Monday, December 31, 2012

वो सूनी खिड़की भी अच्छी लगती है !


तुम्हारी  खूबसूरती  में  चार  चाँद  लग  जाते  हैं -
जब  तुम  नहा के  जुल्फे  झटकते   हुए  खिड़की  पे  आती  हो ,
मै बेखबर  सा  निहारता  हूँ  -
उस  चाँद  से  सलोने  चेहरे  को .
एक  पल  के  लिए  भूल  जाता  हूँ  सब  कुछ ,
ऐसा  लगता  है  जैसे सुबह-  ऒस  की
नन्ही - नन्ही  बूंदों   से  नहा  के  निकली  हो ,
जब  तुम  सरमा   के  मुझे  देखती  हो  ,
और  नजरे  झुका  कर  मुस्करा  के  जाने  लगती  हो,
दिल  सिहर  सा  उठता  है ,
रोम  रोम  में  आग  सी  लगती  है ,
तुम्हारे  उस  सरमाने  को  क्या  कहूँ  ,
जैसे  चाँद  शरमा  के  बादल  में  छुपता  हो ,
दिल  एक  बार  फिर  से  बेचैन  होता  है तुम्हे  देखने  के  लिए ,
अंतर्मन  में  एक  तस्वीर  -हमेशा  छुपा  रखी  है  मैंने  तुम्हारी ,
दिन  भर  में  ना  जाने  कितनी  बार
उस  खिड़की  की  तरफ  देखता  हूँ -
वो  सूनी  खिड़की  भी  अच्छी  लगती  है .
कम  से  कम  तुम्हारे  आने  का  आस  तो  दिलाती  है ,
फिर  तुम्हारा  इंतजार  ऐसे  करता  हूँ
जैसे  कोई  उल्लू  रात   के  आने  का  इंतजार  करता  हो ,
और  शाम  को  जब  तुम  आती  हो
आँखों  से  आँखे  मिलाती  हो ,
दिल  जैसे  कह  उठता  है  तुम्हारा  ही  इंतजार  था ,
अब  आये  हो  कभी  मत  जाना ,
भले  ही  थोड़े  दूर  हो , पास  आना ,
और  इस  पागल  को  अपना  बनाना .....................

-वीरेश  मिश्र

जिनके चरण दुर्बल और हारे हैं !

लीक पर वे चलें जिनके
चरण दुर्बल और हारे हैं
हमें तो जो हमारी यात्रा से बने
ऐसे अनिर्मित पन्थ प्यारे हैं
साक्षी हों राह रोके खड़े
पीले बाँस के झुरमुट
कि उनमें गा रही है जो हवा
उसी से लिपटे हुए सपने हमारे हैं
शेष जो भी हैं-
वक्ष खोले डोलती अमराइयाँ
गर्व से आकाश थामे खड़े
ताड़ के ये पेड़;
हिलती क्षितिज की झालरें
झूमती हर डाल पर बैठी
फलों से मारती
खिलखिलाती शोख़ अल्हड़ हवा;
गायक-मण्डली-से थिरकते आते गगन में मेघ,
वाद्य-यन्त्रों-से पड़े टीले,
नदी बनने की प्रतीक्षा में, कहीं नीचे
शुष्क नाले में नाचता एक अँजुरी जल;
सभी, बन रहा है कहीं जो विश्वास
जो संकल्प हममें
बस उसी के ही सहारें हैं ।
लीक पर वें चलें जिनके
चरण दुर्बल और हारे हैं,
हमें तो जो हमारी यात्रा से बने
ऐसे अनिर्मित पन्थ प्यारे हैं ।


- सर्वेश्वरदयाल सक्सेना

कभी देखा है ?

कभी  देखा  है  खुले  आसमान  को ?
कभी  कोशिश की  है  उसको  बाँहों  में  भरने  की ? 

कभी  चाहा  है  उसके  जैसा  बनने की , 
कभी  कोशिश  की  है ? 
कभी  देखा  है  सतरंगी  बादलों  को  ?
कभी  बादलों  में  बनाया  है  कोई  पेड़ ? 

कभी  देखा  है  कोई  परवाज  नीले  श्वेत  बादलों  में ? 
कभी  देखा है  सावन  के  काले  बादलों  को ?
कभी  देखा  है  गिरती  हुई  बूंदों  को ?
कभी  भीगा  है  पागलो  की  तरह  उनमे ?

कभी  देखा  है ? 
कभी  देखा  है  सतरंगी  धनुक  को ?
कभी  देखा  है  शफ़क़  को  डालियों  के  सोकों   से  आते  हुए ? 
कभी  कोशिश  की  है  उनको  पकड़ने  की ?

कभी  कोशिश   की  है  तितलियों  से  खेलने  की ? 
कभी  पंछियों  से  बातें  की  है ?

कभी  अपनी  ही  परछाई  को  छोटा  बड़ा  किया  है ?
कभी  मिटटी  के  घरौंदे  बनाये  हैं ?
कभी  खुद  को  समझा  है ???? 
कभी  कोशिश  की  है  ? 
कभी  कोशिश  की  है ? ................

-वीरेश  मिश्र

नींद से जाग जा प्यारे !

नींद से जाग जा प्यारे
धूप अब निकल आई है .
पगों को तोल ले पहले -
आगे कठिन चढ़ाई है .

'परो' से आस्मां ऊँचा रहा
कद अपने घट गए - जाने
कितने दायरों में इंसान बंट गए .
जो पत्थर मील के थे - वो
तो जाने कब के हट गए .

मिली ना नहर मीठी जब
बुझाने प्यास दुनिया कि
हिमालय से चले दरिया - वो
खारे समन्दर में सिमट गए !


-सतीश शर्मा

मै बहता रहा !


पानी  की  सतह  पे  एक  नाव  मैंने  भी  चलाई  थी 
हा  वही   कागज़  की  नाव
बचपन  में  खेलते  हुए
आशा  था  बहुत   दूर  जाएगी
अब  गुज़रे  गए  ज़माने
मै  बह  के  कही  और  आ  गया
पता  नही  उसको  कोई  साहिल  भी  मिला
या  डूब  गई  वो ..................
 
मै  तो  बह  बह  के
न  जाने  कितने  किनारों  पे  ठोकरें   खायी
फिर  भी  बहता  रहा ,सहता  रहा
सिलवटे  भी  पड़ी
थोड़ी सी  मुस्कान  भी  नसीब   हुई
और  मै  बहता   रहा  सहता  रहा ......

-वीरेश  मिश्र

लौटो अपनी राहों पर !

लाश उठाये हैं हम मुर्दा संविधान की कन्धों पर |
शासन की है ज़िम्मेदारी गूंगों, बहरों, अंधों पर ||
लेकर जिसकी आड़ ताज पर डाका डाला चोरों ने,
श्रद्धा और उम्मीद हमारी है ऐसे अनुबंधों पर ||
अपनी नस्ल बदलके हमने ये स्वभाव है ओढ़ लिया,
बनकर के गलीच इतराते फिरते हैं दुर्गंधों पर ||
जिस्म लिए हम इंसानों का पशु से नीचे उतर गए,
शर्म नहीं है हमको अपने ऐसे गोरखधंधों पर ||
गाली देते धर्म - न्याय को हम विकास के दावों में,
सिद्धांतों की जगह तर्क के कब्ज़े हैं प्रतिबंधों पर ||
जिनके खुद के चाल - चलन हैं अपराधों से सने हुए,
वे समाज को भाषण देते नैतिक - नीति निबंधों पर ||
गौरव-मान नहीं हैं अब गुण, हैं अब विष के प्याले ये,
जान - प्राण लुटते हिरणों के कस्तूरी की गंधों पर ||
सुन्दरता अभिशाप आज है, संकट सी कोमल काया ,
भंवरों नहीं भेड़ियों की हैं नज़रें आज सुगंधों पर ||
कर्तव्यों को छोड़ भागना सीख लिया अधिकारों पे,
ध्यान हमारा है अब केवल खुद के लिए प्रबंधों पर ||
आओ-आओ ! बदलो-बदलो ! लौटो अपनी राहों पर,
और न अब विश्वास करो तुम मुर्दों और कबन्धों पर ||

रचनाकार - अभय दीपराज
टीप- कबन्ध - एक एक सिर कटा राक्षस था |

ले लो कंघा (बाल कहानी) !

बहुत समय पहले की बात है I एक बुढ़िया  गाँव के बाहर एक झोपड़ी मे रहती थी I उसके घर के पास ही एक नदी बहती थी,जिससे वह पानी भरती,और झोपड़ी के बाहर ही उसने खाली जगह पर कुछ फल और सब्जियों के पेड़ लगा रखे थे I इन पर आने वाले फलों को गाँव मैं बेचकर वह अपनी जीविका चलाती थी I सुबह रोज गाँव जाने से पहले वह अपना चेहरा नदी में जाकर धोती थी , और पानी में देखकर अपने बाल सँवारती थी क्योंकि उसके पास आइना नहीं था I   

               एक दिन रोज की तरह जब वह नदी किनारे बैठकर अपने बाल ठीक कर रही थी,तो अचानक पानी में,बहुत तेज हलचल हुई और उसमे से एक बहुत बड़े दैत्य ने अपना सर निकाला I बुढ़िया तो उसकी बड़ी बड़ी आँखें और खड़े बाल देखकर डर के मारे थर थर काँपने लगी I दैत्य उसे देखकर बोला-" तुम्हें मुझसे डरने की कोई जरुरत नहीं  है I मैं तो तुमसे केवल यह प्रश्न पूछने आया हूँ  कि तुम रोज इस नदी में अपना चेहरा देखकर क्या करती हो ?

बुढ़िया  डरते हुए बोली-" मैं इस कंघे से अपने बाल ठीक करती हूँ  I मैं बहुत गरीब हूँ  और आईना खरीदने के मेरे पास पैसे नहीं बच पाते है I "

दैत्य आश्चर्य से बोला-" तो क्या इस कंघे से मेरे बाल भी ठीक हो जायेंगे ?"

"हाँ-हाँ,बिलकुल हो जायेंगे I कहते हुए बुढ़िया  ने उसे कंघा पकड़ा दिया I

दैत्य ने भी कंघे से अपने खड़े बालों को संवारा और पानी में अपना चेहरा देखकर खुश हो गया I वह चहकते हुए बोला-"तुम यही रुकना , मैं अभी आया I "

और वह पानी के अन्दर चला गया I कुछ ही देर बाद वह मुट्ठी भर हीरे लेकर आया और बुढ़िया से बोल-" तुम मुझे कंघा दे दो और ये सारे हीरे ले लो I "

बुढ़िया की आँखें हीरों की चमक से चौंधियां गई I

               उसने कभी सपने में इतने हीरों के बारे में नहीं  भी नहीं सोचा था ,ना ही कभी इतने हीरे देखे थे I पर फिर भी हीरे देखने के बाद उसके मन में हीरों के प्रति कोई लालच नहीं था I इसलिए वह सरलता से बोली-"मुझे ये हीरे नहीं चाहिए I तुम ये कंघा यूं ही ले लो I मैं बाज़ार से दूसरा कंघा ले लूंगी I "

               दैत्य उसका भोलापन और ईमानदारी देखकर बहुत खुश हुआ I उसने कहा--"नहीं, यह तो तुम्हें रखने ही पड़ेंगे I इससे तुम अपनी बाकी जिंदगी आराम से गुज़ारना I मुझे जब भी बुलाना हो तो तीन बार "आ जाओ,आ जाओ" कहना , मैं आ जाऊँगा I बुढ़िया  की आँखों में ख़ुशी के आँसूं आ गए I वह हीरे लेकर अपने घर चली गई I बुढ़िया ने कुछ हीरे बेच दिए और आराम से एक बड़े घर में अपने नौकर -चाकरों के साथ रहने लगी I पर उसकी पड़ोसन,जो बहुत चालाक और झगड़ालू थी,उसकी समझ में नहीं आ रहा था कि बुढ़िया अचानक इतने एशो आराम से कैसे रहने लग गई I

               एक दिन जानबूझकर वह फटे-पुराने कपड़े पहनकर उदास चेहरा लेकर बुढ़िया के पास जा पहुंची और बोली-" चाची,हमारा सब कुछ कल रात चोर लूटकर ले गए,अब तुम्ही मुझे कोई  रास्ता बताओ I "

         इतना कहकर वह फूट-फूटकर रोने का अभिनय लगी I

               बुढ़िया बोली-" तुम चाहो तो मेरे साथ आकर रह लो I "

               पर पड़ोसन को तो बुढ़िया के पैसो का पता लगाना था I इसलिए उसने कहा-" नहीं चाची,जैसे तुम्हारे पास इतना धन आया ,अगर तुम हमें बता दो ,तो हम भी वैसे ही मेहनत कर लेंगे I "

               बुढ़िया हँसते हुए बोली-"अरे ,यह तो एक दैत्य की मेहरबानी है I " और यह कहते हुए उसने सारी कहानी पड़ोसन को बता दी I

पड़ोसन ने कहा-" अच्छा चाची,तो मैं अब चलती हूँ I "

               और यह कहकर वह बुढ़िया के घर से अपने घर की तरफ भागी I घर पहुंचकर उसने सारी बातें अपने पति को बता दी I उन दोनों ने आपस में सलाह की और फिर उस औरत ने आँखें नचाते हुए कहा-" जब काकी के पास आईना नहीं था तो दैत्य ने उन्हें इतने सारे हीरे दिए,अगर हमारे पास कंघा भी नहीं होगा तो हमें ज्यादा हीरे मिलेंगे I "

               पति बोला-" हम उसे अपने सारे गहने और पैसे भी दे देंगे ताकि वो हमें ज्यादा हीरे दे I "

और वे दोनों तुरंत तैयार होकर अपने बाल बिखेरकर नदी किनारे गए और सारा दिन नदी में देखकर बाल ठीक करते रहे I.

