Sunday, November 25, 2012

:: 'तुलसी विवाह' ::

           देवोत्थान एकादशी के दिन मनाया जाने वाला 'तुलसी विवाह' विशुद्ध मांगलिक और आध्यात्मिक प्रसंग है। देवता जब जागते हैं, तो सबसे पहली प्रार्थना हरिवल्लभा तुलसी की ही सुनते हैं। इसीलिए तुलसी विवाह को देव जागरण के पवित्र मुहूर्त के स्वागत का आयोजन माना जाता है। तुलसी विवाह का सीधा अर्थ है, तुलसी के माध्यम से भगवान का आहावान। कार्तिक, शुक्ल पक्ष, एकादशी को तुलसी पूजन का उत्सव मनाया जाता है। वैसे तो तुलसी विवाह के लिए कार्तिक, शुक्ल पक्ष, नवमी की तिथि ठीक है, परन्तु कुछ लोग एकादशी से पूर्णिमा तक तुलसी पूजन कर पाँचवें दिन तुलसी विवाह करते हैं। आयोजन बिल्कुल वैसा ही होता है, जैसे हिन्दू रीति-रिवाज से सामान्य वर-वधु का विवाह किया जाता है।
            मंडप, वर पूजा, कन्यादान, हवन और फिर प्रीतिभोज, सब कुछ पारम्परिक रीति-रिवाजों के साथ निभाया जाता है। इस विवाह में शालिग्राम वर और तुलसी कन्या की भूमिका में होती है। यह सारा आयोजन यजमान सपत्नीक मिलकर करते हैं। इस दिन तुलसी के पौधे को यानी लड़की को लाल चुनरी-ओढ़नी ओढ़ाई जाती है। तुलसी विवाह में सोलह
श्रृंगार के सभी सामान चढ़ावे के लिए रखे जाते हैं। शालिग्राम को दोनों हाथों में लेकर यजमान लड़के के रूप में यानी भगवान विष्णु के रूप में और यजमान की पत्नी तुलसी के पौधे को दोनों हाथों में लेकर अग्नि के फेरे लेते हैं। विवाह के पश्चात प्रीतिभोज का आयोजन किया जाता है। कार्तिक मास में स्नान करने वाले स्त्रियाँ भी कार्तिक शुक्ल एकादशी को शालिग्राम और तुलसी का विवाह रचाती है। समस्त विधि विधान पूर्वक गाजे बाजे के साथ एक सुन्दर मण्डप के नीचे यह कार्य सम्पन्न होता है विवाह के स्त्रियाँ गीत तथा भजन गाती है ।


मगन भई तुलसी राम गुन गाइके मगन भई तुलसी।
सब कोऊ चली डोली पालकी रथ जुडवाये के।।
साधु चले पाँय पैया, चीटी सो बचाई के।
मगन भई तुलसी राम गुन गाइके।।

:: तुलसी विवाह कथा ::

प्राचीन काल में जालंधर नामक राक्षस ने चारों तरफ़ बड़ा उत्पात मचा रखा था। वह बड़ा वीर तथा पराक्रमी था। उसकी वीरता का रहस्य था, उसकी पत्नी वृंदा का पतिव्रता धर्म। उसी के प्रभाव से वह सर्वजंयी बना हुआ था। जालंधर के उपद्रवों से परेशान देवगण भगवान विष्णु के पास गये तथा रक्षा की गुहार लगाई। उनकी प्रार्थना सुनकर भगवान विष्णु ने वृंदा का पतिव्रता धर्म भंग करने का निश्चय किया। उधर, उसका पति जालंधर, जो देवताओं से युद्ध कर रहा था, वृंदा का सतीत्व नष्ट होते ही मारा गया। जब वृंदा को इस बात का पता लगा तो क्रोधित होकर उसने भगवान विष्णु को शाप दे दिया, 'जिस प्रकार तुमने छल से मुझे पति वियोग दिया है, उसी प्रकार तुम भी अपनी स्त्री का छलपूर्वक हरण होने पर स्त्री वियोग सहने के लिए मृत्यु लोक में जन्म लोगे।' यह कहकर वृंदा अपने पति के साथ सती हो गई। जिस जगह वह सती हुई वहाँ तुलसी का पौधा उत्पन्न हुआ। एक अन्य प्रसंग के अनुसार वृंदा ने विष्णु जी को यह शाप दिया था कि तुमने मेरा सतीत्व भंग किया है। अत: तुम पत्थर के बनोगे। विष्णु बोले, 'हे वृंदा! यह तुम्हारे सतीत्व का ही फल है कि तुम तुलसी बनकर मेरे साथ ही रहोगी। जो मनुष्य तुम्हारे साथ मेरा विवाह करेगा, वह परम धाम को प्राप्त होगा।' बिना तुलसी दल के शालिग्राम या विष्णु जी की पूजा अधूरी मानी जाती है। शालिग्राम और तुलसी का विवाह भगवान विष्णु और महालक्ष्मी के विवाह का प्रतीकात्मक विवाह है।

Saturday, November 24, 2012

संध्या-गायत्री का महत्व - 2 !

क्रमश:

जब कोई हमारे पूज्य महापुरुष हमारे नगर में आते है और उसकी सूचना हमे पहले से मिली हुई रहती है तो हम उनका स्वागत करने के लिए अर्घ्य, चन्दन, फूल, माला आदि पूजा की सामग्री लेकर पहले से ही स्टेशन पर पहुचँ जाते है,उत्सुकता पूर्वक उनकी बाट जोहते है और आते ही उनका बड़ी आवभगत एवं प्रेम के साथ स्वागत करते है | हमारे इस व्यवहार से उन आगंतुक महापुरुष को बड़ी प्रसन्नता होती है और यदि हम निष्काम भाव से अपना कर्तव्य समझकर  उनका स्वागत करते है तो वे हमारे इस प्रेम के आभारी बन जाते है और चाहते है कि किस प्रकार बदले में वे हमारी कोई सेवा करे | हम यह भी देखते है कि कुछ लोग अपने पूज्य पुरुष के आगमन की सूचना होने पर भी उनके स्वागत के लिए समय पर स्टेशन नहीं पहुँच पाते और जब वे गाड़ी से उतरकर प्लेटफार्म पर पहुँच जाते है तब दौड़े हुए आते है और देर के लिए क्षमा-याचना करते हुए उनकी पूजा करते है | और कुछ इतने आलसी होते है कि जब हमारे पूज्य पुरुष अपने डेरे पर पहुँच जाते है और अपने कार्य में लग जाते है, तब वे धीरे-धीरे फुरसत से अपने और सब काम निपटाकर आते है और उन आगंतुक महानुभाव की पूजा करते है | वे महानुभाव तो तीनो प्रकार के स्वागत करने वालो की पूजा से प्रसन्न होते है और उनका उपकार मानते है | पूजा न करने वालो की अपेक्षा देर-सबेर करने वाले भी अच्छे है ;किन्तु दर्जे का फर्क तो रहता ही है | जो जितनी तत्परता, लगन, प्रेम एवं आदर बुद्धि से पूजा करते है उनकी पूजा उतनी ही महत्व की और मूल्यवान होती है और पूजा ग्रहण करने वालो को उससे उतनी ही प्रसन्नता होती है |

