Sunday, October 28, 2012

उदास किसलिए हो तुम ?

हवा की करवटो ने आसमान पर
लकीरे फिर बनाई है
उन्हे गिनो
कि तुम बहुत उदास हो
उदास किसलिए हो तुम

ये बात तुममे कोई जानता नही
तुम्हारे कान अपने दिल की बाजगश्त भी कभी न सुन सके

तुम्हारे जिस्म बेलहू है

रेत इनमे दौड्ती है
रेत बेसुराब है
तुम्हारी किस्मतो मे बस अजाब है
इसीलिए तुम्हारे हाथो ने ज़मीन को कभी छुआ नही
हवा की करवटो ने आसमान पर
लकीरे फिर बनाई है, उन्हे गिनो॥ 
  
"शहरयार"
- PRESENTED BY RAJEEV YADU

इन्तजार !

प्रतीक्षा करती रहीं नजरें बहुत दूर तक |
लौट कर आएगा जाने वाला.... कब तक |
कोई भटकता रहा उम्र भर मंजिलों के लिए |
सूरतें बदलती रहीं इन्तजार की ...अब तक ||

- अलका गुप्ता
प्रतीक्षा करती रहीं नजरें बहुत दूर तक |
लौट कर आएगा जाने वाला.... कब तक |
कोई भटकता रहा उम्र भर मंजिलों के लिए |
सूरतें बदलती रहीं इन्तजार की ...अब तक ||
  
-----------------अलका गुप्ता-------------------

रात के आखिरी पहर में !

एक रात से दूसरी रात
में दाखिल होती हूँ
बाहर के अंधेरों से छुप के
अपने अंदर के अंधेरों में
गुम होती जा रही हूँ मै
रात केआखिरी पहर में
एक स्याह साया अक्सर ही
झट सर से ओढ़नी खींच लेता है
और मै चीख पड़ती हूँ
उफ़ ये सच है या
सपना है बरसों से
जो सोने नहीं देता --
ये कौन सा आसेब है
क्यूँ मुझे जीने नहीं देता
ये कैसा सिलसिला है
जो खत्म नहीं होता
क्यूँ भटकती हूँ
सराब के पीछे
जाया करती हूँ ---
अश्क अपने सहराओं में
आखिर कब तक ?
ऐसा क्यों होता है मेरे ही साथ
मेरी पलकें छू भर लें
वो ख्वाब क्यूँ बिखर जातें हैं
?
 
- दिव्या शुक्ला

कौन अपना कौन बेगाना !

आदमी हु ओ भी आम
औरतो की तरह रो नही सकता
अपने दर्द को आसुओ में बहा नही सकता
जीवन से लेकर जीवन व्यापन की समस्याओं का पुलिंदा बना
मकड़ी की तरह अपने ही जाल में फसा हुआ
ओ तो फिर भी निकलने का रास्ता जानती है
कारण चाहे ए ही सही ओ इंसान नही
कौन अपना कौन बेगाना
समय समय पर सब ही रंग बदल रहे
समय के साथ साथ मेहँदी की तरह अपने भी साथ छोड़ते गए
याद करता हु कभी ओ बचपन
वहा भी कौन सा सुख था
चाह थी कब कद बढ़ेगा
आज भी तो बौना ही हु
तब तो आम था अब भी तो आम हु
जब कालेज पहुचा तब कुछ राहत थी
शायद तब में डरता नही था
गर्म खून मस्ती भरे विचार
सोचने समझने का समय कहा था
अब सोच रहा हु तब क्यों नही सोचाता था
तब क्यों नही मै डरता था
होसलो में कमी आई है या तब दुनिया को हल्के में लेता था
जीवन के उन दिनों मै भी खास हुआ करता था


- शैलेन्द्र दुबे

विमोचन !

पिछले दिनों मिथिलेश जैन की कविता किताब 'अनचाही' का विमोचन हुआ । इस संग्रह की 100 से ऊपर समस्त कविताएँ कन्या भ्रूण हत्या को केन्द्र में रखकर लिखी गई हैं यानी एक ही थीम, एक बड़े सामाजिक मुद्दे को लेकर लिखी गईं । कवयित्री को बधाई ।
सरोकार...

पिछले दिनों मिथिलेश जैन की कविता किताब 'अनचाही' का विमोचन हुआ । इस संग्रह की 100 से ऊपर समस्त कविताएँ कन्या भ्रूण हत्या को केन्द्र में रखकर लिखी गई हैं यानी एक ही थीम, एक बड़े सामाजिक मुद्दे को लेकर लिखी गईं । कवयित्री को बधाई ।

कभी यूँ भी होता है !

