Friday, January 28, 2011

गणतंत्र दिवस की आप सभी को हार्दिक शुभकामनाएं !

गणतंत्र दिवस के मौके पर प्रस्तुत है नौजवानों को संबोधित एक नज़्म।

आबरू वतन की नौजवान तुमसे है !
खुशबु-ए-चमन ऐ बागबान तुमसे है!


गर्दे-मजहब रुहो जिस्म से आ झाड़कर !
दुश्मने-वतन पर टूट पड़ दहाड़कर !

खास हैं जहाँ में ये पहचान हिंद की
नौजवान सम्हाले रखना ये शान हिंद की !


Sunday, January 23, 2011

मधुमय वसंत जीवन-वन के !

"मधुमय वसंत जीवन-वन के,
बह अंतरिक्ष की लहरों में,
कब आये थे तुम चुपके से
रजनी के पिछले पहरों में?
क्या तुम्हें देखकर आते यों
मतवाली कोयल बोली थी?
उस नीरवता में अलसाई
कलियों ने आँखे खोली थी?
जब लीला से तुम सीख रहे
कोरक-कोने में लुक करना,
तब शिथिल सुरभि से धरणी में
बिछलन न हुई थी? सच कहना
जब लिखते थे तुम सरस हँसी
अपनी, फूलों के अंचल में
अपना कल कंठ मिलाते थे
झरनों के कोमल कल-कल में।
निश्चित आह वह था कितना,
उल्लास, काकली के स्वर में
आनन्द प्रतिध्वनि गूँज रही
जीवन दिगंत के अंबर में।
शिशु चित्रकार! चंचलता में,
कितनी आशा चित्रित करते!
अस्पष्ट एक लिपि ज्योतिमयी-
जीवन की आँखों में भरते।
लतिका घूँघट से चितवन की वह
कुसुम-दुग्ध-सी मधु-धारा,
प्लावित करती मन-अजिर रही-
था तुच्छ विश्व वैभव सारा।
वे फूल और वह हँसी रही वह
सौरभ, वह निश्वास छना,
वह कलरव, वह संगीत अरे
वह कोलाहल एकांत बना"
कहते-कहते कुछ सोच रहे
लेकर निश्वास निराशा की-
मनु अपने मन की बात,
रूकी फिर भी न प्रगति अभिलाषा की।
"ओ नील आवरण जगती के!
दुर्बोध न तू ही है इतना,
अवगुंठन होता आँखों का
आलोक रूप बनता जितना।
चल-चक्र वरूण का ज्योति भरा
व्याकुल तू क्यों देता फेरी?
तारों के फूल बिखरते हैं
लुटती है असफलता तेरी।
नव नील कुंज हैं झूम रहे
कुसुमों की कथा न बंद हुई,
है अतंरिक्ष आमोद भरा हिम-
कणिका ही मकरंद हुई।
इस इंदीवर से गंध भरी
बुनती जाली मधु की धारा,
मन-मधुकर की अनुरागमयी
बन रही मोहिनी-सी कारा।
अणुओं को है विश्राम कहाँ
यह कृतिमय वेग भरा कितना
अविराम नाचता कंपन है,
उल्लास सजीव हुआ कितना?
उन नृत्य-शिथिल-निश्वासों की
कितनी है मोहमयी माया?
जिनसे समीर छनता-छनता
बनता है प्राणों की छाया।
आकाश-रंध्र हैं पूरित-से
यह सृष्टि गहन-सी होती है
आलोक सभी मूर्छित सोते
यह आँख थकी-सी रोती है।
सौंदर्यमयी चंचल कृतियाँ
बनकर रहस्य हैं नाच रही,
मेरी आँखों को रोक वहीं
आगे बढने में जाँच रही।
मैं देख रहा हूँ जो कुछ भी
वह सब क्या छाया उलझन है?
सुंदरता के इस परदे में
क्या अन्य धरा कोई धन है?
मेरी अक्षय निधि तुम क्या हो
पहचान सकूँगा क्या न तुम्हें?
उलझन प्राणों के धागों की
सुलझन का समझूं मान तुम्हें।
माधवी निशा की अलसाई
अलकों में लुकते तारा-सी,
क्या हो सूने-मरु अंचल में
अंतःसलिला की धारा-सी,
श्रुतियों में चुपके-चुपके से कोई
मधु-धारा घोल रहा,
इस नीरवता के परदे में
जैसे कोई कुछ बोल रहा।
है स्पर्श मलय के झिलमिल सा
संज्ञा को और सुलाता है,
पुलकित हो आँखे बंद किये
तंद्रा को पास बुलाता है।
व्रीडा है यह चंचल कितनी
विभ्रम से घूँघट खींच रही,
छिपने पर स्वयं मृदुल कर से
क्यों मेरी आँखे मींच रही?

