तरह
मरता हूँ बार-बार
जीता हूँ फिर-फिर
अपनी ही राख से !


- हेमधर शर्मा