Saturday, March 11, 2023

बोलती हुई औरतें ।

बोलती हुई औरतें, 
कितनी खटकती हैं ना..

सवालों के तीखे जवाब देती
बदले में नुकीले सवाल पूछती
कितनी चुभती है ना...

लाज स्त्री का गहना है 
इस आदर्श वाक्य का मुंह चिढ़ाती
तमाम खोखले आदर्शों को,
अपनी स्कूटी के पीछे बांधकर खींचती
घूरती हुई नज़रों से नज़रें भिड़ाती
कितनी बुरी लगती हैं ना औरतें

सदियों से हमें आदत है
झुकी गर्दन की जिसे
याद हो जाए पैरों की हर एक रेखा..
जिसका सर हिले हमेशा सहमति में...
जिसके फैसले के अधिकार की सीमा 
सीमित हो महज़ रसोई तक...

अब, 
जब पूजे जाना नकार कर
वो तलाश रही हैं अपना वजूद
तो न जाने क्यों हमें 
खटक रहा है उनका आत्मविश्वास
खोजने लगे हैं हम तरीके
उसे ध्वस्त करने के...

हर कामयाब स्त्री हमारे लिए,
समझौते के बिस्तर से आये
व्यभिचार का प्रतीक है..!
हर आधुनिक महिला चरित्रहीन
और हर अभिनेत्री वेश्या...
जीन्स पहनना चालू होने की निशानी है
और शॉर्ट्स वालियों के तो 
रेट्स भी पता हैं हमको...

सवाल पूछती औरतों को
चुप कराने का
नहीं कोई बेहतर उपाय कि 
घसीटो उन्हें चरित्र की अदालत में
जहाँ सारे नियम, सभी क़ानून
है पुरुषों के, पुरूषों द्वारा..
जिनकी आड़ में छुप जाएंगी
वो तमाम ऐयारियाँ, नाइन्साफ़ीयां
जो हमेशा हक़ रही हैं मर्दों का 

बोलती हुई औरतों !!
अब जब सीख ही रही हो बोलना
तो रुकना नहीं कभी..
पड़े जरुरत तो चीखना भी
लेकिन खामोश न होना..
तुम्हारी चुप्पी ही,
सबसे बड़ी दुश्मन रही है तुम्हारी...

बोलती हुई औरतों, बोलती रहना तुम !!!

Thursday, October 14, 2021

सरस्वती पत्रिका “अप्रैल-जून 2021 | 101” में प्रकाशित रविनन्दन सिंह की कुछ रचनाएँ ।

 १- हर प्रश्न का उत्तर समय

हर प्रश्न का उत्तर समय है,
समय की पदचाप सुनना

कुछ लोग होंगे जो तुम्हारी
प्रगति से ईर्ष्या करेंगे,
कुछ लोग होंगे,
पीठ पीछे व्यंग्य और ताने कसेंगे,
इस तरह संसार के भ्रम-
जाल में तुम मत उलझना।

जिन्दगी की राह में
कुछ लोग ऐसे भी मिलेंगे
जो तुम्हारी अस्मिता को
एकदम खारिज करेंगे,
मुस्करा कर सर झुकाना,
किन्तु मत परवाह करना।

सफर में धकने लगो तो
बैठ जाना छाँव में,
अपने हाथों आप ही
मरहम लगाना पाँव में,
तुम कभी विचलित न होना,
लक्ष्य का संधान करना।

एक दिन आएगा चलकर
जिन्दगी की राह में,
फिर वही सब जन तुम्हें
आकर भरेंगे बाँह में,
ग्रंथियों को त्यागकर
सबको सहज स्वीकार करना।

 

२- यह जीवन

वैसा जीवन नहीं मिला पर
यह जीवन भी अच्छा है।

इंद्रधनुषी सपने पाले
आधा जीवन गुजर गया,
जितना सोचा था आँचल में
उतना इच्छित मिला,
नंदन कानन नहीं मिला पर
यह कानन भी अच्छा है।

बड़ी बड़ी आशाएँ टूटीं
कई जंग में हार मिली,
फिर भी खड़ा हुआ पैरों पर
फिर कश्ती को धार मिली,
मन का आँगन नहीं मिला पर
यह आँगन भी अच्छा है।

