Monday, April 18, 2011

दीर्घ जीवन का नहीं, पवित्र जीवन का मूल्य है !

कितना लम्बा जीवन जीये ? यह कोई महत्व की वस्तु नहीं है । कितना जिया के बजाय कैसा जीवन जिया यह अधिक महत्व की वस्तु है ।
इतिहास के स्वर्णिम पृष्ठों की ओर दृष्टि करेंगे तो कई ऐसी विभूतियों के दर्शन होंगे, जिनका आयुश्य बहुत ही परिमित था, परंतु उस परिमित आयुष्य में भी वे ऐसा महान कार्य करके गये हैं, जिसके कारण भले ही उनका भौतिक अस्तित्व इस दुनिया में नहीं है, परंतु उनका उज्ज्वल यश दिग्दिगान्त तक फैला है ।
सौ किलो लोहे से भी एक किलो सोने का मूल्य अधिक होता है और एक किलो सोने से भी दस-बीस ग्राम हीरों का मूल्य अधिक होता है । अतः अपवित्र तथा कलंकित जीवन के सौ वर्ष के बजाय पच्चीस वर्ष की पवित्र जिन्दगी का मूल्य अधिक है ।
पवित्र जीवन जीने वाले, अल्प जीवन जीने पर भी युगो-युगों तक अपना नाम अमर कर जाते हैं, जबकि दुष्ट पुरुष दीर्घ-काल तक जीये तो भी उसकी जिन्दगी अन्य जीवों के लिये दुःखदायी एवं भारभूत ही होती है । अतः दुर्लभता से प्राप्त मानव-जीवन को पवित्र बनाने के लिये अपने जीवन को सदाचारी और सुसंस्कृत बनाने का प्रयत्न करना चाहिये ।
भगवान का सारा विधान जीवों से
वास्तविक कल्याण के लिए होता है ।

बुराई के सम्पर्क से हमारी अच्छी आदतें भी दूषित हो जाती हैं ।

इस बात की कोई चिंता न करे कि आप ठोकर खाकर गिर पड़े ।
गिरो मगर गिरे मत रहो, फिर खड़े हो जावों और बढ़ जावों ।।

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