मन मे हैं
कुछ प्रश्न
मुझे हरपल
बेचैन करते
उत्तर सिर्फ
तुम्हारे पास
कुछ प्रश्न
तुम्हारे भी होंगे
चलो साँझा कर ले
हम इन्हें
कुछ शंकाएं
समाप्त होगीं
शायेद इनमे ही
हम दोनों की
मुस्काने मिल जाये
जो महीनों से
कहीं गुम हो गई है
चलो कोशिश तो करें
मुझे तुम उदास
अच्छे नहीं लगते
शायेद तुम्हें
मै भी -----


- दिव्या शुक्ला

Saturday, October 27, 2012

मै मामा बन गया !


प्यारी बहना तू माँ बन गई, ममता की छाँव बन गई ,
पूरी तेरी आकांक्षा हुई , जिवंत हर महत्वाकांक्षा हुई ,
ज़िन्दगी अब बिलकुल नई हुई, कभी तेरी हार नहीं हुई,
तू जीत गई हर उलझनों से,बाहर है दर्द के उपवनो से,
अनंत में जिसका अंत नहीं वो नीला आसमान है
धरा पे जिसका अंत नहीं तू वो ममतामयी माँ है ,
हाँ आसमान से उतरा एक नन्हा मासूम परिंदा ,
जो तेरे साथ बनेगा अब धरा का प्यारा बासिन्दा,
तेरी ममता की आँचल में हरदम खेलता रहेगा ,
आँखों का उजाला बन हरपल चमकता रहेगा ,
एक मामा आसमान में होगा चाँद मुस्कराता हुआ ,
एक मामा धरती पर मै हूँ भांजे को दुलारता हुआ ,
तू माँ तो मै भी मामा बनहाँ बहना गया !

तुझमे एक माँ माँ विश्वरूपी है ,मुझमे दो माँ सह्रुसहृदयी है,
माँ सा प्यार भला क्या दूंगा , पर मामा शब्द को जी लूँगा
भांजे के जीवन में हर ख़ुशी हरपल मै भरुगा ,
उसकी ख़ुशी के लिए भगवान से भी मै लडूंगा,
सबकी आँखों का तारा है जो प्राणों से प्यारा है वो ,
शिव का अंश शिवांश है ,तेरी ममता का वट वंश है
खुशियों का हरपल सजता जमघट है जो ,
रिश्तों के घर का हरदम मुस्काता पनघट है जो ,
लेकर हर खुशियाँ जीवन की नव मेहमान आया है
बहना आज फूल फूल नव बन मुस्काया है
तू माँ तो मै भी मामा बनहाँ बहना गया !

तेरा नाम करेगा रौशन ,तेरा नन्हा सा मोहन ,
घुटनों के बल पद चाप भरेगा आँगन में जो तन .
मुस्काएगा हर दम जिसे देख तेरा अंतर मन
छलक जायेगा तेरे आँचल से स्नेहिल स्पर्श ,
तू पायेगी ममता के बादल का कोमल अर्श ,
तू भाग्यशाली है जीवंत किया है जीवन को ,
कोटि कोटि नमन तेरे इस ममत्व जनम को ,
तुझको जब माँ कहेगा बड़े प्यार से नन्हा मुन्ना ,
मुझको भी कहेगा बड़े जोर से मासूमी से मामा
तू माँ तो मै भी बहना अब नन्हे का मामा गया !

यह कविता क्यों ? सोमवार २३ अक्तूबर को ८ वर्षों के मन्नतों के बाद आखिर भोले नाथ भोले बाबा ने सबकी अर्ज सुन ली और हम जीवन में पहली बार मामा बन गएँ ! यह रचना समर्पित है मेरे नन्हे भांजे के लिए आप सभी के आशीष व् स्नेह की अभिलाषा के सांथ 
 
- अरविंद योगी
 

मै अरविन्द हूँ !

