Monday, December 31, 2012

वो सूनी खिड़की भी अच्छी लगती है !


तुम्हारी  खूबसूरती  में  चार  चाँद  लग  जाते  हैं -
जब  तुम  नहा के  जुल्फे  झटकते   हुए  खिड़की  पे  आती  हो ,
मै बेखबर  सा  निहारता  हूँ  -
उस  चाँद  से  सलोने  चेहरे  को .
एक  पल  के  लिए  भूल  जाता  हूँ  सब  कुछ ,
ऐसा  लगता  है  जैसे सुबह-  ऒस  की
नन्ही - नन्ही  बूंदों   से  नहा  के  निकली  हो ,
जब  तुम  सरमा   के  मुझे  देखती  हो  ,
और  नजरे  झुका  कर  मुस्करा  के  जाने  लगती  हो,
दिल  सिहर  सा  उठता  है ,
रोम  रोम  में  आग  सी  लगती  है ,
तुम्हारे  उस  सरमाने  को  क्या  कहूँ  ,
जैसे  चाँद  शरमा  के  बादल  में  छुपता  हो ,
दिल  एक  बार  फिर  से  बेचैन  होता  है तुम्हे  देखने  के  लिए ,
अंतर्मन  में  एक  तस्वीर  -हमेशा  छुपा  रखी  है  मैंने  तुम्हारी ,
दिन  भर  में  ना  जाने  कितनी  बार
उस  खिड़की  की  तरफ  देखता  हूँ -
वो  सूनी  खिड़की  भी  अच्छी  लगती  है .
कम  से  कम  तुम्हारे  आने  का  आस  तो  दिलाती  है ,
फिर  तुम्हारा  इंतजार  ऐसे  करता  हूँ
जैसे  कोई  उल्लू  रात   के  आने  का  इंतजार  करता  हो ,
और  शाम  को  जब  तुम  आती  हो
आँखों  से  आँखे  मिलाती  हो ,
दिल  जैसे  कह  उठता  है  तुम्हारा  ही  इंतजार  था ,
अब  आये  हो  कभी  मत  जाना ,
भले  ही  थोड़े  दूर  हो , पास  आना ,
और  इस  पागल  को  अपना  बनाना .....................

-वीरेश  मिश्र

जिनके चरण दुर्बल और हारे हैं !

लीक पर वे चलें जिनके
चरण दुर्बल और हारे हैं
हमें तो जो हमारी यात्रा से बने
ऐसे अनिर्मित पन्थ प्यारे हैं
साक्षी हों राह रोके खड़े
पीले बाँस के झुरमुट
कि उनमें गा रही है जो हवा
उसी से लिपटे हुए सपने हमारे हैं
शेष जो भी हैं-
वक्ष खोले डोलती अमराइयाँ
गर्व से आकाश थामे खड़े
ताड़ के ये पेड़;
हिलती क्षितिज की झालरें
झूमती हर डाल पर बैठी
फलों से मारती
खिलखिलाती शोख़ अल्हड़ हवा;
गायक-मण्डली-से थिरकते आते गगन में मेघ,
वाद्य-यन्त्रों-से पड़े टीले,
नदी बनने की प्रतीक्षा में, कहीं नीचे
शुष्क नाले में नाचता एक अँजुरी जल;
सभी, बन रहा है कहीं जो विश्वास
जो संकल्प हममें
बस उसी के ही सहारें हैं ।
लीक पर वें चलें जिनके
चरण दुर्बल और हारे हैं,
हमें तो जो हमारी यात्रा से बने
ऐसे अनिर्मित पन्थ प्यारे हैं ।


- सर्वेश्वरदयाल सक्सेना

कभी देखा है ?

कभी  देखा  है  खुले  आसमान  को ?
कभी  कोशिश की  है  उसको  बाँहों  में  भरने  की ? 

कभी  चाहा  है  उसके  जैसा  बनने की , 
कभी  कोशिश  की  है ? 
कभी  देखा  है  सतरंगी  बादलों  को  ?
कभी  बादलों  में  बनाया  है  कोई  पेड़ ? 

कभी  देखा  है  कोई  परवाज  नीले  श्वेत  बादलों  में ? 
कभी  देखा है  सावन  के  काले  बादलों  को ?
कभी  देखा  है  गिरती  हुई  बूंदों  को ?
कभी  भीगा  है  पागलो  की  तरह  उनमे ?

कभी  देखा  है ? 
कभी  देखा  है  सतरंगी  धनुक  को ?
कभी  देखा  है  शफ़क़  को  डालियों  के  सोकों   से  आते  हुए ? 
कभी  कोशिश  की  है  उनको  पकड़ने  की ?

कभी  कोशिश   की  है  तितलियों  से  खेलने  की ? 
कभी  पंछियों  से  बातें  की  है ?

कभी  अपनी  ही  परछाई  को  छोटा  बड़ा  किया  है ?
कभी  मिटटी  के  घरौंदे  बनाये  हैं ?
कभी  खुद  को  समझा  है ???? 
कभी  कोशिश  की  है  ? 
कभी  कोशिश  की  है ? ................

-वीरेश  मिश्र

नींद से जाग जा प्यारे !

नींद से जाग जा प्यारे
धूप अब निकल आई है .
पगों को तोल ले पहले -
आगे कठिन चढ़ाई है .

'परो' से आस्मां ऊँचा रहा
कद अपने घट गए - जाने
कितने दायरों में इंसान बंट गए .
जो पत्थर मील के थे - वो
तो जाने कब के हट गए .

मिली ना नहर मीठी जब
बुझाने प्यास दुनिया कि
हिमालय से चले दरिया - वो
खारे समन्दर में सिमट गए !


-सतीश शर्मा

मै बहता रहा !


पानी  की  सतह  पे  एक  नाव  मैंने  भी  चलाई  थी 
हा  वही   कागज़  की  नाव
बचपन  में  खेलते  हुए
आशा  था  बहुत   दूर  जाएगी
अब  गुज़रे  गए  ज़माने
मै  बह  के  कही  और  आ  गया
पता  नही  उसको  कोई  साहिल  भी  मिला
या  डूब  गई  वो ..................
 
मै  तो  बह  बह  के
न  जाने  कितने  किनारों  पे  ठोकरें   खायी
फिर  भी  बहता  रहा ,सहता  रहा
सिलवटे  भी  पड़ी
थोड़ी सी  मुस्कान  भी  नसीब   हुई
और  मै  बहता   रहा  सहता  रहा ......