उद्बुद्ध क्षितिज की श्याम छटा
इस उदित शुक्र की छाया में,
ऊषा-सा कौन रहस्य लिये
सोती किरनों की काया में।
उठती है किरनों के ऊपर
कोमल किसलय की छाजन-सी,
स्वर का मधु-निस्वन रंध्रों में-
जैसे कुछ दूर बजे बंसी।
सब कहते हैं- 'खोलो खोलो,
छवि देखूँगा जीवन धन की'
आवरन स्वयं बनते जाते हैं
भीड़ लग रही दर्शन की।
चाँदनी सदृश खुल जाय कहीं
अवगुंठत आज सँवरता सा,
जिसमें अनंत कल्लोल भरा
लहरों में मस्त विचरता सा-
अपना फेनिल फन पटक रहा
मणियों का जाल लुटाता-सा,
उनिन्द्र दिखाई देता हो
उन्मत्त हुआ कुछ गाता-सा।"
"जो कुछ हो, मैं न सम्हालूँगा
इस मधुर भार को जीवन के,
आने दो कितनी आती हैं
बाधायें दम-संयम बन के।
नक्षत्रों, तुम क्या देखोगे-
इस ऊषा की लाली क्या है?
संकल्प भरा है उनमें
संदेहों की जाली क्या है?
कौशल यह कोमल कितना है
सुषमा दुर्भेद्य बनेगी क्या?
चेतना इद्रंयों कि मेरी,
मेरी ही हार बनेगी क्या?
"पीता हूँ, हाँ मैं पीता हूँ-यह
स्पर्श,रूप, रस गंध भरा मधु,
लहरों के टकराने से
ध्वनि में है क्या गुंजार भरा।
तारा बनकर यह बिखर रहा
क्यों स्वप्नों का उन्माद अरे
मादकता-माती नींद लिये
सोऊँ मन में अवसाद भरे।
चेतना शिथिल-सी होती है
उन अधंकार की लहरों में-"
मनु डूब चले धीरे-धीरे
रजनी के पिछले पहरों में।
उस दूर क्षितिज में सृष्टि बनी
स्मृतियों की संचित छाया से,
इस मन को है विश्राम कहाँ
चंचल यह अपनी माया से।


- जय शंकर प्रसाद

कौन हो तुम ?

वो तुम नहीं थी
जिनकी याद जंग लगे टिन जितनी भी नहीं रही
और न ही तुम क्षितिज पर फसल काट रही औरतों मे
हो।
तुम कौन हो?
प्रश्नवाचक चिन्ह की तरह
जिसका उत्तर
पूर्ण विराम के साथ नहीं दिया जा सकता।
एक पुरानी किताब,
या एक लम्बी कविता,
जिसका रचना-विधान जानने की कोशिश कर रहा हूँ
इन दिनों
जिसकी लय
जिसका अर्थ
जिसमें बुनी गयी हो फन्टेसी
प्रतीक-बिम्ब
अनुभूत यथार्थ, अजनबीयत, मिथक, नाटकीयता
और एक विचार विसंगतियों के बीच।
जिससे पनपता है
कविता जैसी किसी चीज का अस्तित्व
फिर भी कहीं किसी कोने में
केवल एक प्रश्न
सदैव के लिए
युगों से
युगों के बाद भी
जिसका एकान्त होने न होने के बीच सुलगता है
सदियों के भीतर
डनलप के गद्दों के बीच की स्थिति सा
माणा या गंजी की अन्तिम सीमा पर
देश की सीमा के साथ बाँधा गया भूभाग हो तुम
या फिर समझौता की कोई एक्सप्रेस
जिन्हें तय करते है देश के सत्ताधारी लोग
फिर भी इस आधी रात को
जब हीटर के तार सुलग रहे हैं
और तब कैसे सुलगती है कविता
सेंचुरी के पन्नों के भीतर
रेनोल्ड्स की इस कलम से
बेहतर शब्द निकाल लेने की जिद कहाँ तक जायज है

