Wednesday, January 12, 2011

लकीरें।

यूँ ही काट-काट के रात भर
पीस-पीस के लगाया
हथेली पर
बुझती हुई रात का,
जलता हुआ चाँद।
एक टुकड़ा उल्काओं का गिरा आँगन में तभी
कोई सन्देशा
वहीं लॉन पर छपा पाया
चाँद हथेली से माँगा,
काइनात ने मुझसे
बड़ी मुश्किल से कुरेदा और लौटा दिया
इसी कोशिश में
चमड़ी भी उतर गई कहीं
कभी पीछे से देखना,
अगर जाओ तुम
मेरी हाथो की लकीरों के कोड़े
चाँद की पीठ पर पड़े हैं।

- अनिल जीगर ’फ़राग़’

No comments:

Post a Comment