-वीरेश  मिश्र

लौटो अपनी राहों पर !

लाश उठाये हैं हम मुर्दा संविधान की कन्धों पर |
शासन की है ज़िम्मेदारी गूंगों, बहरों, अंधों पर ||
लेकर जिसकी आड़ ताज पर डाका डाला चोरों ने,
श्रद्धा और उम्मीद हमारी है ऐसे अनुबंधों पर ||
अपनी नस्ल बदलके हमने ये स्वभाव है ओढ़ लिया,
बनकर के गलीच इतराते फिरते हैं दुर्गंधों पर ||
जिस्म लिए हम इंसानों का पशु से नीचे उतर गए,
शर्म नहीं है हमको अपने ऐसे गोरखधंधों पर ||
गाली देते धर्म - न्याय को हम विकास के दावों में,
सिद्धांतों की जगह तर्क के कब्ज़े हैं प्रतिबंधों पर ||
जिनके खुद के चाल - चलन हैं अपराधों से सने हुए,
वे समाज को भाषण देते नैतिक - नीति निबंधों पर ||
गौरव-मान नहीं हैं अब गुण, हैं अब विष के प्याले ये,
जान - प्राण लुटते हिरणों के कस्तूरी की गंधों पर ||
सुन्दरता अभिशाप आज है, संकट सी कोमल काया ,
भंवरों नहीं भेड़ियों की हैं नज़रें आज सुगंधों पर ||
कर्तव्यों को छोड़ भागना सीख लिया अधिकारों पे,
ध्यान हमारा है अब केवल खुद के लिए प्रबंधों पर ||
आओ-आओ ! बदलो-बदलो ! लौटो अपनी राहों पर,
और न अब विश्वास करो तुम मुर्दों और कबन्धों पर ||

रचनाकार - अभय दीपराज
टीप- कबन्ध - एक एक सिर कटा राक्षस था |

ले लो कंघा (बाल कहानी) !

बहुत समय पहले की बात है I एक बुढ़िया  गाँव के बाहर एक झोपड़ी मे रहती थी I उसके घर के पास ही एक नदी बहती थी,जिससे वह पानी भरती,और झोपड़ी के बाहर ही उसने खाली जगह पर कुछ फल और सब्जियों के पेड़ लगा रखे थे I इन पर आने वाले फलों को गाँव मैं बेचकर वह अपनी जीविका चलाती थी I सुबह रोज गाँव जाने से पहले वह अपना चेहरा नदी में जाकर धोती थी , और पानी में देखकर अपने बाल सँवारती थी क्योंकि उसके पास आइना नहीं था I   

               एक दिन रोज की तरह जब वह नदी किनारे बैठकर अपने बाल ठीक कर रही थी,तो अचानक पानी में,बहुत तेज हलचल हुई और उसमे से एक बहुत बड़े दैत्य ने अपना सर निकाला I बुढ़िया तो उसकी बड़ी बड़ी आँखें और खड़े बाल देखकर डर के मारे थर थर काँपने लगी I दैत्य उसे देखकर बोला-" तुम्हें मुझसे डरने की कोई जरुरत नहीं  है I मैं तो तुमसे केवल यह प्रश्न पूछने आया हूँ  कि तुम रोज इस नदी में अपना चेहरा देखकर क्या करती हो ?

बुढ़िया  डरते हुए बोली-" मैं इस कंघे से अपने बाल ठीक करती हूँ  I मैं बहुत गरीब हूँ  और आईना खरीदने के मेरे पास पैसे नहीं बच पाते है I "

दैत्य आश्चर्य से बोला-" तो क्या इस कंघे से मेरे बाल भी ठीक हो जायेंगे ?"

"हाँ-हाँ,बिलकुल हो जायेंगे I कहते हुए बुढ़िया  ने उसे कंघा पकड़ा दिया I

दैत्य ने भी कंघे से अपने खड़े बालों को संवारा और पानी में अपना चेहरा देखकर खुश हो गया I वह चहकते हुए बोला-"तुम यही रुकना , मैं अभी आया I "

और वह पानी के अन्दर चला गया I कुछ ही देर बाद वह मुट्ठी भर हीरे लेकर आया और बुढ़िया से बोल-" तुम मुझे कंघा दे दो और ये सारे हीरे ले लो I "

बुढ़िया की आँखें हीरों की चमक से चौंधियां गई I

               उसने कभी सपने में इतने हीरों के बारे में नहीं  भी नहीं सोचा था ,ना ही कभी इतने हीरे देखे थे I पर फिर भी हीरे देखने के बाद उसके मन में हीरों के प्रति कोई लालच नहीं था I इसलिए वह सरलता से बोली-"मुझे ये हीरे नहीं चाहिए I तुम ये कंघा यूं ही ले लो I मैं बाज़ार से दूसरा कंघा ले लूंगी I "

               दैत्य उसका भोलापन और ईमानदारी देखकर बहुत खुश हुआ I उसने कहा--"नहीं, यह तो तुम्हें रखने ही पड़ेंगे I इससे तुम अपनी बाकी जिंदगी आराम से गुज़ारना I मुझे जब भी बुलाना हो तो तीन बार "आ जाओ,आ जाओ" कहना , मैं आ जाऊँगा I बुढ़िया  की आँखों में ख़ुशी के आँसूं आ गए I वह हीरे लेकर अपने घर चली गई I बुढ़िया ने कुछ हीरे बेच दिए और आराम से एक बड़े घर में अपने नौकर -चाकरों के साथ रहने लगी I पर उसकी पड़ोसन,जो बहुत चालाक और झगड़ालू थी,उसकी समझ में नहीं आ रहा था कि बुढ़िया अचानक इतने एशो आराम से कैसे रहने लग गई I

               एक दिन जानबूझकर वह फटे-पुराने कपड़े पहनकर उदास चेहरा लेकर बुढ़िया के पास जा पहुंची और बोली-" चाची,हमारा सब कुछ कल रात चोर लूटकर ले गए,अब तुम्ही मुझे कोई  रास्ता बताओ I "

         इतना कहकर वह फूट-फूटकर रोने का अभिनय लगी I

               बुढ़िया बोली-" तुम चाहो तो मेरे साथ आकर रह लो I "