जब तुम सुलग रही हो
मध्य हिमालय की बर्फ ढ़की पहाड़ियों में कहीं
तब नदियाँ कैसे दे सकती है
शीतल पानी
फिर भी तुम्हारे अपने किले है
तुम्हारे अपने झण्ड़े है
तुम्हारे अपने गीत है
वही गीत जो तुम्हारा खसम गाता था
गुसांईयों के दरबार में
और तुम नाचती थी फटी धोती में
ओ हुड़किया की हुड़क्याणी
तुम भुन्टी थी
और तुम्हारा खसम सुन्दरिया
जिसने आजीवन दरवाजे पर बैठकर
गुसाईयों के घर में चाय पी-गिलास धोकर उल्टा कर दिया
ताकि सूख सके
जिल्लत भरी जिन्दगी
तुम्हारे लिए कौन था?
तुम्हारे लिए कौन है?

काने धान की पोटली भर संवेदना थी तुम
या ठाकुरों के कुल देवता के मंदिर से बचा हुआ
गड्ड-मड्ड शिकार-भात
और कुछ नहीं
फिर भी कौन थी तुम
जिसके होने में महकता रहा
मध्य हिमालय का लोक जीवन।


प्रस्तुत कविता के रचनाकार अनिल कार्की हैं। हिंदी के शोधार्थी अनिल की प्रस्तुत कविता सुपरिचित कवि आलोक धन्वा की लंबी कविता ब्रूनो की बेटियाँ को पढ़ कर पैदा हुए अंतर्मंथन से निःस्रत है। कविता स्त्री-अस्तित्व की मूलभूत पहचान जैसे जटिल सवाल से जूझने की कोशिश करती है।

Tuesday, January 18, 2011

मैं टूटे बर्तन के जैसी लगातार रिसती जाती हूँ !


प्रस्तुत कविता रंजना डीन ने लिखी है रंजना डीन पिछले तीन वर्षों से लखनऊ (उ॰प्र॰) के एक प्रतिष्ठित निजी विश्वविद्यालय में प्राध्यापक के रूप में कार्यरत हैं। व्यावसायिक रूप से कलाकार हैं। इन्हें प्राकृतिक सौंदर्य, फोटोग्राफी, कला एव कविता लेखन में बेहद रूचि है। रंजना डीन की सघन अनुभूतियों से सजी यह कविता मनोभावों के वैसे ही गाढ़े रसायन मे घुलती जाती है।




कुछ सूनापन कुछ सन्नाटा
मन ने नहीं किसी से बाँटा
दर्द न जाने क्यों होता है
दीखता नहीं मुझे वो काँटा।
गुमसुम-सी खिड़की पर बैठी
आते जाते देखूँ सबको
अपने से सारे लगते हैं
तुम बोलो पूजूँ किस रब को।
पुते हुए चेहरों के पीछे का
काला सच दिख जाता है
दो रूपए ज़्यादा दे दो
तो यहाँ ख़ुदा भी बिक जाता है।
नहीं लोग अपने से लगते
नहीं किसी से कह सकते सब
सब इंसा मौसम के जैसे
जाने कौन बदल जाये कब?
दौड़ में ख़ुद की जीत की ख़ातिर
कितने सर क़दमों के नीचे
हुनर कोई भी काम न आया
सारे दबे नोट के नीचे।
मेहनत की चक्की में पिस कर
दिन पर दिन घिसती जाती हूँ
मै टूटे बर्तन के जैसी
लगातार रिसती जाती हूँ।

दूर तक मैंने बटोरे रौशनी के कारवां !

दूर तक मैंने बटोरे
रोशनी के कारवां
था मुझे शायद पता
ये रात की शुरुवात है
मै लबों से कह दूँ
ये उम्मीद न करना कभी
है समुन्दर से भी गहरी
मेरे दिल की बात है
हम भरोसे के भरोसे
खा चुके हैं ठोकरें
कर भी क्या सकते थे
आखिर आदमी की ज़ात है
कम नहीं थे हौसले
न हिम्मतों में थी कमी
बदनसीबी की लकीरों से
सजे ये हाथ हैं
छलनी है सीना मगर
गाता रहा मीठी ग़ज़ल
बांसुरी के जैसा शायद
मेरे दिल का साज़ है
लोग कहतें है मेरी मुस्कान
है मीठी है बहुत
उनको क्या मालूम
ये तो दर्द की सौगात है

- रंजना डीन

स्वप्निल कुमार ’आतिश’ का परिचय !