ऊपर जो बात आगन्तुक महापुरुष की पूजा के सम्बन्ध में कही गयी है | वही बात संध्या के सम्बन्ध में समझना चाहिये| भगवान सूर्यनारायण प्रतिदिन सबेरे हमारे इस भूमण्डल पर महापुरुष की भाँती पधारते है; उनसे बढ़कर हमारा पूज्यपात्र और कौन होगा | अत: हमें चाहिये कि हम ब्राह्म:मुहूर्त में उठकर शौच-स्नानादि से निवृत होकर शुद्ध वस्त्र पहनकर उनका स्वागत करने के लिए उनके आगमन से पूर्व ही तैयार हो जाये और आते ही बड़े प्रेम से चन्दन-पुष्प आदि से युक्त शुद्ध ताजे जल से उन्हें अर्ध्य प्रदान करे, उनकी स्तुति करे, जप करे | भगवान सूर्य को तीन बार गायत्री मन्त्र का उच्चारण करते हुए अर्ध्य प्रदान करना, गायत्री मन्त्र का (जिसमे उन्हीं की परमात्मभाव से स्तुति की गयी है और उनसे बुद्धि को परमात्म सुखी करने की प्रार्थना की गयी है ), जप करना और खड़े होकर उनका उपस्थान करना,स्तुति करना यही संध्योपासना के मुख्य अंग है ; शेष कर्म इन्ही के अंगभूत एवं सहायक है | जो लोग सूर्योदय के समय संध्या करने बैठते है वे एक प्रकार से अतिथि के स्टेशन पहुँच जाने और गाडी से उतर जाने पर उनकी पूजा करने दौड़ते है और जो लोग सूर्योदय हो जाने के बाद फुर्सत से अन्य आवश्यक कार्यो से निवृत होकर संध्या करने बैठते है,वे मानो अतिथि के अपने डेरे पर पहुँच जाने पर धीरे-धीरे उनका स्वागत करने पहुँचते है|

जो लोग संध्योपासना करते ही नहीं, उनकी अपेक्षा तो वे भी अच्छे है जो देर-सबेर,कुछ भी खाने के पूर्व संध्या कर लेते है |उनके द्वारा कर्म का अनुष्ठान तो हो ही जाता है और इस प्रकार शास्त्र की आज्ञा का निर्वाह हो जाता है | वे कर्मलोप के प्रायश्चित के भागी नहीं होते |उनकी अपेक्षा वे अच्छे है, जो प्रात:काल में तारो के लुप्त हो जाने पर संध्या प्रारम्भ करते है | और उनसे भी वे श्रेष्ठ वे है, जो उषाकाल में ही तारे रहते संध्या करने बैठ जाते है, सूर्योदय होने तक खड़े होकर गायत्री-मन्त्र का जप करते है और इस प्रकार अपने पूज्य आगंतुक महापुरुष की प्रतीक्षा, उन्ही के चिंतन में उतना समय व्यतीत करते है और उनका पदार्पण उनका दर्शन होते ही जप बंद कर उनकी स्तुति उनका उपस्थान करते है | इसी बात को लक्ष्य में रखकर संध्या के उत्तम, मध्यम और अधम तीन भेद किये गए है |


नारायण ! नारायण ! नारायण ! नारायण ! नारायण !
जयदयाल गोयन्दका, तत्व चिंतामणि, कोड ६८३, गीताप्रेस गोरखपुर

संध्या-गायत्री का महत्व !

प्रात:संध्या के लिए जो बात कही गयी है, सांयसंध्या के लिए उससे विपरीत बात समझनी चाहिये | अर्थात सांयसंध्या उत्तम वह कहलाती है, जो सूर्य के रहते की जाय; मध्यम वह है, जो सूर्यास्त होने पर की जाये और अधम वह है, जो तारो के दिखायी देने पर की जाये | कारण यह है की अपने पूज्य पुरुष के विदा होते समय पहले ही से सब काम छोड़ कर जो उनके साथ-साथ स्टेशन पहुचता है, उन्हें आराम से गाड़ी पर बिठाने की व्यवस्था कर देता है और गाड़ी छुटने पर हाथ जोड़े हुए प्लेटफार्म पर खड़ा-खड़ा प्रेम से उनकी और ताकता रहता है और गाड़ी के आँखों से ओझल हो जाने पर ही स्टेशन से लौटता है, वही मनुष्य उनका सबसे अधिक सम्मान करता है और प्रेम-पात्र बनता है | जो मनुष्य ठीक गाड़ी के छुटने के समय हाँफता हुआ स्टेशन पर पहुचता है और चलते-चलते दूर से अतिथि के दर्शन कर पाता है वह निश्चय ही अतिथि की दृष्टि में उतना प्रेमी नहीं ठहरता, यद्यपि उसके प्रेम से भी महानुभाव अतिथि प्रसन्न ही होते है और उसके ऊपर प्रेमभरी दृष्टि रखते है | उससे भी नीचे दर्जे का प्रेमी वह समझा जाता है, जो अतिथि के चले जाने पर पीछे से स्टेशन पहुँचता है और फिर पत्र द्वारा अपने देरी से पहुँचने की सूचना देता है और क्षमा-याचना करता है | महानुभाव अतिथि उसके भी आतिथ्य को मान लेते है और उस पर प्रसन्न ही होते है |