               पर पड़ोसन को तो बुढ़िया के पैसो का पता लगाना था I इसलिए उसने कहा-" नहीं चाची,जैसे तुम्हारे पास इतना धन आया ,अगर तुम हमें बता दो ,तो हम भी वैसे ही मेहनत कर लेंगे I "

               बुढ़िया हँसते हुए बोली-"अरे ,यह तो एक दैत्य की मेहरबानी है I " और यह कहते हुए उसने सारी कहानी पड़ोसन को बता दी I

पड़ोसन ने कहा-" अच्छा चाची,तो मैं अब चलती हूँ I "

               और यह कहकर वह बुढ़िया के घर से अपने घर की तरफ भागी I घर पहुंचकर उसने सारी बातें अपने पति को बता दी I उन दोनों ने आपस में सलाह की और फिर उस औरत ने आँखें नचाते हुए कहा-" जब काकी के पास आईना नहीं था तो दैत्य ने उन्हें इतने सारे हीरे दिए,अगर हमारे पास कंघा भी नहीं होगा तो हमें ज्यादा हीरे मिलेंगे I "

               पति बोला-" हम उसे अपने सारे गहने और पैसे भी दे देंगे ताकि वो हमें ज्यादा हीरे दे I "

और वे दोनों तुरंत तैयार होकर अपने बाल बिखेरकर नदी किनारे गए और सारा दिन नदी में देखकर बाल ठीक करते रहे I.

जब शाम होने लगी तो वे नदी में देखकर तीन बार बोले-" आ जाओ "

यह कहते ही पानी में हलचल हुई और दैत्य बाहर आ गया I

               दैत्य ने पूछा -" तुम लोग कौन हो ?.और इस तरह से पूरे चेहरे पर बाल क्यों बिखराए हो ? "

पत्नी उदास सा चेहरा बनाकर बोली -" चाची ने हमें तुम्हारे बारे में बताया I हमारे पास भी कंघा और आईना नहीं  है I."

यह सुनकर दैत्य कुछ सोचने लगा I.

तभी पति दैत्य को गहनों की पोटली देते हुए बोला- " हम तुम्हें देने के लिए यह उपहार लाये है

दैत्य बोला-" मैं तुम दोनों से बहुत खुश हूँ I पहली बार मुझे किसी ने कोई उपहार दिया है I"

पत्नी आवाज़ को मधुर बनाते हुए बोली- "आपकी जो इच्छा हो वही दे दीजिये I'

दैत्य बोला -" ठीक है, मैं आज तुम दोनों को अपनी सबसे प्रिय वस्तु दूंगा I"

और यह कहकर वो पानी के अन्दर चला गया I

दोनों पति पत्नी ख़ुशी से नाचने लगे I

पति बोला-" लगता हैं हमारे लिए कोई मूल्यवान वस्तु लाने गया है I"

पत्नी उत्साहपूर्वक बोली-"हाँ,अब तो हम राजा से भी अमीर हो जायेंगे I"

तभी दैत्य पानी से बाहर आया और बोला-" अब तुम दोनों अपनी आँखें बंद करके हाथ आगे करो I."

दोनों ने झटपट अपनी आँखें बंद करके दोनों हाथ फैला दिए I

दैत्य बोल-" दोस्तों,अब मैं यहाँ से हमेशा के लिये जा रहा हूँ I

इसके बाद जैसे ही उन दोनों ने अपनी आखें खोली तो उनके हाथ में चाची का वही पुराना कंघा था I

दोनों वहीँ बैठकर दुःख के मारे फूट फूट कर रोने लगे I ज्यादा धन कमाने के लालच में जो कुछ भी उनके पास था,उससे भी हाथ धो बैठे I लालच नहीं करने का सबक पाकर वे मेहनत  मजदूरी करके अपना जीवन यापन करने लगे I


-डॉ. मंजरी शुक्ला

देखो वो जगाकर सो गई !


ज़िन्दगी के साथ मौत रो रही है 
भाई के साथ हर बहन रो रही है
भगत सिंह तुम्हारा भारत बदल गया
सत्ता के हांथों फिर कतल हुआ
एक बेटी को जीते जी मार डाला
मतलबी सत्ता का दाल गला डाला
हर शहर हुआ अब जलियावाला
देश जला रहा खुद ही रखवाला
मौत हर अब करती सबका पीछा
पहले तो ऐसा ना भारत दिखा
इज्जत की बात नहीं है
बेशर्मी की हर हद तो देखो
जो चला गया वो पूजा जाये
जो जिन्दा रहा वो मारा जाये !!

भारत एक छोटा सा बच्चा है
बस एक झुनझुना चाहिए
सत्ता चलने के लिए नेताओं को,
फिर एक मासूम खिलौना चाहिए
माँ भारती माँ भारती माँ भारती ,
तुझे समर्पित शहीद दामिनी की
चीख पुकार भरी पावन आरती !!

ओ माँ ! तू शेर जननी है
 हम तेरे आँचल की शान बढ़ाएंगे
विश्व गुरु फिर भारत को बनायेंगे
मात्री शक्ति भारत में नारीत्व जगायेंगे
फिर हम भी एक दिन सो जायेंगे
मौत की रात में हम खो जायेंगे
तमाशाई दुनिया तमाशा बनायेंगे
कुछ स्नेह की प्रीत गुनगुनायंगे
 कुछ भारत के गीत बन जायंगे
पर आज ज़िन्दगी की रीत टूटी है
अब भारत से किस्मत रूठी है
 बिश्मिल तुम फिर वापस आओ
भारत के रावनो से यह देश बचाओ !!

तुम्हारी बहनों की आन दावं पर
भारत बिक रहा देखो थोक भाव पर
तुम्हे भारत की माटी की कसम ,
फिर मोहन का वृन्दावन लायेंगे
राम राज्य की अयोध्या सजायेंगे
फिर कोई ज़िन्दगी न जुदा होगी
अपनी इज्जत की माटी से !!