युवा कवि आतिश की पैदाइश गाजीपुर (उ।प्र.) की रही। घर मे पहले से ही पढ़ने-लिखने का माहौल था और साहित्यिक संस्कार और समझ अपनी माँ से हासिल हुए। दिल्ली मे ग्रेजुएशन के लिये आये और तब से इसी शहर के हो कर रह गये। आतिश ने बायोटेक से स्नातक की उपाधि प्राप्त की है। पहली बार जगजीत सिंह की गायी मिर्जा ग़ालिब की ग़ज़लें सुनते हुए ग़ालिब को समझने की ललक जागी। फिर उनकी शायरी का सफ़हा-दर-सफ़हा खूबसूरत सफ़र इतना दिलचस्प और मानीखेज लगा कि शायरी से गहरा रिश्ता कायम हो गया। उसके बाद रही कसर गुलज़ार साहब की नज़्मों ने पूरी कर दी। तब से गज़लों, नज्मों और कविताओं से शुरू हुआ सिलसिला बदस्तूर जारी है। गुलज़ार के अलावा निदा फ़ाज़ली, दुष्यंत कुमार, बच्चन और कुँअर बेचैन की रचनाओं ने भी गहरा असर डाला है। आतिश नज्मों-कविताओं के अलावा स्क्रिप्ट राइटिंग, अनुवाद वगैरह से भी जुड़े हैं। कई गज़लें-नज़्में पत्र-पत्रिकाओं मे प्रकाशित भी हुई हैं। किसी दिन मुम्बई जा कर खुद की स्क्रिप्टों पर काम करने की ख्वाहिश है। साथ ही अपनी मातृभाषा भोजपुरी को भी कला-साहित्य मे इज्जत दिलाने का मंसुबा भी रखते हैं। फिलहाल अपनी पहचान बनाने की कोशिश और तलाश जारी है। हिंद-युग्म पर एक कवि और पाठक के तौर पर खासे सक्रिय रहे हैं।

इनसे संपर्क का पता है।
सम्पर्क: 8826308023

सड़क !

प्रस्तुत कविता सड़क को सरकारी विकास के प्रतीक के रूप मे इस्तेमाल करती है और इसी बहाने विकास के किसी समाज के भविष्य से कायम अनसुलझे रिश्ते की गिरहें खोलने की कोशिश करती है।

अब पक्की हो गयी है,
कच्ची थी तो तन्नी सा
बरम बाबा के पास
रुक जाती थी,
अब भी रूकती है
पता है उसे
कि कच्चियै हो जायेगी
फिर एक दिन ..!

सड़क जब कच्ची थी
त फेंकूआ के घर
लड़का हुआ था,
सड़क पक्की होते होते
बच्चे का नाम
घूरा धरा गया,
नहीं बदलता
नाम रखने का तरीका
सड़क पक्की होने से...!

जब सडक कच्ची थी
गांव का एगो आसिक
सोचता था
“रख दें एक अँजूरी
जो भैंसही का पानी आसमान में
त फलानी
आजो चाँद देख लेगी,
सड़क पक्की हो गयी
पर ऊ
आजो वइसहीं सोचता है...!

सुदेसर बिदेसर के जाल में
आजो कुछ नहीं फंसता,
नदी में मछरी
सड़क पक्की हो जाने से
थोरही आ जायेगी ..!

चहेंटुआ पहले ठाकुर साब किहाँ
काम करता था
सड़क बनते ही
बम्बई भाग गया
अब बर्तन धोता है
एगो होटल में...!

सड़क पक्की होने से
खाली सड़क पक्की होती है
नहीं पक्का होता गांव का भाग्य,
हाँ
बढ़ जाता है खतरा
गांव के सहर चले जाने का
या सहर के गांव में आ जाने का ।


- स्वप्निल कुमार 'आतिश’

Sunday, January 16, 2011

उस दिन !