यहाँ यह नहीं मानना चाहिये कि भगवान् भी साधारण मनुष्यों की भांति राग-द्वेष से युक्त है, वे पूजा करने वाले पर प्रसन्न होते है और न करने वाले पर नाराज़ होते है या उनका अहित करते है | भगवान की सामान्य कृपा तो सब पर समानरूप से रहती है | सूर्यनारायण अपनी उपासना न करने वालो को भी उतना ही ताप और प्रकाश देते है, जितना वे उपासना करने वालो को देते है |उसमे न्युनाधिकता नहीं होती | हाँ जो लोग उनसे विशेष लाभ लेना उठाना चाहते है,जीवन-मरण के चक्कर से छुटना चाहते है, उनके लिए तो उपासना की आवश्यकता है ही और उनमे आदर और प्रेम की दृष्टी से तारतम्य भी होता ही है | भगवान् ने गीता में कहा है - ‘मैं सब भूतों में समभाव से व्यापक हूँ, न मेरा कोई  अप्रिय है, न प्रिय है; परन्तु जो भक्त मुझको प्रेम से भजते है, वे मुझमें है और मैं भी उनमे प्रत्यक्ष प्रगट हूँ |’ (गीता ९ | २९)

ऊपर के विवेचन से यह स्पष्ट हो जाता है कि संध्या के सम्बन्ध में पहली बात तो यह है कि उसे नित्य नियमपूर्वक किया जाये | काल का लोप हो जाये तो कोई बात नहीं किन्तु कर्म का लोप न हो | इस प्रकार संध्या करने वाला भी  न करनेवाले से श्रेष्ठ है | दूसरी बात  यह है कि जहाँ तक संभव हो, तीनो काल की संध्या ठीक समय पर की जाये अर्थात प्रात: संध्या सूर्योदय से पूर्व और सांय:संध्या सूर्यास्त से पूर्व की जाये और मध्यान्ह:संध्या ठीक दोपहर के समय की जाये | समय की पाबन्दी रखने से नियम की पाबंदी तो अपने-आप हो जाएगी | इसलिए इस प्रकार ठीक समय पर संध्या करने वाला पूर्वोक्त की अपेक्षा श्रेष्ठ है | तीसरी बात है कि तीनो काल की अथवा दो काल की संध्या नियमपूर्वक और समय पर तो हो ही, साथ ही प्रेमपूर्वक एवं आदर भाव से हो तो और भी उत्तम है | किसी कार्य में प्रेम और आदरबुद्धि होने से वह अपने-आप ठीक समय और नियम पूर्वक होने लगेगा | जो लोग इस प्रकार तीनो बात का ध्यान रखते हुए श्रद्धा-प्रेम-पूर्वक भगवान् सूर्यनारायण की जीवन भर उपासना करेंगे, उनकी मोक्ष  निश्चित है |

नारायण ! नारायण ! नारायण ! नारायण ! नारायण !
जयदयाल गोयन्दका, तत्व चिंतामणि, कोड ६८३, गीताप्रेस गोरखपुर

Saturday, November 17, 2012

भाई दूज पर बहनको समर्पित !


एक रिश्ता - बड़ा अनाम
सोचता हूँ दूं - उसे
कोई अच्छा सा नाम .

सावन सा उमड़ता -
...

घुमड़ता रीझता हो .
खिजाता हो - खीजता हो .
कोई ऐसी हो इस जहाँ में - ऐ दोस्त
जिसका दिल मेरे दर्द से -
बेतरह पसीजता हो .

जो लड़ सके दुनिया से -
मेरे एक मुस्कराहट के लिए
पलकें बिछा दे मेरी एक
हलकी सी आहट के लिए .

बहूत सोचा - पर मिला नहीं
ऐसा कोई नाम - इस जहाँ में
जिसे दे सकूं - एक पवित्र
रिश्ते - बंधन का नाम .

नजरें बार बार - दुनिया
का चक्कर लगा - चकरा जाती हैं
फिर फिर वापिस लौट के
आ जाती हैं .

उसे ढूँढता रहा मैं बाहर
पर वो तो छिपी - हुई थी
मेरे घर के भीतर ही - यार .

किसी से अब कुछ और - कहूं तो
मेरी बहूत हेठी हो सकती है -
सोचता हूँ - वो सिर्फ और
सिर्फ - कोई और नहीं
मेरी माँ की बेटी हो सकती है !


- सतीश शर्मा

पितृ दिवस - पर सादर अपने पिता को समर्पित !

मेरी - किलकारी
लगाने में - झूमता खुश होता .
गले लगाता -मेरे साथ
खेलता -मेरे जागने से
पहले - राम जाने
...
कब सोता .

बड़े जतन प्रयत्न से
मेरी हर सही गलत
मांगों को - जाने कैसे कैसे
पूरा करता -
मुझे -खिलाता और
खुद - अधपेट सोता .

अनपढ़ - गंवार
जाहिल सा - इंसान
वो कोई गुरु नहीं था -
पर पुरे जहाँ - में उससे
ज्यादा ज्ञानी - मेरी
जानकारी में - तब
कोई दूसरा नहीं था.
वो था - मेरी दुनिया की
पहली पाठशाला .

सम्पूर्ण ब्रह्माण्ड का
पहला शब्द - बाबा
सिखाने में - कितनी
मेहनत -कौशिश की थी
गर्व से उसका माथा -
तना था - और
उस दिन - मेरा उससे
पहला नाता बना था .

खेल -खिलौनों से खेलते
माया लोक की पौथी
बांचते - मेरे देखते देखते
उसके चेहरे की झुर्रियां
कब दुनिया के मानचित्र में
बदल गयी - मैं नहीं जान पाया .

आज दंतहीन - केशहीन
कृषकाय - इस आदमी में
मैं अपने उस पिता को -
ढूँढता हूँ - जो अब भी
मुझे - तृप्त निगाहों से
पूछता सा लगता है -
बबुआ - कोई और
खिलौना तो नहीं चाहिए !

- सतीश शर्मा

Monday, November 12, 2012

आइए इको फ्रैंडली दीपावली मनाएं !