देखो वो जगाकर सो गई
फिर यह शोर शराबा कैसा है
मीलों लम्बी ख़ामोशी है
इज्जत अब बर्बाद हुई है
दामिनी संग तेरी भारत माँ
आज फूंट फूंट कर रो रही हैं

यह कविता क्यों ? दर्द भरे आंसुओं में भींगी हुयी लेखनी से सत्ता की आंच पर तड़प रही शहीद दामिनी को समर्पित उसकी अपनी माटी भारत से !वन्देमातरम .अरविन्द योगी

नववर्ष तुम्हारा अभिनंदन।

नूतन भाव की सौरभ से सुरभित हो अन्तर्मन उपवन।
शुभागमन हो मंगलमय, नववर्ष तुम्हारा अभिनंदन।
घन विषाद के घटे, मिटे अवसाद, कष्ट किंचित न रहे।
हर्ष और आह्लाद से मानस कोई भी वंचित न रहे।
नव आयामी हो आशाएँ नभ छूती अभिलाषा हो।
सृष्टि में साकार स्वयं सुख की सच्ची परिभाषा हो।
किलकारी में परिवर्तित हो कहीं नहीं गूंजें क्रन्दन।
शुभागमन हो मंगलमय, नववर्ष तुम्हारा अभिनंदन।
विश्वगुरु की पदवी पाकर गर्वित फिर हो भारतवर्ष
सोने की चिड़िया बनकर फिर छू ले उन्नति का उत्कर्ष।
पूरब फिर से पाठ पढ़ाए, पश्चिम झुककर नमन करें।
सकल सृष्टि की शंकाओं का हिन्द सभ्यता शमन करें।
नवल रूप में प्राप्त करें हम पुनः पुरातन वो वन्दन।
शुभागमन हो मंगलमय, नववर्ष तुम्हारा अभिनंदन।
सकल विश्व हो गेह नेह का, स्वरित ध्वनित सुर सरगम हो।
धरती से नभ तक लहराता प्रेम भाव का परचम हो।
हो विनष्ट पथभ्रष्ट प्रवृत्ति, संचारित संस्कार रहें।
मानव मन में मानवता की सदा सदा जयकार रहें।
नहीं अपेक्षा अधिक और कुछ, यहीं अपेक्षित परिवर्तन।
शुभागमन हो मंगलमय, नववर्ष तुम्हारा अभिनंदन।
- मंजरी शुक्ला

गीत मेरे !

गीत मैंने लिख दिया -
देगा तुझे सुर कौन - अब
मैं सोचता हूँ - गीत मेरे .

सुर तुम्हारे - मीत मेरे
गूंज जाए - दूर तक
ऐसे सदा में -
सुन चितेरे गीत मेरे .

फिर लगेंगे - दूर तक
अपने ये फेरे - गीत मेरे
चल सुना दे भाव - भक्ति
निबल बाहों में भरी
अकूत शक्ति - गीत मेरे .

चल अचल - नभ
और सागर - थल .
हर जगह - लग जाएँ
तेरे जैसे डेरे - गीत मेरे .

मैं डरा हूँ - विप्लवों की
तान से - और तेरे
मान से सम्मान से - सुन
गीत मेरे .

अब नहीं चिंता - की
कोई तान छेड़े - गान छेड़े
या विवशता में गुनगुनाये -
गीत मेरे .

जुगनुओं की चमक से
खुद को जलाए - साथ
ना दे या की - तेरे
साथ आये - गीत मेरे !
- सतीश शर्मा

अगले जन्म मुझे बिटिया न देना !

मां बहुत दर्द देकर बहुत दर्द सहकर तुझसे कुछ कहकर मैं जा रही हूं
आज मेरी विदाई में सब सखिया आएंगी
सफ़ेद जोड़े में लिपटी देख, सिसक-सिसक मर जाएंगीं
लड़की होने का वो खुद पर अफ़सोस जताएंगी
मां तू उनसे इतना कह देना, 
दरिंदों की दुनिया में संभलकर रहना
मां राखी पर जब भैया की कलाई सुनी रह जाएगी
याद मुझे कर जब-जब उनकी आंख भर आएगी
तिलक माथे पर करने को रूह मेरी भी मचल जाएगी
मां तू भैया को रोने मत देना
मैं हर पल उनके साथ हूं कह देना
मां पापा भी छुप-छुप बहुत रोएंगे, 
मैं कुछ न कर पाया कह खुद को कोसेंगे
मां दर्द उन्हें ये होने न देना वो अभिमान हैं मेरा, 
सम्मान हैं मेरा तू उनसे इतना कह देना
मां तेरे लिए अब क्या कहूं दर्द को तेरे शब्दों में कैसे बांधू, 
फिर से जीना का मौका कैसे मांगू
मां लोग तुझे सताएंगे
मुझको आजादी देने का इल्जाम लगाएंगे
मां सब सह लेना, पर ये न कहना
"अगले जन्म मुझे बिटिया न देना"
- विजय पाण्डेय 

आगंतुक का - स्वागत हो !

इतना सुन्दर भी नहीं था
की जाने का शोक होता .
इतना बुरा भी नहीं था की -
चला जाता तो अच्छा था.

जैसा भी था मेरा कल
जो अब नहीं है .
आज मैं जी रहा हूँ - जैसा भी है
ये नया कल - अभी आया नहीं है
जाने कैसा होगा -कौन जाने .

पर - आशाएं अभी से
हम क्यों छोड़ें .
अपना आशावादी -
दृष्टिकोण आखिर क्यों तोड़ें .

आगंतुक का - स्वागत हो
आरती का थाल सजाने दे .
वो अपने साथ - ख़ुशी या गम
ज्यादा या कम - जो भी
ला रहा है - उसे लाने दे !
- सतीश शर्मा

Monday, December 24, 2012

पहले इंसान बनाया जाए !

सारी दुनिया में - धर्म कुछ ऐसा चलाया जाए .
बाकी सब छोडिये -पहले इंसान बनाया जाए .

रफ्ता रफ्ता टुकड़ों में बंट गया आइना-ए-इन्सां
कांच की किरंचों को - होशियारी से उठाया जाए .

टूटते जुड़ते - बिखर जाते हैं जाने क्यों लोग .
भला किस शय से अब इनको मिलाया जाए .

