Sunday, April 24, 2011

पंचर के दुकान !
















हैण्डिल पैडिल टायर चक्का
दुकान हटे पंचर के पक्का

ना कवनो पोस्टर ना कवनो पलानी
काठे के बाक्सा बा नादे में पानी
लागे के दुई-चार टक्का
दुकान हटे पंचर के पक्का

ओ से भरइब चवन्नी लगइब
अपने से भरब त उहो बचइब
पंप बदे भइल धरमधक्का
दुकान हटे पंचर के पक्का

डकटर वकील अफसर हीरो भा नेता
लाखन करोड़न में लेता आ देता
सुनियो के खाय ना सनक्का
दुकान हटे पंचर के पक्का

दुइ चेला एक भैने एगो भतीजा
तनी-तनी गलती प नौ-नौ नतीजा
बुढ़वा लगी मम्मा कक्का
दुकान हटे पंचर के पक्का

देसवा बंटा देले नेतवा अभागा
एके में बान्हे इ धन्धा के धागा
दिल्ली लाहौर चाहे ढक्का
दुकान हटे पंचर के पक्का

रवि प्रकाश की चार कवितायें !


(रवि की कवितायें युवा मन की ऐसी कवितायें हैं, जिनके क्रोड में प्रेम और भय की मिली जुली आहटें हैं. अच्छा यह है कि यह भय प्रेम का नक्शा तय नहीं करता. प्रेम का नक्शा खुद कवि का है और भय, बाहरी खौफनाक दुनिया के जटिल यथार्थ का. प्रेम इस यथार्थ से लड़ने और बदलने का जरिया है, और ठीक उसी समय नितांत निजी और वैयक्तिक भी. पेश हैं उनकी चार कवितायें.)


प्रेम करने से पहले

मैं चाहूँगा,
मेरे प्रेम करने से पहले
नदियाँ अनवरत हो जाएँ
और पत्थरों से टकराने का सिलसिला थम जाये !

डूब जाने का डर,
नदियाँ अपने साथ बहा ले जाएँ
और उनकी प्रवाह में डूबा हुआ मेरा पांव
ये महसूस करे,
कि नदियाँ किसी देवता के सर से नहीं
वरन पृथ्वी कि कोंख से निकली हैं !

मैं चाहूँगा नदी के किनारे पर बैठी औरत,
जब सुनाये कहानियां नदियों की
तो त्याग दे देवताओं की महिमा !
वो बताये अपने पुरखों के बारे में
और बताये, कि सबसे पहले हम आकर, यहीं बसे
नदी हमारा पहला प्रेम थी !

मैं चाहूँगा,
मेरे प्रेम करने से पहले
पेड़ पतझड़ के बाद
बसंत की आवग का,दर्शक ना रह जाये
हरेपन के लिए मौसम के खिलाफ
नदी और सूर्य को एक कर दे,
वो महसूस कर ले
घोसलों और झोपड़ियों के पति अपने दायित्व को !

मैं चाहूँगा,
गौरैया और पेड़, जब आपस में बातें करें
तो कहें,वो आँगन जहाँ तुम्हें दाने मिलते हैं
सृष्टी की आदि में मेरी इन्ही भुजाओं पर बसे थे
आज पृथ्वी से इस पर इर्ष्या है मेरी !

मैं चाहूँगा,
मेरे प्रेम करने से पहले
पत्थर ह्रदय की तरह धड़कने लगे !
खोल दे ख़ामोशी की सारी तहें,
जहाँ से कभी नदियाँ गुजरीं
कभी कोमल तो कभी उखड जाने इतने दबाव के साथ!
जहाँ लोग शिकार की तलाश में घंटों टेक लिए रहे !

दिखाएँ वे निशान
जहाँ रगड़कर आग पैदा की गई
और कहें,
मेरी ख़ामोशी का मतलब ये ना लिया जाये कि,
आग देवताओं कि देन है
मुझे ही तराशकर उनको आकार दिया गया
जबकि उनके भीतर
मैं आज भी मौन हूँ !

मैं चाहूँगा,
मेरे प्रेम करने से पहले
गुफाएं, खोल दें सारी गुफा चित्रों का इतिहास
जिसे इस श्रृष्टि के पहले कलाकार ने
अपने ह्रदय की चित्र भाषा में खिला था !
इतने तनाव में कोई पहली बार दिखा था !