दीपावली नाम है भव्यता का, ऐसा लगता है मानो पूरा तारामंडल जमीन पर उतर आया हो। बाजार अचानक मिठाईयों, कपड़े, बर्तनों और जेवरों की जगमगाहट से भर जाते हैं। विविधता के वाबजूद यह एक ऐसा त्योहार है जो कि भारत भर में किसी न किसी रूप में मनाया जाता है।

इस त्योहार की एक आम बात जो हर जगह देखने को मिलती है वह है वह रोशनी की जगमगाहट और पटाखों का शोर। पूरा देश राकेट, चकरी, बम, फुलझड़ियां की जगमगाहट से भर जाता है। देखने और सुनने में तो यह मन मोह लेता है, पर यह पर्यारण के लिए बिलकुल शुभ नहीं है। एक तरफ आतिशबाजी पर्यावरण को नुकसान पहुँचाती है दूसरी तरफ दीपक और मोमबत्ती का प्रयोग कम कर घरों को बिजली से सजा दिया जाता है। इससे बिजली के संकट से गुजर रहे देश में पल भर की जगमगाहट आने वाली कुछ दिनों में बिजली का संकट बन हमारे सामने आती है।

पटाखे घातक रसायन कॉकटेलआतिशबाजी तांबा, पोटेशियम नाइट्रेट, कार्बन, सीसा, जस्ता, कैडमियम और सल्फर का एक घातक कॉकटेल है, जिसके जलाएं जाने पर कार्बन डाइऑक्साइड और सल्फर डाइऑक्साइड जैसी हानिकारक गैसों का उत्सर्जन होता हैं. यह भारी वायु प्रदूषण का कारण बनती है और हमारे स्वास्थ्य के लिए खतरों का कारण।

वयोवृद्ध लोगों को पटाखों के कारण निम्नलिखित समस्याएं हो सकती है, जैसे- तेज आवाज में छूटने वाले पटाखों के कारण सुनने में कठिनाई, स्ट्रैस लेवल बढ़ने से उच्च रक्तचाप की शिकायत, हानिकारक धुँए से साँस लेने में कठिनाई, पटाखों से उत्सर्जित रसायनों के कारण त्वचा की एलर्जी, वातावरण में चारों तरफ धुँआ होने के कारण नेत्रों में सूजन।

इको फैंडली दीपावलीपिछले कुछ वर्षों में दीवाली मनाने के तरीकों में थोड़ा फर्क आया है। पर्यावरण के बढ़ती जागरूकता के लिए ज्यादा शोर, धुँआ छोड़ने वाले पटखों की बिक्री में कमी आई है। बड़े शहरों में पिछले साल पैतिस प्रतिशत से ज्यादा जहरीले पटाखों बिक्री में कमी आई है।

आइए देखते हैं कि पारिस्थिकी के अनुकूल दीवाली कैसे मना सकते हैः 
• घर को बिजली के बल्ब की जगह मिट्टी के दियों से रोशन करें। इससे कुम्हारों के व्यापार में वृद्धि आएगी, साथ ही बिजली की बचत होगी। 
• अगर आपको लगता है कि तेज आवाज के पटाखों के बिना दीवाली का क्या मजा तो अपने अड़ोसियो-पड़ोसियों के साथ मिलकर पटाखे फोड़े इससे एक सीमित दायरे में प्रदूषण फैलेगा। 
• हरदम कम तीव्रता वाले पटाखें खरीदें। वे पटाखे खरीदें जिनसे हानिकारक रसायन धुएं के साथ उत्सर्जित न होते हों। 
• पटाखे ऐसे खरीदें जिनमें प्रकाश तो मन मोह लेने वाला हो, परंतु शोर अपनी सीमा पार न करे। इस तरह आप अपनी खुशियों का आनंद भी ले सकते हैं साथ ही पर्यावरण को हानि भी नहीं पहुँचेगी।

बहुत सारे पटाखा निर्माताओं ने इको फ्रैंडली पटाखों का उत्पादन शुरू कर दिया है जो प्रकाश तो भरपूर देते है लेकिन शोर और धुँआ ज्यादा नहीं करते। अब तो bio-degradable पटाखों का उत्पादन भी शुरू हो गया जो जलाने पर आकाश में बहुरंगी छटा बिखेर देते है, पर पर्यावरण को ज्यादा नुकसान नहीं पहुँचाते।

पटाखे छोड़ते समय निम्न बातों का ध्यान अवश्य रखें
• माता-पिता की देख-रेख में ही बच्चे पटाखे फोड़े। 
• घने और भीड़-भाड़ वाले इलाकों में पटाखे छोड़ने से बचें। उन्हें खुले स्थानों पर ही जलाएं। 
• हाथ में पकड़कर कभी आतिशबाजी न चलाएं। 
• जलाने से पहले यह सुनिश्चित कर ले कि लोग आतिशबाजी की सीमा के बाहर हों। 
• आतिशबाजी करते समय यदि आँख घायल हो जाए, तो आँख के ऊपर कॉटन पैड रख लें और तुरंत नेत्र विशेषज्ञ से सलाह लें। 
• जहां आतिशबाजी जलाई जा रही हो, उस जगह से बिना जले हुए पटाखे दूर रखे। किसी आपातस्थिति से बचने के लिए एक पानी से भरी बाल्टी पास में अवश्य रखे। 
• कभी भी किसी कंटेनर के अंदर रख कर बम न फोड़े, विशेषतः काँच या धातु का कंटेनर बिलकुल नहीं होना चाहिए।• ढीले कपड़े पहनकर आतिशबाजी कभी न करें।

लेखक
 
प्रतिभा वाजपेयी

तवायफ फिर भी अच्छी है !

कोई टोपी तो कोई
अपनी पगड़ी बेच
देता है, मिले गर भाव
अच्छा जज भी कुर्सी बेच देता है....
तवायफ फिर भी अच्छी है
के वो सीमित है कोठे तक, पुलिस
वाला तो चौराहे पे
वर्दी बेच देता है..
जला दी जाती है ससुराल में अक्सर
वही बेटी,
जिस बेटी की खातिर बाप
किडनी बेच
देता है..
कोई मासूम
लड़की प्यार में कुर्बान है जिस पर,
बना कर
विडियो उसकी वो प्रेमी बेच
देता है...
ये कलयुग है कोई
भी चीज नामुमकिन नहीं इसमें,
कलि, फल,
पेड़, पौधे, फूल
माली बेच देता है...
जुए में बिक गया हु मैं तो हैरत क्यों है
लोगो को, युधिष्ठर तो जुए में
अपनी पत्नी बेच देता है....
कोयले की दलाली में है मुँह
काला यहाँ सब
का, इन्साफ
की क्या बात करे इंसान ईमान बेच
देता है..
जान दे दी वतन पर जिन बेनाम
शहीदों ने,
इक हरामखोर आदमखोर नेता इस
वतन
को बेच देता है

- सिराज फैसल ख़ान

माटी का दिया !