बड़ा बेगाना सा लगता है - इंडिया-ओ -हिन्दुस्तां यारो
आने वाले हरेक मेहमाँ को-अब भारत से मिलाया जाए !
- सतीश शर्मा

और हम खड़े-खड़े बहार देखते रहे।

स्वप्न झरे फूल से,मीत चुभे शूल से,
लुट गए सिंगार सभी बाग के बबूल से,
और हम खड़े-खड़े बहार देखते रहे।
कारवाँ गुज़र गया, गुबार देखते रहे!
नींद भी खुली न थी कि हाय धूप ढल गई,
पाँव जब तलक उठें कि ज़िन्दगी फिसल गई,
पात-पात झर गए कि शाख़-शाख़ जल गई,
चाह तो निकल सकी न, पर उमर निकल गई,
गीत अश्क बन गए,छंद हो दफन गए,
साथ के सभी दिए धुआँ-धुआँ पहन गए,
और हम झुके-झुके,मोड़ पर रुके-रुके,
उम्र के चढ़ाव का उतार देखते रहे।
कारवाँ गुज़र गया, गुबार देखते रहे।
क्या शाबाब था कि फूल-फूल प्यार कर उठा,
क्या सुरूप था कि देख आइना सिहर उठा,
इस तरफ़ ज़मीन और आसमाँ उधर उठा
थाम कर जिगर उठा कि जो मिला नज़र उठा,
एक दिन मगर यहाँ,ऐसी कुछ हवा चली,
लुट गई कली-कली कि घुट गई गली-गली,
और हम लुटे-लुटे,वक़्त से पिटे-पिटे,
साँस की शराब का खुमार देखते रहे।
कारवाँ गुजर गया, गुबार देखते रहे।
हाथ थे मिले कि जुल्फ चाँद की सँवार दूँ,
होंठ थे खुले कि हर बहार को पुकार दूँ,
दर्द था दिया गया कि हर दुखी को प्यार दूँ,
और साँस यों कि स्वर्ग भूमि पर उतार दूँ,
हो सका न कुछ मगर,शाम बन गई सहर,
वह उठी लहर कि दह गए किले बिखर-बिखर,
और हम डरे-डरे,नीर नयन में भरे,
ओढ़कर कफ़न, पड़े मज़ार देखते रहे।
कारवाँ गुज़र गया, गुबार देखते रहे!
माँग भर चली कि एक, जब नई-नई किरन,
ढोलकें धुमुक उठीं, ठुमुक उठे चरन-चरन,
शोर मच गया कि लो चली दुल्हन, चली दुल्हन,
गाँव सब उमड़ पड़ा, बहक उठे नयन-नयन,
पर तभी ज़हर भरी,गाज एक वह गिरी,
पोंछ गया सिंदूर तार-तार हुईं चूनरी,
और हम अजान-से,दूर के मकान से,
पालकी लिए हुए कहार देखते रहे।
कारवाँ गुज़र गया, गुबार देखते रहे।
.......... गोपाल दास नीरज

Tuesday, December 18, 2012

कैसे हुई रबड़ की खोज....?

अमेरिका में रबड़ सबसे ज्यादा पाई जाती है क्योंकि रबड़ की जन्मभूमि ही अमेरिका है। बावजूद इसके पैंसिल के निशान मिटाने के लिए सबसे पहले रबड़ लंदन और पैरिस में बिकता था अगर इसके इतिहास पर नजर डालें तो विलक्षण तथ्य पता चलते हैं। प्राचीन समय में रबड़ जंगली पेड़ों से खुद-ब-खुद प्राप्त होता था लेकिन इसकी बढ़ती मांग और खपत के कारण इसकी उपज होने लगी। इस सिलसिले में और भी ऐसे पेड़ों की तलाश होने लगी। अमेरिका के मूल निवासी ग्यारहवीं सदी से पहले ही इसके गुणों को जानते थे।

उस जमाने की बनी रबड़ की वस्तुएं आज भी उपलब्ध हैं। सन् 1493 में कोलम्बस ने अपनी हेती यात्रा दौरान यह वर्णन किया था कि वहां के आदिवासी पेड़ से प्राप्त गोंद से बनी गेंद से खेलते थे। फ्रांस के खगोल शास्त्रियों ने सन् 1735 में दक्षिणी अमेरिका में देखा था कि विशेष प्रकार के पेड़ से गोंद जैसा रस प्राप्त होता है जो कुदरती रूप में रंगहीन होता है लेकिन गर्म करने पर या धूप में रखने से ठोस रूप धारण कर लेता है। वहां के आदिवासी उस समय इस रबड़ का उपयोग जूते और बोतलें बनाने के लिए करते थे। फ्रांस के यात्री इस पदार्थ (रबड़) को साथ ले गए और खोज करते रहे। एशिया में भी यह रबड़ पेड़ों से उत्पन्न होती थी। ये लोग रबड़ के बर्तन या गेंदें बनाते थे। यूरोपीय लोगों को अमेरिका से ही रबड़ के बारे में जानकारी मिली थी। अमेरिका में इसकी पैदावार सबसे अधिक है। अच्छी और उत्तम किस्म की रबड़ दक्षिणी अमेरिका में अमेजन के जंगलों में ‘हीबीया’ नामक पेड़ से प्राप्त होती है। अमेरिका निवासी चाल्र्स गुडईयर ने सन् 1831 में रबड़ के उपयोग से संबंधित शोध में काफी मेहनत की थी। उसने अपना पूरा जीवन इस क्षेत्र में खोजों के लिए ही गुजार दिया।

उसने रबड़ की दूसरे पदार्थों के साथ प्रतिक्रिया का अध्ययन किया। रबड़ गर्मी में पिघल जाती है सो इसकी स्थिरता को कायम रखने के लिए उसने इसमें  तेल, साबुन, चीनी, नमक आदि मिलाकर प्रयोग किए। उसने काफी कोशिशों के बाद स्थिर रहने वाली रबड़ तैयार कर ली। फिर उसने इसकी वस्तुएं बनानी शुरू कर दीं लेकिन गॢमयों के मौसम में उन वस्तुओं से बदबू आने लगती और ये चिपकने लगतीं। सो उससे तैयार किए बर्तन और जूते बिकने बंद हो गए। उसकी मशीनें बंद हो गईं। यहां तक कि उसे लोगों से अपनी जान बचानी कठिन हो गई। गुडईयर को बहुत कष्ट सहने पड़े। उसे इतना बुरा समय देखना पड़ा कि उसे अपने परिवार का पेट पालना कठिन हो गया लेकिन वह बुरे वक्त में भी प्रयोग करता रहा। रबड़ के प्रचार के लिए उसने कई ढंगों का प्रयोग किया। एक बार तो उसने रबड़ की चादर से अपना शरीर ढंक लिया। उसकी पहचान यह थी कि जिस शख्स ने रबड़ का कोट, बूट और टोपी पहनी हो, जिसकी जेब में रबड़ का पर्स हो, पर पर्स में एक भी सिक्का न हो तो समझो वह गुडईयर ही है। गुडईयर दिन-रात रबड़ के साथ प्रयोग करता रहता था।

