Sunday, April 24, 2011

रवि प्रकाश की चार कवितायें !


(रवि की कवितायें युवा मन की ऐसी कवितायें हैं, जिनके क्रोड में प्रेम और भय की मिली जुली आहटें हैं. अच्छा यह है कि यह भय प्रेम का नक्शा तय नहीं करता. प्रेम का नक्शा खुद कवि का है और भय, बाहरी खौफनाक दुनिया के जटिल यथार्थ का. प्रेम इस यथार्थ से लड़ने और बदलने का जरिया है, और ठीक उसी समय नितांत निजी और वैयक्तिक भी. पेश हैं उनकी चार कवितायें.)


प्रेम करने से पहले

मैं चाहूँगा,
मेरे प्रेम करने से पहले
नदियाँ अनवरत हो जाएँ
और पत्थरों से टकराने का सिलसिला थम जाये !

डूब जाने का डर,
नदियाँ अपने साथ बहा ले जाएँ
और उनकी प्रवाह में डूबा हुआ मेरा पांव
ये महसूस करे,
कि नदियाँ किसी देवता के सर से नहीं
वरन पृथ्वी कि कोंख से निकली हैं !

मैं चाहूँगा नदी के किनारे पर बैठी औरत,
जब सुनाये कहानियां नदियों की
तो त्याग दे देवताओं की महिमा !
वो बताये अपने पुरखों के बारे में
और बताये, कि सबसे पहले हम आकर, यहीं बसे
नदी हमारा पहला प्रेम थी !

मैं चाहूँगा,
मेरे प्रेम करने से पहले
पेड़ पतझड़ के बाद
बसंत की आवग का,दर्शक ना रह जाये
हरेपन के लिए मौसम के खिलाफ
नदी और सूर्य को एक कर दे,
वो महसूस कर ले
घोसलों और झोपड़ियों के पति अपने दायित्व को !

मैं चाहूँगा,
गौरैया और पेड़, जब आपस में बातें करें
तो कहें,वो आँगन जहाँ तुम्हें दाने मिलते हैं
सृष्टी की आदि में मेरी इन्ही भुजाओं पर बसे थे
आज पृथ्वी से इस पर इर्ष्या है मेरी !

मैं चाहूँगा,
मेरे प्रेम करने से पहले
पत्थर ह्रदय की तरह धड़कने लगे !
खोल दे ख़ामोशी की सारी तहें,
जहाँ से कभी नदियाँ गुजरीं
कभी कोमल तो कभी उखड जाने इतने दबाव के साथ!
जहाँ लोग शिकार की तलाश में घंटों टेक लिए रहे !

दिखाएँ वे निशान
जहाँ रगड़कर आग पैदा की गई
और कहें,
मेरी ख़ामोशी का मतलब ये ना लिया जाये कि,
आग देवताओं कि देन है
मुझे ही तराशकर उनको आकार दिया गया
जबकि उनके भीतर
मैं आज भी मौन हूँ !

मैं चाहूँगा,
मेरे प्रेम करने से पहले
गुफाएं, खोल दें सारी गुफा चित्रों का इतिहास
जिसे इस श्रृष्टि के पहले कलाकार ने
अपने ह्रदय की चित्र भाषा में खिला था !
इतने तनाव में कोई पहली बार दिखा था !

उसके आने से पूर्व, कई दावानल आये
और नदियों का रंग लाल रहने लगा ,
तभी इसने छोड़ दिया अपना समूह
कभी वह बर्बर नरभछि लगता ,
कभी असीम सहृदयी ,
लेकिन अंततः ,इस द्वन्द में
भाले और तीर लिए लोगों के मध्य
उसने अंकित किया
एक निहत्था मानव जो चलता ही जा रहा था
कहीं किसी ओर !
मेरे प्रेम करने से पहले.......


मैं राख़ होना चाहता हूँ

जिसे तलाश कर रहा हूँ,
वो मेरी परछाइयोंके साथ
इस शाम में घुल रही है !

बच रहीं हैं कुछ टूटी हुई स्मृतियाँ
जहाँ से अजीब सी गंध उठ रही है !
टूटे हुए चश्मे,
मन पर बोझ की तरह लटक रहें हैं !
मेरी पहचान को आईने इनकार कर चुके हैं !

खंडहरों में सुलगती बेचैन सांसें
कबूतरों के साथ
शांति की तलाश में भटक गई हैं!
सातवें आसमान पर बैठने की चाहत को,
सात समंदर पार वाले राजा ने कैद कर लिया है !