माटी का ए दिया
माटी के पुतलों से ना जाने क्या क्या कह जाता
माटी का दिया
तेल में डूबा कपास
अग्नि से प्रज्वलित प्रकाश
जगमगाते दियो का ए समूह
अँधेरे को दूर भगाता
बाती से बाती मिलाओ
बिना भेदभाव किये सबको प्रकाशित करता
खुद जलता पर राह दिखाता माटी का ए दिया
माटी के पुतलों से ना जाने क्या क्या कह जाता !

- शैलेन्द्र दुबे

तो यथावत चलेगी ये दुनिया !

हैरत है
चंद सरफिरे आज भी ये मानते हैं
दुनिया शेषनाग के फन पर नहीं,
टिकी है आस्तिकों और नास्तिकों की संख्या के
संतुलन पर,

बेअसर है ये इनकी घटती-बढती संख्या से,
या पृथ्वी एक स्त्री है,
इसके डगमगाते कदम जमें हैं
उम्मीद की जमीन पर,
उसकी आँखें टिकी हैं
ठीक सामने की दीवार पर
आंसूओं से लिखे उन कंफेशंस पर
जहाँ पल पल पिघलते शब्दों की इबारत
बताती है
यथावत चलेगी ये दुनिया
बस बची रहे लोगों के दिलों में
थोड़ी सी सहिष्णुता,
थोडा सी सहनशक्ति,
थोडा सा प्रेम
थोडा सी मनुष्यता
और थोडा सा ईश्वर ....
 
- अंजू शर्मा

दिया जलेगा या बाती या तेल जलेगा !

इस बार दिवाली पर ना जाने कौन जलेगा
दिया जलेगा या बाती या तेल जलेगा
या मेरा दिल कोने में चुपचाप जलेगा
इस बार दिवाली पर ना जाने कौन जलेगा
रंगोली जब मेरे आँगन सज जाएगी

लक्ष्मी मेरे द्वारे आ कर रुक जाएगी
मैं तो हूँ परदेस में टीका कौन करेगा
इस बार दिवाली पर ना जाने कौन जलेगा
खुशियाँ तो आएगी मेरे दरवाज़े भी
गूँजेंगे घर में मेरे गाजेबाजे भी
पर मेरे घर गणपति पूजन कौन करेगा
इस बार दिवाली पर ना जाने कौन जलेगा
बैठी होंगी कहीं ढूँढ़ कर वो कोना
उसका दिल होगा जाने कितना सूना
देश में उसकी रीति गागर कौन भरेगा
इस बार दिवाली पर ना जाने कौन जलेगा....
 
 - संदीप त्रिपाठी

उन सीखों ने जो अनजाने मिलीं !

हम ही अमृत का प्याला
हम ही विष की हाला
हमें बनाया किसने ?
उन सीखों ने जो अनजाने मिलीं
बाद में जो ठूँसी गयीं
फिर खेल सुविधाओं का
विवशता बने रहने की
खुद से ज्यादा दिखने की तमन्ना
खीचती रही मगरमच्छ बन के
भौतिकता गजराज बनी
चक्र बनके चेतना ने काटा उसे
हार गयी
धार कम थी
सुविधा की पुकार बहुत ज्यादा है
कलियुग है ,कलयुग है
कल का युग क्या होगा क्या किसे मालूम ?

बकरी मेरी बाड तोड़ कर निकली
मिले तो बांध देना मेरे बाड़े में ....:)
 
 - राघवेन्द्र अवस्थी

जग है जगमग

हेरत नयन गए हेराय
जग है जगमग
कूप अँधेरा
मिले जो तुम तो होवे
उजेरा

मन भी कुछ हरसाय
जोत बिना दिया ना दिया
जो दिया लौट ले जाय
ना तन ,ना मन
धन ना कुछ भी
तनिक ओट मिल जाय
चले चाहे घनघोर अंधेरिया
तुम्हरी सरन सिवाय
लियो मोहे अपने अंक लगाय !!!

- राघवेन्द्र अवस्थी

बंगाली बाबा !

कपाल के मूल में धंसी आँखों से
झांकता उनका जीवन दर्शन
इस बार भी
उनके पोपले मुंह में
होकर रह गया गोल-गोल, फुस्स-फुस्स

आकाश की धूप को
अपनी छितरी छतरी पर टिकाये
और होंठ के कोर से फिसलती
लार की धार को
गंदले अंगरखे के हवाले करते उन्होंने
नाक से स्वर साध मुझसे पूछा
'बोलो हमी है बंगाली बाबा'

उन्हें
साइकिल की कैरिअर पर बिठा मैंने
पैडलों के सहारे
धकेली थी
उनके घर की तरफ
एक नदी
अंग्रेजों के जमाने का एक पुल
और राष्ट्रीय राजमार्ग क्रमांक सात

रास्ते भर
बीड़ी के सुन्न धुएं में मिला
वह सुनाते रहे मुझे
टुकड़ों-टुकड़ों में बाउल
रेल की नौकरी छोड़ने की कहानी
और बाबूजी से दोस्ती के किस्से-कोताह

२.
दो शाम
नाश्ते की प्लेट की जबरन अनदेखी के बाद भी
जब पिताजी को नहीं मिली गंगा
तो उन्होंने मुझे बंगाली बाबा को बुला आने का निर्देश दिया था
दरवाजे पर बाबा को जूते उतारते देख
पिताजी उछल पड़े थे गंगा से मिलने की कल्पना कर
'कब से गायब है गैया मतलब गंगा..'
बाबा के सवाल का जवाब, पिताजी अपने उच्छ्वास से देते हैं

फिर अम्मा,
बाबा के आदेश पर घर भर में दिखाई देने लगीं
आधी पालथी और घुटने पर टिकाये अपने लरजते शरीर को
बाबा फूंकते हैं पीढ़े पर

अक्षत, कनेल के फूल, काजल की डिब्बी
सेंदुर, हरदी, चन्दन और रोली की चौखानी डिब्बी
दो कपूरी और एक बँगला पान का पत्ता
काला तिल और छोटे पात्र में गंगाजल
एक कुश शाखा और शुद्ध गाय के घी में बूड़ी बाती का दीप
सजता जाता है पीढ़े पर
बाबा की तर्जनी से तय स्थिति में