एक दिन रबड़ एवं गंधक का मिश्रण गुडईयर अपने दोस्तों को दिखा रहा था कि अचानक वह मिश्रण हाथ से गिर कर जलते स्टोव की आंच पर गिर गया। नमूना आग से बाहर निकाला तो वह हैरान रह गया कि वह बिल्कुल भी चिपकता नहीं था। उसने परिणाम निकाला कि कुदरती रबड़ को गंधक के साथ मिलाकर उसे खास तापमान पर गर्म करके, फिर उसे ठंडा कर लिया जाए, इस प्रकार रबड़ की उत्तम किस्म पैदा की जा सकती है। यही क्रिया बाद में विज्ञान की भाषा में ‘वल्केनाइङ्क्षजग’ नाम से प्रसिद्ध हुई। फिर गुडईयर ने इस सफल रबड़ से अनेकों वस्तुओं का निर्माण किया, जिनकी कोई शिकायत नहीं थी। गुडईयर  की लगातार मेहनत से रबड़ का सुंदर रूप आज हमारे सामने है। रबड़ हेतु  उसके महान योगदान के कारण एक बड़ी टायर निर्माता कम्पनी का नाम गुडईयर के नाम से प्रसिद्ध है। रबड़ की वस्तुएं अमेरिका में इतनी प्रसिद्ध हुईं कि दूसरे देशों ने भी इसके उत्पादन के बारे में सोचना शुरू कर दिया। उधर ब्राजील ने रबड़ के वृक्षों के बीज पर प्रतिबंध लगा दिया।

इंगलैंड ने भी बहुत कोशिश की कि रबड़ के पेड़ों के बीज प्राप्त हो सकें लेकिन उसके हाथ असफलता ही लगती रही। फिर एक अंग्रेज ‘हैनर विकहेम’ सन् 1876 में हीबीया पेड़ के बीज चोरी छिपे इंगलैंड ले जाने में सफल हो गया। लंदन के क्यू बाग में उसने 70 हजार बीच बोए। उनमें से लगभग तीन हजार पौधे उगे, फिर ये पौधे दूसरे देशों को दिए गए। भारत में बेशक रबड़ के पेड़ आदिकाल से उपलब्ध हैं लेकिन व्यापारिक दृष्टि से उस समय भारत ने इनका इतना महत्व नहीं समझा। भारत में रबड़ का उत्पादन आजादी से कुछ समय पहले ही शुरू हुआ है लेकिन आज भारत रबड़ के क्षेत्र में महत्वपूर्ण स्थान रखता है। रबड़ के मुख्य स्रोत पेड़ हैं। अब तक लगभग 500 ऐसे पेड़ों का पता लगाया जा चुका है जिनसे निकलते ‘लेटैक्स’ नामक द्रव्य से रबड़ बन सकता है। ‘हीबीया’ नामक पेड़ से सबसे ज्यादा रबड़ प्राप्त होता है। ‘हीबीया’ किस्म के पेड़ दक्षिणी भारत के पहाड़ी क्षेत्रों में उगाए जा चुके हैं जिससे लाखों टन रबड़ प्राप्त होती है। माइकल फैराडे ने रबड़ को एक यौगिक कहा है। रबड़ आज हरेक क्षेत्र में प्रधान है। इसके प्रायोगिक कार्य आज भी जारी हैं। वैज्ञानिक ‘पील’ ने सबसे पहले तारपीन के घोल में रबड़ घोली और इसके लेप को कपड़ों पर फेरा। इस प्रकार वाटरप्रूफ कपड़ा तैयार किया गया। फिर रबड़ के घरेलू उपकरण बनाए जाने लगे।

- सौ० पंजाब केसरी

काव्य संग्रह ‘निशीथ’ का विमोचन !

इलाहाबाद। गुफ्तगू पब्लिकेशन द्वारा प्रकाशित डा. नन्दा शुक्ला के काव्य संग्रह ‘निशीथ’ का विमोचन 20 दिसंबर को सायं 4:30 बजे हिन्दुस्तानी एकेडेमी के सभागार में होगा। कार्यक्रम की अध्यक्षता मशहूर इतिहासकार एवं साहित्यकार प्रो. लाल बहादुर वर्मा करेंगे, जबकि मुख्य अतिथि इलाहाबाद हाईकोर्ट के न्यायमूर्ति रवीन्द्र सिंह होंगे। विशिष्ट अतिथि के रूप में वरिष्ठ पत्रकार मुनेश्वर मिश्र और हिन्दुस्तानी एकेडेमी के कोषाध्यक्ष रविनंदन सिंह मौजूद रहेंगे। संचालन इम्तियाज़ अहमद ग़ाज़ी करेंगे। इस अवसर पर अशोक कुमार स्नेही, यश मालवीय, तलब जौनपुरी, अखिलेश द्विवेदी, नायाब बलियावी, अजीत शर्मा ‘आकाश’,रमेश नाचीज़, विमल वर्मा, शैलेंद्र जय, शाहिद अली शाहिद और अजय कुमार काव्य पाठ करेंगे।

हसरतें !

सुनो
मुझ पर उँगलियाँ उठाने से पहले ,

अपनी शराफत मे कुछ रौशनी घोलो और नमी भी
फिर अपने हिस्से की शाइस्तगी तुम रखो
मेरे हिस्से की सियाही मै रखती हूँ ,

जिस्म धागों मे बंधा कोई धर्मग्रंथ नहीं होता
प्रकृति को जीना कोई त्रासदी नहीं होती
और हसरतें एक उम्र के बाद भी हसरतें ही होती हैं ,

रगों मे उगी धूप किसी साये की तलाश मे है
जिस तरह समंदर को थामना कभी मुमकिन नहीं होता
वैसे ही जिस्म छीली हुई ख़्वाहिशों की कब्रगाह नहीं होती ,

तकलीफ अब लहू मे सुलगने सी लगी है
हमनफ़ज मेरे !!!

 - अर्चना राज

!! विमोचन !!

