Tuesday, December 11, 2012

एक फकीर !

पीपल, बरगद, महुआ, नीम,
धीमर, छिप्पी, टौंक, हकीम,
पंडित, ठाकुर, राम, रहीम,

कैसे सबकी बदल गई है देखो तो तकदीर,
गांव गांव में छांव ढूंढता फिरता एक फकीर.

रामू पंडित, भोला धोबी,
दल्लू धीमर, कालू छिप्पी
बलबीरे ठाकुर की खोली
वो बदलू कुम्हार की बोली
जात बताते नाम नहीं ये
व्यक्ति की पहचान बने थे
अब से पहले कभी नही यूं
जात के नाम पे लोग तने थे
कुछ पढे लिखे पैसे वालों ने रची नई तहरीर
गांव गांव में छांव ढूंढता फिरता एक फकीर.

अपनी किस्मत, अपना हिस्सा,
सबका अपना अपना किस्सा,
कोई बडी जमीं का मालिक
कोई बोये बिस्सा बिस्सा,
खेत किसी के किसी की मेहनत
फसलें सब साझी होती थीं
सारे गांव की जनता मिलकर
खेतों में फसलें बोती थीं
ऊंच नीच, बडके छोटे की खिंच गई एक लकीर
गांव गांव में छांव ढूंढता फिरता एक फकीर.

पाठशालाओं के रस्ते अब,
कालेज पहुंच रहे हैं गांव.
सभ्य होने की इस कोशिश में
सभ्यता की डूबी नांव
अफसर, मालिक और अमीर,
बनते देखें गांव के लोग.
धीरे धीरे से हमने अब,
छंटते देखे गांव के लोग
आपसदारी और प्रेम की टूट गई तस्वीर
गांव गांव में छांव ढूंढता फिरता एक फकीर !

- राजीव यादव

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