३.
कनपटी पर
चिपके बालों से टपकता ठंडा पानी
हाफ पैंट के भीतर सुरसुरी पैदा करता है
और मैं बाएं हथेली में काजल से बनाए गए गोल परदे पर
हर बार गंगा को देखने से वंचित रह जाता हूँ

बाबा ताकीद करते हैं पिता से
लड़का चंचल है संभालो इसे
इसके पहले की देर हो
पिताजी का एक झन्नाटेदार तमाचा
पता नहीं कैसे सुखा देता है मेरे कनपटी पर का पानी

अगली सुबह
पगुराती गंगा के सामने खड़ा कर मुझे
अम्मा मेरे शरीर पर फिराती हैं बंद मुट्ठी
आख़िरी फेरे के बाद वह खोलती हैं
अपना हाथ बाबा के सामने
बाबा
अम्मा की मुट्ठी से उठाते हैं सिर्फ पांच का नोट
और चिल्लर तमाम

४.
बाबा को घर पहुंचाते वक़्त
मैं जान जाता हूँ कि
उनके घर में हैं दो स्त्रियाँ
उनकी बहू और एक बड़ी होती बेटी
उस रात
सारे सपनों में चुभती रही
बाबा के बेटी की अदेखी आँखें

बेटी पर लोटते यौवन से चिंतित बाबा
घर के सामने स्थित सिद्ध चौतरे पर
जमाते हैं नौ दिनी मनोकामना सिद्धि डेरा
चौबीस साल के थे तब से
बाबा की सिद्ध हैं माँ काली
चौरासी साल की पकी उम्र में बाबा ने
भले न देखी हो अब तक माँ काली
लेकिन उनका दृढ़ विश्वास है
कि काली उनकी जोगनी से बीस नहीं
अलग नहीं

सिद्ध काली के दम पर
बाबा ढूंढ लाते हैं
लोगों की गुमी गाय, बकरी, मुर्गी
ठीक कर देते हैं
पहलवानों का शीघ्रपतन और स्वप्नदोष
कई कम्युनिस्टों को बाबा
पहना आये हैं रंग-बिरंगी अंगूठी
इसी सिद्ध काली के दम

बाबा का लड़का रोज़ कहीं जाता है
लेकिन लौटते वक़्त कमाई नहीं लाता है
बहू का दिन मोहल्ले के दिलफेंक मजनुयों के बीच कट जाता है
बाबा पका लेते हैं चूल्हे पर दोनों जून खाना
कहते हैं जोगनी से क्या मदद लेना
इस बेचारी को तो करना ही है जिंदगी भर

बाबा के काँधे पर लटकती मूंज
तब उनके अंगूठों में फंस जाती है
जब जोगनी उन्हें देती है उलाहना
भात जलाने
और अपने लिए वर नहीं खोज पाने के लिए

बाबा जोगनी को दस बरस पहले
कुछ नशेड़ियों से मुक्त करा लाये थे
सिद्ध काली के दम पर नहीं
सिद्ध काली के डर से

५.
मनोकामना सिद्धि के नौवें दिन
बाबा लोगों के गुमे जानवरों को बेटे और बहू के लिए छोड़
सिद्ध काली के चौतरे पर ही सिधार गए
जोगनी ने तेज़ बहते आंसुओं को जल्दी-जल्दी पोंछते हुए
बाबा की देह से छपटकर इतना ही कहा था
'मेरी शादी करके यमराज का भैसा ढूँढने नहीं जा सकते थे बाबा...'

६.
उस दिन से
नहीं सुनी किसी ने
जोगनी की आवाज़
उस अँधेरे-छोटे कमरे में जब
कोई नोचता है उसकी देह
तो जोगनी
सामने की दीवार पर टंगी
बाबा की तस्वीर में खो जाती है

बरसों पुरानी फ्रेम से घिरे बाबा
जाने कब से बीड़ी फूंक रहे हैं उस तस्वीर में !
- पुष्पेन्द्र फाल्गुन

Friday, November 9, 2012

गजल !

ख़ुल्द में कब वो मज़ा जो दुनिया-ए-फ़ानी में है
होश क्या जाने कि क्या-क्या है जो नादानी में है

हौसलों का, हिम्मतों का इम्तेहाँ है ज़िन्दगी

जो मज़ा मुश्क़िल में है, वो ख़ाक़ आसानी में है

जो सदा मँझधार से, लौटा भँवर को जीतकर;
साहिलों पर बहस अब तक, कितना वो पानी में है

जीना बिन-ख़्वाहिश के - या लेकर अधूरी हसरतें

इत्तिक़ा दर-अस्ल ख़ुद ख़्वाहिश की तुग़यानी में है

ख़ुदपरस्ती में जिया, ख़ुद के लिए मरता रहा

ख़्वाहिशे-जन्नत में वो भी सफ़हे-क़ुर्बानी में है।
 
 
 (हिमांशु मोहन)
-----------------------------------
ख़ुल्द = स्वर्ग, जन्नत
फ़ानी = नश्वर, नाशवान
साहिल = किनारा, तट
इत्तिक़ा = संयम, इन्द्रिय निग्रह
तुग़यानी = बाढ़, उफ़ान
ख़्वाहिशे-जन्नत = स्वर्ग की इच्छा
सफ़हे-क़ुर्बानी = क़ुर्बानी / बलिदान देने के लिए लगी हुई क़तार

जितेन्द्र श्रीवास्तव की कविताएँ !



जितेन्द्र श्रीवास्तव का जन्म उत्तर प्रदेश के देवरिया जिले की रूद्रपुर तहसील के सिलहटा में हुआ. जे. एन यू नयी दिल्ली से हिन्दी साहित्य में सर्वोच्च अंकों से एम. ए. और एम. फिल. एवं पी-एच. डी.
कविता संग्रह- इन दिनों हालचाल, अनभै कथा, असुंदर-सुन्दर, बिलकुल तुम्हारी तरह, कायांतरण,
आलोचना- भारतीय समाज, राष्ट्रवाद और प्रेमचंद, शब्दों में समग्र, आलोचना का मानुष मर्म
सम्पादन- प्रेमचंद: स्त्री जीवन की कहानियां, प्रेमचंद: स्त्री और दलित विषयक विचार, प्रेमचंद: हिन्दू-मुस्लिम एकता संबंधी कहानियां और विचार
पुरस्कार और सम्मान- कविता के लिए भारत भूषण अग्रवाल पुरस्कार, आलोचना के लिए देवीशंकर अवस्थी सम्मान सहित हिन्दी अकादमी दिल्ली का ‘कृति सम्मान’ उत्तर प्रदेश हिन्दी संस्थान का राम चन्द्र शुक्ल पुरस्कार एवं विजयदेव नारायण साही पुरस्कार, भारतीय भाषा परिषद् का युवा पुरस्कार, डॉ राम विलास शर्मा आलोचना सम्मान और परम्परा ऋतुराज सम्मान
सम्प्रति – इंदिरा गांधी राष्ट्रीय मुक्त विश्व विद्यालय नयी दिल्ली के मानविकी विद्यापीठ में अध्यापन.