जब शाम होने लगी तो वे नदी में देखकर तीन बार बोले-" आ जाओ "

यह कहते ही पानी में हलचल हुई और दैत्य बाहर आ गया I

               दैत्य ने पूछा -" तुम लोग कौन हो ?.और इस तरह से पूरे चेहरे पर बाल क्यों बिखराए हो ? "

पत्नी उदास सा चेहरा बनाकर बोली -" चाची ने हमें तुम्हारे बारे में बताया I हमारे पास भी कंघा और आईना नहीं  है I."

यह सुनकर दैत्य कुछ सोचने लगा I.

तभी पति दैत्य को गहनों की पोटली देते हुए बोला- " हम तुम्हें देने के लिए यह उपहार लाये है

दैत्य बोला-" मैं तुम दोनों से बहुत खुश हूँ I पहली बार मुझे किसी ने कोई उपहार दिया है I"

पत्नी आवाज़ को मधुर बनाते हुए बोली- "आपकी जो इच्छा हो वही दे दीजिये I'

दैत्य बोला -" ठीक है, मैं आज तुम दोनों को अपनी सबसे प्रिय वस्तु दूंगा I"

और यह कहकर वो पानी के अन्दर चला गया I

दोनों पति पत्नी ख़ुशी से नाचने लगे I

पति बोला-" लगता हैं हमारे लिए कोई मूल्यवान वस्तु लाने गया है I"

पत्नी उत्साहपूर्वक बोली-"हाँ,अब तो हम राजा से भी अमीर हो जायेंगे I"

तभी दैत्य पानी से बाहर आया और बोला-" अब तुम दोनों अपनी आँखें बंद करके हाथ आगे करो I."

दोनों ने झटपट अपनी आँखें बंद करके दोनों हाथ फैला दिए I

दैत्य बोल-" दोस्तों,अब मैं यहाँ से हमेशा के लिये जा रहा हूँ I

इसके बाद जैसे ही उन दोनों ने अपनी आखें खोली तो उनके हाथ में चाची का वही पुराना कंघा था I

दोनों वहीँ बैठकर दुःख के मारे फूट फूट कर रोने लगे I ज्यादा धन कमाने के लालच में जो कुछ भी उनके पास था,उससे भी हाथ धो बैठे I लालच नहीं करने का सबक पाकर वे मेहनत  मजदूरी करके अपना जीवन यापन करने लगे I


-डॉ. मंजरी शुक्ला

देखो वो जगाकर सो गई !


ज़िन्दगी के साथ मौत रो रही है 
भाई के साथ हर बहन रो रही है
भगत सिंह तुम्हारा भारत बदल गया
सत्ता के हांथों फिर कतल हुआ
एक बेटी को जीते जी मार डाला
मतलबी सत्ता का दाल गला डाला
हर शहर हुआ अब जलियावाला
देश जला रहा खुद ही रखवाला
मौत हर अब करती सबका पीछा
पहले तो ऐसा ना भारत दिखा
इज्जत की बात नहीं है
बेशर्मी की हर हद तो देखो
जो चला गया वो पूजा जाये
जो जिन्दा रहा वो मारा जाये !!

भारत एक छोटा सा बच्चा है
बस एक झुनझुना चाहिए
सत्ता चलने के लिए नेताओं को,
फिर एक मासूम खिलौना चाहिए
माँ भारती माँ भारती माँ भारती ,
तुझे समर्पित शहीद दामिनी की
चीख पुकार भरी पावन आरती !!

ओ माँ ! तू शेर जननी है
 हम तेरे आँचल की शान बढ़ाएंगे
विश्व गुरु फिर भारत को बनायेंगे
मात्री शक्ति भारत में नारीत्व जगायेंगे
फिर हम भी एक दिन सो जायेंगे
मौत की रात में हम खो जायेंगे
तमाशाई दुनिया तमाशा बनायेंगे
कुछ स्नेह की प्रीत गुनगुनायंगे
 कुछ भारत के गीत बन जायंगे
पर आज ज़िन्दगी की रीत टूटी है
अब भारत से किस्मत रूठी है
 बिश्मिल तुम फिर वापस आओ
भारत के रावनो से यह देश बचाओ !!

तुम्हारी बहनों की आन दावं पर
भारत बिक रहा देखो थोक भाव पर
तुम्हे भारत की माटी की कसम ,
फिर मोहन का वृन्दावन लायेंगे
राम राज्य की अयोध्या सजायेंगे
फिर कोई ज़िन्दगी न जुदा होगी
अपनी इज्जत की माटी से !!

देखो वो जगाकर सो गई
फिर यह शोर शराबा कैसा है
मीलों लम्बी ख़ामोशी है
इज्जत अब बर्बाद हुई है
दामिनी संग तेरी भारत माँ
आज फूंट फूंट कर रो रही हैं

यह कविता क्यों ? दर्द भरे आंसुओं में भींगी हुयी लेखनी से सत्ता की आंच पर तड़प रही शहीद दामिनी को समर्पित उसकी अपनी माटी भारत से !वन्देमातरम .अरविन्द योगी

नववर्ष तुम्हारा अभिनंदन।

नूतन भाव की सौरभ से सुरभित हो अन्तर्मन उपवन।
शुभागमन हो मंगलमय, नववर्ष तुम्हारा अभिनंदन।
घन विषाद के घटे, मिटे अवसाद, कष्ट किंचित न रहे।
हर्ष और आह्लाद से मानस कोई भी वंचित न रहे।
नव आयामी हो आशाएँ नभ छूती अभिलाषा हो।
सृष्टि में साकार स्वयं सुख की सच्ची परिभाषा हो।
किलकारी में परिवर्तित हो कहीं नहीं गूंजें क्रन्दन।
शुभागमन हो मंगलमय, नववर्ष तुम्हारा अभिनंदन।
विश्वगुरु की पदवी पाकर गर्वित फिर हो भारतवर्ष
सोने की चिड़िया बनकर फिर छू ले उन्नति का उत्कर्ष।
पूरब फिर से पाठ पढ़ाए, पश्चिम झुककर नमन करें।
सकल सृष्टि की शंकाओं का हिन्द सभ्यता शमन करें।
नवल रूप में प्राप्त करें हम पुनः पुरातन वो वन्दन।
शुभागमन हो मंगलमय, नववर्ष तुम्हारा अभिनंदन।
सकल विश्व हो गेह नेह का, स्वरित ध्वनित सुर सरगम हो।
धरती से नभ तक लहराता प्रेम भाव का परचम हो।
हो विनष्ट पथभ्रष्ट प्रवृत्ति, संचारित संस्कार रहें।
मानव मन में मानवता की सदा सदा जयकार रहें।
नहीं अपेक्षा अधिक और कुछ, यहीं अपेक्षित परिवर्तन।
शुभागमन हो मंगलमय, नववर्ष तुम्हारा अभिनंदन।
- मंजरी शुक्ला

गीत मेरे !

गीत मैंने लिख दिया -
देगा तुझे सुर कौन - अब
मैं सोचता हूँ - गीत मेरे .

सुर तुम्हारे - मीत मेरे
गूंज जाए - दूर तक
ऐसे सदा में -
सुन चितेरे गीत मेरे .

फिर लगेंगे - दूर तक
अपने ये फेरे - गीत मेरे
चल सुना दे भाव - भक्ति
निबल बाहों में भरी
अकूत शक्ति - गीत मेरे .

चल अचल - नभ
और सागर - थल .
हर जगह - लग जाएँ
तेरे जैसे डेरे - गीत मेरे .

मैं डरा हूँ - विप्लवों की
तान से - और तेरे
मान से सम्मान से - सुन
गीत मेरे .

अब नहीं चिंता - की
कोई तान छेड़े - गान छेड़े
या विवशता में गुनगुनाये -
गीत मेरे .

जुगनुओं की चमक से
खुद को जलाए - साथ
ना दे या की - तेरे
साथ आये - गीत मेरे !
- सतीश शर्मा

अगले जन्म मुझे बिटिया न देना !

मां बहुत दर्द देकर बहुत दर्द सहकर तुझसे कुछ कहकर मैं जा रही हूं
आज मेरी विदाई में सब सखिया आएंगी
सफ़ेद जोड़े में लिपटी देख, सिसक-सिसक मर जाएंगीं
लड़की होने का वो खुद पर अफ़सोस जताएंगी
मां तू उनसे इतना कह देना, 
दरिंदों की दुनिया में संभलकर रहना
मां राखी पर जब भैया की कलाई सुनी रह जाएगी
याद मुझे कर जब-जब उनकी आंख भर आएगी
तिलक माथे पर करने को रूह मेरी भी मचल जाएगी
मां तू भैया को रोने मत देना
मैं हर पल उनके साथ हूं कह देना
मां पापा भी छुप-छुप बहुत रोएंगे, 
मैं कुछ न कर पाया कह खुद को कोसेंगे
मां दर्द उन्हें ये होने न देना वो अभिमान हैं मेरा, 
सम्मान हैं मेरा तू उनसे इतना कह देना
मां तेरे लिए अब क्या कहूं दर्द को तेरे शब्दों में कैसे बांधू, 
फिर से जीना का मौका कैसे मांगू
मां लोग तुझे सताएंगे
मुझको आजादी देने का इल्जाम लगाएंगे
मां सब सह लेना, पर ये न कहना
"अगले जन्म मुझे बिटिया न देना"
- विजय पाण्डेय 

आगंतुक का - स्वागत हो !

इतना सुन्दर भी नहीं था
की जाने का शोक होता .
इतना बुरा भी नहीं था की -
चला जाता तो अच्छा था.

जैसा भी था मेरा कल
जो अब नहीं है .
आज मैं जी रहा हूँ - जैसा भी है
ये नया कल - अभी आया नहीं है
जाने कैसा होगा -कौन जाने .

पर - आशाएं अभी से
हम क्यों छोड़ें .
अपना आशावादी -
दृष्टिकोण आखिर क्यों तोड़ें .

आगंतुक का - स्वागत हो
आरती का थाल सजाने दे .
वो अपने साथ - ख़ुशी या गम
ज्यादा या कम - जो भी
ला रहा है - उसे लाने दे !
- सतीश शर्मा

Monday, December 24, 2012

पहले इंसान बनाया जाए !

सारी दुनिया में - धर्म कुछ ऐसा चलाया जाए .
बाकी सब छोडिये -पहले इंसान बनाया जाए .

रफ्ता रफ्ता टुकड़ों में बंट गया आइना-ए-इन्सां
कांच की किरंचों को - होशियारी से उठाया जाए .

टूटते जुड़ते - बिखर जाते हैं जाने क्यों लोग .
भला किस शय से अब इनको मिलाया जाए .