सुपरिचित लेखिका एवं गुरुकुल कांगडी विश्वविद्यालय, हरिद्वार की अध्यापिका डॉ. मृदुला जोशी की आलोचनात्मक कृति 'कविता की अंतर्यात्रा' हाल ही में प्रगतिशील प्रकाशन, दिल्ली से छप कर आयी है । कृति में कबीर, प्रसाद, दिनकर, नागार्जुन, अज्ञेय, धर्मवीर भारती, डॉ. जगदीश गुप्त को नये दृष्टिकोण से देखा-परखा गया है । साध ही समकालीन हिंदी कविता पर गंभीर विश्लेषण भी पठनीय है । इस कृति का विमोचन 12 से 19 तक यूएई में होनेवाले 6 ठा अंतरराष्ट्रीय हिंदी सम्मेलन में होना सुनिश्चित हुआ है । कृतिकार को बधाई ।

Monday, December 17, 2012

मेरी बेटी ससुराल जाने लग गई !


एक लडकी ससुराल चली गई,
कल की लडकी आज बहु बन गई.

कल तक मौज करती लडकी,
अब ससुराल की सेवा करती बन गई.


कल तक तो ड्रेस और जीन्स पहनती लडकी,
आज साडी पहनती सीख गई.

पियर मेँ जैसे बहती नदी,
आज ससुराल की नीर बन गई.

रोज मजे से पैसे खर्च करती लडकी,
आज साग-सब्जी का भाव करना सीख गई.

कल तक FULL SPEED स्कुटी चलाती लडकी,
आज BIKE के पीछे बैठना सीख गई.

कल तक तो तीन टाईम फुल खाना खाती लडकी,
आज ससुराल मेँ तीन टाईम का खाना बनाना सीख गई.

हमेशा जिद करती लडकी,
आज पति को पुछना सीख गई.

कल तक तो मम्मी से काम करवाती लडकी,
आज सासुमा के काम करना सीख गई.

कल तक तो भाई-बहन के साथ झगडा करती लडकी,
आज ननंद का मान करना सीख गई.

कल तक तो भाभी के साथ मजाक करती लडकी,
आज जेठानी का आदर करना सीख गई.

पिता की आँख का पानी,
ससुर के ग्लास का पानी बन गई.

फिर भी लोग कहते मेरी बेटी ससुराल जाने लग गई !

- सतीश शर्मा

Tuesday, December 11, 2012

एक फकीर !

पीपल, बरगद, महुआ, नीम,
धीमर, छिप्पी, टौंक, हकीम,
पंडित, ठाकुर, राम, रहीम,

कैसे सबकी बदल गई है देखो तो तकदीर,
गांव गांव में छांव ढूंढता फिरता एक फकीर.

रामू पंडित, भोला धोबी,
दल्लू धीमर, कालू छिप्पी
बलबीरे ठाकुर की खोली
वो बदलू कुम्हार की बोली
जात बताते नाम नहीं ये
व्यक्ति की पहचान बने थे
अब से पहले कभी नही यूं
जात के नाम पे लोग तने थे
कुछ पढे लिखे पैसे वालों ने रची नई तहरीर
गांव गांव में छांव ढूंढता फिरता एक फकीर.

अपनी किस्मत, अपना हिस्सा,
सबका अपना अपना किस्सा,
कोई बडी जमीं का मालिक
कोई बोये बिस्सा बिस्सा,
खेत किसी के किसी की मेहनत
फसलें सब साझी होती थीं
सारे गांव की जनता मिलकर
खेतों में फसलें बोती थीं
ऊंच नीच, बडके छोटे की खिंच गई एक लकीर
गांव गांव में छांव ढूंढता फिरता एक फकीर.

पाठशालाओं के रस्ते अब,
कालेज पहुंच रहे हैं गांव.
सभ्य होने की इस कोशिश में
सभ्यता की डूबी नांव
अफसर, मालिक और अमीर,
बनते देखें गांव के लोग.
धीरे धीरे से हमने अब,
छंटते देखे गांव के लोग
आपसदारी और प्रेम की टूट गई तस्वीर
गांव गांव में छांव ढूंढता फिरता एक फकीर !

- राजीव यादव

विमोचन !

इलाहाबाद। कवयित्री डॉ. नन्दा शुक्ला की कवितायें जीवंत हैं, उन्होंने अपने आप-पास के परिदृश्य को जिस रूप में देखा है उसी रूप में रेखांकित कर दिया है, समाज को आईना दिखाने का भूरपूर प्रयास किया है। इस हिसाब से इनकी कवितायें बेहद महत्वपूर्ण हैं, हमें ऐसे लोगों के साहित्य आने का स्वागत करना चाहिए। गुफ्तगू पब्लिकेशन ने इनकी कवितायें प्रकाशित करके एक अच्छा संदेश दिया है। यह बात प्रसिद्ध साहित्यकार अजामिल ने डॉ. नन्दा शुक्ला के काव्य संग्रह ‘नेह निर्झर’ के विमोचन अवसर पर कही। गुफ्तगू द्वारा रविवार को महात्मा गांधी अंतरराश्टीय विश्वविद्याल के क्षेत्रीय सभागार में विमोचन समारोह का आयोजन किया गया, जिसमें श्री अजामिल मुख्य अतिथि के रूप में मौजूद थे। कार्यक्रम का संचालन इम्तियाज़ अहमद ग़ाज़ी ने किया। मेयर अभिलाशा गुप्ता ने कहा कि साहित्य जगत में एक और महिला आना बेहद सुखद संदेश है, उन्होंने कहाकि महिलायें समाज के प्रति अधिक संवेदनशील होती हैं, और यह संवेदनशीलता नंदा शुक्ला की कविताओं में स्पश्ट रूप स दिख रहा है। डॉ. ने अपने वक्तव्य में काव्य सृजन के शुरूआती दिनों की बात की और अपनी प्रतिनिधि कवितायें सुनाईं।

