Friday, March 15, 2013

कविता बुनना !


मेरी बहने कुछ उलटे कुछ सीधे शब्दों से
कविता बुनना नहीं जानती
वह बुनती हैं हर सर्दी के पहले स्नेह का स्वेटर
खून के रिश्ते और वह ऊन का स्वेटर
कुछ उलटे फंदे से कुछ सीधे फंदे से
शब्द के धंधे से दूर स्नेह के संकेत समझो तो
जानते हो तो बताना बरना चुप रहना और गुनगुनाना
प्रणय की आश से उपजी आहटों को मत कहो कविता
बुना जाता तो स्वेटर है, गुनी जाती ही कविता है
कुछ उलटे कुछ सीधे शब्दों से कविता जो बुनते हैं
वह कविताए दिखती है उधड़ी उधड़ी सी
कविता शब्दों का जाल नहीं
कविता दिल का आलाप नहीं
कविता को करुणा का क्रन्दन मत कह देना
कविता को शब्दों का अनुबंधन भी मत कहना
कविता शब्दों में ढला अक्श है आह्ट का
कविता चिंगारी सी, अंगारों का आगाज़ किया करती है
कविता सरिता में दीप बहाते गीतों सी
कविता कोलाहल में शांत पड़े संगीतों सी
कविता हाँफते शब्दों की कुछ साँसें हैं
कविता बूढ़े सपनो की शेष बची कुछ आशें हैं
कविता सहमी सी बहन खड़ी दालानों में
कविता बहकी सी तरूणाई
कविता चहकी सी चिड़िया, महकी सी एक कली
पर रुक जाओ अब गला बैठता जाता है यह गा-गा कर
संकेतों को शब्दों में गढ़ने वालो
अंगारों के फूल सवालों की सूली
जब पूछेगी तुमसे--- शब्दों को बुनने को कविता क्यों कहते हो ?
तुम सोचोगे चुप हो जाओगे
इस बसंत में जंगल को भी चिंता है
नागफनी में फूल खिले हैं शब्दों से
शायद कविता उसको भी कहते हैं
 
राजीव चतुर्वेदी

गीत !

धुंधली पड़ गईं भित्तिचित्र की लकीरें,
फिर भी, वह छुअन वही है!

एक परस वीणा के तारों को
सहलाकर भरता झंकार!
दूसरा मिटाता है, तटवर्ती
बना हुआ पूरा संसार !

बर्फीली जकड़न से कसी हुई जंजीरें,
फिर भी, वह तपन वही है!

संज्ञाएँ सर्वनाम अर्थहीन
संयोजित वाक्य गया टूट !
अनकही कहानी का दंश महज,
रहा और रह गया अटूट !

घाटी के पार कहीं गूँज रहीं मंजीरें-
थपक वही,गमक वही,चुभन वही है!!

रविकेश मिश्र, बगहा ।

तेरी टेर !


तू मिला भी कब !
तू कहाँ मिला !
कभी नहीं मिला ..!

तू नही मिला...
तब हुआ गिला ..
तन जला मेरा..

मन चला मेरा ..
फिर ....मनचला ..
और उठा धुँआ..
बिन आग नहीं..
गाने लगा
कोई राग नहीं..

नहीं कोई जिरह..
बस बिरह बिरह..
उर किलस किलस
पर गिरह गिरह
कोई खुली नहीं..

कुछ खुला भी जब
तब बचा नही..
बची रही बस
याद तेरी

दिल में जो पला ..
ख्वाब कोई ..
सच में ना ढला .. ...
कभी ख्वाब कोई...
किंतु नही..
कुछ भी खला...

कोई ले ना घेर
अब कर ना देर
होगी अंधेर..
तेरी टेर टेर
मेरा मन बटेर
हर इक मुंडेर
हर इक मुंडेर .....
 
  विवेक मिश्र ( चरस्तु )

अतुकान्त !


ओह मेरे जीवन में पहली बार
मेरे आमूल-चूल का सार ..

मेरी आँखें कौतुक से फैली हैं !
है विस्मय अपार ..

आहट अनाहत की सुन !
लिए पुनर्वास की आस .. .
ज़ेबों में हाथ खोंसे चलता हुआ
अतुकान्त ..
दिशांत के अंत से तुक जोड़. कर
छोड़ दिया तुम्हे सोचना ..
ओ कभी लौट कर ना आने वाले..

और सदाशिव के दिखाए रास्ते पर ..
परिवर्तन हेतु परित्यक्त का
यह अकिंचन प्रयास..
मानो ग्राह्य हुआ..
अनायास..
खुल गया एक तिलस्म
बिना सिम-सिम का..
खुल जा सिम-सिम
खुल जा सिम-सिम ..
कदरन बढ़ गया है
अली बाबा का
सिमटा अंतर्मन !!
और चालीस चोर सारे
पकड़े गये रंगे हाथों ..
अब ..
मेरी आँखें देख सकती हैं
स्वयं को हाथों से
पैरों के छाप गढ़ता हुआ ..

कितने रास्ते मैने अनचले छोड़े ...
मेरी आँखें कौतुक से फैली हैं ..
  विवेक मिश्र (चरस्तु)