प्रतिबिम्बों की बात मानकर
बिम्बों का शृंगार करे,
प्रतिदिन उसका रूप सँवारे
सपनों को साकार करे
ऐसा दरपन नहीं मिला पर
यह दरपन भी अच्छा है।

इस बारिश में साल रहा है
मन का सूनापन,
जैसे खौल रहा चूल्हे पर
तसले में अदहन,
मीत अगर है पास कहीं तो
यह सावन भी अच्छा है।

राजा की गोदी से उतरा
बन जाता है ध्रुवतारा,
एक गाय के लिए द्रोण भी
जाता है बस दुत्कार,
नहीं राजपद तो आचार्य का
यह आसन भी अच्छा है।

 

३- पूछ रहा शम्बूक राम से

पूछ रहा शम्बूक राम से
कैसी प्रभु की पीर।

जो कहते थे रामराज्य में
हिंसा-द्वेष नहीं होगा,
एक घाट पर सिंह मेमना
कोई भेद नहीं होगा,
सोने के चम्मच से राजन
जीम रहे हैं खीर।

सुशासन पर प्रवचन करते
कुशासन पर वास,
बगुलों को सम्मानित करते
हंसों को वनवास,
अपराधी की जाति पूछकर
चला रहे हैं तीर।

रंगमहल में होता उत्सव
जनता में सन्त्रास,
बहुत दिनों से डोल रहा है
सत्ता पर विश्वास,
तड़प रहे लोगों को केवल
बाँट रहे हैं धीर

राज-धर्म दोनों ने मिलकर
फेंका ऐसा जाल,
झूम रहे हैं भक्त नशे में
आश्रम मालामाल,
खींच रहे हैं दोनों मिलकर
जनमानस की चोर

प्रश्नचिह्न भी काँप गया
बाली के मारे जाने से,
सिय को अग्निपरीक्षा में
हर बार उतारे जाने से,
दृश्य देखकर जन-जन की
आँखों से बहता नीर।

 

४- पहले पहले पग धरना

जीवन में आसान बहुत है
बने हुए पथ पर चलना।
बहुत कठिन है नयी लीक पर
पहले पहले पग धरना।

बिना चुनौती जीवन क्या है
नन्हा अंकुर भी कहता,
मौसम के निर्मम प्रहार को
जीवन भर सहता रहता,
हार मानकर नहीं जानता
परदे के पीछे रहना।

पर्वत से सरिता निकली थी
ज्योंही अपने घर से,
अलसायी थी अभी राह में
जा टकराई पत्थर से,
धीरे धीरे सीख गयी वह
दुर्गम प्रान्तर से बहना।

अभी विहग ने पर खोला था
तेज हवा ने गिरा दिया,
उसका साहस देख पवन ने
फिर कंधे पर उठा लिया,
आज विहग तूफानों में भी
समझ चुका है थिर रहना।

ज्योहीं मैंने दीप जलाया
अँधियारे ने डरा दिया,
यद्यपि नन्हा सा दीपक था
लेकिन तम को हरा दिया,
मैंने भी अब सीख लिया है।
दीपक बाती सा जलना।

 

५- इतिहास की निमर्म कहानी

हर बार दुहराई गयी
इतिहास की निर्मम कहानी।

जिस नदी की धार थी
तूफान
से भी तीव्रतर,
एक समय ऐसा भी आया
वह नदी बहती है मंथर,
गुम हुई है आज वह भी
भूलकर अपनी रवानी।

वृक्ष तनकर आसमां से
बात करता था कभी,
एक बड़ा विस्तार पाकर
छाँव देता था कभी,
ठूंठ होकर आज वह भी
कह रहा दुनिया है फ़ानी।

बाज जो आकाश में
उड़ता था पाँखें खोलकर,
हुक्म देता आसमाँ को
शब्द भारी बोलकर,
घायल स्वरों में आज वह भी
माँगता है बूँद पानी।

वन को वह दिन याद है
जब सिंह ने दहला दिया,
आज जब घायल हुआ
साजिश सियारों ने किया,
दृश्य अपनी साँस रोके
देखती है रातरानी।

भग्न एक अवशेष की
भीतें हमेशा आह भरतीं,
वक्त का उन्नत किला भी
रोज कहता आपबीती,
जो खड़ा है वह गिरेगा
हो भले सिकंद सानी।