उस दिन उसने पांच हाथ की साड़ी पहनी
उस दिन उसने खुदको लपेटा - सब तरफ से
उस दिन उसने दिन में कई-कई बार
आईना देखा
उस दिन उसने कंधे पर खोल दिए लम्बे बाल
उस दिन खुदको छुपाते हुए सबसे
इठलाई, इतराई और शर्मायी

उस दिन पुरे समय गुनगुनाती रही - इधर उधर
उस दिन उसने स्टीरियों पर
दर्द भरा गीत सुना
उस दिन उसने
अलबम में तस्वीरें देखी - आँख भर
उस दिन सुबक सुबक रोई - जाने क्या सोचकर

उस दिन उसे चाँद खूबसूरत लगा
उस दिन चिडियों की तरह आकाश में -
उड़ने को चाहा उसका मन
उस दिन उसने बालकनी में खड़े होकर
जी भर देखा दूर-दूर तक

उस दिन उसने सपने सहेजे
उस दिन उसने अंतहीन प्रतीक्षा की -
किसी के आने की
उस दिन उसने जीवन में पहला प्रेमपत्र लिखा
उस दिन उसने रुमाल पर बेलबूटे बनाए
और मगन हो गयी ........

उस दिन
हाँ, उस दिन हमारे देखते-देखते
बिटिया बड़ी हो गयी ।

- अजामिल

मधुप और कली !

थी एक कली निद्र-निमग्न
एक स्वर्णिम स्वप्न सजाकर
प्रिय मधुप वियोग मिलन का
इतिवृत्त आज दुहराकर।

प्रिय के वियोग में पागल
जाने कैसे सोती थी?
जिन में ही उलझ-सुलझ कर
सुख-दुःख मग्न होती थी।

जब मन्द सुगन्ध समीरण
प्रातः बेला में डोला,
स्वप्निल वंकिम नयनों को
कालिका ने सत्वर खोला।

उसके मधुमय सौरभ को
मलयज ने तुरत बिखेरा
अपनी मीठी तानों से
उसने मधुकर को प्रेरा।

- जय नाथ प्रसाद (सात्विक)

रचना रहस्य !

घनघोर चिंतन भरी रात
जब छोड़ गई नींद भी साथ
उमड़ते-घुमड़ते, बिम्बों के बदल
मानस पटल पर कुछ बने
कविता के सम्बल
और कुछ चित्र कमल-दल
मैं निरंतर
सोचता रहा पल-पल
क्यों न केवल
करूँ चित्र सृजन
पर शब्दों में उलझा मन
सोचता रहा पल-पल
लगा न क्षण भर
कविता बन गई चित्रवत
चित्र बन गए कवितावत
बांध गए दोनों लयबद्ध
भेद मिट गया दोनों का
दोनों बन गए परम-तत्त्व
सृजन तत्त्व का खुला रहस्य॥

- रवीन्द्र नाथ कुशवाहा

Saturday, January 15, 2011

Friday, January 14, 2011

इतना भी काफी है !

सब कुछ ठीक नहीं है
इस तथ्य की उपेक्षा कर
यथा संभव जीते ही जाना,
आज के वक़्त में
इतना भी काफी है।


सड़क जाम में एम्बुलेंस
जीवन मृत्यु का संघर्ष
छटपटाता हुआ शासन-तंत्र
हालत मात्र गंभीर
इतना भी काफी है।


जूठे बर्तन, ईंट-बालू, धुआं
इनमें सना देश का भविष्य,
संविधान भी प्रावधान है
बाल श्रम निषेध
इतना ही काफी है।


अपने मूर्ति रूप में आराध्य
अनेकों "राधा-कृष्ण" की लाशें,
उन्ही मोहल्लों में दोबारा
प्रेम पनपा है
इतना ही काफी है।


मित्रता - प्रतियोगिता का द्वंद्व
वासना का बेईमानी से षणयंत्र,
चंद टुकड़े बेईमानी ही सही