लगता है पूरी की पूरी सदी लग जाएगी
सुलगकर आग होने में ,
मैं राख़ होना चाहता हूँ !

सुलगना,
आग होना,
और राख़ होना
दरअसल शाम में तुम्हारे साथ मिल जाना है !
मैंने देखा है
परछाई, शाम और राख़ के रंग को
सब ताप के बाद की तासीर !


मैं अंकुरित हो रहा हूँ

मैं अभी खेत जोतकर
धीरे-धीरे अंकुरित हो रहा हूँ

कुहासे भरी रात के बीच
और तुम,सड़क के उस तरफ लहराती हुई
नदी की तरह बहकर,दूर निकल गई
आसमान की तरह साफ होगी तुम्हारी देंह
जो अभी भी झलकती है,तुम्हारे ही अन्दर
नदी में, टिम-टिम करती हुई !
उसे छूने के लिए मैं बहना नहीं चाहता
क्योंकि छूट गए पीछे, अनगिनत लोग.

मैं खेत में अंकुरित हो रहा हूँ,
और मेरे ऊपर औंधे लेटी हुई तुम!
सहलाता है मेरे प्यार को एक किसान
लबालब भरी हुई क्यारियों की तरह,
जिसमे टिमटिमाती है तुम्हारी देह
फिर धरती सोख लेती है उसे
लेकिन मैं बेचैन हो जाता हूँ
कहीं धरती की सतह पर छूट तो नहीं गईं
तुम्हारी देह, तुम्हारी आँखे
क्योंकि मैं अंकुरित हो रहा हूँ

मेरे भीतर से फूटेगा कौन
मेरे भीतर खाली है आत्मा
एक पहाड़ की तरह
जहाँ से हवा गुजराती,मैं खुद को तरासता
लेकिन सीने पर पाल नहीं बाँधी
जिसे तुम सहारा देती, एक नाविक की तरह
आसमान के दूसरे छोर पर बैठी तुम

याकि जिसके सहारे खुद ही उतर पाऊं
तुम्हारे भीतर,इस नदी में
तैरूं उस तरफ
जहाँ गायें चरती हैं ,जहाँ मोर नाचते हैं
जहाँ पतलो के भूए तपती रेत पर बिछे,
ऊपर तुम्हारी देह देख रहें हैं
और पहाड़ तुम्हे प्रेम करना चाह रहें हैं
बस उसी तरफ मैं अंकुरित हो रहा हूँ
एक किसान के सहारे,
एक नाविक के सहारे,
एक पहाड़ तरासती हवा के सहारे !


तुमसे मिलकर

कभी बहुत अच्छा लगता तुमसे बातकर
जैसे गुबरैले सुबह का गोबर लिए
निकल जाते हैं कहाँ
मैं नहीं जानता !

कभी ऐसा लगता ,जैसे पूरी सुबह
ओस में भीगकर
धूल की तरह भारी हो गई हो,जो पांव से नहीं चिपकती
दबकर वहीँ रह जाती !

जानने का क्या है ,मैं कुछ भी नहीं जानता
हाँ कुछ चीजें याद रह जाती हैं,
एक सूत्र तलाशती हुई !

मैं कुछ बोल नहीं पाता
रात का अँधेरा मेरी जीभ का स्वाद लेकर
सदी का चाँद बुनता है
जिसे ओढ़कर दादी सोती है ,और लोग
सन्नाटे की तरफ जाते हैं !

आवाज़ बुनने की कारीगरी मुझे नहीं आती,
मेरी आँख भारी रहती है
जिसे मैं स्याही नहीं बना पाता !

ताल के किनारे खड़ी रहती हैं नरकट की फसलें
जो तय नहीं हैं किसके हिस्से में जाएँगी !
हाथ के अभाव में,
अंगूठा लिखता है इतिहास, और
जबान के अभाव में
आंसू
पेड़ों से नाचती हुई पत्तियां गिरती रहती हैं
और दरवाज़े का गोबर खेत तक पहुँचता रहता है !

मैं रोता हूँ, और भटकता हूँ
शब्द से लेकर सत्ता तक
लेकिन मुझे ,कोई अपने पास नहीं रख पाता

तुम भी कहाँ चली गई

यह बस रात का आखिरी पहर है
जहाँ उजाले के डर से
चौखट लांघता है आधा देश !



जे एन. यू. में अध्ययनरत रवि प्रकाश क्रांतिकारी छात्र संगठन आइसा से गहरे जुड़े हैं. कवितायें कम लिखते हैं. राजनीति में गहरी दिलचस्पी.

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