बड़ा बेगाना सा लगता है - इंडिया-ओ -हिन्दुस्तां यारो
आने वाले हरेक मेहमाँ को-अब भारत से मिलाया जाए !
- सतीश शर्मा

और हम खड़े-खड़े बहार देखते रहे।

स्वप्न झरे फूल से,मीत चुभे शूल से,
लुट गए सिंगार सभी बाग के बबूल से,
और हम खड़े-खड़े बहार देखते रहे।
कारवाँ गुज़र गया, गुबार देखते रहे!
नींद भी खुली न थी कि हाय धूप ढल गई,
पाँव जब तलक उठें कि ज़िन्दगी फिसल गई,
पात-पात झर गए कि शाख़-शाख़ जल गई,
चाह तो निकल सकी न, पर उमर निकल गई,
गीत अश्क बन गए,छंद हो दफन गए,
साथ के सभी दिए धुआँ-धुआँ पहन गए,
और हम झुके-झुके,मोड़ पर रुके-रुके,
उम्र के चढ़ाव का उतार देखते रहे।
कारवाँ गुज़र गया, गुबार देखते रहे।
क्या शाबाब था कि फूल-फूल प्यार कर उठा,
क्या सुरूप था कि देख आइना सिहर उठा,
इस तरफ़ ज़मीन और आसमाँ उधर उठा
थाम कर जिगर उठा कि जो मिला नज़र उठा,
एक दिन मगर यहाँ,ऐसी कुछ हवा चली,
लुट गई कली-कली कि घुट गई गली-गली,
और हम लुटे-लुटे,वक़्त से पिटे-पिटे,
साँस की शराब का खुमार देखते रहे।
कारवाँ गुजर गया, गुबार देखते रहे।
हाथ थे मिले कि जुल्फ चाँद की सँवार दूँ,
होंठ थे खुले कि हर बहार को पुकार दूँ,
दर्द था दिया गया कि हर दुखी को प्यार दूँ,
और साँस यों कि स्वर्ग भूमि पर उतार दूँ,
हो सका न कुछ मगर,शाम बन गई सहर,
वह उठी लहर कि दह गए किले बिखर-बिखर,
और हम डरे-डरे,नीर नयन में भरे,
ओढ़कर कफ़न, पड़े मज़ार देखते रहे।
कारवाँ गुज़र गया, गुबार देखते रहे!
माँग भर चली कि एक, जब नई-नई किरन,
ढोलकें धुमुक उठीं, ठुमुक उठे चरन-चरन,
शोर मच गया कि लो चली दुल्हन, चली दुल्हन,
गाँव सब उमड़ पड़ा, बहक उठे नयन-नयन,
पर तभी ज़हर भरी,गाज एक वह गिरी,
पोंछ गया सिंदूर तार-तार हुईं चूनरी,
और हम अजान-से,दूर के मकान से,
पालकी लिए हुए कहार देखते रहे।
कारवाँ गुज़र गया, गुबार देखते रहे।
.......... गोपाल दास नीरज

Tuesday, December 18, 2012

कैसे हुई रबड़ की खोज....?

अमेरिका में रबड़ सबसे ज्यादा पाई जाती है क्योंकि रबड़ की जन्मभूमि ही अमेरिका है। बावजूद इसके पैंसिल के निशान मिटाने के लिए सबसे पहले रबड़ लंदन और पैरिस में बिकता था अगर इसके इतिहास पर नजर डालें तो विलक्षण तथ्य पता चलते हैं। प्राचीन समय में रबड़ जंगली पेड़ों से खुद-ब-खुद प्राप्त होता था लेकिन इसकी बढ़ती मांग और खपत के कारण इसकी उपज होने लगी। इस सिलसिले में और भी ऐसे पेड़ों की तलाश होने लगी। अमेरिका के मूल निवासी ग्यारहवीं सदी से पहले ही इसके गुणों को जानते थे।

उस जमाने की बनी रबड़ की वस्तुएं आज भी उपलब्ध हैं। सन् 1493 में कोलम्बस ने अपनी हेती यात्रा दौरान यह वर्णन किया था कि वहां के आदिवासी पेड़ से प्राप्त गोंद से बनी गेंद से खेलते थे। फ्रांस के खगोल शास्त्रियों ने सन् 1735 में दक्षिणी अमेरिका में देखा था कि विशेष प्रकार के पेड़ से गोंद जैसा रस प्राप्त होता है जो कुदरती रूप में रंगहीन होता है लेकिन गर्म करने पर या धूप में रखने से ठोस रूप धारण कर लेता है। वहां के आदिवासी उस समय इस रबड़ का उपयोग जूते और बोतलें बनाने के लिए करते थे। फ्रांस के यात्री इस पदार्थ (रबड़) को साथ ले गए और खोज करते रहे। एशिया में भी यह रबड़ पेड़ों से उत्पन्न होती थी। ये लोग रबड़ के बर्तन या गेंदें बनाते थे। यूरोपीय लोगों को अमेरिका से ही रबड़ के बारे में जानकारी मिली थी। अमेरिका में इसकी पैदावार सबसे अधिक है। अच्छी और उत्तम किस्म की रबड़ दक्षिणी अमेरिका में अमेजन के जंगलों में ‘हीबीया’ नामक पेड़ से प्राप्त होती है। अमेरिका निवासी चाल्र्स गुडईयर ने सन् 1831 में रबड़ के उपयोग से संबंधित शोध में काफी मेहनत की थी। उसने अपना पूरा जीवन इस क्षेत्र में खोजों के लिए ही गुजार दिया।

उसने रबड़ की दूसरे पदार्थों के साथ प्रतिक्रिया का अध्ययन किया। रबड़ गर्मी में पिघल जाती है सो इसकी स्थिरता को कायम रखने के लिए उसने इसमें  तेल, साबुन, चीनी, नमक आदि मिलाकर प्रयोग किए। उसने काफी कोशिशों के बाद स्थिर रहने वाली रबड़ तैयार कर ली। फिर उसने इसकी वस्तुएं बनानी शुरू कर दीं लेकिन गॢमयों के मौसम में उन वस्तुओं से बदबू आने लगती और ये चिपकने लगतीं। सो उससे तैयार किए बर्तन और जूते बिकने बंद हो गए। उसकी मशीनें बंद हो गईं। यहां तक कि उसे लोगों से अपनी जान बचानी कठिन हो गई। गुडईयर को बहुत कष्ट सहने पड़े। उसे इतना बुरा समय देखना पड़ा कि उसे अपने परिवार का पेट पालना कठिन हो गया लेकिन वह बुरे वक्त में भी प्रयोग करता रहा। रबड़ के प्रचार के लिए उसने कई ढंगों का प्रयोग किया। एक बार तो उसने रबड़ की चादर से अपना शरीर ढंक लिया। उसकी पहचान यह थी कि जिस शख्स ने रबड़ का कोट, बूट और टोपी पहनी हो, जिसकी जेब में रबड़ का पर्स हो, पर पर्स में एक भी सिक्का न हो तो समझो वह गुडईयर ही है। गुडईयर दिन-रात रबड़ के साथ प्रयोग करता रहता था।

एक दिन रबड़ एवं गंधक का मिश्रण गुडईयर अपने दोस्तों को दिखा रहा था कि अचानक वह मिश्रण हाथ से गिर कर जलते स्टोव की आंच पर गिर गया। नमूना आग से बाहर निकाला तो वह हैरान रह गया कि वह बिल्कुल भी चिपकता नहीं था। उसने परिणाम निकाला कि कुदरती रबड़ को गंधक के साथ मिलाकर उसे खास तापमान पर गर्म करके, फिर उसे ठंडा कर लिया जाए, इस प्रकार रबड़ की उत्तम किस्म पैदा की जा सकती है। यही क्रिया बाद में विज्ञान की भाषा में ‘वल्केनाइङ्क्षजग’ नाम से प्रसिद्ध हुई। फिर गुडईयर ने इस सफल रबड़ से अनेकों वस्तुओं का निर्माण किया, जिनकी कोई शिकायत नहीं थी। गुडईयर  की लगातार मेहनत से रबड़ का सुंदर रूप आज हमारे सामने है। रबड़ हेतु  उसके महान योगदान के कारण एक बड़ी टायर निर्माता कम्पनी का नाम गुडईयर के नाम से प्रसिद्ध है। रबड़ की वस्तुएं अमेरिका में इतनी प्रसिद्ध हुईं कि दूसरे देशों ने भी इसके उत्पादन के बारे में सोचना शुरू कर दिया। उधर ब्राजील ने रबड़ के वृक्षों के बीज पर प्रतिबंध लगा दिया।

इंगलैंड ने भी बहुत कोशिश की कि रबड़ के पेड़ों के बीज प्राप्त हो सकें लेकिन उसके हाथ असफलता ही लगती रही। फिर एक अंग्रेज ‘हैनर विकहेम’ सन् 1876 में हीबीया पेड़ के बीज चोरी छिपे इंगलैंड ले जाने में सफल हो गया। लंदन के क्यू बाग में उसने 70 हजार बीच बोए। उनमें से लगभग तीन हजार पौधे उगे, फिर ये पौधे दूसरे देशों को दिए गए। भारत में बेशक रबड़ के पेड़ आदिकाल से उपलब्ध हैं लेकिन व्यापारिक दृष्टि से उस समय भारत ने इनका इतना महत्व नहीं समझा। भारत में रबड़ का उत्पादन आजादी से कुछ समय पहले ही शुरू हुआ है लेकिन आज भारत रबड़ के क्षेत्र में महत्वपूर्ण स्थान रखता है। रबड़ के मुख्य स्रोत पेड़ हैं। अब तक लगभग 500 ऐसे पेड़ों का पता लगाया जा चुका है जिनसे निकलते ‘लेटैक्स’ नामक द्रव्य से रबड़ बन सकता है। ‘हीबीया’ नामक पेड़ से सबसे ज्यादा रबड़ प्राप्त होता है। ‘हीबीया’ किस्म के पेड़ दक्षिणी भारत के पहाड़ी क्षेत्रों में उगाए जा चुके हैं जिससे लाखों टन रबड़ प्राप्त होती है। माइकल फैराडे ने रबड़ को एक यौगिक कहा है। रबड़ आज हरेक क्षेत्र में प्रधान है। इसके प्रायोगिक कार्य आज भी जारी हैं। वैज्ञानिक ‘पील’ ने सबसे पहले तारपीन के घोल में रबड़ घोली और इसके लेप को कपड़ों पर फेरा। इस प्रकार वाटरप्रूफ कपड़ा तैयार किया गया। फिर रबड़ के घरेलू उपकरण बनाए जाने लगे।

- सौ० पंजाब केसरी

काव्य संग्रह ‘निशीथ’ का विमोचन !

इलाहाबाद। गुफ्तगू पब्लिकेशन द्वारा प्रकाशित डा. नन्दा शुक्ला के काव्य संग्रह ‘निशीथ’ का विमोचन 20 दिसंबर को सायं 4:30 बजे हिन्दुस्तानी एकेडेमी के सभागार में होगा। कार्यक्रम की अध्यक्षता मशहूर इतिहासकार एवं साहित्यकार प्रो. लाल बहादुर वर्मा करेंगे, जबकि मुख्य अतिथि इलाहाबाद हाईकोर्ट के न्यायमूर्ति रवीन्द्र सिंह होंगे। विशिष्ट अतिथि के रूप में वरिष्ठ पत्रकार मुनेश्वर मिश्र और हिन्दुस्तानी एकेडेमी के कोषाध्यक्ष रविनंदन सिंह मौजूद रहेंगे। संचालन इम्तियाज़ अहमद ग़ाज़ी करेंगे। इस अवसर पर अशोक कुमार स्नेही, यश मालवीय, तलब जौनपुरी, अखिलेश द्विवेदी, नायाब बलियावी, अजीत शर्मा ‘आकाश’,रमेश नाचीज़, विमल वर्मा, शैलेंद्र जय, शाहिद अली शाहिद और अजय कुमार काव्य पाठ करेंगे।

हसरतें !

सुनो
मुझ पर उँगलियाँ उठाने से पहले ,

अपनी शराफत मे कुछ रौशनी घोलो और नमी भी
फिर अपने हिस्से की शाइस्तगी तुम रखो
मेरे हिस्से की सियाही मै रखती हूँ ,

जिस्म धागों मे बंधा कोई धर्मग्रंथ नहीं होता
प्रकृति को जीना कोई त्रासदी नहीं होती
और हसरतें एक उम्र के बाद भी हसरतें ही होती हैं ,

रगों मे उगी धूप किसी साये की तलाश मे है
जिस तरह समंदर को थामना कभी मुमकिन नहीं होता
वैसे ही जिस्म छीली हुई ख़्वाहिशों की कब्रगाह नहीं होती ,

तकलीफ अब लहू मे सुलगने सी लगी है
हमनफ़ज मेरे !!!

 - अर्चना राज

!! विमोचन !!

