Tuesday, April 19, 2011

ककून !

अरसा हुआ
एक गम में जागते हुए,
आँख बंद न हो
तो जल्दी ही
जलने भी लगती है,
मेरी जलती हुई ऑंखें तो
पिघलने भी लगीं,
पिघल कर बहने भी लगीं
बहने का दायरा
पहले पहल तो
गालों तक ही था
अब यह बढ़ गया है
सर से ले के पाँव
कृष्ण की खीर ने तो
उनके तलवे छोड़ दिए थे,
मेरे आंसुओं ने तलवों
को भी ढँक लिया है ..
एक खोल सा बन गया है
मेरे ऊपर,
इक ककून सा दिखने लगा हूँ
इन दिनों मैं..
शायद नए जनम का मेरे वक्त हो गया.....

कवि: स्वप्निल तिवारी ’आतिश’

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