Tuesday, April 19, 2011

दिगम्बर नासवा की रचनायें उनके ब्लॉग से साभार.....

माँ तभी से हो गयी कितनी अकेली

हो गयी तक्सीम अब्बा की हवेली
माँ तभी से हो गयी कितनी अकेली

आज भी आँगन में वो पीपल खड़ा है
पर नही आती है वो कोयल सुरीली

नल खुला रखती है आँगन का हमेशा
सूखती जाती है पर फिर भी चमेली

अनगिनत यादों को आँचल में समेटे
भीगती रहती हैं दो आँखें पनीली

झाड़ती रहती है कमरे को हमेशा
फिर भी आ जाती हैं कुछ यादें हठीली

अब नही करती है वो बातें किसी से
बस पुराना ट्रंक है उसकी सहेली

उम्र के इस दौर में खुद को समझती
काँच के बर्तन में पीतल की पतीली

हो गये हैं अनगिनत तुलसी के गमले
पर है आँगन की ये वृंदा आज पीली

इस तरह परिणय न हो

कष्ट में भी हास्य की संभावना बाकी रहे
प्रेम का बंधन रहे सदभावना बाकी रहे

यूँ करो स्पर्श मेरा दर्द सब जाता रहे
शूल हों पग में मगर ना यातना बाकी रहे

इस तरह से ज़िन्दगी का संतुलन होता रहे
जय पराजय की कभी ना भावना बाकी रहे

आप में शक्ति हे फिर चाहे के दर्शन दो न दो
पर ह्रदय में आपकी अवधारना बाकी रहे

सात फेरे डालना है आत्माओं का मिलन
इस तरह परिणय न हो, स्वीकारना बाकी रहे

कर सको निर्माण तो ऐसा करो इस देश में
प्रेम की फंसलें उगी हों काटना बाकी रहे

थाल पूजा का लिए चंचल निगाहें देख लूं
हे प्रभू फिर और कोई चाह ना बाकी रहे

आज के नेता

सपनों की सौगात उठाई होती है
वादों की बारात सजाई होती हैं

वोटों की खातिर नेताओं ने देखो
दुनिया भर में आग लगाई होती है

इनकी शै पर इनके चॅमचों ने कितनी
गुंडागर्दी आम मचाई होती है

घोटाले पर घौटाले करते जाते
लीपा पोती आग बुझाई होती है

सूखा हो या हाहाकार मचा कितना
इनके हिस्से ढेर मलाई होती है

कुर्सी कुर्सी खेल रहे हैं सब नेता
कहने को बस टाँग खिचाई होती है

हिंदू मुस्लिम इनकी सत्ता के मुहरे
मंदिर मस्जिद रोज़ लड़ाई होती है

सूरज के आने से पहले ...

भोर ने आज
जब थपकी दे कर मुझे उठाया
जाने क्यों ऐसा लगा
सवेरा कुछ देर से आया

अलसाई सी सुबह थी
आँखों में कुछ अधखिले ख्वाब
खिड़की के सुराख से झाँक रहा था
अंधेरों का धुंधला साया

मैं दबे पाँव तेरे कमरे में आया
देखा ... तेरे बिस्तर के मुहाने
सुबह की पहली किरण तेरे होठों को चूम रही थी
सोए सोए तू करवट बदल होले से मुस्कुराइ
हवा के झोंके के साथ
कच्ची किरण ने ली अंगड़ाई
रात के घुप्प अंधेरे को चीर
वो कायनात में जा समाई

अगले ही पल
सवेरे ने दस्तक दी
अंधेरे की गठरी उठा
रात बिदा हुई

मुद्दतों बाद
मुझे भी समझ आया

सूरज के आने से पहले
नीले आसमान पर
सिंदूरी रंग कहाँ से आया


विश्वास

अविश्वास का बस एक पल
और तुम्हारे आँसुओं का सैलाब

हर दहलीज़ लाँघ कर बहा ले गया
विश्वास के मज़बूत लम्हे
रिश्तों का आधार
कच्चे धागों की गरिमा
साथ फेरों का बंधन
वक़्त की खुरदरी सतह पर बिखर गये
कुछ तुम्हारे
कुछ मेरे
कुछ मिल कर देखे ख्वाब