कार्यक्रम की अध्यक्षता कर रहे वरिश्ठ शायर इक़बाल दानिश ने कहा कि पुलिस विभाग में दारोगा के पद पर कार्यरत सुश्री शुक्ला ने बहुत अच्छी कविताओं का सृजन किया है, हमें ऐसी कविताओं का तहेदिल से स्वागत करना चाहिए। हां एक बात जरूर है कि उन्हें छंदबद्ध कविताओं का भी सृजन करना चाहिए। कार्यक्रम के संयोजक शिवपूजन सिंह ने लोगों का स्वागत करते हुए कहा कि साहित्य के बरगद के नीचे बहुत से कोंपलें पल्लवित होती हैं उम्मीद है कि डा नन्दा की काव्य रचना भी उसी तरह से पल्लवित होगी। सह संयोजक वीनस केसरी ने बताया विमोचन समारोह में हर बार कुछ चुए लोगों कवियों-शायरों से ही काव्य पाठ कराया जाएगा। कार्यक्रम के दूसरे दौर में एहतराम इस्लाम, अख़्तर अज़ीज़, रीतंधरा मिश्रा, स्नेहा पांडेय, डा. मोनिका नामदेव और अनुराग अनुभव ने काव्य पाठ किया। इस अवसर पर शैलेंद्र जय, रमेश नाचीज,तलब जौनपुरी,विपीन श्रीवास्तव,शुभ्रांशु पांडेय,सुशील द्विवेदी, राजेश कुमार, शाहनवाज आलम, हुमा अक्सीर, शादमा बानो, शाहिद इलाहाबादी, विवके सत्यांशु, राजेन्द्र कुमार सिंह, सौरभ पांडेय, जयकृश्ण राय तुशार,  दिव्या सिंह, वंदना कुशवाहा आदि प्रमुख रूप से मौजूद थे। अंत में कार्यक्रम के संयोजक शिवपूजन सिंह ने सबके प्रति आभार व्यक्त किया।

कलम क्यूं बेबाक हो जाती है ?

























ये कलम भी न मानती ही नहीं
भी कभी बेबाक बोल देती है
जानती है इसे पता है ये आभासी दुनिया है

यहाँ कभी कभी तो इंसान की पहचान ही संदिग्ध होती है
क्या बुरा मानना क्यूं दुखी होना
illusion - world --मतलब ही यही होता है
कुछ भी बोल दो
ये तो दस्तूर है यहाँ का
पर बेचारी कलम क्या जाने उसे नहीं आती हिप्पोक्रेसी
वो बोली मुझे क्या पता
मुझे तो लगा ये सपनों की दुनिया है
यहाँ मै आराम से चल सकती हूं
और तुम्हारी जो वाल है
वो डायरी है तुम्हारी 
सफे दर सफे सैर करना ह्क़ है मेरा
फिर भडक कर बोली कलम मुझसे
क्या करना है तुम्हें
मेरा जो दिल करेगा
लिखूंगी कभी तुम्हारे दिल की बात
तो कभी आसपास की हलचल
क्यों परेशान हो
 
तुम लेखक कवि
या साहित्यकार नहीं हो तो क्या
कलम हूं मै तुम्हारी
जब तक मेरी तुम्हारी निभेगी
मै तुम्हारी डायरी पर चलती रहूंगी
हाँ ये बात और है थोड़ी बेबाक हूं मै
लिख देती हूं
पर किसी का अपमान तो नहीं करती
अपनी ही वाल पर चलती हूं न
अपने सफे पर सैर करना कोई गुनाह है क्या
चलो छोडो जाने दो
क्या सोचना इस पर
कुछ तो लोग कहेंगे
लोगो का काम है कहना !

- दिव्या शुक्ला

Wednesday, December 5, 2012

जय श्री श्याम !

सेठ कहे तुझे सेठ साँवरा,दिन कहे तुझे दीनानाथ
तुम्हीं बताओ सेठ साँवरा,हो या तुम दीनों के नाथ

सेठ भरे तेरी हाजरी,करते हैं तेरा मनुवार
दीन करे तेरी चाकरी,आते दर पर ले परिवार

एक भरोसा तेरा मुझको, लाज मेरी है तेरे हाथ
तुम्हीं बताओ सेठ साँवरा,हो या तुम दीनों के नाथ

सेठ कहे तुझे सेठ साँवरा,दिन कहे तुझे दीनानाथ
तुम्हीं बताओ सेठ साँवरा,हो या तुम दीनों के नाथ

मैं जो तुझे बुलाना चाहूँ.,घर आँगन में मेरे श्याम
सोच-सोच कर मैं शरमाऊं,कहाँ बिठाऊंगा तुझे श्याम
नहीं बिछाने को है चादर, नहीं है सर पर मेरे छात
तुम्हीं बताओ सेठ साँवरा,हो या तुम दीनों के नाथ

सेठ कहे तुझे सेठ साँवरा,दिन कहे तुझे दीनानाथ
तुम्हीं बताओ सेठ साँवरा,हो या तुम दीनों के नाथ

सुदामा के तन्दुल भाये, झूठे बैर शबरी के खाये.....
दुर्योधन का महल त्याग कर,विदुराईन के घर तुम आये
कब आओगे घर तुम मेरे,टीकम' से करने तुम बात
तुम्हीं बताओ सेठ साँवरा,हो या तुम दीनों के नाथ

सेठ कहे तुझे सेठ साँवरा,दिन कहे तुझे दीनानाथ
तुम्हीं बताओ सेठ साँवर,हो या तुम दीनों के नाथ

Tuesday, December 4, 2012

नारी !

जीवन की आपा धापी में ,
अपना ही जीवन जीना भूल गयी |
कभी बेटी,बहन कभी पत्नी ,माँ बन जिया ,
अपने ही जीवन को तूल देना भूल गयी |
जीवन में अपनी कोई कद्र नहीं ,
समाज कहता है हम नहीं स्वतन्त्र कभी |
वसूलों की जंजीरों में जकड़ी ,
जीवन यापन मैं कर रही |
खुशियाँ सारी दूजो पर लुटा ,
गम को अपने सीने से लगा |
खामियों को अपने सर-माथे पर सजा ,
सुखों का दे दूजों को मजा ,
जीवन यापन ही कर रही ,
जीवन के झंझावतों को सह चुप ही रह रही |
         

 ||सविता मिश्रा||

थोडा करीब तो आओ !

आधी रात बीत चुकी थोडा करीब तो आओ
लेकर आगोश में अपनें कुछ तो तरस खाओ


मौसम तो आयेंगे और आकर जाते ही रहेंगे
हम एक दूजे से रुठते और मनाते ही रहेंगे


आज शबनमी बूँदे फूलो को तरस रहे हैं

ऋतु है जवाँ आज और उमंगे बरस रहे हैं


" दीश " के उलझन को कुछ तो सुलझाओ

आधी रात बीत चुकी थोडा करीब तो आओ


लेकर आगोश में अपनें कुछ तो तरस खाओ


.....संकलन ॥ मेरी कविता ॥

  - जगदीश पांडेय " दीश "