सुपरिचित लेखिका एवं गुरुकुल कांगडी विश्वविद्यालय, हरिद्वार की अध्यापिका डॉ. मृदुला जोशी की आलोचनात्मक कृति 'कविता की अंतर्यात्रा' हाल ही में प्रगतिशील प्रकाशन, दिल्ली से छप कर आयी है । कृति में कबीर, प्रसाद, दिनकर, नागार्जुन, अज्ञेय, धर्मवीर भारती, डॉ. जगदीश गुप्त को नये दृष्टिकोण से देखा-परखा गया है । साध ही समकालीन हिंदी कविता पर गंभीर विश्लेषण भी पठनीय है । इस कृति का विमोचन 12 से 19 तक यूएई में होनेवाले 6 ठा अंतरराष्ट्रीय हिंदी सम्मेलन में होना सुनिश्चित हुआ है । कृतिकार को बधाई ।

Monday, December 17, 2012

मेरी बेटी ससुराल जाने लग गई !


एक लडकी ससुराल चली गई,
कल की लडकी आज बहु बन गई.

कल तक मौज करती लडकी,
अब ससुराल की सेवा करती बन गई.


कल तक तो ड्रेस और जीन्स पहनती लडकी,
आज साडी पहनती सीख गई.

पियर मेँ जैसे बहती नदी,
आज ससुराल की नीर बन गई.

रोज मजे से पैसे खर्च करती लडकी,
आज साग-सब्जी का भाव करना सीख गई.

कल तक FULL SPEED स्कुटी चलाती लडकी,
आज BIKE के पीछे बैठना सीख गई.

कल तक तो तीन टाईम फुल खाना खाती लडकी,
आज ससुराल मेँ तीन टाईम का खाना बनाना सीख गई.

हमेशा जिद करती लडकी,
आज पति को पुछना सीख गई.

कल तक तो मम्मी से काम करवाती लडकी,
आज सासुमा के काम करना सीख गई.

कल तक तो भाई-बहन के साथ झगडा करती लडकी,
आज ननंद का मान करना सीख गई.

कल तक तो भाभी के साथ मजाक करती लडकी,
आज जेठानी का आदर करना सीख गई.

पिता की आँख का पानी,
ससुर के ग्लास का पानी बन गई.

फिर भी लोग कहते मेरी बेटी ससुराल जाने लग गई !

- सतीश शर्मा

Tuesday, December 11, 2012

एक फकीर !

पीपल, बरगद, महुआ, नीम,
धीमर, छिप्पी, टौंक, हकीम,
पंडित, ठाकुर, राम, रहीम,

कैसे सबकी बदल गई है देखो तो तकदीर,
गांव गांव में छांव ढूंढता फिरता एक फकीर.

रामू पंडित, भोला धोबी,
दल्लू धीमर, कालू छिप्पी
बलबीरे ठाकुर की खोली
वो बदलू कुम्हार की बोली
जात बताते नाम नहीं ये
व्यक्ति की पहचान बने थे
अब से पहले कभी नही यूं
जात के नाम पे लोग तने थे
कुछ पढे लिखे पैसे वालों ने रची नई तहरीर
गांव गांव में छांव ढूंढता फिरता एक फकीर.

अपनी किस्मत, अपना हिस्सा,
सबका अपना अपना किस्सा,
कोई बडी जमीं का मालिक
कोई बोये बिस्सा बिस्सा,
खेत किसी के किसी की मेहनत
फसलें सब साझी होती थीं
सारे गांव की जनता मिलकर
खेतों में फसलें बोती थीं
ऊंच नीच, बडके छोटे की खिंच गई एक लकीर
गांव गांव में छांव ढूंढता फिरता एक फकीर.

पाठशालाओं के रस्ते अब,
कालेज पहुंच रहे हैं गांव.
सभ्य होने की इस कोशिश में
सभ्यता की डूबी नांव
अफसर, मालिक और अमीर,
बनते देखें गांव के लोग.
धीरे धीरे से हमने अब,
छंटते देखे गांव के लोग
आपसदारी और प्रेम की टूट गई तस्वीर
गांव गांव में छांव ढूंढता फिरता एक फकीर !

- राजीव यादव

विमोचन !

इलाहाबाद। कवयित्री डॉ. नन्दा शुक्ला की कवितायें जीवंत हैं, उन्होंने अपने आप-पास के परिदृश्य को जिस रूप में देखा है उसी रूप में रेखांकित कर दिया है, समाज को आईना दिखाने का भूरपूर प्रयास किया है। इस हिसाब से इनकी कवितायें बेहद महत्वपूर्ण हैं, हमें ऐसे लोगों के साहित्य आने का स्वागत करना चाहिए। गुफ्तगू पब्लिकेशन ने इनकी कवितायें प्रकाशित करके एक अच्छा संदेश दिया है। यह बात प्रसिद्ध साहित्यकार अजामिल ने डॉ. नन्दा शुक्ला के काव्य संग्रह ‘नेह निर्झर’ के विमोचन अवसर पर कही। गुफ्तगू द्वारा रविवार को महात्मा गांधी अंतरराश्टीय विश्वविद्याल के क्षेत्रीय सभागार में विमोचन समारोह का आयोजन किया गया, जिसमें श्री अजामिल मुख्य अतिथि के रूप में मौजूद थे। कार्यक्रम का संचालन इम्तियाज़ अहमद ग़ाज़ी ने किया। मेयर अभिलाशा गुप्ता ने कहा कि साहित्य जगत में एक और महिला आना बेहद सुखद संदेश है, उन्होंने कहाकि महिलायें समाज के प्रति अधिक संवेदनशील होती हैं, और यह संवेदनशीलता नंदा शुक्ला की कविताओं में स्पश्ट रूप स दिख रहा है। डॉ. ने अपने वक्तव्य में काव्य सृजन के शुरूआती दिनों की बात की और अपनी प्रतिनिधि कवितायें सुनाईं।

कार्यक्रम की अध्यक्षता कर रहे वरिश्ठ शायर इक़बाल दानिश ने कहा कि पुलिस विभाग में दारोगा के पद पर कार्यरत सुश्री शुक्ला ने बहुत अच्छी कविताओं का सृजन किया है, हमें ऐसी कविताओं का तहेदिल से स्वागत करना चाहिए। हां एक बात जरूर है कि उन्हें छंदबद्ध कविताओं का भी सृजन करना चाहिए। कार्यक्रम के संयोजक शिवपूजन सिंह ने लोगों का स्वागत करते हुए कहा कि साहित्य के बरगद के नीचे बहुत से कोंपलें पल्लवित होती हैं उम्मीद है कि डा नन्दा की काव्य रचना भी उसी तरह से पल्लवित होगी। सह संयोजक वीनस केसरी ने बताया विमोचन समारोह में हर बार कुछ चुए लोगों कवियों-शायरों से ही काव्य पाठ कराया जाएगा। कार्यक्रम के दूसरे दौर में एहतराम इस्लाम, अख़्तर अज़ीज़, रीतंधरा मिश्रा, स्नेहा पांडेय, डा. मोनिका नामदेव और अनुराग अनुभव ने काव्य पाठ किया। इस अवसर पर शैलेंद्र जय, रमेश नाचीज,तलब जौनपुरी,विपीन श्रीवास्तव,शुभ्रांशु पांडेय,सुशील द्विवेदी, राजेश कुमार, शाहनवाज आलम, हुमा अक्सीर, शादमा बानो, शाहिद इलाहाबादी, विवके सत्यांशु, राजेन्द्र कुमार सिंह, सौरभ पांडेय, जयकृश्ण राय तुशार,  दिव्या सिंह, वंदना कुशवाहा आदि प्रमुख रूप से मौजूद थे। अंत में कार्यक्रम के संयोजक शिवपूजन सिंह ने सबके प्रति आभार व्यक्त किया।

कलम क्यूं बेबाक हो जाती है ?

























ये कलम भी न मानती ही नहीं
भी कभी बेबाक बोल देती है
जानती है इसे पता है ये आभासी दुनिया है

यहाँ कभी कभी तो इंसान की पहचान ही संदिग्ध होती है
क्या बुरा मानना क्यूं दुखी होना
illusion - world --मतलब ही यही होता है
कुछ भी बोल दो
ये तो दस्तूर है यहाँ का
पर बेचारी कलम क्या जाने उसे नहीं आती हिप्पोक्रेसी
वो बोली मुझे क्या पता
मुझे तो लगा ये सपनों की दुनिया है
यहाँ मै आराम से चल सकती हूं
और तुम्हारी जो वाल है
वो डायरी है तुम्हारी 
सफे दर सफे सैर करना ह्क़ है मेरा
फिर भडक कर बोली कलम मुझसे
क्या करना है तुम्हें
मेरा जो दिल करेगा
लिखूंगी कभी तुम्हारे दिल की बात
तो कभी आसपास की हलचल
क्यों परेशान हो
 
तुम लेखक कवि
या साहित्यकार नहीं हो तो क्या
कलम हूं मै तुम्हारी
जब तक मेरी तुम्हारी निभेगी
मै तुम्हारी डायरी पर चलती रहूंगी
हाँ ये बात और है थोड़ी बेबाक हूं मै
लिख देती हूं
पर किसी का अपमान तो नहीं करती
अपनी ही वाल पर चलती हूं न
अपने सफे पर सैर करना कोई गुनाह है क्या
चलो छोडो जाने दो
क्या सोचना इस पर
कुछ तो लोग कहेंगे
लोगो का काम है कहना !

- दिव्या शुक्ला

Wednesday, December 5, 2012

जय श्री श्याम !

सेठ कहे तुझे सेठ साँवरा,दिन कहे तुझे दीनानाथ
तुम्हीं बताओ सेठ साँवरा,हो या तुम दीनों के नाथ

सेठ भरे तेरी हाजरी,करते हैं तेरा मनुवार
दीन करे तेरी चाकरी,आते दर पर ले परिवार

एक भरोसा तेरा मुझको, लाज मेरी है तेरे हाथ
तुम्हीं बताओ सेठ साँवरा,हो या तुम दीनों के नाथ

सेठ कहे तुझे सेठ साँवरा,दिन कहे तुझे दीनानाथ
तुम्हीं बताओ सेठ साँवरा,हो या तुम दीनों के नाथ

मैं जो तुझे बुलाना चाहूँ.,घर आँगन में मेरे श्याम
सोच-सोच कर मैं शरमाऊं,कहाँ बिठाऊंगा तुझे श्याम
नहीं बिछाने को है चादर, नहीं है सर पर मेरे छात
तुम्हीं बताओ सेठ साँवरा,हो या तुम दीनों के नाथ

सेठ कहे तुझे सेठ साँवरा,दिन कहे तुझे दीनानाथ
तुम्हीं बताओ सेठ साँवरा,हो या तुम दीनों के नाथ

सुदामा के तन्दुल भाये, झूठे बैर शबरी के खाये.....
दुर्योधन का महल त्याग कर,विदुराईन के घर तुम आये
कब आओगे घर तुम मेरे,टीकम' से करने तुम बात
तुम्हीं बताओ सेठ साँवरा,हो या तुम दीनों के नाथ

सेठ कहे तुझे सेठ साँवरा,दिन कहे तुझे दीनानाथ
तुम्हीं बताओ सेठ साँवर,हो या तुम दीनों के नाथ

Tuesday, December 4, 2012

नारी !

जीवन की आपा धापी में ,
अपना ही जीवन जीना भूल गयी |
कभी बेटी,बहन कभी पत्नी ,माँ बन जिया ,
अपने ही जीवन को तूल देना भूल गयी |
जीवन में अपनी कोई कद्र नहीं ,
समाज कहता है हम नहीं स्वतन्त्र कभी |
वसूलों की जंजीरों में जकड़ी ,
जीवन यापन मैं कर रही |
खुशियाँ सारी दूजो पर लुटा ,
गम को अपने सीने से लगा |
खामियों को अपने सर-माथे पर सजा ,
सुखों का दे दूजों को मजा ,
जीवन यापन ही कर रही ,
जीवन के झंझावतों को सह चुप ही रह रही |
         

 ||सविता मिश्रा||

थोडा करीब तो आओ !