जीवन सफल है
इतना ही काफी है।

- स्मिता पाण्डेय

Thursday, January 13, 2011

टेक्नोलाजी का इस्तेमाल करें और अपना भविष्य बनायें बेहतर।

मुंबई महानगर के एक उपनगरीय इलाके डोम्बिवली में स्टेशन के निकट रेलवे ओवरब्रिज के नीचे कई हाथ ठेले खड़े रहते हैं, जिन पर कई तरह की चीजें बिकती रहती हैं। शाम को घर लौटते समय लोग अक्सर स्टेशन के बहार स्थित इस जगह से अपनी रोजाना की घरेलू जरूरतों का सामान खरीदकर ले जाते हैं। इन तमाम ठेले वालों की कमाई भी यहाँ ठीक-ठाक हो जाती है क्योंकि हर कोई कुछ न कुछ अलग सामान ही बेच रहा होता है। यहाँ कुछ ठेलों में सब्जियां भी बिकती हैं क्योंकि ट्रेन से उतरने वाले ज्यादातर मुसाफिर घर जाने से पहले थोड़ी बहुत ताजी सब्जियां खरीदना पसंद करते हैं, लेकिन राजू की दुकान यहाँ स्थित बाकी दुकानों से कई मायनों में अलग है। राजू तमिलनाडु के तिरूनेलवेली शहर से यहाँ आया है और वह दसवीं तक पढ़ा है। पढ़े होने के कारण टेक्नोलाजी का इस्तेमाल वह अपने फायदे के लिए बड़ी आसानी से कर सकता है। सन १९९० के दशक में पेजर के दौर में इस यन्त्र के अधिकतम इस्तेमाल के जरिये धन कमाने वालों में राजू भी शामिल था। वह कामकाजी महिलाओं से पेजर पर सब्जियों का आर्डर लेता था और उनके आने से पहले सब्जियों को छाँट और धोकर इस हिसाब से काटकर रखता था कि ये महिलायें अपने किचन में जाकर इन सब्जियों को सीधे पका सकें। यहाँ तक कि उस समय लोग यह जोक कहा करते थे कि यदि पतिदेव यह जानना चाहतें हैं कि उनके घर में कौन सी सब्जी पक रही है तो उनको किसी और से नहीं बल्कि राजू से पूछना चाहिए कि उनकी पत्नी ने उसकी दुकान से क्या सब्जी ली है और किसके लिए ली है। वैसे यह सारी जानकारी राजू की उँगालियोँ पर ही होती थी, उसकी इसी खूबी की वजह से वहां से गुजरने वाले पुरुष भी उससे फल-सब्जियां वगैरह लेते रहते। उसके बाद जब मोबाइल आ गया और पेजर गायब हो गया तब राजू भी मोबाइल से आर्डर लेने लगा। अब राजू के ग्राहक सीधे उसके मोबाइल पर बात करके मोल-भाव भी करते हैं। इससे राजू को अपना कारोबार बढ़ने में काफी मदद मिली और वह एक तरह से वेजीटेबल पिकअप पॉइंट बन गया क्योंकि ग्राहक और उसके बीच दाम और मात्रा की बात पहले से ही तय हो जाती है। राजू अपने ग्राहकों को आज कौन सी सब्जी लेनी है यह सलाह भी फोन पर ही देता है, वह यह भी बताता है कि आज कौन सी सब्जी महंगी है और क्यों? राजू के पास मांग और आपूर्ति की सारी जानकारी होती है, उसके पास नासिक या पुणे में होने वाली अचानक बारिस की खबर भी होती है जिससे सब्जियों कि आपूर्ति प्रभावित होती है। इस तरह कि जानकारियां वह अपने ग्राहकों को भी देता रहता है जिससे गृहणियों को अपने किचन का बजट प्लान करने में काफी मदद मिलती है। हाल के दिनों में सब्जियों के दामों में आये उतार-चढाव ने उसे स्टार बना दिया। हालाँकि राजू ने भी कीमतें बढ़ाई, लेकिन उसने हमेशा ऐसे ग्राहकों को धयान में रखा जो कीमतों के प्रति संवेदनशील होते हैं, और वही सब्जियां स्टोर की, जो मध्य वर्ग के बजट के भीतर आ जाये।
आखिर में में यह भी बताना चाहूँगा कि उसके पास १५ लाख रुपये के दो माकान हैं और उसके बच्चे कॉन्वेंट स्कूल में पढतें हैं जो क्रमशः आठवीं और दसवीं में पढतें हैं। मेन बाजार में उसकी सब्जियों कि दो दुकानें हैं, लेकिन वह स्टेशन के पास स्थित इस जगह से अपनी दुकान हटाने के लिए तैयार नहीं है क्योंकि इससे वह उन मुसाफिरों से जुड़ा रहता है, जो यहाँ से रोज गुजरतें हैं और इसी उपनगर के रहवासी भी हैं। राजू की सफलता को कह सकते हैं कि वह एक ही ग्राहक से अधिक मुनाफा कमाने के बजाय हमेशा ऐसे ग्राहकों के बारे में पहले सोचता है जो कीमतोऐन के प्रति ज्यादा संवेदनशील होते हैं। अपने इसी खूबी और टेक्नोलोजी के सही इस्तेमाल कि वजह से वह लोगों के बीच काफी लोकप्रिय है। आप भी टेक्नोलोजी के इस्तेमाल और अपनी सूझ-बूझ से मुनाफा कमाते हुए अपना भविष्य बना सकते हैं।