        
परवीन बाबी
कल छपी थी एक अखबार में
महेश भट्ट की टिप्पणी
परवीन बाबी के बारे में
कहना मुश्किल है
वह एक आत्मीय टिप्पणी थी
या महज रस्मअदायगी
या बस याद करना
पूर्व प्रेमिका को फ़िल्मी ढंग से
उस टिप्पणी को पढ़ने के बाद पूछा मैंने पत्नी से
तुम्हें कौन सी फिल्म याद है परवीन बाबी की
जिसे तुम याद करना चाहोगी सिर्फ उसके लिए
मेरे सवाल पर कुछ क्षण चुप रही वह
फिर कहा उसने
प्रश्न एक फिल्म का नहीं
क्योंकि आज संभव है यदि
अपने बिंदासपन के साथ
ऐश्वर्य राय, करीना कपूर, रानी मुखर्जी
प्रियंका चोपड़ा और अन्य के साथ
नई-नई अनुष्का शर्मा रुपहली दुनिया में
तो इसलिए कि पहले कर चुकी हैं संघर्ष
परवीन बाबी और जीनत अमान जैसी अभिनेत्रियाँ 
स्त्रीत्व के मानचित्र विस्तार के लिए
उन्हों ने ठेंगा दिखा दिया था वर्जनाओं को
उन्हें परवाह नहीं थी किसी की
उन्हों ने खुद को परखा था
अपनी आत्मा के आईने में
वही सेंसर था उनका
परवीन बाबी ने अस्वीकार कर दिया था
नैतिकता के बाहरी कोतवालों को
उसे पसंद था अपनी शर्तों का जीवन
उसकी बीमारी उपहार थी उसे
परम्परा, प्रेमियों और समाज की
जो लोग लालसा से देखते थे उसे
रूपहले परदे पर
वे घर पहुँच कर लगाम कसते थे
अपनी बहन बेटियों पर
परवीन बाबी अट्टहास थी व्यंग की
उसके होने ने उजागर किया था
हमारे समाज को ढोंग
उसकी मौत एक त्रासदी थी
उसकी गुमनामी की तरह
लेकिन वह प्रत्याख्यान नहीं थी उसके स्वप्नों की
भारतीय स्त्रियों के मुक्ति संघर्ष में
याद किया जाना चाहिए परवीन बाबी को
पूरे सम्मान से एक शहीद की तरह
यह कहते-कहते गला भर्रा गया था
पत्नी का चेहरा दुःख से
लेकिन एक आभा भी थी वहाँ
मेरी चिरपरिचित आभा
जिसने कई बार रोशनी दी है मेरी आँखों को
अपनों के मन का 
मैं कवि नहीं झूठ फरेब का
रुपया पैसा सोने-चांदी का
मैं कवि हूँ जीवन के सपनों का
उजास भरी आँखों का
मैं कवि हूँ उन होठों का
जिन्हें काट गयी है चैती पुरवा
मैं कवि हूँ उन कन्धों का
जो धंस गए हैं बोझ उठाते
मैं कवि हूँ
हूँ कवि उनका
जिनको नहीं मयस्सर नींद रात भर
नहीं मयस्सर अन्न आंत भर
मैं कवि हूँ
हाँ, मैं कवि हूँ
उन उदास खेतों के दुःख का
जिनको सींच रहे हैं आँखों के जल
मैं कवि हूँ उन हाथों का
जो पड़े नहीं चुपचाप
जो नहीं काटते गला किसी का
जो बने ओट हैं किसी फटी जेब का
मैं कवि हूँ
जी हाँ, मैं कवि हूँ
अपने मन का
अपनों के मन का 
अबकी मिलना तो!
मोबाईल में दर्ज हैं
कई नाम और नंबर ऐसे
जिन पर लम्बे अरसे से
मैंने कोई फोन नहीं किया
उन नंबरों से भी कोई फोन आया हो
याद नहीं मुझको
मेरी ही तरह
उन्हें भी प्रतीक्षा होगी
कि फोन आये दूसरी तरफ से ही
हो सकता है
एक हठ वहाँ भी हो
मेरे मन की तरह
यह भी हो सकता है
न हठ हो न प्रतीक्षा
एक संकोच हो
या कोई पुरानी स्मृति ऐसी
जो रोकती हो उंगलियों को
नंबर डायल करने से
आखिर कभी-कभी रिश्तों में
आ ही जाती हैं
ऐसी स्मृतियाँ भी
तो क्या ऐसे ही
उदास पड़े रहेंगे ये नंबर
मोबाईल में
मुझे भय है कहीं गूंगे न हो जाय ये
या मैं ही उनके लिए
इसलिए आज बतियाना बहुत जरूरी है
उन सबसे
जिनकी आवाज सुने बहुत दिन हुए
तो लो
यह पहला फोन तुम्हें
मित्र ‘क’
बोलो चुप क्यों हो
आवाज नहीं आ रही तुम्हारी
कहाँ हो
आजकल
क्या कर रहे हो
हंसते हो ठठा कर पहले ही जैसे
या चुप रहने लगे हो
जैसे हो इस समय
कुछ तो कहो दोस्त
कि कहने सुनने से ही चलती है दुनिया
अबोले में होती है मृत्यु की छाया
मुझे सुननी है तुम्हारी आवाज
बोलो मित्र
बताओ हाल-चाल... ... ...
सुनो, अभी करने हैं मुझे बहुत सारे फोन
योजनाये बनानी हैं मिलने की
पूरे मन से धोनी हैं
रिश्तों पर जमी मैल
चाहें वह जमी हो मेरे कारण
या किसी के भी
सोचो दोस्त
यदि हमारे पैर छोड़ दें आपस में तालमेल
या करने लगें प्रतीक्षा हमारी तरह
पहले ‘वो’ पहले ‘वो’
तो ठूंठ हो जाएगा शरीर बिलकुल अचल
और हर अचल चीज अच्छी हो
जरूरी तो नहीं
तो छोडो पुरानी बातें
हंसो जोर से
और जोर से
इतनी जोर से
कि भीतर बचे न कुछ भी मलीन
और हाँ अबकी मिलना
तो आखों में आँखें डालकर मिलना
सचमुच
धधा कर मिलना
जैसे हाथ हो दाँया
अभी-अभी डूबा है सूर्य
उडूपी के खेतों में
अभी-अभी आयी हैं सांझ
वृक्षों की पुतलियों में
अभी
बिलकुल अभी
हँसे हैं नारियल के दरख़्त
हमारी और देख कर
जैसे लगना चाहते हों गले
जैसे पहचान हो बहुत पुरानी
प्रिये यह दक्षिण है देश का
सुन्दर मन भावन
जैसे हाथ हो दाँया अपने तन का
स्मृतियाँ
स्मृतियाँ सूने पड़े घर की तरह होती हैं
लगता है जैसे
बीत गया है सबकुछ
पर बीतता नहीं है कुछ भी
आदमी जब तैर रहा होता है
अपने वर्तमान के समुद्र में
अचानक स्मृतियों का ज्वार आता है
कुछ समय के लिए
और सब कुछ बदल देता है
अचानक बेमानी लगने लगता है
तब तक सबसे अर्थवान लगने वाला प्रसंग
और जिसे हम छोड़ आये होते हैं
बहुत पीछे अप्रासंगिक समझकर
वह जीवन की तरह मूल्यवान लगने लगता है
बहुत से सम्बन्ध और बहुत से मित्र
जो छूट गए होते हैं आँकडों की गणित में
अचानक किसी दिन सिरहाने खड़े मिलते हैं
कुछ चिट्ठियाँ निकलती हैं पुराने बक्सों से
और बंद पडी आलमारियो से
और उनमें लिखीं तहरीरें
दिखा जातीं हैं आईना
बीता हुआ कल
वहीं दुबका बैठा मिलता है
कभी हाथ मिलाने को बढ़ आता है उत्सुक
कभी छुपा लेता है नजरें
कुछ लोगों को लगता है
जैसे स्मृतियाँ पीछे खींच ले जाती हैं हमें
लेकिन ऐसा होता नहीं है
स्मृतियाँ अक्सर तब आतीं हैं
जब सूख रहा होता है
अंतर का कोई कोना
सूखे के उस मौसम में
वे आती हैं बरखा की तरह
और चली जाती हैं
मन-उपवन को सींच कर 
सुख
आज बहुत दिनों बाद सोया
दोपहर में
उठा शीतल-नयन प्रसन्न मन
सब कुछ अच्छा-अच्छा लगा.
कभी दोपहर की नींद
हिस्सा थी दिनचर्या की
न सोये तो भारी हो जातीं थीं रातें भी
कस्बा बदला
दिनचर्या बदली
दोपहर की नींद विलीन हो गयी
अर्धरात्रि की निद्रा में
न जाने कहाँ बिला गया
दोपहर का संगीत
जाने कहाँ डूब गयी वह मादकता
जो समा जाती थी
दोपहर चढ़ते-चढ़ते
मुझे दुःख नहीं
दोपहरी के नींद के स्थगन का
मुझे मलाल नहीं भागमभाग का
इसे मैंने चुना है फिर प्रलाप कैसा
जो है अपने हिस्से का सच है
लेकिन आज जो थी दोपहर में
आँखों में बदन में
और जो है उसके बाद मन में
वह भी सच है इसी जीवन का
आखिर क्या करूँ इस पल का
क्या इसे विसर्जित कर दूं
किसी और सुख में
नहीं, नहीं कदापि नहीं
मैं इसे विसर्जित नहीं कर सकता
किसी भी अन्य सुख में
यह पल आईना है
जीवन का
सुख का
दृष्टिकोण
वह डूबा है जिसके सपनों में
उसके सपनों के आस-पास भी नहीं है वह
फिर भी उसका मन
सूरजमुखी का फूल बना
एकटक ताक रहा है उसी ओर
वह जानता है हिसाब-किताब
यह भी कि
मन के इस गणित में उसे हांसिल हो शायद शून्य ही
फिर भी वह नहीं छोड़ना चाहता अपना सपना
नहीं बदलना चाहता दृष्टिकोण
 
