Thursday, February 21, 2013

दुष्यंत कुमार की कवितायें !

१.
आज सड़कों पर लिखे हैं सैकड़ों नारे न देख,
पर अँधेरा देख तू आकाश के तारे न देख।

एक दरिया है यहाँ पर दूर तक फैला हुआ,
आज अपने बाज़ुओं को देख पतवारें न देख।

अब यकीनन ठोस है धरती हकीकत की तरह,
यह हकीकत देख लेकिन खौफ के मारे न देख।

वे सहारे भी नहीं अब जंग लड़नी है तुझे,
कट चुके जो हाथ उन हाथों में तलवारें न देख।

ये धुंधलका है नजर का तू महज मायूस है,
रोजनों को देख दीवारों में दीवारें न देख।

राख कितनी राख है, चारों तरफ बिखरी हुई,
राख में चिनगारियाँ ही देख अंगारे न देख।


 २.

ये सच है कि पाँवों ने बहुत कष्ट उठाए
पर पाँवों किसी तरह से राहों पे तो आए

हाथों में अंगारों को लिए सोच रहा था
कोई मुझे अंगारों की तासीर बताए

जैसे किसी बच्चे को खिलोने न मिले हों
फिरता हूँ कई यादों को सीने से लगाए

चट्टानों से पाँवों को बचा कर नहीं चलते
सहमे हुए पाँवों से लिपट जाते हैं साए

यों पहले भी अपना—सा यहाँ कुछ तो नहीं था
अब और नज़ारे हमें लगते हैं पराए॥  


३. चीथड़े में हिन्दुस्तान

एक गुडिया की कई कठपुतलियों में जान है,
आज शायर ये तमाशा देख कर हैरान है।

ख़ास सड़कें बंद हैं तब से मरम्मत के लिए,
यह हमारे वक्त की सबसे सही पहचान है।

एक बूढा आदमी है मुल्क में या यों कहो,
इस अँधेरी कोठारी में एक रौशनदान है।

मस्लहत-आमेज़ होते हैं सियासत के कदम,
तू न समझेगा सियासत, तू अभी नादान है।

इस कदर पाबंदी-ए-मज़हब की सदके आपके
जब से आज़ादी मिली है, मुल्क में रमजान है।

कल नुमाइश में मिला वो चीथड़े पहने हुए,
मैंने पूछा नाम तो बोला की हिन्दुस्तान है।

मुझमें रहते हैं करोड़ों लोग चुप कैसे रहूँ,
हर ग़ज़ल अब सल्तनत के नाम एक बयान है।
 

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