Friday, February 13, 2015

आओ अपनी-अपनी क़िस्मत बदलते हैं..

आओ अपनी-अपनी क़िस्मत बदलते हैं..

अपना गुज़रा हुआ कल अभी ज़्यादा पीछे नहीं गया है
फिर उसी सिफ़र से शुरू करते हैं
नाम-रंग-जाति-धर्म हर कुछ
जिन-जिन का वास्ता है क़िस्मत के साथ
उन सबको बदलते हैं
आओ अपनी-अपनी क़िस्मत बदलते हैं...
 
मैं कुछ भी नहीं सोचूंगा... तुम सोचना
मैं कुछ भी नहीं बोलूंगा.... तुम बोलना
मैं किसी से नहीं लडूंगा... तुम लड़ना
मैं कुछ नहीं चाहूंगा... तुम चाहना
तुम सपने देखना... तुम ही उन्हें पूरा करना
हां तुम्हारी शर्तों पर ही ये खेल खेलते हैं
आओ अपनी-अपनी क़िस्मत बदलते हैं...

तुम मेरी ज़िन्दगी बस एक बार जी लो
मैं तुम्हारी हर ज़िन्दगी बग़ैर शिक़ायत किए जी लूंगा
चलो तुम्हारी मनचाही मुराद पूरी करते हैं
आओ अपनी-अपनी क़िस्मत बदलते हैं...

चलो एक और वादा करता हूं
मैं नहीं चिढ़ाउंगा तुम्हें हर हार पर
जैसे तुम और बाक़ी लोग चिढ़ाया करते थे
मैं नहीं जलील होने दूंगा तुम्हें सबके सामने
और हां आईने में शक़्ल देखने से भी नहीं रोकूंगा

 क़बूल कर लो कि अब ये मेरी भी ख़्वाहिश है
आओ एक-दूसरे की ज़िन्दगी जीते हैं
आओ अपनी-अपनी क़िस्मत बदलते हैं...

साभार  - हिन्द-युग्म

Thursday, February 5, 2015

कहना है माटी को आभार !

कहना है
माटी को दिल से आभार !
एक तुम्हीं जिसमें मैं अँकुराया, खिलखिलाया
छू सका असीम का विस्तार

कहना ही है उन संगी-साथियों को
जो गलियों में उबे बिना अगोरते रहे
और भूलूँ कैसे पेड़ों की वे डालियाँ
उदासियों में मुझे जो झकझोरते रहे

आभार उस झरने का
जिसने मुझे बहना सिखाया
दरअसल पत्थरों को गहना बताया

माँ की छाती का आभार
जहाँ मैंने पाया जीवन का अमृत
अपरिमित, अपार

आभार ! आभार !! आभार !!!
उन सारे बुरे दिनों के प्रति
जो दिखते नहीं अब कहीं
पर रह-रहकर आते हैं जब कभी याद
तब-तब मुझसे करता है जीवन डरकर संवाद ।

कहना है माटी को आभार 
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कहना है  
माटी को दिल से आभार ! 
एक तुम्हीं जिसमें मैं अँकुराया, खिलखिलाया
छू सका असीम का विस्तार 

कहना ही है उन संगी-साथियों को  
जो गलियों में उबे बिना अगोरते रहे
और भूलूँ कैसे पेड़ों की वे डालियाँ 
उदासियों में मुझे जो झकझोरते रहे 

आभार उस झरने का 
जिसने मुझे बहना सिखाया
दरअसल पत्थरों को गहना बताया 

माँ की छाती का आभार 
जहाँ मैंने पाया जीवन का अमृत
अपरिमित, अपार  

आभार ! आभार !! आभार !!!
उन सारे बुरे दिनों के प्रति
जो दिखते नहीं अब कहीं 
पर रह-रहकर आते हैं जब कभी याद 
तब-तब मुझसे करता है जीवन डरकर संवाद ।
 साभार  :- जय प्रकाश "मानस"

जनम-जनम का साथ !

तुम अकेले रह गए तो भोर का तारा बनूं मै।
मै अकेला रह गया तो रात बनकर पास आना।

तुम कलम की नोक से उतरे हो अक्षर की तरह।
मै समय के मोड़ पर बिखरा हूँ प्रस्तर की तरह।
तुम अकेले बैठकर बिखरी हुई प्रस्तर शिला पर,
सांध्य का संगीत कोई मौन स्वर में गुनगुनाना।

एक परिचय था पिघलकर घुल गया है सांस में।
रात भर जलता रहा दीपक सृजन की आस में।
दृश्य अंकित है तुम्हारा मिट न पाया आज तक
बिखरे हुए सपनों को चुनकर प्यार का एक घर बसाना।

बह रहा दरिया न रोको भंवर का परिहास देखो।
कह रहा उठ गिर कहानी लहर का अनुप्रास देखो।
एक कश्ती की तरह मै तुम किनारे के पथिक हो
शाम होते ही नदी से अपने घर को लौट जाना।

पर्वतों के पार जाकर मै तुम्हे आवाज दूंगा।
प्रीति के तारों से निर्मित मै तुम्हें एक साज दूंगा।
मेरी नज़रों में उतरकर आखिरी अनुबंध कर लो
हर जनम में साथ रहना हर समय तुम मुस्कराना।


रविनन्दन सिंह जी ने 6 अप्रैल 2014 को अपने वैवाहिक जीवन के 14 वर्ष पूरे किये। इस अवसर पर उनके द्वारा लिखी, उनकी  पत्नी पारुल सिंह को समर्पित एक कविता ---- आप इनसे संपर्क कर सकते हैं - https://www.facebook.com/profile.php?id=100005480228674&fref=nf