Friday, March 15, 2013

अतुकान्त !


ओह मेरे जीवन में पहली बार
मेरे आमूल-चूल का सार ..

मेरी आँखें कौतुक से फैली हैं !
है विस्मय अपार ..

आहट अनाहत की सुन !
लिए पुनर्वास की आस .. .
ज़ेबों में हाथ खोंसे चलता हुआ
अतुकान्त ..
दिशांत के अंत से तुक जोड़. कर
छोड़ दिया तुम्हे सोचना ..
ओ कभी लौट कर ना आने वाले..

और सदाशिव के दिखाए रास्ते पर ..
परिवर्तन हेतु परित्यक्त का
यह अकिंचन प्रयास..
मानो ग्राह्य हुआ..
अनायास..
खुल गया एक तिलस्म
बिना सिम-सिम का..
खुल जा सिम-सिम
खुल जा सिम-सिम ..
कदरन बढ़ गया है
अली बाबा का
सिमटा अंतर्मन !!
और चालीस चोर सारे
पकड़े गये रंगे हाथों ..
अब ..
मेरी आँखें देख सकती हैं
स्वयं को हाथों से
पैरों के छाप गढ़ता हुआ ..

कितने रास्ते मैने अनचले छोड़े ...
मेरी आँखें कौतुक से फैली हैं ..
  विवेक मिश्र (चरस्तु)

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