Monday, December 31, 2012

लौटो अपनी राहों पर !

लाश उठाये हैं हम मुर्दा संविधान की कन्धों पर |
शासन की है ज़िम्मेदारी गूंगों, बहरों, अंधों पर ||
लेकर जिसकी आड़ ताज पर डाका डाला चोरों ने,
श्रद्धा और उम्मीद हमारी है ऐसे अनुबंधों पर ||
अपनी नस्ल बदलके हमने ये स्वभाव है ओढ़ लिया,
बनकर के गलीच इतराते फिरते हैं दुर्गंधों पर ||
जिस्म लिए हम इंसानों का पशु से नीचे उतर गए,
शर्म नहीं है हमको अपने ऐसे गोरखधंधों पर ||
गाली देते धर्म - न्याय को हम विकास के दावों में,
सिद्धांतों की जगह तर्क के कब्ज़े हैं प्रतिबंधों पर ||
जिनके खुद के चाल - चलन हैं अपराधों से सने हुए,
वे समाज को भाषण देते नैतिक - नीति निबंधों पर ||
गौरव-मान नहीं हैं अब गुण, हैं अब विष के प्याले ये,
जान - प्राण लुटते हिरणों के कस्तूरी की गंधों पर ||
सुन्दरता अभिशाप आज है, संकट सी कोमल काया ,
भंवरों नहीं भेड़ियों की हैं नज़रें आज सुगंधों पर ||
कर्तव्यों को छोड़ भागना सीख लिया अधिकारों पे,
ध्यान हमारा है अब केवल खुद के लिए प्रबंधों पर ||
आओ-आओ ! बदलो-बदलो ! लौटो अपनी राहों पर,
और न अब विश्वास करो तुम मुर्दों और कबन्धों पर ||

रचनाकार - अभय दीपराज
टीप- कबन्ध - एक एक सिर कटा राक्षस था |

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