 
 
 
 
 

 

 

पूर्व सम्पादक 'हिन्दुस्तानी' शोध त्रैमासिक ।
प्रतिष्ठित लेखक, कवि एवं समीक्षक
ई-मेल singhravi.ald@gmail.com
मोबाइल : 09454257709

 

Wednesday, October 6, 2021

"मेरी बेटी"

*बेटियों पर तो बहुत कविताएं सुनी है,लेकिन एक सास द्वारा रचित अपनी बहू पर यह कविता बहुत ही प्यारी व निराली हैं*---
       
एक बेटी मेरे घर में भी आई है,
सिर के पीछे उछाले गये चावलों को,
माँ के आँचल में छोड़कर,
पाँ के अँगूठे से चावल का कलश लुढ़का कर,
महावर रचे पैरों से,महालक्ष्मी का रूप लिये,
बहू का नाम धरा लाई है।

एक बेटी मेरे घर में भी आई है।

माँ ने सजा धजा कर बड़े अरमानों से,
दामाद के साथ गठजोड़े में बाँध विदा किया,
उसी गठजोड़े में मेरे बेटे के साथ बँधी,
आँखो में सपनों का संसार लिये
सजल नयन आई है।

एक बेटी मेरे घर भी आई है।

किताबों की अलमारी अपने भीतर संजोये,
गुड्डे गुड़ियों का संसार छोड़ कर,
जीवन का नया अध्याय पढ़ने और जीने,
माँ की गृहस्थी छोड़,अपनी नई बनाने,
बेटी से माँ का रूप धरने आई है।

एक बेटी मेरे घर भी आई है।

माँ के घर में उसकी हँसी गूँजती होगी,
दीवार में लगी तस्वीरों में, 
माँ उसका चेहरा पढ़ती होगी,
यहाँ उसकी चूड़ियाँ बजती हैं,
घर के आँगन में उसने रंगोली सजाई है।

एक बेटी.मेरे घर में भी आई है।

शायद उसने माँ के घर की रसोई नहीं देखी,
यहाँ रसोई में खड़ी वो डरी डरी सी घबराई है,
मुझसे पूछ पूछ कर खाना बनाती है,
मेरे बेटे को मनुहार से खिलाकर,
प्रशंसा सुन खिलखिलाई है।

एक बेटी.मेरे घर में भी आई है।

अपनी ननद की चीज़ें देखकर,
उसे अपनी सभी बातें याद आईहैं,
सँभालती है,करीने से रखती है,
जैसे अपना बचपन दोबारा जीती है,
बरबस ही आँखें छलछला आई हैं।

एक बेटी मेरे घर में भी आई है।

मुझे बेटी की याद आने पर "मैं हूँ ना",
कहकर तसल्ली देती है,
उसे फ़ोन करके मिलने आने को कहती है,
अपने मायके से फ़ोन आने पर आँखें चमक उठती हैं
मिलने जाने के लिये तैयार होकर आई है।

एक बेटी मेरे घर में भी आई है।

उसके लिये भी आसान नहीं था,
पिता का आँगन छोड़ना,
पर मेरे बेटे के साथ अपने सपने सजाने आई है, 
मैं  खुश हूँ ,एक बेटी जाकर अपना घर बसा रही,
एक यहाँ अपना संसार बसाने आई है।

एक बेटी मेरे घर में भी आई है।।

साभार : वन्दना रस्तोगी

Saturday, September 11, 2021

चरित्रहीन औरतें।

हां 
मुझे भी चरित्रहीन औरतें पसंद हैं... 
बेहद... बेहद.. खूबसूरत होतीं है वो..
बेबाक, बेपर्दा, स्वतंत्र और उन्मुक्त... 

कि उनका कोई चरित्र नहीं होता। 
केवल चरित्रहीन औरतें ही खूबसूरत होती हैं। 

पिंजरे में कैद चिड़िया कितनी भी रंगीन हो, 
सुन्दर नहीं लगतीं... 
चाहे कोई कितनी भी कविताएं लिख ले उनपर..

क्या होता है चरित्र...?