मै कोई ख्वाब नहीं
जो टूटकर बिखर जाऊंगा
मै तो वो हकीकत का आइना हूँ
जो हर नजर और नजरो में नजर आऊंगा

मै कोई प्रेमी नहीं
जो किसी के प्यार में खुद को मिटाऊंगा
मै तो प्यार की घटा हूँ
जो जीवन आँगन में बरस जाऊँगा

मै कोई कहानी नहीं
जो सिर्फ किताबो में छप जाऊंगा
मै वो वर्तमान हूँ
जो सुनहले भविष्य की राह बनाऊंगा

मै वो फूल नहीं
जो बाज़ार में बिक जाऊंगा
मै वो कली हूँ
जो जीवन बगिया महकाऊंगा

मै कोई आंसू का बूँद नहीं
जो आँखों से टपक जाऊँगा
मै वो आँखे हूँ
जो आंसुओ को भी
ख़ुशी का तरन्नुम बनाऊंगा
मै कीचड में खिला वो अरविन्द हूँ
जो धरती को स्वर्ग बनाऊंगा
मुझे याद करोगे दुनिया वालो
जब तुमसे दूर बहुत दूर चला जाऊंगा

मै कोई नदिया की धार नहीं
जो सागर में खो जाऊंगा
मै वो किनारा हूँ
जो जीवन नदिया सा बहता जाऊँगा

मै वो कलमकार नहीं
जो वक़्त के हांथो बिक जाऊंगा
मै वो कास्तकार हूँ
जो काले अक्षरों में
रोशनी की बात लिख जाऊंगा

मै कोई पत्थर की मूरत नहीं
मै कोई रेत का महल नहीं
जो तूफ़ान में ढह जाऊंगा
मै मजबूत इरादों का वो चट्टान हूँ
जो हरपल तूफ़ान से तकराऊंगा

मै वो आशिक नहीं
जो किसी शोख की जुल्फों में खो जाऊँगा
मै वो जुल्फकार हूँ
जो वक्क्त की जुल्फों को भी सुलझाऊंगा

मै कोई चिंगारी नहीं
जो किसी चिता को जलाऊंगा
मै तो वो आग हूँ
जो मुर्दों को जीना सिखाऊंगा

मै कोई दर्द नहीं
जो किसी के दिल को जलाऊंगा
मै तो वो याद हूँ
जो ना दिल से जाऊँगा
और ना दिल का हो पाउँगा

मै दर्देदिल अरविन्द हूँ
दर्द ही मेरी पहचान है
सच कहूं तो दर्द ही अरविन्द ही दर्द की जान है
पर ज़िन्दगी की आखिरी बारात में भी
जग से हँसता हुआ जाऊंगा
पर धरती को स्वर्ग बनाऊंगा
क्योकि मै अरविन्द हूँ !
मै अरविन्द हूँ !

यह कविता क्यों ?
मै अरविन्द हूँ
क्योकि मै कीचड में खिला हूँ
फिर भी ब्रम्ह के शीश पर शोभायमान हूँ
मै छोटा सा इन्सान हूँ
पर इन्सान में भी भगवन को देखता हूँ
खुद के लिए दर्द पर सबकी ख़ुशी की महत्वाकांक्षा है मेरी!

- अरविन्द योगी

जो कलम की कोख में आंशुओ को ढोता है !

जो कलम की कोख में आंशुओ को ढोता है
मेरी नजर में वही कवि होता है
अंधेरो की आशा जीवन की परिभाषा
बस एक रवि होता है
काले अक्षरों में रौशनी की बात
कोमल कल्पनाये
और भावनाओ का जजबात
बस एक कवि समझता है

रात की तन्हाई
दर्द की पुरवाई
मिलन की रुसवाई
और अपनों की जुदाई
जो कलम में ढोता है
मेरी नजर में वही कवि होता है!

हकीकत जिंदगी में गुलजार होता है
जब सपनों का व्यापार होता है
कोई कवि जब कल्पना को पलता है
दिल के दर्द को शब्दों में ढालता है
तब फूट पड़ती है
एक कविता
जब अंत ह्रदय में यादो का संचार होता है
दर्द में डूबी कविता का श्रींगार होता है!


- अरविन्द योगी

जिनकी कोशिशो से मिला इस आकृति को सृजन ...

आज फिर लम्हा लम्हा ज़िन्दगी को मिला ...
खुशियों का सलीका ...

ख़ास कुछ नहीं ....
बस ...
बरबस उमड़ते प्यार ने बनाया ..
यह दिन सरीखा ...

जिनकी कोशिशो से मिला इस आकृति को सृजन ...
फिर उन मात पिता को  कैसे न करून मैं प्रथम वंदन :
संबंधो के लालटेन से सदैव उभरी दुनियादारी की सीख ...
ऐसी प्रीत से ही प्रफ्फुलित हो `शालिनी' चलती निर्भीक 

प्रणय के पारस के सौजन्य से ..
मिटा एकाकी का खेद

महोदय आपका संग पाकर ..
शालिनी को मिला आनंदअतिरेक

मित्रता के मंत्रो के
उच्चारण से फूटा जो दिव्य प्रेम का बीज ..