न जाने क्यों
दम तोड़ते ख्वाबों से
भविष्य की आशा चुरा ली मैने
सहेज ली उम्मीद की वो किरण
जो साँस लेती थी हमारी आँखों में

अब जब कभी
तुम्हारी सूखी आँखों में
विश्वास की नमी नज़र आएगी
चुपके से भर दूँगा
भविष्य के कुछ सपने
आशाओं का रोशनी

जला दूँगा वो सब लम्हे
जो उड़ा ले गये
तुम्हारा
मेरा
कुछ हम दोनो का ...
विश्वास

समानांतर रेखाएं

याद है वो तमाम मसले
समाजवाद और पूंजीवाद की लंबी बहस
कार्ल मार्क्स के आर्थिक सिद्धांत
मानव अधिकारों को लेकर आपसी मतभेद
फ्रायड का विवादित मनोविज्ञान
मैकाले की शिक्षा पद्धति
कितनी आसानी से एकमत हो गये
इन विवादित मुद्दों पर

मेरे आई. ऐ. एस. के सपने
तुम्हारे समाज सेवा के ख्वाब
बहस समाप्त होते होते
इस मुद्दे पर भी एकमत हो गये थे

याद है उन दिनों
दिन पंख लगा कर उड़ जाते थे
रात पलक झपकते बीत जाती थी
एस एम एस का लंबा सिलसिला
थमता नही था

गुलज़ार की नज़मों में जीने लगे थे हम

फिर वक़्त के थपेड़ों ने
हालात की खुरदरी सतह पर
जाने कब खड़ी कर दी
अहम की हल्की दीवार

हमारे बीच आ गया
ईगो का पतला आवरण
पता नहीं कब खिंच गयी हम दोनों के बीच
कभी न मिलने वाली दो समानांतर रेखाएं