चरित्र गुलामी है, एक बंधन... 
वो शर्तों से तय होता है।
चरित्र गैर कुदरती है...
प्रकृति विरोधी...
अप्राकृतिक

चरित्र है... 
किसी तथ्य पर थोपीं गई शर्तें..
शायद

हवा का चरित्र क्या है ? 
शांत, धीमे, तेज कि आंधी ...

पानी का चरित्र क्या है...?
गर्म, ठंडा या बर्फ..
और 

मिट्टी का चरित्र ?  
मूरत या ईंट...

जो चरित्रहीन होते हैं, सुंदर वही होते हैं...
आजाद लोग ही खूबसूरत होते हैं....

कौन सुंदर है...?

कोने में अपनी ही कुंठाओं में दबी खामोश औरत 
चरित्रवान औरत....

या 
किसी खुले में अपने मन से ठहाके लगाकर हंसती 
चरित्रहीन औरत ?.

कौन है सुंदर ?

वो जो चाहे तो आगे बढ़कर चूम ले... 
बोल दे कि प्यार करती हूँ.....
या वो....
जो बस सोचती रहे असमंजस में 
और अपने मन का दमन किए रहे...

दमित औरतें निसंदेह सुंदर नहीं होती, 
पर स्वतंत्र चरित्रहीन औरतें होती हैं खूबसूरत...

सोचना कभी ...., 
जब अपनी टांगे फैलाई तुमने अपने पुरुष के सामने...
अगर वो केवल पुरुष के लिए था 
तो ही वो चरित्र है....

लेकिन वो तुम्हारे अपने लिए था 
तो चरित्रहीनता.... 
अपने लिए, अपने तन और मन के लिए 
खुल कर जीती औरते सुन्दर लगती है....
हम उसे चरित्रहीन ही पुकारेगें

बच्चे चरित्रहीन होते हैं...  
उनका सबकुछ बेबाक... 
आजाद होता है। 
वो हंसते हैं खुलकर, रोते हैं खुलकर, 
दुख सुख, खुशी गम... 
सब साफ सामने रख देते हैं। 
वो दमन नहीं करते अपना। 

चरित्र दमन है... 
पहले अपना, 
फिर अपनों का, 
फिर 
अपने समाज का....

गौर करना....
जो जितना चरित्रवान होता है, 
वो उतना ही दमित होता है, 
और फिर उतना ही बड़ा दमनकारी होता है। 

हां, चरित्रहीन औरते सुंदर होती हैं..

वो, जिसका मन हो तो अपने पुरुष की हथेली 
अपने स्तनों तक खींच ले....
वो, जिसका मन हो तो वो अपने पुरुष को 
अपनी बांहों में जोर से भींच ले....

वो, जिसका मन करे तो रोटियां बेलते, नाच उठे...
वो जिसका मन करे तो जोर से गा उठे....
वो, जो चाहे तो खिलखिलाकर हंस सके। 
वो जो चाहे तो अपने प्रिये की गोद में धंस सके। 
वो, जो चाहे तो अपने सारे आवरण उतार फेंके। 
वो, जो चाहे तो सारे कपड़े लपेट ले। 
वो, जो चाहे तो अपने बच्चे को स्वतंत्रता से अपना 
स्तन खोल दूध पिला सके, उसे दुलरा सके।

बच्चे को जन्म देते जब वो दर्द में चीखती है 
तो वो चरित्रहीनता है...
आसपास की औरतें उसे चुप करातीं हैं। 
आवाज नहीं निकलाने की सलाह देती हैं.... 
सारा दर्द खामोशी से सहने को कहती है...

चरित्र का ये बंधन कबूल नहीं होना चाहिए। 
प्रसव पीड़ा... 
तकलीफ है, 
सृजन की तकलीफ... 
तो उससे धरती गूंजनी चाहिए। 

अपने पुरुष के साथ 
उसके मदमस्त खेल का दमन भी गैर-कुरदती है। 
इसे भी मुक्त होना चाहिए, 
उसे भी चरित्रहीनता होना चाहिए......

सुना है कभी किसी औरत को अपने परमानंद के क्षणों में एकदम खुलकर गाते ? 

क्यों नहीं ,बोल पाती वो, अपने भावों को स्वरों में ?  
क्योंकि ये उसे चरित्रहीन साबित करेगा...

