Saturday, May 21, 2011

कहाँ हो तुम ?

कहाँ हो तुम?
अब तो तुम्हारी छवि भी स्मृतियों से धूमिल होने लगी है
दिन में एक बार
उस मोड़ से गुजरना ही होता है मुझे
जहां तुम्हें हँसते देखकर
...गिर पड़ा था वह सावंला बाइक सवार अपनी होंडा सीडी हंड्रेड से
उस पुल पर से भी
जिस पर न जाने कितनी ही बार
ठहर गया था समय
तुम्हें गुजरते देख

तुम्हें याद है
मुकेश का वह दर्दीला गीत
'दीवानों से ये मत पूछो...'
जिसकी अंतिम दो पंक्तियाँ
मैं अपनी नाक दबा कर गाता था
और तुम गीत के तमाम दर्द को महसूसने के बावजूद
खिलखिला कर हंस पड़ती थी

हिस्लॉप कॉलेज के प्रांगण
में उस रोज जब
बहुत दिनों बाद देखा था मैंने और तुमने
एक-दूसरे को
तो हमारे चेहरे के लाली चुराकर भाग गया था
सूर्य आकाश में
याद है न तुम्हें!

कैसी हो तुम या कैसी होगी?
इस सवाल का जवाब कभी नहीं ढूँढा मैंने
तुम्हें ढूंढते हुए भी
लेकिन मुझे हमेशा अंदेशा लगा रहता है कि
कहीं घट न रही हो
तुम्हारे मुस्कान की लम्बाई इस कठिनतम दौर में

तुम्हारे चेहरे का हर शफा
मैं लगभग भूल चूका हूँ
सिवाय तुम्हारे मुस्कान के
भूल चुका हूँ सारी बातें
सिवाय उस मौन के जिसे
तुमने कभी नहीं तोड़ा
मैंने तोड़ना चाहा तब भी

एक बार और देख लेने की तमन्ना है तुम्हें
क्योंकि मेरी ही तरह बदल गई होगी
तुम्हारी भी डील-डौल
और अब हिचकियाँ तुम्हें भी
होली-दिवाली पर ही आती होंगी

एक बार और देख लू तुम्हें
तो कम से कम कुछ दिन तो
आराम से सो पाउँगा
पिछले सत्रह सालों से नहीं सोया हूँ
सुना तुमने?
- पुष्पेन्द्र फाल्गुन

निरंतर वध !

न होने पर भी
मैं धर्मराज नहीं
युधिष्ठिर नहीं मैं
मैने पांसे नहीं फैंके
जुआँ नहीं खेला
दांव पर नहीं लगाया कुछ,
पर मेरी द्रोपदी छिन गई
उठा ले गया उसे बाजार
दिलाने को साड़ियां
और करता रहा चीरहरण-
करोड़ों की तरह
मैं भी
उतरा नहीं युद्ध में कभी
मैने किसी को नहीं ललकारा
आग, बर्बादी और मौत उगलते
जीवन निगलते
बमों का सामना नहीं किया
पर हो गया लंजपुंज
बाहर आ गईं
अंतड़ियां मेरी भूख से
सूख गया भीतर तक प्यास से-
मैं योद्धा नहीं कहलाया
पर मारा गया बार बार
लड़ते हुए
थोपे हुए
अनचाहे युद्ध
नहीं था कुछ मेरे पास
सिवा हाथ-पांव के
पर मैं लुटता रहा
पिटता-कुटता रहा
सबसे ज्यादा
पूरी करने कामेच्छा अपने पिता की
मैने नहीं की थी भीष्मप्रतिज्ञा
पर मैं होता रहा लगातार
निर्वासित
नहीं था मैं पांचाली पुत्र
मेरा पिता नहीं कर कर रहा था
साम्राज्य के लिए युद्ध
मैं चक्रव्यूह भेदने नहीं गया
पर महारथी मेरा वध् करते रहे
विश्वामित्रों ने मुझे बना दिया त्रिशंकु
लटका दिया अधर में
सदा की तरह देवता
मुझे स्वीकार नहीं करते
अपने स्वर्ग में
और मंत्रशक्ति
मुझे नहीं उतरने देती है
धरती पर ॥

- नरेंद्र कुमार तोम

Monday, May 16, 2011

पीड़ा (भुवनेश्वर के बहाने) !

प्रस्तुत कविता पंकज रामेंन्दु की है। पंकज का जन्म मध्य प्रदेश की राजधानी भोपाल में 29 मई 1980 को हुआ। इनको पढ़ने का शौक बचपन से है, इनके पिताजी भी कवि हैं, इसलिए साहित्यिक गतिविधयों को इनके घर में अहमियत मिलती है। लिखने का शौक स्नातक की कक्षा में आनेपर लगा या यूँ कहिए की इन्हें आभास हुआ कि ये लिख भी सकते हैं। माइक्रोबॉयलजी में परास्नातक करने के बाद एक बहुराष्ट्रीय कंपनी मे कुछ दिनों तक काम किया, लेकिन लेखक मन वहाँ नहीं ठहरा, तो नौकरी छोड़ी और पत्रकारिता में स्नात्तकोत्तर करने के लिए माखनलाल चतुर्वेदी विश्वविद्यालय जा पहुँचे। डिग्री के दौरान ही ई टीवी न्यूज़ में रहे। एक साल बाद दिल्ली पहुँचे और यहाँ जनमत न्यूज़ चैनल में स्क्रिप्ट लेखक की हैसियत से काम करने लगे। वर्तमान में स्क्रिप्ट लेखक हैं और लघु फ़िल्में, डाक्यूमेंट्री तथा अन्य कार्यक्रमों के लिए स्क्रिप्ट लिखते हैं। कई लेख जनसत्ता, हंस, दैनिक भास्कर और भोपाल के अखबारों में प्रकाशित।