सचमुच ...
चारो और से  सुनायी देता है ...
मित्रो के गीत ...

भवसागर की गहराईयों से मोती को पाने की युक्ति ..

बिन गुरुजनों के आशीर्वाद के कहाँ मिल सकती है ..
जीवन में उपलब्धि ...

भावो की धार है तीव्र ..
शायद इसीलिए शब्द हो गए शिथिल ..

टपटपाये नैनो से ...
आप सभी को देती हूँ आभार अनेक 


- शालिनी मेहता

कोई जी नहीं सकता जीवन, जो साहित्यकार जी पाता है!

समाज हित का कथाकार,
यथार्थ चित्त का कलाकार,
दुर्गम पथों का पथकार,
सरल मतों का मतकार,
सत्य खोज में लगातार ,
उन्मुक्त ह्रदय से लगातार ,
पथ खोज लेता हर दौर में ,
समाज का सिपाही साहित्यकार !

कलम में जिसकी अनंत ललकार ,
जुल्म से अंत तक करता प्रतिकार ,
क्षितिज तक जाये जिसकी सीधी राह,
विश्व कल्याण की जिसकी बड़ी चाह,
कभी दहकाए शब्दों से जीवंत अंगार,
कभी महकाए पुष्पों में अनंत श्रृंगार ,
रंगरेज जो हर रंग से प्रकृति के वो ,
प्रकृति का सुकुमार बालक साहित्यकार!

स्वयं में स्यंभू अद्भुद सम्मान,
कहते जिसको जीवन का नाम,
हर पथ पर छोड़े मानव का पहचान,
फिर क्या तितली है क्या बादल है,
मानव हित में जो पल-पल पागल है
क्या है धरती क्या है आसमान,
जो अंधकार में लाये नव विहान,
कभी ना मरता वह शब्दकार,
कंटको भरा जिसका इतिहास ,
पुष्पों का जो देता एहसास,
हर जीवन के सबसे पास,
ज्ञान का दीपक दे जाता है ,
कोई जी नहीं सकता जीवन,
जो साहित्यकार जी पाता है!

प्रण-प्राण से सर्वस्व अपना दे जाता है,
मानवता के विश्व पटल में ध्रुव सा जगमगाता है,
खुद के आंसू छिपा शब्दों में जो हरदम हरपल,
जो जग को मुस्काने दे जाता है पल-पल,
वही हर दौर में साहित्यकार कहलाता है,
राष्ट्र की गौरवगाथा जो  लिख जाता है ,
ओज, श्रगार,अलंकार में हुंकार भर जाता है,
विश्व धरा को जो स्वर्ग बनाता है,
देश प्रेम में जीता हरदम और
देश हित में ही वह मर जाता है ,
अरे मरती तो बस यह देंह है,
साहित्यकार अमर हो जाता है ,
काले अक्षरों में रौशनी भर जाता है,
अमरज्योति साहित्यकार बान जाता है !

यह कविता क्यों ? सृजनकारी सृष्टि का सृजनकर्ता यदि ईश्वर है तो साहित्यकार इस बगिया का  मॉली  है जो मानव सेवा में कर्म पुष्पों की थाली है ! वन्दे माँ भारती !

- अरविन्द योगी

इस बार जन्मदिन पर क्या चाहिये तुम्हें ?

प्रेम में सबको कुछ न कुछ पाने की जल्दी थी
हम जब प्रेम में थे तो कहीं नहीं थे
सिर्फ़ अपने भीतर और बाहर आने के रास्ते बंद करने में सबसे तेज़
मैंने एक लम्बी सांस ली और फिर हमेशा के लिये सो गया
मेरी नींद मेरी बेहोशी के रंग की थी

जब हम प्रेम से निकले तो हिंसक बनैले पशु हो चुके थे
हमने प्रेम में सिर्फ़ अपने नाखून तेज़ किये थे
जो न मिल पाये उसे बिगाड़ने की आदिम आकांक्षा के साथ
हमने अपने साथ जो ज्यादतियां कीं
हम चाहते थे कि उनके निशान हमेशा बने रहे हमारी आत्माओं पर