Wednesday, January 12, 2011

आंखें भी वही हैं दरीचा भी वही है।

आंखें भी वही हैं दरीचा भी वही है।
और मन के आँगन में उतरता भी वही है

जिसने मेरे जज्बों की सदाक़त को ना जाना,
अब मेरी रफाकात को तरसता भी वही है ,

इस दिल के खराबे से गुज़र किस का हुआ है,
आँखें भी वही है होंट भी लहजा भी वही है

जो कुछ भी कहा था मेरी तन्हाईयों ने मुझसे,
इस शहर की दिवार पे लिखा भी वही है,

वह जिस ने दिए मुझ को मुहब्बत के खजाने,
बादल की तरह आँख से बरसा भी वही है,

साथ निभाने की कसमें खाई थी जिसने,
उम्र भर का गम दे के गया भी वही है......!

लकीरें।

यूँ ही काट-काट के रात भर
पीस-पीस के लगाया
हथेली पर
बुझती हुई रात का,
जलता हुआ चाँद।
एक टुकड़ा उल्काओं का गिरा आँगन में तभी
कोई सन्देशा
वहीं लॉन पर छपा पाया
चाँद हथेली से माँगा,
काइनात ने मुझसे
बड़ी मुश्किल से कुरेदा और लौटा दिया
इसी कोशिश में
चमड़ी भी उतर गई कहीं
कभी पीछे से देखना,
अगर जाओ तुम
मेरी हाथो की लकीरों के कोड़े
चाँद की पीठ पर पड़े हैं।

- अनिल जीगर ’फ़राग़’

खिलखिलाए

शोक में, उल्लास में
दो बूँद आंसू झिलमिलाये
देखकर प्यासे सुमन पगला गए और खिलखिलाए।


साजिस थी इक,
सूर्य को बंदी बनाने के लिए
जंजीर में कैद किरणें
तमस लाने के लिए
नादान मेढक हुए आगे,
राह इंगित कर रहे
कोशिशों में जुगनुओं ने चमक दी और पर हिलाए,
देखकर नन्हे शिशु पगला गए और खिलखिलाए।

बादलों के पार,
बेचैनी भरी मदहोश चितवन
देख सुन्दर सृष्टि क्यों न रोक पाई दिल कि धड़कन,
भाव व्याकुल हो तड़ित सा,
काँप जाता तन-बदन
मधुर आमंत्रण दिए,
निःशब्द होठों को हिलाए
देखकर रूठे सनम पगला गए और खिलखिलाए।

नृत्य काली रात में था
शरारत के मोड़ पर
सुर बिखरता,
फैल जाता ताल लय को तोड़ कर
छू गया अंतस,
प्रणय का गीत मुखरित हो उठा
थम गई साँसे उलझ कर जाम लब से यों पिलाये
देखकर प्यासे चषक पगला गये और खिलखिलाए।

अब तेरे शहर से कोई नामवर नहीं आता।

तू उठे तो उठ जाते हैं कारवां
मेरे जनाजे में ऐसा कारवां नहीं आता,

तू था तो हर्फ़-हर्फ़ इबादत था
तेरे बिन दुआओं में भी असर नहीं आता,

कभी हर राह की मंजिल थी तेरी गली
अब तेरे शहर से कोई नामवर नहीं आता,

एक आंसू नहीं बहाने का वादा था
निभाया, अब लहू आता है अश्क नहीं आता,

मेरे दिल के दर्द, रूह के सुकूँ
जान जाती है मेरी तू नजर नहीं आता,

अब तेरे शहर से कोई नामवर नहीं आता।।