Tuesday, April 19, 2011

विपिन चौधरी की तीन कविताएं !

विपिन चौधरी लंबे समय से कविताएं लिख रही हैं। अब तक उनके दो काव्य संग्रह 'अंधेरे के माध्यम से' और 'एक बार फिर' प्रकाशित हो चुके हैं। अभी हाल ही में विपिन जी की एक कहानी भी परिकथा में आई है। विपिन अपनी कविताओं में एक अलग तरह के संसार को रचने की दिशा में लागातार अग्रसर हैं। इस बार प्रस्तुत है द हेरिटेज में उनकी कविताएं।
आपकी प्रतिक्रियाएं आमंत्रित हैं।

महानगर
महानगरों में बने रहते हैं हम
खुद को लगातार ढूँढते हुए
अभिमान से अभियान के लम्बे सफर में
बेतरतीब उलझते हुए

महानगर की धमक
हमें इतनी नज़दीक सुनाई देती है कि
हम इसके शोर में कहीं गुम हो जाते हैं

दूर तक बिखरी हुई उदासी से
खुशी के बारीक कणों को छानते हुऐ
महानगरों के सताये हुऐ हम,
अपने गाँवों-कस्बों से बटोर कर
लायी हुई खुशियों को बड़ी कँजूसी से
खर्च करते हैं

महानगर के करीब आने पर हमें
अपनें बरसों के गठरी किये हुऐ
सपनों को परे सरका कर उसकी कठोर ज़मीन पर
नंगे पाँवों चलने की आदत डालनी पड़ी है
तुम्हे लांघते हुए चलते चलना
अपने आप को दिलासा देना है

नगरों के नगर के ज़हरीलें मौसम में
साफ खबरें भी दूषित हो जाती हैं
हमारे लिये पीड़ा का यही सबब है
फ्लाईओवर के नीचे से गुज़रते हुऐ
एक रेडिमेड उदासी हमारे अगल-बगल में हो लेती है
लम्बी चौड़ी इमारतें और उसके
ठीक बगल की टूटी झोपडी हमारी दार्शनिकता को और अधिक पैना कर देती है

पर अब हम महानगर के शयनकक्ष में प्रविष्ट हो गए हैं
यहीं से अपने आप को खोने का पूरा मुआवजा वसूल करेंगे

तुम्हारी चाल बहुत तेज़ है महानगर
शायद तुम खरगोश और कछुए की कहानी से वाबस्ता नहीं हो
जिसमे एक समय के बाद खरगोश की चाल मंद पड़ जाती थी.

टीस

मामला टीस का ना हो
तो बेहतर
पर कम या ज्यादा
मामला टीस का ही है

उखडती है टीस
तो दर्द देती है
दबी रहती है
तो कहीं ज्यादा दुख देती है

तमाम खुशगवारियाँ कहीं पीछे रह
जाती हैं
सदा से बियाबान धरती का क्या क्हना
तारों भरा आकाश
भी इसके रहते सूना लगने लगता है

ना चाँद से काम निकलता है
ना तारें ही काम आते हैं
कभी कम
कभी ज्यादा
टीस हाज़िर है भीतर हमेशा।

रंगों की तयशुदा परिभाषा के विरूद्ध

पीले रंग को खुशी की प्रतिध्वनी के रूप में सुना था
पर कदम- कदम पर जीवन का अवसाद
पीले रंग का सहारा लेकर ही आँखों में उतारा
किसी के बारहा याद के पीलेपन ने आत्मा तक को
स्याह कर दिया
हर पुरानी चीज़ जो खुशी का वायस बन गयी थी
वह ही जब समय के साथ कदमताल करती हुई पीली पडने लगी तो
यह फलसफा भी हाथ से छूट गया

तब लगा की हर चीज़ को एक टैग लगा कर कोने में रख दिया जाता है
जो बिना किसी विशेषण के अधूरी मान ली जाती है
अपनी ही कालिमा से लिप्त अधूरा इंसान भी
बिना विशेषण के सामने की किसी अधूरी वस्तु के सामने आकर पलट आता है

नीले रंग की कहानी ने भी इसी तरह
मुझे देर तक खूब छला
मुझे अपने साथ लेकर
यह एक बार
पानी की ओर मुड़ा
दूसरी बार आकाश की ओर
और तीसरी बार मुझे अपने भीतर समटने की तैयारी में साँस लेता हुआ
दिखाई दिया


यह लाल रंग अपनी पवित्रता को साथ लेकर
इतिहास की लालिमा की ओर लपका फिर वापिस लौटा
लहुलुहान हो कर

कुछ ही दूरी पर खड़ा केसरी रंग प्रत्यंचा पर चढ़ा
काँपा, कभी बेहिचक हो
माथे पर बिंदु- सा सिमट गया
यह ठीक है कि भूरे रंग से मुझे कभी शिकायत नहीं रही
यही मेरे सबसे नजदीक की
मिटटी में गुंधा हुआ है
अनुभव की रोशनाई में,
मैंने इसे धीमी आँच में देर तक पकाया
यह भूरा रंग कुछ- कुछ मेरी भूख से वाबस्ता रखता है शायद
तभी जैसे ही मेरे भीतर की हाँठी रीतने लगती है उसी समय मैं
दुनियादारी से बंधन ढीले कर के इसे पकाने में जुट जाती हूँ।

No comments:

Post a Comment