पंकज की प्रस्तुत कविता साहित्य के एक बेहद महत्वपूर्ण मगर उपेक्षित नाम भुवनेश्वर को याद करने के बहाने वर्तमान हिंदी साहित्य के परिदृश्य पर गहरा कटाक्ष करती है। हम अपने पाठकों को बताते चलें कि भुवनेश्वर का जन्म 1910 मे शाहजहाँपुर (उ प्र) मे हुआ था। अपने कुछ नाटकों और कहानियों के बल पर परिपक्वता के मामले मे वो अपने समय के साहित्य से कहीं आगे निकल गये थे। उनकी सबसे प्रसिद्ध कहानी ’भेड़िये’ हंस मे सर्वप्रथम 1938 मे प्रकाशित हुई थी, जिसे कई आलोचक हिंदी की पहली आधुनिक कहानी मानते हैं। मगर अपने बेहद स्वाभिमानी और तल्ख स्वभाव के चलते वो तत्कालीन साहित्य के राजपथ से निर्वासित और समकालीन साहित्यकारों मे सर्वथा उपेक्षित ही रहे। उनकी मृत्यु 1955 मे गहरी गुमनामी और फ़ाकाकशी के दौर मे हुई। गत 2010 भुवनेश्वर की जन्मशती का वर्ष था।


वो लिखता था,
लिखता क्या था आतंक,
आंतक उनके लिए
जो मान बैठे थे खुद को खुदा,
शब्दों का ब्रह्मा,
जो ये मानते थे कि वो जानते हैं,
जो ये मानते थे कोई नहीं जानता,
जो ये मानते थे जानना भी उन्हे आता है,
जो ये मानते थे कलम उनके बाप की है,
जो ये मानते थे लिखना उन्हें आता है,
वे आतंकित हो गये थे,
नये शब्दों के चयन से
एक असुरक्षा घिर गई थी उनके मन में
उसकी लेखनी में आम सा कुछ था,
कुछ साधारण सा लगने वाला
जिसे हर कोई समझ जाता था
जो हर एक की बात थी,
उसमें कुछ आधुनिकता थी
कुछ ऐसा जो अब तक नहीं लिखा गया था
या जिसे लिखने की हिम्मत नहीं जुटा सका था कोई।
वो भय बन गया था अचानक
उसे सब समझते थे जिसे हम आम कहते हैं
औऱ जिसे नासमझ भी कहा जाता है
वो उनकी बोली उनकी भाषा की बात थी
उसने वो बात भी कही या लिखी
जो शायद उस दौर की सोच में नही थी।
बस आलोचनाओं के कीड़े
धीरे धीरे कुतरने लग गये उसे,
बुद्धिजीवियों के पिरान्हा रूपी समूह ने
साहित्यिक मांस को नोच डाला था
शब्दों के गोश्त को चबा-चबा कर
सब कुछ पचा गये
और सुबह की जुगाली में
दांत में फंसे हुए गोश्त के टुकड़े को
किसी पैनी चीज़ से कुरेद कर निकाल फेंका था,
वो टुकड़ा जो किसी कहानी, किसी कविता का हिस्सा था
हवा में विलीन हो गया,
सुना है वो जो आतंक था
वो सर्दी के आतंक से ठिठुर गया था।
आजकल साहित्य का मांस नोचने वाले
जिनके पुरखों ने उसके गोश्त का मज़ा चखा था
उसके शब्दों के मांस का फिर लुत्फ उठा रहे हैं,
उसके मरने पर अफसोस जता रहे हैं
उसकी याद में गोष्ठी पर गोष्ठी सजा रहे हैं,
जिसमें कहानी के किसी टुकड़े को
एकांकी के किसी कतरे को
कविता के किसी पल को याद किया जा रहा है
और उसे भी, जो कभी आतंक था
उसे भुनाया जा रहा है
कैसा अजीब है ये रवैया
तिल तिल कर मरना,
फिर एक दिन चुपचाप खामोश हो जाना,
कितना मुश्किल है
दुनिया में अमर हो पाना

भावुक लड़की !

"मैं"
इक भावुक, बहुत ही भावुक लड़की
किसी ने कहा
भावुकता निश्छलता का प्रतीक है
तो किसी ने कहा पवित्रता का ..

'ना' भावुकता न तो निश्छलता का प्रतीक है
और न ही पवित्रता का ..
ये तो प्रतीक है
हर पल छले जाने की तत्परता का ..

'हाँ'
छली जाती हूँ मैं , हर दम, हर कदम
कभी अपनों के हाथों, तो कभी गैरों के
कभी साहिलों से, तो कभी लहरों से,

कई बार चाहा ,
हो जाऊं 'धरा'
रहूँ 'अचल'
बन जाऊं 'दरिया'
बहूँ 'अविरल'

पर नहीं बन सकी मैं 'धरा'
और ना ही 'दरिया'
क्यूंकि
'मैं ' हूँ
इक भावुक, बहुत ही भावुक लड़की

- अनीता मौर्या