उसके आने से पूर्व, कई दावानल आये
और नदियों का रंग लाल रहने लगा ,
तभी इसने छोड़ दिया अपना समूह
कभी वह बर्बर नरभछि लगता ,
कभी असीम सहृदयी ,
लेकिन अंततः ,इस द्वन्द में
भाले और तीर लिए लोगों के मध्य
उसने अंकित किया
एक निहत्था मानव जो चलता ही जा रहा था
कहीं किसी ओर !
मेरे प्रेम करने से पहले.......


मैं राख़ होना चाहता हूँ

जिसे तलाश कर रहा हूँ,
वो मेरी परछाइयोंके साथ
इस शाम में घुल रही है !

बच रहीं हैं कुछ टूटी हुई स्मृतियाँ
जहाँ से अजीब सी गंध उठ रही है !
टूटे हुए चश्मे,
मन पर बोझ की तरह लटक रहें हैं !
मेरी पहचान को आईने इनकार कर चुके हैं !

खंडहरों में सुलगती बेचैन सांसें
कबूतरों के साथ
शांति की तलाश में भटक गई हैं!
सातवें आसमान पर बैठने की चाहत को,
सात समंदर पार वाले राजा ने कैद कर लिया है !

लगता है पूरी की पूरी सदी लग जाएगी
सुलगकर आग होने में ,
मैं राख़ होना चाहता हूँ !

सुलगना,
आग होना,
और राख़ होना
दरअसल शाम में तुम्हारे साथ मिल जाना है !
मैंने देखा है
परछाई, शाम और राख़ के रंग को
सब ताप के बाद की तासीर !


मैं अंकुरित हो रहा हूँ

मैं अभी खेत जोतकर
धीरे-धीरे अंकुरित हो रहा हूँ

कुहासे भरी रात के बीच
और तुम,सड़क के उस तरफ लहराती हुई
नदी की तरह बहकर,दूर निकल गई
आसमान की तरह साफ होगी तुम्हारी देंह
जो अभी भी झलकती है,तुम्हारे ही अन्दर
नदी में, टिम-टिम करती हुई !
उसे छूने के लिए मैं बहना नहीं चाहता
क्योंकि छूट गए पीछे, अनगिनत लोग.

मैं खेत में अंकुरित हो रहा हूँ,
और मेरे ऊपर औंधे लेटी हुई तुम!
सहलाता है मेरे प्यार को एक किसान
लबालब भरी हुई क्यारियों की तरह,
जिसमे टिमटिमाती है तुम्हारी देह
फिर धरती सोख लेती है उसे
लेकिन मैं बेचैन हो जाता हूँ
कहीं धरती की सतह पर छूट तो नहीं गईं
तुम्हारी देह, तुम्हारी आँखे
क्योंकि मैं अंकुरित हो रहा हूँ

मेरे भीतर से फूटेगा कौन
मेरे भीतर खाली है आत्मा
एक पहाड़ की तरह
जहाँ से हवा गुजराती,मैं खुद को तरासता
लेकिन सीने पर पाल नहीं बाँधी
जिसे तुम सहारा देती, एक नाविक की तरह
आसमान के दूसरे छोर पर बैठी तुम

याकि जिसके सहारे खुद ही उतर पाऊं
तुम्हारे भीतर,इस नदी में
तैरूं उस तरफ
जहाँ गायें चरती हैं ,जहाँ मोर नाचते हैं
जहाँ पतलो के भूए तपती रेत पर बिछे,
ऊपर तुम्हारी देह देख रहें हैं
और पहाड़ तुम्हे प्रेम करना चाह रहें हैं
बस उसी तरफ मैं अंकुरित हो रहा हूँ
एक किसान के सहारे,
एक नाविक के सहारे,
एक पहाड़ तरासती हवा के सहारे !


तुमसे मिलकर

कभी बहुत अच्छा लगता तुमसे बातकर
जैसे गुबरैले सुबह का गोबर लिए
निकल जाते हैं कहाँ
मैं नहीं जानता !

कभी ऐसा लगता ,जैसे पूरी सुबह
ओस में भीगकर
धूल की तरह भारी हो गई हो,जो पांव से नहीं चिपकती
दबकर वहीँ रह जाती !

जानने का क्या है ,मैं कुछ भी नहीं जानता
हाँ कुछ चीजें याद रह जाती हैं,
एक सूत्र तलाशती हुई !

मैं कुछ बोल नहीं पाता
रात का अँधेरा मेरी जीभ का स्वाद लेकर
सदी का चाँद बुनता है
जिसे ओढ़कर दादी सोती है ,और लोग
सन्नाटे की तरफ जाते हैं !

आवाज़ बुनने की कारीगरी मुझे नहीं आती,
मेरी आँख भारी रहती है
जिसे मैं स्याही नहीं बना पाता !