पर ऐसी औरतें ही सुन्दर लगती हैं....

धरती की हर चीज का सुख लेते, 
अपने भीतर और बाहर 
हर चीज से खुलकर खुश होते.... 
प्यार में डूब सबकुछ से प्यार करती आजाद औरत।

हां, उस चरित्रहीन औरत से खूबसूरत कुछ भी नहीं।

हां मुझे भी चरित्रहीन औरतें सुंदर लगती हैं. 
बस वही सुंदर होती हैं...

कुंठित, गिरहबंद, बंद चरित्रवान 
औरतें तो कुरूप होती है, 
बेहद बदसूरत, बनावटी। 

मुझे कुदरत पसंद हैं 
और उससे चरित्रहीन कुछ भी नहीं, 
उसका कोई चरित्र नहींl

चरित्र के मायने बंधा हुआ कैद 
जो मुझे नापसंद......

-साभार (सुशील वैद) अम्बाला

Monday, August 9, 2021

गजल !

कसम  खाई  यहाँ  मैनें  सभी  को है जगाने  की।
सुनहरे  ख्व़ाब  आँखों में  पिरोने की  सज़ाने की।

हमें   रस्मों  रिवाजों  के  न  बाँधों  बंधनों से  तुम,
हमें है   आरज़ू   तारे   फ़लक  से  तोड़ लाने की।

दिखे  हर श़ख्क अपने  आप में खोया हुआ बैठा,
 नहीं  फ़ुरसत ज़रा भी है  इन्हें रिश्ते  निभाने की।

यहाँ माता- पिता  गुरु से  हमें  पहचान मिलती है,
उन्हें मत कोशिशें करना कभी भी आज़माने  की।

खुलेंगे   द्वार   जन्नत के  यहीं  दहलीज़  के भीतर,
ज़रूरत है  हमें   घर के   बुज़ुर्गों   को  हँसाने की।

नही  सोंचा   कभी  मैंनें   करूँ  मैं राज दुनिया पर,
मगर  है  जुस्तजू   मेरी   दिलों   में  घर बनाने की।

ग़मों  से   ये  "नवल"  मेरा  पुराना   है  बड़ा नाता,
वजह काफ़ी  नहीं   है क्या   हमारे  मुस्कराने  की।



                

 

 

 

 

 

 

 

 

 निशा सिंह  "नवल" लखनऊ

स्त्री की खूबसूरती !

स्त्री की खूबसूरती का वर्णन सदियों से हुआ है
जब शब्द नहीं थे, ना ही रंगों से सजी चित्रकारी थी
तब भी पुरुष का स्त्री की प्रति सौंदर्य बोध व आकर्षण था...
फिर सभ्यता का विकास हुआ, गीत संगीत, काव्य और चित्रों का दौर शुरू हुआ....

अन्य विषयों के साथ स्त्री सौंदर्य हमेशा प्रमुख रहा
उसने नारी के केश सज्जा,
सुन्दर नयन व उजले रंग पर हमेशा जोर दिया है

क्यों कभी उस से ऊपर ना पहुंच सके तुम...
हे पुरुष!! तुम तो स्वयं को पौरुषता से परिपूर्ण समझते हो....
फिर क्यों स्त्री की लिए ये भौतिक मानदण्ड स्थापित किये?

क्या तुम्हे नहीं दिखी उसमे ममता प्रेम के साथ
नये सृजन को संभव करने की बहादुरी...

कैसे अनदेखा कर दिया उसका भी आखेट करना
वो लकड़ी बीनकर बच्चे पालना
और कृषि कार्य में प्रमुखता क्या दिखी नहीं??
उसमे भी थीं अपार संभावनाएं
ख़ुदको साबित भी किया उसने
कल्पना शीलता के साथ विज्ञान और दर्शन
के बीज उसमे भी थे...

गृह प्रबंधन, राजनीति से लेकर अंतरिक्ष तक उड़ान भरी .
फिर क्यों तुम हर गीत में सिर्फ उसके  सुर्ख लबों और कपालों तक पहुंचे...
क्यों नहीं बॉलीवुड संगीत बना,
जिसमे उसके प्रबंधन या प्रशासकीय गुणों का वर्णन
खुले मन से किया हो...