मैं तो आज भी निरंतर दौड़ रहा हूँ
अपनी रेखा पर

सुना है समानांतर रेखाएं
अनंत पर जा कर मिल जाती हैं

मुहब्बत

खुदा की है ये दस्तकारी मुहब्बत
जमीं पे है किसने उतारी मुहब्बत

उमड़ती घटाएं महकती फिजायें
किसी की तो है चित्रकारी मुहब्बत

तेरी सादगी गुनगुनाती है हर सू
मुहब्बत मुहब्बत हमारी मुहब्बत

तेरे गीत नगमें तेरी याद लेकर
तेरा नाम लेकर संवारी मुहबत

पनपने लगेंगे कई ख्वाब मिल के
जो पलकों में तूने उतारी मुहब्बत

मुहब्बत है सौदा दिलों का दिलों से
न मैं जीत पाया न हारी मुहब्बत

सुनाते हैं जो लैला मजनू के किस्से
वो कहते हैं कितनी हे प्यारी मुहब्बत

चली है जुबां पर मेरा नाम लेकर
वो नाज़ुक सी अल्हड कुंवारी मुहब्बत

है बदली हुई वादियों की फिजायें
पहाड़ों पे हे बर्फ़बारी मुहब्बत

अमीरों को मिलती है ये बेतहाशा
गरीबों को है रेजगारी मुहब्बत

ज़माने के झूठे रिवाजों में फंस कर
लुटी बस मुहब्बत बिचारी मुहब्बत

है दस्तूर कैसा ज़माने का देखो
सदा ही है पैसे से हारी मुहब्बत

फटेहाल जेबों ने धीरे से बोला
चलो आज कर लो उधारी मुहब्बत

थाल पूजा का लिए सूनी निगाहें

आप ख़्वाबों में नहीं आते हो जब तक
मैं हकीकत से जुड़ा रहता हुं तब तक

जिन्दगी की राह में चलना हे तन्हा
थाम कर रक्खोगे मेरा हाथ कब तक

प्यार सबको बांटता चल इस सफ़र में
बस इसी रस्ते से सब जाते हें रब तक

तुम चमकती रौशनी से दूर रहना
जुगनुओं का साथ बस होता हे शब तक

गीत नगमें नज्म कविता शेर तेरे
बस तेरी ही बात तेरा नाम लब तक

थाल पूजा का लिए सूनी निगाहें
पूछती हैं क्यों नहीं लौटे वो अब तक

अधूरा सत्य

साथियो ये मेरी इस साल कि अंतिम रचना है ... २३ दिसंबर से १ जनवरी तक दिल्ली, फरीदाबाद की सर्दी का मज़ा लूटूँगा ... आप सब को नया साल बहुत बहुत मुबारक ...


तुम्हारे कहने भर से क्यों मान लूं
मैं झूठ बोलता हूँ
माना कुछ बातें सच नही होतीं
पर वो झूठ भी तो नहीं होतीं
मेरे बोले बहुत से सत्य
तुमने पूर्णतः सत्य नहीं माने
जबकि तुम्हारा अन्तः-करण यही चाहता है

कुछ अधूरे सत्य स्थापित हैं इतिहास में
अधूरे झूठ की तरह

क्या इतिहास बदलने वाले झूठ पूर्णतः झूठ हि माने जाएँगे
क्या सत्य मान कर बोले गये झूठ
झूठ हि कहलाएँगे

क्या अश्वथामा की मौत पर

युधिष्ठर से बुलवाया गया सत्य
सत्य की आड़ में बोला गया झूठ था
या झूठ की दहलीज़ पर खड़े हो कर बोला गया सत्य …
धर्म की स्थापना के लिए बोला गया झूठ
या सत्य की अवमानना को बोला गया सत्य …

क्या ये सत्य नही
प्रकाश के आने पर अंधकार लुप्त हो जाता है

और इस बात को तुम क्या कहोगी
अंधकार बढ़ते बढ़ते प्रकाश को लील लेता है

फिर सत्य क्या है और झूठ क्या
ये जीवन जो माया है
या माया जो जीवन निर्धारित करती है


जैसे कुछ अधूरे सत्य स्थापित हैं इतिहास में
ऐसे अधूरे सत्य मैं तुमसे बोलता हूँ
जिन्हे तुम झूठ समझती हो और मुझे ...... झूठा

वैसे तुमने तो आज तक
इस पूर्णतः सत्य को भी सत्य कब माना
जब मैने तुमसे कहा था

जब कभी मैं तुम्हें देखता हूँ
तुम्हारा सादगी भरा
पलकें झुकाए
पूजा की थाली लिए
गुलाबी साड़ी में लिपटा रूप
मेरे सामने आ जाता है...

जबकि तुम जानती हो
एक यही सत्य मेरे जीवन का सबसे बड़ा सत्य है
और तुम्हारे लिए ...
.....
.....

झूठ-मूठ हि बोला झूठ

गुलाबी ख्वाब

रात भर
उनिंदी सी रात ओढ़े
जागती आँखों ने
हसीन ख्वाब जोड़े

सुबह की आहट से पहले
छोड़ आया हूँ वो ख्वाब
तुम्हारे तकिये तले

अब जब कभी
कच्ची धूप की पहली किरण
तुम्हारी पलकों पे दस्तक देगी

तकिये के नीचे से सरक आये मेरे ख्वाब
तुम्हारी आँखों में उतर जाएँगे

तुम हौले से अपनी नज़रें उठाना
नाज़ुक हैं मेरे ख्वाब कहीं बिखर न जाएँ

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