Friday, November 9, 2012

गजल !

ख़ुल्द में कब वो मज़ा जो दुनिया-ए-फ़ानी में है
होश क्या जाने कि क्या-क्या है जो नादानी में है

हौसलों का, हिम्मतों का इम्तेहाँ है ज़िन्दगी

जो मज़ा मुश्क़िल में है, वो ख़ाक़ आसानी में है

जो सदा मँझधार से, लौटा भँवर को जीतकर;
साहिलों पर बहस अब तक, कितना वो पानी में है

जीना बिन-ख़्वाहिश के - या लेकर अधूरी हसरतें

इत्तिक़ा दर-अस्ल ख़ुद ख़्वाहिश की तुग़यानी में है

ख़ुदपरस्ती में जिया, ख़ुद के लिए मरता रहा

ख़्वाहिशे-जन्नत में वो भी सफ़हे-क़ुर्बानी में है।
 
 
 (हिमांशु मोहन)
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ख़ुल्द = स्वर्ग, जन्नत
फ़ानी = नश्वर, नाशवान
साहिल = किनारा, तट
इत्तिक़ा = संयम, इन्द्रिय निग्रह
तुग़यानी = बाढ़, उफ़ान
ख़्वाहिशे-जन्नत = स्वर्ग की इच्छा
सफ़हे-क़ुर्बानी = क़ुर्बानी / बलिदान देने के लिए लगी हुई क़तार

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