Tuesday, December 18, 2012

कैसे हुई रबड़ की खोज....?

अमेरिका में रबड़ सबसे ज्यादा पाई जाती है क्योंकि रबड़ की जन्मभूमि ही अमेरिका है। बावजूद इसके पैंसिल के निशान मिटाने के लिए सबसे पहले रबड़ लंदन और पैरिस में बिकता था अगर इसके इतिहास पर नजर डालें तो विलक्षण तथ्य पता चलते हैं। प्राचीन समय में रबड़ जंगली पेड़ों से खुद-ब-खुद प्राप्त होता था लेकिन इसकी बढ़ती मांग और खपत के कारण इसकी उपज होने लगी। इस सिलसिले में और भी ऐसे पेड़ों की तलाश होने लगी। अमेरिका के मूल निवासी ग्यारहवीं सदी से पहले ही इसके गुणों को जानते थे।

उस जमाने की बनी रबड़ की वस्तुएं आज भी उपलब्ध हैं। सन् 1493 में कोलम्बस ने अपनी हेती यात्रा दौरान यह वर्णन किया था कि वहां के आदिवासी पेड़ से प्राप्त गोंद से बनी गेंद से खेलते थे। फ्रांस के खगोल शास्त्रियों ने सन् 1735 में दक्षिणी अमेरिका में देखा था कि विशेष प्रकार के पेड़ से गोंद जैसा रस प्राप्त होता है जो कुदरती रूप में रंगहीन होता है लेकिन गर्म करने पर या धूप में रखने से ठोस रूप धारण कर लेता है। वहां के आदिवासी उस समय इस रबड़ का उपयोग जूते और बोतलें बनाने के लिए करते थे। फ्रांस के यात्री इस पदार्थ (रबड़) को साथ ले गए और खोज करते रहे। एशिया में भी यह रबड़ पेड़ों से उत्पन्न होती थी। ये लोग रबड़ के बर्तन या गेंदें बनाते थे। यूरोपीय लोगों को अमेरिका से ही रबड़ के बारे में जानकारी मिली थी। अमेरिका में इसकी पैदावार सबसे अधिक है। अच्छी और उत्तम किस्म की रबड़ दक्षिणी अमेरिका में अमेजन के जंगलों में ‘हीबीया’ नामक पेड़ से प्राप्त होती है। अमेरिका निवासी चाल्र्स गुडईयर ने सन् 1831 में रबड़ के उपयोग से संबंधित शोध में काफी मेहनत की थी। उसने अपना पूरा जीवन इस क्षेत्र में खोजों के लिए ही गुजार दिया।

उसने रबड़ की दूसरे पदार्थों के साथ प्रतिक्रिया का अध्ययन किया। रबड़ गर्मी में पिघल जाती है सो इसकी स्थिरता को कायम रखने के लिए उसने इसमें  तेल, साबुन, चीनी, नमक आदि मिलाकर प्रयोग किए। उसने काफी कोशिशों के बाद स्थिर रहने वाली रबड़ तैयार कर ली। फिर उसने इसकी वस्तुएं बनानी शुरू कर दीं लेकिन गॢमयों के मौसम में उन वस्तुओं से बदबू आने लगती और ये चिपकने लगतीं। सो उससे तैयार किए बर्तन और जूते बिकने बंद हो गए। उसकी मशीनें बंद हो गईं। यहां तक कि उसे लोगों से अपनी जान बचानी कठिन हो गई। गुडईयर को बहुत कष्ट सहने पड़े। उसे इतना बुरा समय देखना पड़ा कि उसे अपने परिवार का पेट पालना कठिन हो गया लेकिन वह बुरे वक्त में भी प्रयोग करता रहा। रबड़ के प्रचार के लिए उसने कई ढंगों का प्रयोग किया। एक बार तो उसने रबड़ की चादर से अपना शरीर ढंक लिया। उसकी पहचान यह थी कि जिस शख्स ने रबड़ का कोट, बूट और टोपी पहनी हो, जिसकी जेब में रबड़ का पर्स हो, पर पर्स में एक भी सिक्का न हो तो समझो वह गुडईयर ही है। गुडईयर दिन-रात रबड़ के साथ प्रयोग करता रहता था।

