Tuesday, January 18, 2011

सड़क !

प्रस्तुत कविता सड़क को सरकारी विकास के प्रतीक के रूप मे इस्तेमाल करती है और इसी बहाने विकास के किसी समाज के भविष्य से कायम अनसुलझे रिश्ते की गिरहें खोलने की कोशिश करती है।

अब पक्की हो गयी है,
कच्ची थी तो तन्नी सा
बरम बाबा के पास
रुक जाती थी,
अब भी रूकती है
पता है उसे
कि कच्चियै हो जायेगी
फिर एक दिन ..!

सड़क जब कच्ची थी
त फेंकूआ के घर
लड़का हुआ था,
सड़क पक्की होते होते
बच्चे का नाम
घूरा धरा गया,
नहीं बदलता
नाम रखने का तरीका
सड़क पक्की होने से...!

जब सडक कच्ची थी
गांव का एगो आसिक
सोचता था
“रख दें एक अँजूरी
जो भैंसही का पानी आसमान में
त फलानी
आजो चाँद देख लेगी,
सड़क पक्की हो गयी
पर ऊ
आजो वइसहीं सोचता है...!

सुदेसर बिदेसर के जाल में
आजो कुछ नहीं फंसता,
नदी में मछरी
सड़क पक्की हो जाने से
थोरही आ जायेगी ..!

चहेंटुआ पहले ठाकुर साब किहाँ
काम करता था
सड़क बनते ही
बम्बई भाग गया
अब बर्तन धोता है
एगो होटल में...!

सड़क पक्की होने से
खाली सड़क पक्की होती है
नहीं पक्का होता गांव का भाग्य,
हाँ
बढ़ जाता है खतरा
गांव के सहर चले जाने का
या सहर के गांव में आ जाने का ।


- स्वप्निल कुमार 'आतिश’

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