तुम्हारा मेरे पास बिना किसी इच्छा के आना
दरअसल दुनिया के रिश्तों से चोट खाने का परिणाम है
मैं किसी कदर तुमसे अपनी चिता पर लेट कर मिला था
बिना किसी को इसकी भनक दिये हुये

तुम्हारी आंखों में वह जगह थी 

जहां जीवन का जिरहबख्तर पहने कोई हारा हुआ योद्धा
आराम कर सकता था दो पल
तुम तो जानती हो न
हारे हुओं के लिये नहीं होती कोई भी जगह कहीं भी

जिन्होंने मुझे लहूलुहान किया था अपने तीरों से
वे मुझे प्रेम करते थे
प्रेम जल थल और वायु में एक जैसा था
जैसी तुम थी निस्पृह मुझसे मिलते हुये 

पहली बार जल थल और वायु में एक सी
मानो अब दुबारा हम एक दूसरे से बात भी नहीं करेंगे कभी
तुमने मेरी आंखों में जो अनिश्चितता देखी थी
वह प्यार किये जाने की बेचैनी थी
मैं नहीं जी सकता था भरोसे के बाहर कोई जीवन
चाहे उसे धारदार बना उतार दिया जाये मेरी पीठ में हर बार

तुमसे प्रेम करने के लिये किसी से 

कोई शिकायत करने की ज़रूरत नहीं मुझे
जैसे तुम कभी नहीं कहती कि तुम्हारे डैने बहुत बड़े हैं

और मैं जहां भी जाउं तुम इन्हें फैलाये रखती हो मेरे उपर
मैं बहुत अच्छा अभिनेता हूं 

लेकिन सीमाओं का अतिक्रमण मेरे बस की बात नहीं
एक सहज जीवन और एक लम्बी सांस
जो तुमसे ली है और तुममें वापस छोड़ दूंगा
हर बार

तुम मुझे संभालती हो
तुममें खो जाना चाहता हूं कुछ इस तरह
कि तुम्हें भी खोजने के लिये अलगाना पड़े खुद को मुझ से

जितनी कविताएं मैंने तुम्हारे लिये लिखी हैं
वे उनसे बहुत बहुत कम हैं जितनी मैं सोचता हूं तुम्हारे लिये

आज के दिन यह कहना चाहता हूं धीमी आवाज़ में
दिनों का बदलना अपने बस में नहीं होता
हम सिर्फ प्यार किये जाने के लिये बनाये गये हैं
लाये गये हैं इस दुनिया में
शब्दों को गुम करने तुम्हारे भीतर आना है मुझे हर बार
तुम्हारी पलकों के नीचे वाले रास्ते से
भर लेना है तुम्हें अपनी बांहों में

और पूछनी है दुनिया की सबसे साधारण बात
‘‘इस बार जन्मदिन पर क्या चाहिये तुम्हें ?’’


- विमलचन्द्र पाण्डेय

Friday, October 26, 2012

हमन को बेकरारी क्या ?

हमन है इश्क मस्ताना, हमन को होशियारी क्या ?
रहें आज़ाद या जग से, हमन दुनिया से यारी क्या ?

जो बिछुड़े हैं पियारे से, भटकते दर-ब-दर फिरते,
हमारा यार है हम में हमन को इंतजारी क्या ?

खलक सब नाम अनपे को, बहुत कर सिर पटकता है,
हमन गुरनाम साँचा है, हमन दुनिया से यारी क्या ?

न पल बिछुड़े पिया हमसे न हम बिछड़े पियारे से,
उन्हीं से नेह लागी है, हमन को बेकरारी क्या ?

कबीरा इश्क का माता, दुई को दूर कर दिल से,
जो चलना राह नाज़ुक है, हमन सिर बोझ भारी क्या ?

 
- संत कबीर

Thursday, October 25, 2012

अभी तो पूरी किताब बाकी है।

दिल तू तड़प ना,
की अभी तो बहुत अनदेखी हरकते बाकी हैं,
अभी तो पहला पन्ना है ज़िन्दगी का,
अभी तो पूरी किताब बाकी है.

संभल जा जलने से पहले,
की सूरज में तो बहुत आग बाकी है,
जल जाए खुद, इससे पहले जला दे यादें,
की जलने के लिए एक चिंगारी ही बाकी है,
अभी तो पहला पन्ना है ज़िन्दगी का,
अभी तो पूरी किताब बाकी है .

