Tuesday, April 19, 2011

देखो! सपने क़ुर्बानी मांगते हैं !

देखा था सपना एक कस्बे ने...

कि वो शहर हो गया!

दौड़ता रहा वो सालों

उस सपने के पीछे

आखिर रंग लाई उसकी उर्ज़ा

रौशन हुआ वो कस्बा….

और शहर हो गया!!!

पर हाय! अब क्या हो?

शहर को भूख लगी थी

उसने निगल ली कई ज़िन्दगियां...

और बढ़ चला तरक्की के रास्ते पर

बढ़ गए सपने

बढ़ गए उन सपनों के दायरे

फिर जब लगती भूख

थमती थीं कुछ ज़िन्दगियां

कस्बा एक महानगर हो गया

और भूख एक नियम

कई गांवों ने...

कई कस्बों ने

आज फिर वही सपना देखा है!

याद रहे ! सपने क़ुर्बानी मांगते हैं

(ग्रामीण विकास को समर्पित पत्रिका कुरूक्षेत्र में प्रकाशित कविता)

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