आधी रात बीत चुकी थोडा करीब तो आओ
लेकर आगोश में अपनें कुछ तो तरस खाओ


मौसम तो आयेंगे और आकर जाते ही रहेंगे
हम एक दूजे से रुठते और मनाते ही रहेंगे


आज शबनमी बूँदे फूलो को तरस रहे हैं

ऋतु है जवाँ आज और उमंगे बरस रहे हैं


" दीश " के उलझन को कुछ तो सुलझाओ

आधी रात बीत चुकी थोडा करीब तो आओ


लेकर आगोश में अपनें कुछ तो तरस खाओ


.....संकलन ॥ मेरी कविता ॥

  - जगदीश पांडेय " दीश "

Sunday, November 25, 2012

:: 'तुलसी विवाह' ::

           देवोत्थान एकादशी के दिन मनाया जाने वाला 'तुलसी विवाह' विशुद्ध मांगलिक और आध्यात्मिक प्रसंग है। देवता जब जागते हैं, तो सबसे पहली प्रार्थना हरिवल्लभा तुलसी की ही सुनते हैं। इसीलिए तुलसी विवाह को देव जागरण के पवित्र मुहूर्त के स्वागत का आयोजन माना जाता है। तुलसी विवाह का सीधा अर्थ है, तुलसी के माध्यम से भगवान का आहावान। कार्तिक, शुक्ल पक्ष, एकादशी को तुलसी पूजन का उत्सव मनाया जाता है। वैसे तो तुलसी विवाह के लिए कार्तिक, शुक्ल पक्ष, नवमी की तिथि ठीक है, परन्तु कुछ लोग एकादशी से पूर्णिमा तक तुलसी पूजन कर पाँचवें दिन तुलसी विवाह करते हैं। आयोजन बिल्कुल वैसा ही होता है, जैसे हिन्दू रीति-रिवाज से सामान्य वर-वधु का विवाह किया जाता है।
            मंडप, वर पूजा, कन्यादान, हवन और फिर प्रीतिभोज, सब कुछ पारम्परिक रीति-रिवाजों के साथ निभाया जाता है। इस विवाह में शालिग्राम वर और तुलसी कन्या की भूमिका में होती है। यह सारा आयोजन यजमान सपत्नीक मिलकर करते हैं। इस दिन तुलसी के पौधे को यानी लड़की को लाल चुनरी-ओढ़नी ओढ़ाई जाती है। तुलसी विवाह में सोलह
श्रृंगार के सभी सामान चढ़ावे के लिए रखे जाते हैं। शालिग्राम को दोनों हाथों में लेकर यजमान लड़के के रूप में यानी भगवान विष्णु के रूप में और यजमान की पत्नी तुलसी के पौधे को दोनों हाथों में लेकर अग्नि के फेरे लेते हैं। विवाह के पश्चात प्रीतिभोज का आयोजन किया जाता है। कार्तिक मास में स्नान करने वाले स्त्रियाँ भी कार्तिक शुक्ल एकादशी को शालिग्राम और तुलसी का विवाह रचाती है। समस्त विधि विधान पूर्वक गाजे बाजे के साथ एक सुन्दर मण्डप के नीचे यह कार्य सम्पन्न होता है विवाह के स्त्रियाँ गीत तथा भजन गाती है ।


मगन भई तुलसी राम गुन गाइके मगन भई तुलसी।
सब कोऊ चली डोली पालकी रथ जुडवाये के।।
साधु चले पाँय पैया, चीटी सो बचाई के।
मगन भई तुलसी राम गुन गाइके।।

:: तुलसी विवाह कथा ::

प्राचीन काल में जालंधर नामक राक्षस ने चारों तरफ़ बड़ा उत्पात मचा रखा था। वह बड़ा वीर तथा पराक्रमी था। उसकी वीरता का रहस्य था, उसकी पत्नी वृंदा का पतिव्रता धर्म। उसी के प्रभाव से वह सर्वजंयी बना हुआ था। जालंधर के उपद्रवों से परेशान देवगण भगवान विष्णु के पास गये तथा रक्षा की गुहार लगाई। उनकी प्रार्थना सुनकर भगवान विष्णु ने वृंदा का पतिव्रता धर्म भंग करने का निश्चय किया। उधर, उसका पति जालंधर, जो देवताओं से युद्ध कर रहा था, वृंदा का सतीत्व नष्ट होते ही मारा गया। जब वृंदा को इस बात का पता लगा तो क्रोधित होकर उसने भगवान विष्णु को शाप दे दिया, 'जिस प्रकार तुमने छल से मुझे पति वियोग दिया है, उसी प्रकार तुम भी अपनी स्त्री का छलपूर्वक हरण होने पर स्त्री वियोग सहने के लिए मृत्यु लोक में जन्म लोगे।' यह कहकर वृंदा अपने पति के साथ सती हो गई। जिस जगह वह सती हुई वहाँ तुलसी का पौधा उत्पन्न हुआ। एक अन्य प्रसंग के अनुसार वृंदा ने विष्णु जी को यह शाप दिया था कि तुमने मेरा सतीत्व भंग किया है। अत: तुम पत्थर के बनोगे। विष्णु बोले, 'हे वृंदा! यह तुम्हारे सतीत्व का ही फल है कि तुम तुलसी बनकर मेरे साथ ही रहोगी। जो मनुष्य तुम्हारे साथ मेरा विवाह करेगा, वह परम धाम को प्राप्त होगा।' बिना तुलसी दल के शालिग्राम या विष्णु जी की पूजा अधूरी मानी जाती है। शालिग्राम और तुलसी का विवाह भगवान विष्णु और महालक्ष्मी के विवाह का प्रतीकात्मक विवाह है।

Saturday, November 24, 2012

संध्या-गायत्री का महत्व - 2 !

क्रमश:

जब कोई हमारे पूज्य महापुरुष हमारे नगर में आते है और उसकी सूचना हमे पहले से मिली हुई रहती है तो हम उनका स्वागत करने के लिए अर्घ्य, चन्दन, फूल, माला आदि पूजा की सामग्री लेकर पहले से ही स्टेशन पर पहुचँ जाते है,उत्सुकता पूर्वक उनकी बाट जोहते है और आते ही उनका बड़ी आवभगत एवं प्रेम के साथ स्वागत करते है | हमारे इस व्यवहार से उन आगंतुक महापुरुष को बड़ी प्रसन्नता होती है और यदि हम निष्काम भाव से अपना कर्तव्य समझकर  उनका स्वागत करते है तो वे हमारे इस प्रेम के आभारी बन जाते है और चाहते है कि किस प्रकार बदले में वे हमारी कोई सेवा करे | हम यह भी देखते है कि कुछ लोग अपने पूज्य पुरुष के आगमन की सूचना होने पर भी उनके स्वागत के लिए समय पर स्टेशन नहीं पहुँच पाते और जब वे गाड़ी से उतरकर प्लेटफार्म पर पहुँच जाते है तब दौड़े हुए आते है और देर के लिए क्षमा-याचना करते हुए उनकी पूजा करते है | और कुछ इतने आलसी होते है कि जब हमारे पूज्य पुरुष अपने डेरे पर पहुँच जाते है और अपने कार्य में लग जाते है, तब वे धीरे-धीरे फुरसत से अपने और सब काम निपटाकर आते है और उन आगंतुक महानुभाव की पूजा करते है | वे महानुभाव तो तीनो प्रकार के स्वागत करने वालो की पूजा से प्रसन्न होते है और उनका उपकार मानते है | पूजा न करने वालो की अपेक्षा देर-सबेर करने वाले भी अच्छे है ;किन्तु दर्जे का फर्क तो रहता ही है | जो जितनी तत्परता, लगन, प्रेम एवं आदर बुद्धि से पूजा करते है उनकी पूजा उतनी ही महत्व की और मूल्यवान होती है और पूजा ग्रहण करने वालो को उससे उतनी ही प्रसन्नता होती है |

ऊपर जो बात आगन्तुक महापुरुष की पूजा के सम्बन्ध में कही गयी है | वही बात संध्या के सम्बन्ध में समझना चाहिये| भगवान सूर्यनारायण प्रतिदिन सबेरे हमारे इस भूमण्डल पर महापुरुष की भाँती पधारते है; उनसे बढ़कर हमारा पूज्यपात्र और कौन होगा | अत: हमें चाहिये कि हम ब्राह्म:मुहूर्त में उठकर शौच-स्नानादि से निवृत होकर शुद्ध वस्त्र पहनकर उनका स्वागत करने के लिए उनके आगमन से पूर्व ही तैयार हो जाये और आते ही बड़े प्रेम से चन्दन-पुष्प आदि से युक्त शुद्ध ताजे जल से उन्हें अर्ध्य प्रदान करे, उनकी स्तुति करे, जप करे | भगवान सूर्य को तीन बार गायत्री मन्त्र का उच्चारण करते हुए अर्ध्य प्रदान करना, गायत्री मन्त्र का (जिसमे उन्हीं की परमात्मभाव से स्तुति की गयी है और उनसे बुद्धि को परमात्म सुखी करने की प्रार्थना की गयी है ), जप करना और खड़े होकर उनका उपस्थान करना,स्तुति करना यही संध्योपासना के मुख्य अंग है ; शेष कर्म इन्ही के अंगभूत एवं सहायक है | जो लोग सूर्योदय के समय संध्या करने बैठते है वे एक प्रकार से अतिथि के स्टेशन पहुँच जाने और गाडी से उतर जाने पर उनकी पूजा करने दौड़ते है और जो लोग सूर्योदय हो जाने के बाद फुर्सत से अन्य आवश्यक कार्यो से निवृत होकर संध्या करने बैठते है,वे मानो अतिथि के अपने डेरे पर पहुँच जाने पर धीरे-धीरे उनका स्वागत करने पहुँचते है|

जो लोग संध्योपासना करते ही नहीं, उनकी अपेक्षा तो वे भी अच्छे है जो देर-सबेर,कुछ भी खाने के पूर्व संध्या कर लेते है |उनके द्वारा कर्म का अनुष्ठान तो हो ही जाता है और इस प्रकार शास्त्र की आज्ञा का निर्वाह हो जाता है | वे कर्मलोप के प्रायश्चित के भागी नहीं होते |उनकी अपेक्षा वे अच्छे है, जो प्रात:काल में तारो के लुप्त हो जाने पर संध्या प्रारम्भ करते है | और उनसे भी वे श्रेष्ठ वे है, जो उषाकाल में ही तारे रहते संध्या करने बैठ जाते है, सूर्योदय होने तक खड़े होकर गायत्री-मन्त्र का जप करते है और इस प्रकार अपने पूज्य आगंतुक महापुरुष की प्रतीक्षा, उन्ही के चिंतन में उतना समय व्यतीत करते है और उनका पदार्पण उनका दर्शन होते ही जप बंद कर उनकी स्तुति उनका उपस्थान करते है | इसी बात को लक्ष्य में रखकर संध्या के उत्तम, मध्यम और अधम तीन भेद किये गए है |


नारायण ! नारायण ! नारायण ! नारायण ! नारायण !
जयदयाल गोयन्दका, तत्व चिंतामणि, कोड ६८३, गीताप्रेस गोरखपुर

संध्या-गायत्री का महत्व !

प्रात:संध्या के लिए जो बात कही गयी है, सांयसंध्या के लिए उससे विपरीत बात समझनी चाहिये | अर्थात सांयसंध्या उत्तम वह कहलाती है, जो सूर्य के रहते की जाय; मध्यम वह है, जो सूर्यास्त होने पर की जाये और अधम वह है, जो तारो के दिखायी देने पर की जाये | कारण यह है की अपने पूज्य पुरुष के विदा होते समय पहले ही से सब काम छोड़ कर जो उनके साथ-साथ स्टेशन पहुचता है, उन्हें आराम से गाड़ी पर बिठाने की व्यवस्था कर देता है और गाड़ी छुटने पर हाथ जोड़े हुए प्लेटफार्म पर खड़ा-खड़ा प्रेम से उनकी और ताकता रहता है और गाड़ी के आँखों से ओझल हो जाने पर ही स्टेशन से लौटता है, वही मनुष्य उनका सबसे अधिक सम्मान करता है और प्रेम-पात्र बनता है | जो मनुष्य ठीक गाड़ी के छुटने के समय हाँफता हुआ स्टेशन पर पहुचता है और चलते-चलते दूर से अतिथि के दर्शन कर पाता है वह निश्चय ही अतिथि की दृष्टि में उतना प्रेमी नहीं ठहरता, यद्यपि उसके प्रेम से भी महानुभाव अतिथि प्रसन्न ही होते है और उसके ऊपर प्रेमभरी दृष्टि रखते है | उससे भी नीचे दर्जे का प्रेमी वह समझा जाता है, जो अतिथि के चले जाने पर पीछे से स्टेशन पहुँचता है और फिर पत्र द्वारा अपने देरी से पहुँचने की सूचना देता है और क्षमा-याचना करता है | महानुभाव अतिथि उसके भी आतिथ्य को मान लेते है और उस पर प्रसन्न ही होते है |