मत जा समंदर के पास,
इन लहरों में अभी बहुत जान बाकी है,
कहीं डूब ना जाए तू इसमें,
की समंदर
के नाम अभी तो बहुत मौत बाकी है,
अभी तो पहला पन्ना है ज़िन्दगी का,
अभी तो पूरी किताब बाकी है.

संभालना तो खुद ही को है तुझे,
की अभी भी एक आस बाकी है,
ना जी क्या हासिल करेगा,
की जीने की तो हर बात बाकी है,
अभी तो पहला पन्ना है ज़िन्दगी का,
अभी तो पूरी किताब बाकी है।

जब भी पंछी उड़ान पर होगा !

जब भी पंछी उड़ान पर होगा..
देखना, आसमान पर होगा.

मन तो उस का उफान पर होगा.
और जोबन ढलान पर होगा..

तिनके-तिनके को जोड़ने वाला,
एक दिन पायदान पर होगा..

सारी दुनिया का रंग है मैला,
एक वो ही तो शान पर होगा..

हाथ से तीर गिर गया अब तो.
ध्यान उस का कमान पर होगा..

बात करता है बात करने दे,
वो भी इक दिन उठान पर होगा.

नाम पूछोगे 'मौदगिल' जब भी,
नाम उस का जुबां पर होगा.

-योगेन्द्र मौदगिल

।। गजल ।।

मेरे संग्रह में से आज एक हास्य ग़ज़ल
है चालू आंटी, तो ठरकी बुड्ढे, हैं लुच्चे लौंडे, तेरी गली में..
ये लड़कियाँ लागें सारी लैला, ग़ज़ब के जलवे तेरी गली में..

हम आशिकों की कुंआरी पलटन, तेरे मोहल्ले में कैसे आए,
के दूर से हमको दिख रहा है, खडे़ है बुड्ढे तेरी गली में..

पिटाई को ये कहें धुलाई, खुदा ही मालिक है आशिकों का,
वो लातें बरसी, पडे़ वो घूँसे, के सूजे चेहरे तेरी गली में..

किसी को दुनिया लुभा न पाई,किसी को जर्रा भी रास आया,
कि जैसे मैं हूँ शुरू से बिल्लो, तेरे ही पीछे तेरी गली में..

हैं मेरे बटुए के सारे दुश्मन, ये मेरे ससुरे, ये मेरे साले,
ये कुबडे़-क़ाने, ये गंजे-अंधे, ये झल्ले-झबरे, तेरी गली में..

गली में आजा, मना लें होली, मैं तुझको रंग दूं, तू मुझको रंग दे,
न आई तो मै करूँगा दंगा, बजा के घंटे तेरी गली में..

तेरा मोहल्ला मेरा मदीना, है तेरी चौखट ही मेरा मक्का,
ये हर की पौढ़ी, ये गंगा मैय्या, है नल के नीचे, तेरी गली में..

वो मेरी ग़ज़ले, वो मेरे नगमें, वो तेरे अब्बू ने फाड़ डाले,
सडे टमाटर, गले से अंडे, दिखा के डंडे, तेरी गली में ..


हुई तबीयत हरी-हरी सी, बदल गया है मिजाजे मौसम,
उतर गया है, बुखार सारा, पडे वो जूते तेरी गली में..

वो दादा लच्छी, सुबक रहा है, हुड़क रहा है, घुड़क रहा है,
बुला के लच्छो, पटा के लच्छो, खिला के लच्छे, तेरी गली में..

मैं किसको दुखड़ा, सुनाऊँ 'मुदगिल', अजब कहानी-गजब हैं मुद्दे,
फटे हैं कुरते, खुले पजामे, हैं ढीले कच्छे तेरी गली में..

- कवि योगेन्द्र मौदगिल

काम प्यारा होता है चाम नहीं !

काम प्यारा होता है चाम नहीं
हर वक्त माँ चिल्लाती थी
जब डांट लगाती
यही कुछ बड़बड़ातीथी
बड़े लाड-प्यार से पाला था
चार लड़कों के साथ हमें भी दुलारा था
पर जब होने लगे हम बड़े
रसोई के आस-पास नही होते खड़े
तब गुस्से में आ कभी -कभी
खूब झाड़ पिलाती थी
काम प्यारा होता है
चाम होता नहीं प्यारा
ससुराल में शक्ल नहीं देखेगे
काम ही करवा कर दम लेगें
थोड़ा तो कुछ काम सीख लो
लड़कों सी पल रही हो
नाज नखरे सब जो कर रही हो
शादी कर जब दूजे घर जाओगी
नहीं यह सब कर पाओगी
शक्ल देख कोई नहीं जियेगा
अपनी भाभी की तरह तुम्हें भी वहा रहना पड़ेगा
सुन्दरता लेकर नहीं चाटना है
अभी काम बहुत तुम्हें सीखना है
सब काम सीख लोगी तो हाथों-हाथ रहोगी
वरना सास हमेशा कोसती ही रहेगी
काम प्यारा होता है होता नहीं चाम प्यारा
अच्छा होगा सीख लो घर का काम सारा |
- सविता मिश्रा

तथाकथित विजयोत्सव !