क्या तुम्हे वो स्त्री खूबसूरत नहीं लगी, जिसने तर्क वितर्क में पुरुष को पीछे छोड़ा हो...
क्यों तुम उसके  कपाल,
उरोज और  पैमाने से मापे तन तक रहे....
क्यों नहीं बढ़ सके स्त्री देह से आगे..
क्यों नहीं पढ़ा उसके हुनर को...
क्यों नहीं टांक दीं वो बातें किसी तस्वीर में,
जो उसकी बुद्धिमता का प्रतीक हों...

यकीन मानो हर स्त्री को होगी तब ज्यादा खुशी
जब तुम उसे दैहिक सौंदर्य से परे समझोगे..
और जब तुम किसी खास मकसद से उसके बाह्य सौंदर्य की विवेचना करते हो...
तो वो तुम्हारा मन ताड़ लेती है...

 
© पूनम भास्कर 'पाखी '

एस0डी0एम0, सीतापुर (उ0प्र0)

चलो दुनिया को खूबसूरत बनाया जाये।


 

Saturday, July 10, 2021

नहीं साथ कुछ ले जाना है।

साथ नही लाये जब कुछ भी,
फिर काहे का गाना है??
नही साथ कुछ ले जाना है।
जो कुछ लिया जगत से सबकुछ ,
देकर यहीं तो जाना है।
नही साथ कुछ ले जाना है।
जो रिश्ते हैं जो व्यवहारे,
अच्छे - बुरे सब करम हमारे,
यहीं कमाया ,यहीं लुटाया
हाथ खुले रह जाना है।
नहीं साथ कुछ  ले जाना है।
माता - पिता,पति अरू बेटा,
बेटी एक बहाना है।
संगी - साथी रिश्तेदार संग,
रंगमंच ही सजाना है।
खतम हुआ जब अपना अभिनय,
चोला बदला जाना है।
नही साथ कुछ ले जाना है।
प्रारब्ध की करें तैयारी
पिछले का हम भोग करें।
अगला जनम सुधर सुख पावै,
ऐसा कुछ संयोग करे।
फूट गया जो घड़ा पुराना
जल माटी में मिल जाना है।
 नहीं साथ कुछ ले जाना है ।

  साभार : रश्मि शर्मा,  वाराणसी(उप्र)

।। रूह का दाग़ ।।

 मन की प्रवृति है चंचल
           सुख चाहता वो हर पल
सुख भी सभी हैं सम्भव
              पर  तुष्टि  है असम्भव,

  चाहत  कभी न मिटती
             सुरसा की गति ही  बढ़ती
  संतोष क्या ? न जाना
             दिल, मन कि  बात माना,

  मन, से दिमाग़  मिल कर 
                 दिल के  क़रीब  आता
  फ़िर  रूह  को  धुँधलाकर  
                    दाग़ी  उसे  बनाता,

  यह " मै " का कारनामा  
              नादाने - दिल  न  जाना
  जीवन  बिखर  के  उलझा 
                 जग से पड़ेगा  जाना,

  तब  मन  कहां रहेगा  
            जब  तन भी  छूट  जाना
  रह   जाएगा  पछताना 
              खाली  ही  हाथ  जाना,

  यह रूह भी  कोसेगी  
           किस तन का  साथ पाया
  उलझा  रहा " मै " मद  में
                  दाग़ी  मुझे  बनाया,

  जीवन  का  मर्म  जाना 
               झूंठा  है !  ये  ज़माना
  पर  देर  बहुत कर दी 
               तब  बात  मैने  माना,

  महफ़िल भी उठी कब की
            वह  मिट चुका  तराना
  लकड़ी  सजी  चिता  की
        अब ख़ाक में मिल जाना 

साभार : रमेश चन्द्र शुक्ल 

Tuesday, June 22, 2021

तवायफ !

हाँ तवायफ हूँ मैं....
हाँ कई नाम है मेरे....?
कोई वैश्या,तो कोई देवदासी कहता है।
कोई पिंगला तो कोई गणिका कहता है।
गढ़ लेते है सब मेरा नाम,
रूप व यौवन से शब्द लेकर...
कोई रूपसी,कामिनी,अप्सरा कहता है
तो कोई बाजारू ,रखेल ,बेहया, तो...
किसी को  रूपजीवा, कुंभदासी,पुंश्चली कहना पसंद है
न जाने कितनी उपमाएं गढ़ ली मेरे लिए।
मेरे अनाम नाम की.....