एक दिन रबड़ एवं गंधक का मिश्रण गुडईयर अपने दोस्तों को दिखा रहा था कि अचानक वह मिश्रण हाथ से गिर कर जलते स्टोव की आंच पर गिर गया। नमूना आग से बाहर निकाला तो वह हैरान रह गया कि वह बिल्कुल भी चिपकता नहीं था। उसने परिणाम निकाला कि कुदरती रबड़ को गंधक के साथ मिलाकर उसे खास तापमान पर गर्म करके, फिर उसे ठंडा कर लिया जाए, इस प्रकार रबड़ की उत्तम किस्म पैदा की जा सकती है। यही क्रिया बाद में विज्ञान की भाषा में ‘वल्केनाइङ्क्षजग’ नाम से प्रसिद्ध हुई। फिर गुडईयर ने इस सफल रबड़ से अनेकों वस्तुओं का निर्माण किया, जिनकी कोई शिकायत नहीं थी। गुडईयर  की लगातार मेहनत से रबड़ का सुंदर रूप आज हमारे सामने है। रबड़ हेतु  उसके महान योगदान के कारण एक बड़ी टायर निर्माता कम्पनी का नाम गुडईयर के नाम से प्रसिद्ध है। रबड़ की वस्तुएं अमेरिका में इतनी प्रसिद्ध हुईं कि दूसरे देशों ने भी इसके उत्पादन के बारे में सोचना शुरू कर दिया। उधर ब्राजील ने रबड़ के वृक्षों के बीज पर प्रतिबंध लगा दिया।

इंगलैंड ने भी बहुत कोशिश की कि रबड़ के पेड़ों के बीज प्राप्त हो सकें लेकिन उसके हाथ असफलता ही लगती रही। फिर एक अंग्रेज ‘हैनर विकहेम’ सन् 1876 में हीबीया पेड़ के बीज चोरी छिपे इंगलैंड ले जाने में सफल हो गया। लंदन के क्यू बाग में उसने 70 हजार बीच बोए। उनमें से लगभग तीन हजार पौधे उगे, फिर ये पौधे दूसरे देशों को दिए गए। भारत में बेशक रबड़ के पेड़ आदिकाल से उपलब्ध हैं लेकिन व्यापारिक दृष्टि से उस समय भारत ने इनका इतना महत्व नहीं समझा। भारत में रबड़ का उत्पादन आजादी से कुछ समय पहले ही शुरू हुआ है लेकिन आज भारत रबड़ के क्षेत्र में महत्वपूर्ण स्थान रखता है। रबड़ के मुख्य स्रोत पेड़ हैं। अब तक लगभग 500 ऐसे पेड़ों का पता लगाया जा चुका है जिनसे निकलते ‘लेटैक्स’ नामक द्रव्य से रबड़ बन सकता है। ‘हीबीया’ नामक पेड़ से सबसे ज्यादा रबड़ प्राप्त होता है। ‘हीबीया’ किस्म के पेड़ दक्षिणी भारत के पहाड़ी क्षेत्रों में उगाए जा चुके हैं जिससे लाखों टन रबड़ प्राप्त होती है। माइकल फैराडे ने रबड़ को एक यौगिक कहा है। रबड़ आज हरेक क्षेत्र में प्रधान है। इसके प्रायोगिक कार्य आज भी जारी हैं। वैज्ञानिक ‘पील’ ने सबसे पहले तारपीन के घोल में रबड़ घोली और इसके लेप को कपड़ों पर फेरा। इस प्रकार वाटरप्रूफ कपड़ा तैयार किया गया। फिर रबड़ के घरेलू उपकरण बनाए जाने लगे।

- सौ० पंजाब केसरी

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