यहाँ यह नहीं मानना चाहिये कि भगवान् भी साधारण मनुष्यों की भांति राग-द्वेष से युक्त है, वे पूजा करने वाले पर प्रसन्न होते है और न करने वाले पर नाराज़ होते है या उनका अहित करते है | भगवान की सामान्य कृपा तो सब पर समानरूप से रहती है | सूर्यनारायण अपनी उपासना न करने वालो को भी उतना ही ताप और प्रकाश देते है, जितना वे उपासना करने वालो को देते है |उसमे न्युनाधिकता नहीं होती | हाँ जो लोग उनसे विशेष लाभ लेना उठाना चाहते है,जीवन-मरण के चक्कर से छुटना चाहते है, उनके लिए तो उपासना की आवश्यकता है ही और उनमे आदर और प्रेम की दृष्टी से तारतम्य भी होता ही है | भगवान् ने गीता में कहा है - ‘मैं सब भूतों में समभाव से व्यापक हूँ, न मेरा कोई  अप्रिय है, न प्रिय है; परन्तु जो भक्त मुझको प्रेम से भजते है, वे मुझमें है और मैं भी उनमे प्रत्यक्ष प्रगट हूँ |’ (गीता ९ | २९)

ऊपर के विवेचन से यह स्पष्ट हो जाता है कि संध्या के सम्बन्ध में पहली बात तो यह है कि उसे नित्य नियमपूर्वक किया जाये | काल का लोप हो जाये तो कोई बात नहीं किन्तु कर्म का लोप न हो | इस प्रकार संध्या करने वाला भी  न करनेवाले से श्रेष्ठ है | दूसरी बात  यह है कि जहाँ तक संभव हो, तीनो काल की संध्या ठीक समय पर की जाये अर्थात प्रात: संध्या सूर्योदय से पूर्व और सांय:संध्या सूर्यास्त से पूर्व की जाये और मध्यान्ह:संध्या ठीक दोपहर के समय की जाये | समय की पाबन्दी रखने से नियम की पाबंदी तो अपने-आप हो जाएगी | इसलिए इस प्रकार ठीक समय पर संध्या करने वाला पूर्वोक्त की अपेक्षा श्रेष्ठ है | तीसरी बात है कि तीनो काल की अथवा दो काल की संध्या नियमपूर्वक और समय पर तो हो ही, साथ ही प्रेमपूर्वक एवं आदर भाव से हो तो और भी उत्तम है | किसी कार्य में प्रेम और आदरबुद्धि होने से वह अपने-आप ठीक समय और नियम पूर्वक होने लगेगा | जो लोग इस प्रकार तीनो बात का ध्यान रखते हुए श्रद्धा-प्रेम-पूर्वक भगवान् सूर्यनारायण की जीवन भर उपासना करेंगे, उनकी मोक्ष  निश्चित है |

नारायण ! नारायण ! नारायण ! नारायण ! नारायण !
जयदयाल गोयन्दका, तत्व चिंतामणि, कोड ६८३, गीताप्रेस गोरखपुर

Saturday, November 17, 2012

भाई दूज पर बहनको समर्पित !


एक रिश्ता - बड़ा अनाम
सोचता हूँ दूं - उसे
कोई अच्छा सा नाम .

सावन सा उमड़ता -
...

घुमड़ता रीझता हो .
खिजाता हो - खीजता हो .
कोई ऐसी हो इस जहाँ में - ऐ दोस्त
जिसका दिल मेरे दर्द से -
बेतरह पसीजता हो .

जो लड़ सके दुनिया से -
मेरे एक मुस्कराहट के लिए
पलकें बिछा दे मेरी एक
हलकी सी आहट के लिए .

बहूत सोचा - पर मिला नहीं
ऐसा कोई नाम - इस जहाँ में
जिसे दे सकूं - एक पवित्र
रिश्ते - बंधन का नाम .

नजरें बार बार - दुनिया
का चक्कर लगा - चकरा जाती हैं
फिर फिर वापिस लौट के
आ जाती हैं .

उसे ढूँढता रहा मैं बाहर
पर वो तो छिपी - हुई थी
मेरे घर के भीतर ही - यार .

किसी से अब कुछ और - कहूं तो
मेरी बहूत हेठी हो सकती है -
सोचता हूँ - वो सिर्फ और
सिर्फ - कोई और नहीं
मेरी माँ की बेटी हो सकती है !


- सतीश शर्मा

पितृ दिवस - पर सादर अपने पिता को समर्पित !

मेरी - किलकारी
लगाने में - झूमता खुश होता .
गले लगाता -मेरे साथ
खेलता -मेरे जागने से
पहले - राम जाने
...
कब सोता .

बड़े जतन प्रयत्न से
मेरी हर सही गलत
मांगों को - जाने कैसे कैसे
पूरा करता -
मुझे -खिलाता और
खुद - अधपेट सोता .

अनपढ़ - गंवार
जाहिल सा - इंसान
वो कोई गुरु नहीं था -
पर पुरे जहाँ - में उससे
ज्यादा ज्ञानी - मेरी
जानकारी में - तब
कोई दूसरा नहीं था.
वो था - मेरी दुनिया की
पहली पाठशाला .

सम्पूर्ण ब्रह्माण्ड का
पहला शब्द - बाबा
सिखाने में - कितनी
मेहनत -कौशिश की थी
गर्व से उसका माथा -
तना था - और
उस दिन - मेरा उससे
पहला नाता बना था .

खेल -खिलौनों से खेलते
माया लोक की पौथी
बांचते - मेरे देखते देखते
उसके चेहरे की झुर्रियां
कब दुनिया के मानचित्र में
बदल गयी - मैं नहीं जान पाया .

आज दंतहीन - केशहीन
कृषकाय - इस आदमी में
मैं अपने उस पिता को -
ढूँढता हूँ - जो अब भी
मुझे - तृप्त निगाहों से
पूछता सा लगता है -
बबुआ - कोई और
खिलौना तो नहीं चाहिए !

- सतीश शर्मा

Monday, November 12, 2012

आइए इको फ्रैंडली दीपावली मनाएं !

दीपावली नाम है भव्यता का, ऐसा लगता है मानो पूरा तारामंडल जमीन पर उतर आया हो। बाजार अचानक मिठाईयों, कपड़े, बर्तनों और जेवरों की जगमगाहट से भर जाते हैं। विविधता के वाबजूद यह एक ऐसा त्योहार है जो कि भारत भर में किसी न किसी रूप में मनाया जाता है।

इस त्योहार की एक आम बात जो हर जगह देखने को मिलती है वह है वह रोशनी की जगमगाहट और पटाखों का शोर। पूरा देश राकेट, चकरी, बम, फुलझड़ियां की जगमगाहट से भर जाता है। देखने और सुनने में तो यह मन मोह लेता है, पर यह पर्यारण के लिए बिलकुल शुभ नहीं है। एक तरफ आतिशबाजी पर्यावरण को नुकसान पहुँचाती है दूसरी तरफ दीपक और मोमबत्ती का प्रयोग कम कर घरों को बिजली से सजा दिया जाता है। इससे बिजली के संकट से गुजर रहे देश में पल भर की जगमगाहट आने वाली कुछ दिनों में बिजली का संकट बन हमारे सामने आती है।

पटाखे घातक रसायन कॉकटेलआतिशबाजी तांबा, पोटेशियम नाइट्रेट, कार्बन, सीसा, जस्ता, कैडमियम और सल्फर का एक घातक कॉकटेल है, जिसके जलाएं जाने पर कार्बन डाइऑक्साइड और सल्फर डाइऑक्साइड जैसी हानिकारक गैसों का उत्सर्जन होता हैं. यह भारी वायु प्रदूषण का कारण बनती है और हमारे स्वास्थ्य के लिए खतरों का कारण।

वयोवृद्ध लोगों को पटाखों के कारण निम्नलिखित समस्याएं हो सकती है, जैसे- तेज आवाज में छूटने वाले पटाखों के कारण सुनने में कठिनाई, स्ट्रैस लेवल बढ़ने से उच्च रक्तचाप की शिकायत, हानिकारक धुँए से साँस लेने में कठिनाई, पटाखों से उत्सर्जित रसायनों के कारण त्वचा की एलर्जी, वातावरण में चारों तरफ धुँआ होने के कारण नेत्रों में सूजन।

इको फैंडली दीपावलीपिछले कुछ वर्षों में दीवाली मनाने के तरीकों में थोड़ा फर्क आया है। पर्यावरण के बढ़ती जागरूकता के लिए ज्यादा शोर, धुँआ छोड़ने वाले पटखों की बिक्री में कमी आई है। बड़े शहरों में पिछले साल पैतिस प्रतिशत से ज्यादा जहरीले पटाखों बिक्री में कमी आई है।

आइए देखते हैं कि पारिस्थिकी के अनुकूल दीवाली कैसे मना सकते हैः 
• घर को बिजली के बल्ब की जगह मिट्टी के दियों से रोशन करें। इससे कुम्हारों के व्यापार में वृद्धि आएगी, साथ ही बिजली की बचत होगी। 
• अगर आपको लगता है कि तेज आवाज के पटाखों के बिना दीवाली का क्या मजा तो अपने अड़ोसियो-पड़ोसियों के साथ मिलकर पटाखे फोड़े इससे एक सीमित दायरे में प्रदूषण फैलेगा। 
• हरदम कम तीव्रता वाले पटाखें खरीदें। वे पटाखे खरीदें जिनसे हानिकारक रसायन धुएं के साथ उत्सर्जित न होते हों। 
• पटाखे ऐसे खरीदें जिनमें प्रकाश तो मन मोह लेने वाला हो, परंतु शोर अपनी सीमा पार न करे। इस तरह आप अपनी खुशियों का आनंद भी ले सकते हैं साथ ही पर्यावरण को हानि भी नहीं पहुँचेगी।

बहुत सारे पटाखा निर्माताओं ने इको फ्रैंडली पटाखों का उत्पादन शुरू कर दिया है जो प्रकाश तो भरपूर देते है लेकिन शोर और धुँआ ज्यादा नहीं करते। अब तो bio-degradable पटाखों का उत्पादन भी शुरू हो गया जो जलाने पर आकाश में बहुरंगी छटा बिखेर देते है, पर पर्यावरण को ज्यादा नुकसान नहीं पहुँचाते।

पटाखे छोड़ते समय निम्न बातों का ध्यान अवश्य रखें
• माता-पिता की देख-रेख में ही बच्चे पटाखे फोड़े। 
• घने और भीड़-भाड़ वाले इलाकों में पटाखे छोड़ने से बचें। उन्हें खुले स्थानों पर ही जलाएं। 
• हाथ में पकड़कर कभी आतिशबाजी न चलाएं। 
• जलाने से पहले यह सुनिश्चित कर ले कि लोग आतिशबाजी की सीमा के बाहर हों। 
• आतिशबाजी करते समय यदि आँख घायल हो जाए, तो आँख के ऊपर कॉटन पैड रख लें और तुरंत नेत्र विशेषज्ञ से सलाह लें। 
• जहां आतिशबाजी जलाई जा रही हो, उस जगह से बिना जले हुए पटाखे दूर रखे। किसी आपातस्थिति से बचने के लिए एक पानी से भरी बाल्टी पास में अवश्य रखे। 
• कभी भी किसी कंटेनर के अंदर रख कर बम न फोड़े, विशेषतः काँच या धातु का कंटेनर बिलकुल नहीं होना चाहिए।• ढीले कपड़े पहनकर आतिशबाजी कभी न करें।

लेखक
 
प्रतिभा वाजपेयी

तवायफ फिर भी अच्छी है !

कोई टोपी तो कोई
अपनी पगड़ी बेच
देता है, मिले गर भाव
अच्छा जज भी कुर्सी बेच देता है....
तवायफ फिर भी अच्छी है
के वो सीमित है कोठे तक, पुलिस
वाला तो चौराहे पे
वर्दी बेच देता है..
जला दी जाती है ससुराल में अक्सर
वही बेटी,
जिस बेटी की खातिर बाप
किडनी बेच
देता है..
कोई मासूम
लड़की प्यार में कुर्बान है जिस पर,
बना कर
विडियो उसकी वो प्रेमी बेच
देता है...
ये कलयुग है कोई
भी चीज नामुमकिन नहीं इसमें,
कलि, फल,
पेड़, पौधे, फूल
माली बेच देता है...
जुए में बिक गया हु मैं तो हैरत क्यों है
लोगो को, युधिष्ठर तो जुए में
अपनी पत्नी बेच देता है....
कोयले की दलाली में है मुँह
काला यहाँ सब
का, इन्साफ
की क्या बात करे इंसान ईमान बेच
देता है..
जान दे दी वतन पर जिन बेनाम
शहीदों ने,
इक हरामखोर आदमखोर नेता इस
वतन
को बेच देता है

- सिराज फैसल ख़ान

माटी का दिया !