हाँ तवायफ हूँ मैं....
दिन की रौशनी मेरे लिए स्याह और 
रात का अँधेरा रौशन है मेरे लिए...
कब कहाँ किसी ने जाना मुझें....?
कौन हूँ कैसी हूँ क्यों हूँ मैं.....?
हर किसी की नजर पड़ती है बस
नीचे से ऊपर की ओर निहारती..
मेरे रंगे पुते बदन को।
मेरे बदन की उभरी खरोचें 
कहाँ दिखाई देती किसी को....?
जिन्हें छिपा लेती हूँ हर सुबह उबटन के लेप से।
मेरे उरोजों का उभार,जिस्म में भरा
मांस ही दिखता है उन्हें...

हाँ तवायफ हूँ मैं....
रोज कई-कई बार लगता है मेरा मोल
जिस्म का वजन देखकर...
कसाई के बकरे की तरह....
कब कहाँ दिखाई देता है किसी को..?
मेरा कलुषित भूत और अंधकूप सा भविष्य।
रक्तिम मांस के नीचे छिपा दिल कहाँ देख पाता कोई..?

हाँ तवायफ हूँ मैं.....
हर रात सूरज ढलते 
भटकते आ जाते है
सफेदपोश लगाने बोली
मेरे मांस और मंजा की.....
जिनके कुर्ते का रंग दिन के उजाले में
चटकता है मोती सा....
रात भर करते है मुँह काला....
मेरे जिस्म के गोरे रंग से...
मेरी श्वेत पिंड़लियों का गुणगान करते।
मेनका ,रंभा ,उर्वशी से आगे कर!

हाँ तवायफ हूँ मैं......
पर वेपर्दा हूँ बापर्दा नही
न धोखा,न फरेब ,न दगा़,न घात 
इन सब से दूर 
न कोई राज है मेरा,
न दोहरा चरित्र
सब कुछ खुली किताब सा है मेरा जीवन।
कुछ दोहरे चरित्र वालो से अलग!

हाँ तवायफ हूँ मैं.....
पर  सरिता सी पवित्र 
ढोती हूँ मैला, समाज का...
हर रात 
मौन रहकर....
हर दर्द को दबा कर 
जो दिया है इसी समाज ने...
हाँ तवायफ हूँ मैं....?

हेमराज सिंह'हेम' कोटा राजस्थान

तासीर-ए प्रीत

एक प्रश्न किया था हमने
प्यार का तासीर है कैसा
कटु,निबोडी पीर जैसा
दूध चीनी  की खीर जैसा
या नैनन अश्क नीर जैसा ?

 गर्म-गर्म पकौड़े जैसा
या चमड़े के कोड़े जैसा
बिन लगाम के घोड़े जैसा
या गोविंद रण-छोड़े जैसा?

नर्म मुलायम रेशम जैसा
भाग्य- सितारा चमचम जैसा
सावन बून्द झर झमझम
जैसा
या जख्म पुते मरहम जैसा?

भिन्न -भिन्न विचारों ने
भिन्न -भिन्न मत दिए 
विपरीत संस्कारों ने
हृदय  क्षत-विक्षत किये
असीम श्रदायुक्तों ने
मस्तक  नत- किये !!

कई एक विचारों ने
तोड़ कर मरोड़ दिया
स्वयं के दुश्चिंतन-पथ पर
ला कर तन्हां छोड़ दिया!! 

वीना उपाध्याय
मुज़फ्फरपुर बिहार

Monday, June 7, 2021

मुस्कुराहट

एक प्यारी सी मुस्कुराहट
हौसलों को बढ़ा देती है,
पल भर में प्रेम की उच्च 
शिखर पर चढ़ा देती है !!
 दुःख भरी जिंदगी में 
संचार कर देती है,
खुशियों की अनंत
भंडार भर देती है  !!

जीने की लालसा जगा कर
पलकों पे अनेको 
ख्याब सजा देती है,
जो आंखों से बहुत 
दूर होता है,उसको 
पास से देखने को 
बेताब कर देती है !!