बडा ही उल्लास सा,
हो रहा है द्रष्टिगोचर,हर ओर..
उत्सव जो है,विजय-उत्सव..।
सुना है जीता है,
कोई धर्म किसी अधर्म से,
कोई प्रकाश किसी तम से,
कोई पुण्य किसी पाप से ।
यह बात और है कि,
पस्त है मानव,
और मानवता घुटनों के बल,
चीत्कार ही सुनाई देती है,
चहुँओर, बेबसी की,
लाचारी की ।
उल्लास का विषय है भी !
चीत्कार उन्माद जो उत्पन्न करती है...।
अबला की चीत्कार,
बलात्कारी का उन्माद ।
उन्माद उल्लास में बदल रहा है,
उल्लास उत्सव में ।
और उत्सव तो प्रतीक है आजादी का,
सो घूम रहे हैं,
बेफिक्र,आजाद ।
लूट के अबलाओं की अस्मत,
चीत्कार के उन्माद में,
उन्माद के उल्लास मे ।
और मना रहे हैं उत्सव,
विजय-उत्सव ।।
भ्रष्टों का आकार
होता जा रहा है विकराल,
सुरसा के मुख की भांति ।
बढता जो जा रहा है,
दायरा विकल्पों का ।
चारे से लेकर धान तक,
स्पेक्ट्रम से लेकर,
खेल के मैदान तक ।
बढता ही तो जा रहा है विकल्प,
मलिन मुख की मायूस
जनता की जान तक ।
सूख गई उम्मीद में,
उन आँखों के अरमान तक ।
बढ रहा है दायरा सतत् , लगातार,
संसद मे प्रश्न सहित
कोयले-लोहे की खान तक ।
और जब ऐसे बढे गर,
दायरा विकल्पों का,
तो उत्साह तो होता ही है ??
उत्साह से उल्लास,
उल्लास से जन्म रहा है,
उत्सव, विजय-उत्सव ।
अब प्रश्न विकट है
किसका उत्सव है ??
भ्रष्टों का ? बलात्कारियों का ?
या निरीह जनमानस का ??
जो होता है प्रतीत ऐसा
मानो मुर्छित हो गया हो,
महंगाई की मार से,
जो दिन रात है वादा-पूर्ति की आशा में,
तथाकथित कल्याणकारी सरकार से ।
या यह उत्सव
है, उन मंत्रियों,संत्रियों
के भ्रष्टतंत्र के प्रति प्यार का,
महिला ही नही ,
इस देश के लोकतन्त्र से,
हर रोज हो रहे बलात्कार का ??
किसका है यह उत्सव,
यह विजय-उत्सव ??
मुझे नही आसक्ति,
इस तथाकथित उत्सव से ।
और तब तक न होगी,
जब तक इस देश में,
कतारबद्ध खडे आखिरी व्यक्ति,
के ह्रदय में न उमड आए उल्लास ।
तब तक,जब तक
वह अन्तिम व्यक्ति
नही हो जाता शामिल,
इस उत्सव में ।
जब आ जाए दिन ऐसा,
मनाएँगे हम भी,
उत्सव, विजय-उत्सव....।।
 

- राकेश “कमल”
रचना का समय :- 24 अक्टुबर 2012

क्यों वितरित करते हैं प्रसाद ?