उम्मीद
कोई किसी को भूलता नहीं
पर याद भी नहीं रखता हरदम
पल-पल की मुश्किलें बहुत कुछ भुलवा देती हैं आदमी को
और वैसे भी जाने अनजाने, चाहे-अनचाहे
हर यात्रा के लिए मिल ही जाते हैं साथी
जो बिछड़ जाते हैं किसी यात्रा में विदा में हाथ उठाये
सजल नेत्रों से शुभकामनाएं देते
जरूरी नहीं कि वे मिले ही फिर
जीवन के किसी चौराहे पर
फिर भी उम्मीद का एक सूत
कहीं उलझा रहता है पुतलियों में
जो गाहे-बगाहे खिंच जाता है.
जैसे अभी-अभी खींचा है वह सूत
एक किताब खुल आये है स्मृतियों की
याद आ रहे हैं गाँव की पाठशाला के साथी
चारखाने का जांघिया पहने रटते हुए पहाड़े
दिखाई दे रही है बेठन में बंधी उनकी किताबें
उन दिनों बाबूजी कहते थे
किताबों को उसी तरह बचा कर रखना चाहिए
जैसे हम बचा कर रखते हैं अपनी देह
वे भाषा के संस्कार को मनुष्य के लिए
उतना ही जरूरी मानते थे
जितनी जरूरी होती हैं जड़ें
किसी वृक्ष के लिए
अब बाबूजी की बातें हैं, बाबूजी नहीं
उनका समय बीत गया
पर बीत कर भी नहीं बीते वे
आज भी वे भागते दौड़ते जीवन की लय मिलाते
जब भी चोटिल होता हूँ थकने लगता हूँ
जाने कहाँ से पहुंचती है खबर उन तक
झटपट आ जाते हैं सिरहाने मेरे !

संपर्क-
हिन्दी संकाय, मानविकी विद्यापीठ, ब्लाक एफ,
इग्नू, मैदानगढ़ी, नयी दिल्ली-६८
मोबाईल- ०९८१८९१३७८९