एक प्यारी सी मुस्कान से
बेगानाभी लगता है अपना सा
उसके मौजूदगी का एहसास
लगने लगता है 
 साकार सच सपना सा !!

एक प्यारी सी मुस्कान 
तन्हाई को भगा देती है,
रंगों में ढल जाती है बेवफाई
हर्षोल्लास  जगा देती है !!

 जिंदगी में मुस्कुराहट 
है वरदान की तरह,
जिंदादिल जान की तरह,
परिपूर्ण अरमान की तरह
मधुरधुन गान की तरह  !!

   वीना उपाध्याय
मुज़फ्फरपुर बिहार

Sunday, June 6, 2021

हाँ पुरुष हूँ न...

कह नहीं पाता कई बार
अपने मन की 
उद्विग्नता को.. 
नहीं संभाल पाता 
कई बार,, 
मन के अंदर चल रहे
तूफान को.. 
हाँ उस वक़्त बस एक 
साथ की ख्वाहिश मेरी..
उस स्त्री की.. 
जो समझ सके 
तन ही नहीं.. 
मन के भावो को भी.. 
भूल जाना चाहता हूँ 
समक्ष उसके... 
कि हाँ पुरुष हूँ मैं. 
और उस पुरुष होने के 
दम्भ को भी.. 

रो सकूँ समक्ष उसके.. 
और कहूं.. 
हाँ हूँ पुरुष.. 
पर दर्द होता मुझे भी,  
बिलकुल तुम सा ही.. 
जो समझ मेरे दर्द को,, 
दुलार दें, माँ की तरह.. 
और मेरे बालों पर 
अपने हाथों, 
और गालों पर.
अपने स्नेह का, 
चुम्बन अंकित करें.. 
हाँ पुरुष हूँ.. 
पर फिर भी एक कंधा 
ढूंढता हूँ मैं भी 
सुकूँ के लिये
हमेशा संग तुम्हारे...
- अखिलेश मिश्र

Sunday, May 30, 2021

अजामिल की कविता (ताकि सनद रहे...)

लो रख लो मेरी डायरी
इसमें वह सब कुछ है
जो मैंने चाह कर भी
तुमसे कभी नहीं कहा...
जो नहीं कहा कभी
तुम उसी अनकहे में 
हमेशा रहे मेरे साथ
इस डायरी में है मेरी जिंदगी
जो मैंने जी तुम्हारे 
होने न होने के बीच
शब्दों में मिलूंगी मैं तुम्हें
स्मृतियों की गलियों में भटकते ,
तुम्हारा पता तुम्ही से पूछते हुए...
कहीं एकांत में सीढ़ियों पर बैठे 
तुम्हें देखते हुए जी भर...
ये सनद है डायरी
कोई पूछे तो कहना क़ि 
मैंने तुम्हे प्यार किया था 
एक तितली है इसमें रंगहीन ,
बुकमार्क  की तरह
मेरे कहने पर पकड़कर दी थी 
तुमने मुझे
अब नहीं है यह भी मेरी तरह...
अब नहीं हूं मैं तुम्हारे पास
तुम्हारी यादों में रोते हुए
इन्तज़ार करते हुए दरवाज़े पर।

अब पढ़ोगे मुझे ?

**अजामिल

Saturday, May 22, 2021

तू ही मुझको भाता है।

तन की मन की दूरी है पर 
कैसा रिश्ता नाता है
तू ही जानम तू ही जानम
तू ही मुझको भाता है

अंग अंग तू भोर नदी की
सिंदूरी सी काया है
मलयज शीतल सुरभित कोमल
तू मेरा हम शाया है

खुली आंख हो बंद पलक हो
तू सपनो में आता है

तन की मन की दूरी है पर ,
कैसा रिश्ता नाता है
तू ही जानम तू ही जानम
तू ही मुझको भाता है

इंद्र धनुष के रंग समेटे
मन मोहक मुस्कान तेरी
तू पूजा की थाली जैसी
धान पान अभिमान मेरी

शतदल कमल कैद में भौरा
देखो क्या सुख पाता है

तन की मन की दूरी है पर ,
कैसा रिश्ता नाता है
तू ही जानम तू ही जानम
तू ही मुझको भाता है

- राजेश कुमार श्रीवास्तव