ताल के किनारे खड़ी रहती हैं नरकट की फसलें
जो तय नहीं हैं किसके हिस्से में जाएँगी !
हाथ के अभाव में,
अंगूठा लिखता है इतिहास, और
जबान के अभाव में
आंसू
पेड़ों से नाचती हुई पत्तियां गिरती रहती हैं
और दरवाज़े का गोबर खेत तक पहुँचता रहता है !

मैं रोता हूँ, और भटकता हूँ
शब्द से लेकर सत्ता तक
लेकिन मुझे ,कोई अपने पास नहीं रख पाता

तुम भी कहाँ चली गई

यह बस रात का आखिरी पहर है
जहाँ उजाले के डर से
चौखट लांघता है आधा देश !



जे एन. यू. में अध्ययनरत रवि प्रकाश क्रांतिकारी छात्र संगठन आइसा से गहरे जुड़े हैं. कवितायें कम लिखते हैं. राजनीति में गहरी दिलचस्पी.

Friday, April 22, 2011

जब हम तुम मिलते हैं !

पहाड़ों से फिसलता वह जल प्रपात
रास्ते के हर पत्थर को
करता है द्रवित
बारिश जहाँ होती है
प्यास बुझती है सब की
पक्षपात रहित बारिश !

जब हम और तुम मिलते हैं
शायद ऐसा ही होता है कुछ कुछ.....

****
हम और तुम
जब बिल्कुल चुप हो जाते है
जब हो जाते हैं बिल्कुल सहज
तभी लुटा पाता हूँ मैं अपना सब कुछ

*****
हम और तुम
अगल- बगल बैठे
जब कुछ नहीं कर रहे होते है तब
बहुत कुछ कर रहे होते हैं

बहुत अन्दर सब कुछ उकेरती
एक नदी बह रही होती है चुपचाप!

******
इस कमरे में कोई दीवार नहीं
दरअसल
यह कमरा ही नहीं है सही मायनो में
सिर पर आसमान का एक छोटा सा टुकड़ा है
पैर के नीचे दो गज जमीन
और चारों ओर विस्तार असीम...
............................................
.........................................
सचमुच !
कित्ता बड़ा है यह कमरा
जो दरअसल एक कमरा नहीं है ‌और
जहाँ हम, तुम और एक पूरी दुनिया रहती है।

******

हम और तुम
जानते ही है यह कि
हममे तुममें जो असमान्य है
वह दरअसल कितना सामान्य है
‌और जो सचमुच है सहज
वह कितना जटिल पर यह जानने समझने में
हमने एक जिन्दगी गुजार दी......

प्यार में अक्सर ऐसा होता है
एक जिन्दगी गुजर जाती है
जानने, समझने
सहज होने में !

कुछ अलग तरह की कविताएं...

ये कविताएं कुछ ही दिन पहले की लिखी हैं। पता नहीं कैसी हैं। बहुत संकोच के साथ मैं इसे आपके सामने रख रहा हूं। इस आशा के साथ कि आप अपनी बेवाक राय देंगे. साथ ही यह कहना बेहद जरूरी है कि कृत्या ने अपनी वेब पत्रिका पर इसे जगह दी है, और ये कविताएं आदरणीय राकेश श्रीमाली एवं रति सक्सेना को आभार सहित प्रस्तुत की जा रही हैं। ये कविताएं यहां मिन्नी को समर्पित हैं.
-- विमलेश त्रिपाठी

हम बचे रहेंगे


हमने ही बनाए वे रास्ते
जिनपर चलने से
डरते हैं हम

हमने ही किए वे सारे काम
जिन्हें करने से
अपने बच्चों को रोकते हैं हम

हमने किया वही आज तक
जिसको दुसरे करते हैं
तो बुरा कहते हैं हम

हमने ही एक साथ
जी दो जिंदगियां
और इतने बेशर्म हो गए
कि खुद से अलग हो जाने का
मलाल नहीं रहा कभी

वे हम ही हैं
जो चाहते हैं कि
लोग हमें समय का मसीहा समझें

वे हम ही हैं
जिन्हें इलाज की सबसे अधिक जरूरत
समय नहीं
सदी नहीं
इतिहास और भविष्य भी नहीं
सबसे पहले खुद को ही खंगालने की जरूरत