माटी का ए दिया
माटी के पुतलों से ना जाने क्या क्या कह जाता
माटी का दिया
तेल में डूबा कपास
अग्नि से प्रज्वलित प्रकाश
जगमगाते दियो का ए समूह
अँधेरे को दूर भगाता
बाती से बाती मिलाओ
बिना भेदभाव किये सबको प्रकाशित करता
खुद जलता पर राह दिखाता माटी का ए दिया
माटी के पुतलों से ना जाने क्या क्या कह जाता !

- शैलेन्द्र दुबे

तो यथावत चलेगी ये दुनिया !

हैरत है
चंद सरफिरे आज भी ये मानते हैं
दुनिया शेषनाग के फन पर नहीं,
टिकी है आस्तिकों और नास्तिकों की संख्या के
संतुलन पर,

बेअसर है ये इनकी घटती-बढती संख्या से,
या पृथ्वी एक स्त्री है,
इसके डगमगाते कदम जमें हैं
उम्मीद की जमीन पर,
उसकी आँखें टिकी हैं
ठीक सामने की दीवार पर
आंसूओं से लिखे उन कंफेशंस पर
जहाँ पल पल पिघलते शब्दों की इबारत
बताती है
यथावत चलेगी ये दुनिया
बस बची रहे लोगों के दिलों में
थोड़ी सी सहिष्णुता,
थोडा सी सहनशक्ति,
थोडा सा प्रेम
थोडा सी मनुष्यता
और थोडा सा ईश्वर ....
 
- अंजू शर्मा

दिया जलेगा या बाती या तेल जलेगा !

इस बार दिवाली पर ना जाने कौन जलेगा
दिया जलेगा या बाती या तेल जलेगा
या मेरा दिल कोने में चुपचाप जलेगा
इस बार दिवाली पर ना जाने कौन जलेगा
रंगोली जब मेरे आँगन सज जाएगी

लक्ष्मी मेरे द्वारे आ कर रुक जाएगी
मैं तो हूँ परदेस में टीका कौन करेगा
इस बार दिवाली पर ना जाने कौन जलेगा
खुशियाँ तो आएगी मेरे दरवाज़े भी
गूँजेंगे घर में मेरे गाजेबाजे भी
पर मेरे घर गणपति पूजन कौन करेगा
इस बार दिवाली पर ना जाने कौन जलेगा
बैठी होंगी कहीं ढूँढ़ कर वो कोना
उसका दिल होगा जाने कितना सूना
देश में उसकी रीति गागर कौन भरेगा
इस बार दिवाली पर ना जाने कौन जलेगा....
 
 - संदीप त्रिपाठी

उन सीखों ने जो अनजाने मिलीं !

हम ही अमृत का प्याला
हम ही विष की हाला
हमें बनाया किसने ?
उन सीखों ने जो अनजाने मिलीं
बाद में जो ठूँसी गयीं
फिर खेल सुविधाओं का
विवशता बने रहने की
खुद से ज्यादा दिखने की तमन्ना
खीचती रही मगरमच्छ बन के
भौतिकता गजराज बनी
चक्र बनके चेतना ने काटा उसे
हार गयी
धार कम थी
सुविधा की पुकार बहुत ज्यादा है
कलियुग है ,कलयुग है
कल का युग क्या होगा क्या किसे मालूम ?

बकरी मेरी बाड तोड़ कर निकली
मिले तो बांध देना मेरे बाड़े में ....:)
 
 - राघवेन्द्र अवस्थी

जग है जगमग

हेरत नयन गए हेराय
जग है जगमग
कूप अँधेरा
मिले जो तुम तो होवे
उजेरा

मन भी कुछ हरसाय
जोत बिना दिया ना दिया
जो दिया लौट ले जाय
ना तन ,ना मन
धन ना कुछ भी
तनिक ओट मिल जाय
चले चाहे घनघोर अंधेरिया
तुम्हरी सरन सिवाय
लियो मोहे अपने अंक लगाय !!!

- राघवेन्द्र अवस्थी

बंगाली बाबा !

कपाल के मूल में धंसी आँखों से
झांकता उनका जीवन दर्शन
इस बार भी
उनके पोपले मुंह में
होकर रह गया गोल-गोल, फुस्स-फुस्स

आकाश की धूप को
अपनी छितरी छतरी पर टिकाये
और होंठ के कोर से फिसलती
लार की धार को
गंदले अंगरखे के हवाले करते उन्होंने
नाक से स्वर साध मुझसे पूछा
'बोलो हमी है बंगाली बाबा'

उन्हें
साइकिल की कैरिअर पर बिठा मैंने
पैडलों के सहारे
धकेली थी
उनके घर की तरफ
एक नदी
अंग्रेजों के जमाने का एक पुल
और राष्ट्रीय राजमार्ग क्रमांक सात

रास्ते भर
बीड़ी के सुन्न धुएं में मिला
वह सुनाते रहे मुझे
टुकड़ों-टुकड़ों में बाउल
रेल की नौकरी छोड़ने की कहानी
और बाबूजी से दोस्ती के किस्से-कोताह

२.
दो शाम
नाश्ते की प्लेट की जबरन अनदेखी के बाद भी
जब पिताजी को नहीं मिली गंगा
तो उन्होंने मुझे बंगाली बाबा को बुला आने का निर्देश दिया था
दरवाजे पर बाबा को जूते उतारते देख
पिताजी उछल पड़े थे गंगा से मिलने की कल्पना कर
'कब से गायब है गैया मतलब गंगा..'
बाबा के सवाल का जवाब, पिताजी अपने उच्छ्वास से देते हैं

फिर अम्मा,
बाबा के आदेश पर घर भर में दिखाई देने लगीं
आधी पालथी और घुटने पर टिकाये अपने लरजते शरीर को
बाबा फूंकते हैं पीढ़े पर

अक्षत, कनेल के फूल, काजल की डिब्बी
सेंदुर, हरदी, चन्दन और रोली की चौखानी डिब्बी
दो कपूरी और एक बँगला पान का पत्ता
काला तिल और छोटे पात्र में गंगाजल
एक कुश शाखा और शुद्ध गाय के घी में बूड़ी बाती का दीप
सजता जाता है पीढ़े पर
बाबा की तर्जनी से तय स्थिति में

३.
कनपटी पर
चिपके बालों से टपकता ठंडा पानी
हाफ पैंट के भीतर सुरसुरी पैदा करता है
और मैं बाएं हथेली में काजल से बनाए गए गोल परदे पर
हर बार गंगा को देखने से वंचित रह जाता हूँ

बाबा ताकीद करते हैं पिता से
लड़का चंचल है संभालो इसे
इसके पहले की देर हो
पिताजी का एक झन्नाटेदार तमाचा
पता नहीं कैसे सुखा देता है मेरे कनपटी पर का पानी

अगली सुबह
पगुराती गंगा के सामने खड़ा कर मुझे
अम्मा मेरे शरीर पर फिराती हैं बंद मुट्ठी
आख़िरी फेरे के बाद वह खोलती हैं
अपना हाथ बाबा के सामने
बाबा
अम्मा की मुट्ठी से उठाते हैं सिर्फ पांच का नोट
और चिल्लर तमाम

४.
बाबा को घर पहुंचाते वक़्त
मैं जान जाता हूँ कि
उनके घर में हैं दो स्त्रियाँ
उनकी बहू और एक बड़ी होती बेटी
उस रात
सारे सपनों में चुभती रही
बाबा के बेटी की अदेखी आँखें

बेटी पर लोटते यौवन से चिंतित बाबा
घर के सामने स्थित सिद्ध चौतरे पर
जमाते हैं नौ दिनी मनोकामना सिद्धि डेरा
चौबीस साल के थे तब से
बाबा की सिद्ध हैं माँ काली
चौरासी साल की पकी उम्र में बाबा ने
भले न देखी हो अब तक माँ काली
लेकिन उनका दृढ़ विश्वास है
कि काली उनकी जोगनी से बीस नहीं
अलग नहीं

सिद्ध काली के दम पर
बाबा ढूंढ लाते हैं
लोगों की गुमी गाय, बकरी, मुर्गी
ठीक कर देते हैं
पहलवानों का शीघ्रपतन और स्वप्नदोष
कई कम्युनिस्टों को बाबा
पहना आये हैं रंग-बिरंगी अंगूठी
इसी सिद्ध काली के दम

बाबा का लड़का रोज़ कहीं जाता है
लेकिन लौटते वक़्त कमाई नहीं लाता है
बहू का दिन मोहल्ले के दिलफेंक मजनुयों के बीच कट जाता है
बाबा पका लेते हैं चूल्हे पर दोनों जून खाना
कहते हैं जोगनी से क्या मदद लेना
इस बेचारी को तो करना ही है जिंदगी भर

बाबा के काँधे पर लटकती मूंज
तब उनके अंगूठों में फंस जाती है
जब जोगनी उन्हें देती है उलाहना
भात जलाने
और अपने लिए वर नहीं खोज पाने के लिए

बाबा जोगनी को दस बरस पहले
कुछ नशेड़ियों से मुक्त करा लाये थे
सिद्ध काली के दम पर नहीं
सिद्ध काली के डर से

५.
मनोकामना सिद्धि के नौवें दिन
बाबा लोगों के गुमे जानवरों को बेटे और बहू के लिए छोड़
सिद्ध काली के चौतरे पर ही सिधार गए
जोगनी ने तेज़ बहते आंसुओं को जल्दी-जल्दी पोंछते हुए
बाबा की देह से छपटकर इतना ही कहा था
'मेरी शादी करके यमराज का भैसा ढूँढने नहीं जा सकते थे बाबा...'

६.
उस दिन से
नहीं सुनी किसी ने
जोगनी की आवाज़
उस अँधेरे-छोटे कमरे में जब
कोई नोचता है उसकी देह
तो जोगनी
सामने की दीवार पर टंगी
बाबा की तस्वीर में खो जाती है

बरसों पुरानी फ्रेम से घिरे बाबा
जाने कब से बीड़ी फूंक रहे हैं उस तस्वीर में !
- पुष्पेन्द्र फाल्गुन

Friday, November 9, 2012

गजल !

ख़ुल्द में कब वो मज़ा जो दुनिया-ए-फ़ानी में है
होश क्या जाने कि क्या-क्या है जो नादानी में है

हौसलों का, हिम्मतों का इम्तेहाँ है ज़िन्दगी

जो मज़ा मुश्क़िल में है, वो ख़ाक़ आसानी में है

जो सदा मँझधार से, लौटा भँवर को जीतकर;
साहिलों पर बहस अब तक, कितना वो पानी में है

जीना बिन-ख़्वाहिश के - या लेकर अधूरी हसरतें

इत्तिक़ा दर-अस्ल ख़ुद ख़्वाहिश की तुग़यानी में है

ख़ुदपरस्ती में जिया, ख़ुद के लिए मरता रहा

ख़्वाहिशे-जन्नत में वो भी सफ़हे-क़ुर्बानी में है।
 
 
 (हिमांशु मोहन)
-----------------------------------
ख़ुल्द = स्वर्ग, जन्नत
फ़ानी = नश्वर, नाशवान
साहिल = किनारा, तट
इत्तिक़ा = संयम, इन्द्रिय निग्रह
तुग़यानी = बाढ़, उफ़ान
ख़्वाहिशे-जन्नत = स्वर्ग की इच्छा
सफ़हे-क़ुर्बानी = क़ुर्बानी / बलिदान देने के लिए लगी हुई क़तार

जितेन्द्र श्रीवास्तव की कविताएँ !



जितेन्द्र श्रीवास्तव का जन्म उत्तर प्रदेश के देवरिया जिले की रूद्रपुर तहसील के सिलहटा में हुआ. जे. एन यू नयी दिल्ली से हिन्दी साहित्य में सर्वोच्च अंकों से एम. ए. और एम. फिल. एवं पी-एच. डी.
कविता संग्रह- इन दिनों हालचाल, अनभै कथा, असुंदर-सुन्दर, बिलकुल तुम्हारी तरह, कायांतरण,
आलोचना- भारतीय समाज, राष्ट्रवाद और प्रेमचंद, शब्दों में समग्र, आलोचना का मानुष मर्म
सम्पादन- प्रेमचंद: स्त्री जीवन की कहानियां, प्रेमचंद: स्त्री और दलित विषयक विचार, प्रेमचंद: हिन्दू-मुस्लिम एकता संबंधी कहानियां और विचार
पुरस्कार और सम्मान- कविता के लिए भारत भूषण अग्रवाल पुरस्कार, आलोचना के लिए देवीशंकर अवस्थी सम्मान सहित हिन्दी अकादमी दिल्ली का ‘कृति सम्मान’ उत्तर प्रदेश हिन्दी संस्थान का राम चन्द्र शुक्ल पुरस्कार एवं विजयदेव नारायण साही पुरस्कार, भारतीय भाषा परिषद् का युवा पुरस्कार, डॉ राम विलास शर्मा आलोचना सम्मान और परम्परा ऋतुराज सम्मान
सम्प्रति – इंदिरा गांधी राष्ट्रीय मुक्त विश्व विद्यालय नयी दिल्ली के मानविकी विद्यापीठ में अध्यापन.

