Thursday, February 21, 2013

जहां बरसात में हम तरबतर रहे !


छतों पे पड़ती रही धूप
वो बंद कमरों में हर पहर रहे
कभी हवाओ से जूझें नहीं
जहां बरसात में हम तरबतर रहे
उनके छाते छूटे नहीं
पानी से डरते इस कदर रहे

न चले घास पे चमकती ओस पे
चप्पल उतरे नहीं कही
न पैरों में कभी पर रहे
ख्वाबो को आज़ाद छोडना था
भरने उड़ान असमान की
क्यों फिर ज़मी पर रहे

मेरी सुनता नहीं है वो
दी मुझे जिंदगी नहीं
दुनिया की ली खबर
बस मुझी से क्यों बेखबर रहे
ना आंखे खोली कभी
ना सवेरा देखा
और खुदा पे लगाते रहे इलज़ाम
अंधेरा मेरे घर रहे

शशिप्रकाश सैनी

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