खुद को खुद के सामने खड़ा करना
खौफ से नहीं
विश्वास से
शर्म से नहीं
गौरव से

और कहना समेकित स्वर में
कि हम बचे रहेंगे
बचे रहेंगे हम....।

संबंध

हमारे सच के पंख अलग-अलग
उड़ना चाहता एक सच
दुसरे से अलग
अपनी तरह अपनी ऊंचाई

साथ उड़ने की हर कोशिश में
टकराते
और हर बार हम गिरते जमीन पर
लहूलूहान एक दूसरे को कोसते
अफसोस करते
शुरू दिनों के पार

भूल चुके हम
साथ उड़ने के वायदे
चंदन पानी दिए बाती-सा रहना
रहना और रहने को सहना
क्या सीखा था हमने
या यूं ही कूद पड़े थे आग के समंदर में
कि एक खास उम्र के निरपराध संमोहन में)

दूर किसी होस्टल में
अनाथ की तरह रहता आया एक किशोर
हमें अलग-अलग दे चुका बधाइयां

और यह हमारे साथ के वायदे की
सोलहवीं सालगिरह का दिन
और तमाम चीजों के बीच
हम खाली
खाली और इस बूढ़ी पृथ्वी पर
हर पल बूढ़े होते
एकदम अकेले...

बचा सका अगर

बचा सका अगर
तो बचा लूंगा बूढ़े पिता के चेहरे की हंसी
मां की उखड़ती-लड़खड़ाती सांसों के बीच
पूरी इमानदारी से उठता
अपने बच्चे के लिए अशीष

गुल्लक में थोड़े-से खुदरे पैसे
गाढ़े दिनों के लिए जरूरी
बेरोजगार भाई की आंखों में
आखिरी सांस ले रहा विश्वास
बहन की एकांत अंधेरी जिन्दगी के बीच
रह-रह कर कौंधता आस का कोई जुगनु

कविता में न भी बच सकें अच्छे शब्द
परवाह नहीं
मुझे सिद्ध कर दिया जाय
एक गुमनाम-बेकार कवि

कविता की बड़ी और तिलस्मी दुनिया के बाहर
बचा सका तो
अपना सबकुछ हारकर
बचा लूंगा आदमी के अंदर सूखती
कोई नदी
मुरझाता अकेला एक पेड़ कोई

अगर बचा सका
तो बचा लूंगा वह गर्म खून
जिससे मिलती है रिश्तों को आंच

अगर बचा सका तो बचाउंगा उसे ही
कृपया मुझे
कविता की दुनिया से
बेदखल कर दिया जाय...


एक थी चिड़िया

एक चिड़िया थी
अकेली और उदास
दिन बदले रातें बदलीं
एक और चिड़िया आई
दोनों ने मिलकर
एक घोसला बनाया

चिड़िया ने दो अंडे दिए
दो चूज्जे आए
और घोसले में चीं-चीं चांय
और मिठी किलकारी

फिर एक दिन चिड़िया रूठ गई
दुसरी मे मनाया
फिर एक दिन चिड़िया ने झगड़ा किया
दुसरी चुप रही
बात फिर आई-गई हो गई

अब अक्सर रूठना होता
मनाना होता
झगड़े होते
ऐसी बातों पर कि कोई सुने तो हंसी आ जाय

बेतुकी बातें
झमेले बेकार के
चूज्जे डरे-सहमे
घोसले में चीखता सन्नाटा
शोर के बीच

यूं तिनके बिखरते गए
एक-एक जोड़े गए
बातें थीं कि बढ़ती गईं

एक दिन दुसरी चिड़िया उदास
घोसले से उड़ गई
उड़ी कि फिर कभी नहीं लौटी

फिर पहला चूज्जा उड़ा
दूसरा इसके बाद

चिड़िया फिर अकेली थी
अकेली स्मृतियों के बीच
निरा अकेली

पेड़ की जगह
अब ठूंठ था
रात के सहमे सन्नाटे में
पेड़ के रोने की आवाज आती

घोसले में एक तिनका भर बचा था
एक तिनका
और एक अकेली
चिड़िया..

Tuesday, April 19, 2011

विपिन चौधरी की तीन कविताएं !