        
परवीन बाबी
कल छपी थी एक अखबार में
महेश भट्ट की टिप्पणी
परवीन बाबी के बारे में
कहना मुश्किल है
वह एक आत्मीय टिप्पणी थी
या महज रस्मअदायगी
या बस याद करना
पूर्व प्रेमिका को फ़िल्मी ढंग से
उस टिप्पणी को पढ़ने के बाद पूछा मैंने पत्नी से
तुम्हें कौन सी फिल्म याद है परवीन बाबी की
जिसे तुम याद करना चाहोगी सिर्फ उसके लिए
मेरे सवाल पर कुछ क्षण चुप रही वह
फिर कहा उसने
प्रश्न एक फिल्म का नहीं
क्योंकि आज संभव है यदि
अपने बिंदासपन के साथ
ऐश्वर्य राय, करीना कपूर, रानी मुखर्जी
प्रियंका चोपड़ा और अन्य के साथ
नई-नई अनुष्का शर्मा रुपहली दुनिया में
तो इसलिए कि पहले कर चुकी हैं संघर्ष
परवीन बाबी और जीनत अमान जैसी अभिनेत्रियाँ 
स्त्रीत्व के मानचित्र विस्तार के लिए
उन्हों ने ठेंगा दिखा दिया था वर्जनाओं को
उन्हें परवाह नहीं थी किसी की
उन्हों ने खुद को परखा था
अपनी आत्मा के आईने में
वही सेंसर था उनका
परवीन बाबी ने अस्वीकार कर दिया था
नैतिकता के बाहरी कोतवालों को
उसे पसंद था अपनी शर्तों का जीवन
उसकी बीमारी उपहार थी उसे
परम्परा, प्रेमियों और समाज की
जो लोग लालसा से देखते थे उसे
रूपहले परदे पर
वे घर पहुँच कर लगाम कसते थे
अपनी बहन बेटियों पर
परवीन बाबी अट्टहास थी व्यंग की
उसके होने ने उजागर किया था
हमारे समाज को ढोंग
उसकी मौत एक त्रासदी थी
उसकी गुमनामी की तरह
लेकिन वह प्रत्याख्यान नहीं थी उसके स्वप्नों की
भारतीय स्त्रियों के मुक्ति संघर्ष में
याद किया जाना चाहिए परवीन बाबी को
पूरे सम्मान से एक शहीद की तरह
यह कहते-कहते गला भर्रा गया था
पत्नी का चेहरा दुःख से
लेकिन एक आभा भी थी वहाँ
मेरी चिरपरिचित आभा
जिसने कई बार रोशनी दी है मेरी आँखों को
अपनों के मन का 
मैं कवि नहीं झूठ फरेब का
रुपया पैसा सोने-चांदी का
मैं कवि हूँ जीवन के सपनों का
उजास भरी आँखों का
मैं कवि हूँ उन होठों का
जिन्हें काट गयी है चैती पुरवा
मैं कवि हूँ उन कन्धों का
जो धंस गए हैं बोझ उठाते
मैं कवि हूँ
हूँ कवि उनका
जिनको नहीं मयस्सर नींद रात भर
नहीं मयस्सर अन्न आंत भर
मैं कवि हूँ
हाँ, मैं कवि हूँ
उन उदास खेतों के दुःख का
जिनको सींच रहे हैं आँखों के जल
मैं कवि हूँ उन हाथों का
जो पड़े नहीं चुपचाप
जो नहीं काटते गला किसी का
जो बने ओट हैं किसी फटी जेब का
मैं कवि हूँ
जी हाँ, मैं कवि हूँ
अपने मन का
अपनों के मन का 
अबकी मिलना तो!
मोबाईल में दर्ज हैं
कई नाम और नंबर ऐसे
जिन पर लम्बे अरसे से
मैंने कोई फोन नहीं किया
उन नंबरों से भी कोई फोन आया हो
याद नहीं मुझको
मेरी ही तरह
उन्हें भी प्रतीक्षा होगी
कि फोन आये दूसरी तरफ से ही
हो सकता है
एक हठ वहाँ भी हो
मेरे मन की तरह
यह भी हो सकता है
न हठ हो न प्रतीक्षा
एक संकोच हो
या कोई पुरानी स्मृति ऐसी
जो रोकती हो उंगलियों को
नंबर डायल करने से
आखिर कभी-कभी रिश्तों में
आ ही जाती हैं
ऐसी स्मृतियाँ भी
तो क्या ऐसे ही
उदास पड़े रहेंगे ये नंबर
मोबाईल में
मुझे भय है कहीं गूंगे न हो जाय ये
या मैं ही उनके लिए
इसलिए आज बतियाना बहुत जरूरी है
उन सबसे
जिनकी आवाज सुने बहुत दिन हुए
तो लो
यह पहला फोन तुम्हें
मित्र ‘क’
बोलो चुप क्यों हो
आवाज नहीं आ रही तुम्हारी
कहाँ हो
आजकल
क्या कर रहे हो
हंसते हो ठठा कर पहले ही जैसे
या चुप रहने लगे हो
जैसे हो इस समय
कुछ तो कहो दोस्त
कि कहने सुनने से ही चलती है दुनिया
अबोले में होती है मृत्यु की छाया
मुझे सुननी है तुम्हारी आवाज
बोलो मित्र
बताओ हाल-चाल... ... ...
सुनो, अभी करने हैं मुझे बहुत सारे फोन
योजनाये बनानी हैं मिलने की
पूरे मन से धोनी हैं
रिश्तों पर जमी मैल
चाहें वह जमी हो मेरे कारण
या किसी के भी
सोचो दोस्त
यदि हमारे पैर छोड़ दें आपस में तालमेल
या करने लगें प्रतीक्षा हमारी तरह
पहले ‘वो’ पहले ‘वो’
तो ठूंठ हो जाएगा शरीर बिलकुल अचल
और हर अचल चीज अच्छी हो
जरूरी तो नहीं
तो छोडो पुरानी बातें
हंसो जोर से
और जोर से
इतनी जोर से
कि भीतर बचे न कुछ भी मलीन
और हाँ अबकी मिलना
तो आखों में आँखें डालकर मिलना
सचमुच
धधा कर मिलना
जैसे हाथ हो दाँया
अभी-अभी डूबा है सूर्य
उडूपी के खेतों में
अभी-अभी आयी हैं सांझ
वृक्षों की पुतलियों में
अभी
बिलकुल अभी
हँसे हैं नारियल के दरख़्त
हमारी और देख कर
जैसे लगना चाहते हों गले
जैसे पहचान हो बहुत पुरानी
प्रिये यह दक्षिण है देश का
सुन्दर मन भावन
जैसे हाथ हो दाँया अपने तन का
स्मृतियाँ
स्मृतियाँ सूने पड़े घर की तरह होती हैं
लगता है जैसे
बीत गया है सबकुछ
पर बीतता नहीं है कुछ भी
आदमी जब तैर रहा होता है
अपने वर्तमान के समुद्र में
अचानक स्मृतियों का ज्वार आता है
कुछ समय के लिए
और सब कुछ बदल देता है
अचानक बेमानी लगने लगता है
तब तक सबसे अर्थवान लगने वाला प्रसंग
और जिसे हम छोड़ आये होते हैं
बहुत पीछे अप्रासंगिक समझकर
वह जीवन की तरह मूल्यवान लगने लगता है
बहुत से सम्बन्ध और बहुत से मित्र
जो छूट गए होते हैं आँकडों की गणित में
अचानक किसी दिन सिरहाने खड़े मिलते हैं
कुछ चिट्ठियाँ निकलती हैं पुराने बक्सों से
और बंद पडी आलमारियो से
और उनमें लिखीं तहरीरें
दिखा जातीं हैं आईना
बीता हुआ कल
वहीं दुबका बैठा मिलता है
कभी हाथ मिलाने को बढ़ आता है उत्सुक
कभी छुपा लेता है नजरें
कुछ लोगों को लगता है
जैसे स्मृतियाँ पीछे खींच ले जाती हैं हमें
लेकिन ऐसा होता नहीं है
स्मृतियाँ अक्सर तब आतीं हैं
जब सूख रहा होता है
अंतर का कोई कोना
सूखे के उस मौसम में
वे आती हैं बरखा की तरह
और चली जाती हैं
मन-उपवन को सींच कर 
सुख
आज बहुत दिनों बाद सोया
दोपहर में
उठा शीतल-नयन प्रसन्न मन
सब कुछ अच्छा-अच्छा लगा.
कभी दोपहर की नींद
हिस्सा थी दिनचर्या की
न सोये तो भारी हो जातीं थीं रातें भी
कस्बा बदला
दिनचर्या बदली
दोपहर की नींद विलीन हो गयी
अर्धरात्रि की निद्रा में
न जाने कहाँ बिला गया
दोपहर का संगीत
जाने कहाँ डूब गयी वह मादकता
जो समा जाती थी
दोपहर चढ़ते-चढ़ते
मुझे दुःख नहीं
दोपहरी के नींद के स्थगन का
मुझे मलाल नहीं भागमभाग का
इसे मैंने चुना है फिर प्रलाप कैसा
जो है अपने हिस्से का सच है
लेकिन आज जो थी दोपहर में
आँखों में बदन में
और जो है उसके बाद मन में
वह भी सच है इसी जीवन का
आखिर क्या करूँ इस पल का
क्या इसे विसर्जित कर दूं
किसी और सुख में
नहीं, नहीं कदापि नहीं
मैं इसे विसर्जित नहीं कर सकता
किसी भी अन्य सुख में
यह पल आईना है
जीवन का
सुख का
दृष्टिकोण
वह डूबा है जिसके सपनों में
उसके सपनों के आस-पास भी नहीं है वह
फिर भी उसका मन
सूरजमुखी का फूल बना
एकटक ताक रहा है उसी ओर
वह जानता है हिसाब-किताब
यह भी कि
मन के इस गणित में उसे हांसिल हो शायद शून्य ही
फिर भी वह नहीं छोड़ना चाहता अपना सपना
नहीं बदलना चाहता दृष्टिकोण
 
उम्मीद
कोई किसी को भूलता नहीं
पर याद भी नहीं रखता हरदम
पल-पल की मुश्किलें बहुत कुछ भुलवा देती हैं आदमी को
और वैसे भी जाने अनजाने, चाहे-अनचाहे
हर यात्रा के लिए मिल ही जाते हैं साथी
जो बिछड़ जाते हैं किसी यात्रा में विदा में हाथ उठाये
सजल नेत्रों से शुभकामनाएं देते
जरूरी नहीं कि वे मिले ही फिर
जीवन के किसी चौराहे पर
फिर भी उम्मीद का एक सूत
कहीं उलझा रहता है पुतलियों में
जो गाहे-बगाहे खिंच जाता है.
जैसे अभी-अभी खींचा है वह सूत
एक किताब खुल आये है स्मृतियों की
याद आ रहे हैं गाँव की पाठशाला के साथी
चारखाने का जांघिया पहने रटते हुए पहाड़े
दिखाई दे रही है बेठन में बंधी उनकी किताबें
उन दिनों बाबूजी कहते थे
किताबों को उसी तरह बचा कर रखना चाहिए
जैसे हम बचा कर रखते हैं अपनी देह
वे भाषा के संस्कार को मनुष्य के लिए
उतना ही जरूरी मानते थे
जितनी जरूरी होती हैं जड़ें
किसी वृक्ष के लिए
अब बाबूजी की बातें हैं, बाबूजी नहीं
उनका समय बीत गया
पर बीत कर भी नहीं बीते वे
आज भी वे भागते दौड़ते जीवन की लय मिलाते
जब भी चोटिल होता हूँ थकने लगता हूँ
जाने कहाँ से पहुंचती है खबर उन तक
झटपट आ जाते हैं सिरहाने मेरे !

संपर्क-
हिन्दी संकाय, मानविकी विद्यापीठ, ब्लाक एफ,
इग्नू, मैदानगढ़ी, नयी दिल्ली-६८
मोबाईल- ०९८१८९१३७८९