विपिन चौधरी लंबे समय से कविताएं लिख रही हैं। अब तक उनके दो काव्य संग्रह 'अंधेरे के माध्यम से' और 'एक बार फिर' प्रकाशित हो चुके हैं। अभी हाल ही में विपिन जी की एक कहानी भी परिकथा में आई है। विपिन अपनी कविताओं में एक अलग तरह के संसार को रचने की दिशा में लागातार अग्रसर हैं। इस बार प्रस्तुत है द हेरिटेज में उनकी कविताएं।
आपकी प्रतिक्रियाएं आमंत्रित हैं।

महानगर
महानगरों में बने रहते हैं हम
खुद को लगातार ढूँढते हुए
अभिमान से अभियान के लम्बे सफर में
बेतरतीब उलझते हुए

महानगर की धमक
हमें इतनी नज़दीक सुनाई देती है कि
हम इसके शोर में कहीं गुम हो जाते हैं

दूर तक बिखरी हुई उदासी से
खुशी के बारीक कणों को छानते हुऐ
महानगरों के सताये हुऐ हम,
अपने गाँवों-कस्बों से बटोर कर
लायी हुई खुशियों को बड़ी कँजूसी से
खर्च करते हैं

महानगर के करीब आने पर हमें
अपनें बरसों के गठरी किये हुऐ
सपनों को परे सरका कर उसकी कठोर ज़मीन पर
नंगे पाँवों चलने की आदत डालनी पड़ी है
तुम्हे लांघते हुए चलते चलना
अपने आप को दिलासा देना है

नगरों के नगर के ज़हरीलें मौसम में
साफ खबरें भी दूषित हो जाती हैं
हमारे लिये पीड़ा का यही सबब है
फ्लाईओवर के नीचे से गुज़रते हुऐ
एक रेडिमेड उदासी हमारे अगल-बगल में हो लेती है
लम्बी चौड़ी इमारतें और उसके
ठीक बगल की टूटी झोपडी हमारी दार्शनिकता को और अधिक पैना कर देती है

पर अब हम महानगर के शयनकक्ष में प्रविष्ट हो गए हैं
यहीं से अपने आप को खोने का पूरा मुआवजा वसूल करेंगे

तुम्हारी चाल बहुत तेज़ है महानगर
शायद तुम खरगोश और कछुए की कहानी से वाबस्ता नहीं हो
जिसमे एक समय के बाद खरगोश की चाल मंद पड़ जाती थी.

टीस

मामला टीस का ना हो
तो बेहतर
पर कम या ज्यादा
मामला टीस का ही है

उखडती है टीस
तो दर्द देती है
दबी रहती है
तो कहीं ज्यादा दुख देती है

तमाम खुशगवारियाँ कहीं पीछे रह
जाती हैं
सदा से बियाबान धरती का क्या क्हना
तारों भरा आकाश
भी इसके रहते सूना लगने लगता है

ना चाँद से काम निकलता है
ना तारें ही काम आते हैं
कभी कम
कभी ज्यादा
टीस हाज़िर है भीतर हमेशा।

रंगों की तयशुदा परिभाषा के विरूद्ध

पीले रंग को खुशी की प्रतिध्वनी के रूप में सुना था
पर कदम- कदम पर जीवन का अवसाद
पीले रंग का सहारा लेकर ही आँखों में उतारा
किसी के बारहा याद के पीलेपन ने आत्मा तक को
स्याह कर दिया
हर पुरानी चीज़ जो खुशी का वायस बन गयी थी
वह ही जब समय के साथ कदमताल करती हुई पीली पडने लगी तो
यह फलसफा भी हाथ से छूट गया

तब लगा की हर चीज़ को एक टैग लगा कर कोने में रख दिया जाता है
जो बिना किसी विशेषण के अधूरी मान ली जाती है
अपनी ही कालिमा से लिप्त अधूरा इंसान भी
बिना विशेषण के सामने की किसी अधूरी वस्तु के सामने आकर पलट आता है

नीले रंग की कहानी ने भी इसी तरह
मुझे देर तक खूब छला
मुझे अपने साथ लेकर
यह एक बार
पानी की ओर मुड़ा
दूसरी बार आकाश की ओर
और तीसरी बार मुझे अपने भीतर समटने की तैयारी में साँस लेता हुआ
दिखाई दिया


यह लाल रंग अपनी पवित्रता को साथ लेकर
इतिहास की लालिमा की ओर लपका फिर वापिस लौटा
लहुलुहान हो कर

कुछ ही दूरी पर खड़ा केसरी रंग प्रत्यंचा पर चढ़ा
काँपा, कभी बेहिचक हो
माथे पर बिंदु- सा सिमट गया
यह ठीक है कि भूरे रंग से मुझे कभी शिकायत नहीं रही
यही मेरे सबसे नजदीक की
मिटटी में गुंधा हुआ है
अनुभव की रोशनाई में,
मैंने इसे धीमी आँच में देर तक पकाया
यह भूरा रंग कुछ- कुछ मेरी भूख से वाबस्ता रखता है शायद
तभी जैसे ही मेरे भीतर की हाँठी रीतने लगती है उसी समय मैं
दुनियादारी से बंधन ढीले कर के इसे पकाने में जुट जाती हूँ।