          नित्य पूजा के समय मिश्री या दूध-शक्कर का अर्पित नैवेद्य वहां उपस्थित लोगों को दें एवं खुद भी ग्रहण करें। यह प्रसाद अकेले भी ले सकते हैं। महानैवेद्य का प्रसाद घर के सभी लोग बांटकर ग्रहण करें। पूजा के समय सूजी का मीठा पदार्थ, पेडे तथा मोदक आदि का प्रसाद निमंत्रित लोगों में वितरित करें। वैयक्तिक नित्य पूजा के प्रसाद के अतिरिक्त अन्य नैमित्तिक पूजा का प्रसद अपने आप न लें।
          जब कोई दूसरा व्यक्ति प्रसाद दे तभी ग्रहण करें। नैमित्तिक पूजा का प्रसाद गुरूजी को दें। गुरूजी प्रसाद ग्रहण करके हाथ धो-पोंछकर सबको प्रसाद दें। प्रसाद सेवन करते समय निम्नवत मंत्र पढें- बहुजन्मार्जित यन्मे देहेùस्ति दुरितंहितत्। प्रसाद भक्षणात्सर्वलयं याति जगत्पते (देवता का नाम) प्रसादं गृहीत्वा भक्तिभावत:। सर्वान्कामान वाप्नोति प्रेत्य सायुज्यमाप्नुयात्।। प्रसाद ग्रहण करने के बाद हाथ को जल से धोएं। नैवेद्य अर्पण की विधि क्या हैक् षोडशोपचार पूजा में शुरू के नौ उपचारों के बाद गंध, फूल, धूप, दीप और नैवेद्य की उपचारमालिका होती है। नैवेद्य अर्पण करने की शास्त्रोक्त विधि का ज्ञान न होने से कुछ लोग नैवेद्य की थाली भगवान के सामने रखकर दोनों हाथों से अपनी आंखें बंद कर लेते हैं जबकि कुछ लोग नाक दबाते हैं। कुछ व्यक्ति तुलसीपत्र से बार-बार सिंचन करके और कुछ लोग अक्षत चढ़ाकर भोग लगाते हैं। इसी प्रकार कुछ मनुष्य तथा पुजारी आदि भगवान को नैवेद्य का ग्रास दिखाकर थोडा-बहुत औचित्य दिखाते हैं। नैवेद्य अपैण करने की शास्त्रीय विधि यह है कि उसे थाली में परोसकर उस अन्न पर घी परोसें। एक-दो तुलसीपत्र छोडें। नैवेद्य की परोसी हुई थाली पर दूसरी थाली ढक दें। भगवान के सामने जल से एक चौकोर दायरा बनाएं। उस पर नैवेद्य की थाली रखें। बाएं हाथ से दो चम्मच जल लेकर प्रदक्षिणाकार सींचें। जल सींचते हुए सत्यं त्वर्तेन परिसिंचामि मंत्र बोलें। फिर एक चम्मच जल थाली में छो़डें तथा अमृतोपस्तरणमसि बोले। उसके बाद बाएं हाथ से नैवेद्य की थाली का ढक्कन हटाएं और दाएं हाथ से नैवेद्य परोसें। अन्न पदार्थ के ग्राम मनोमन से दिखाएं। दुग्धपान के समय जिस तरह की ममता मां अपने बच्चो को देती है, उसी तरह की भावना उस समय मन में होनी चाहिए। ग्रास दिखाते समय प्राणाय स्वाहा, अपानाय स्वाहा, व्यानाय स्वाहा, उदानाय स्वाहा, समानाय स्वाहा, ब्रह्मणे स्वाहा मंत्र बोलें। यदि हो सके तो नीचे दी गई ग्रास मुद्राएं दिखाएं- प्राणमुद्रा-तर्जनी, मध्यमा, अंगुष्ठ द्वारा। अपानमुद्रा-मध्यमा, अनामिका, अंगुष्ठ द्वारा। व्यानमुद्रा-अनामिका, कनिष्ठिका, अंगुष्ठ द्वारा। उदानमुद्रा-मध्यमा, कनिष्ठिका, अंगुष्ठ द्वारा। समानमुद्रा-तर्जनी, अनामिका, अंगुष्ठ द्वारा ब्रह्ममुद्रा-सभी पांचों उंगलियों द्वारा। नैवेद्य अर्पण करने के बाद प्राशनार्थे पानीयं समर्पयामि मंत्र बोलकर एक चम्मच जल भगवान को दिखाकर थाली में छोडें। ऎसे समय एक गिलास पानी में इलायची पाउडर डालकर भगवान के सम्मुख रखने की भी परंपरा कई स्थानों पर है। फिर उपर्युक्ततानुसार छह ग्रास दिखाएं। आखिर में चार चम्मच पानी थाली में छोडें। जल को छोडते वक्त अमृतापिधानमसि, हस्तप्रक्षालनं समर्पयामि, मुखप्रक्षालनं समर्पयामि तथा आचमनीयं समर्पयामि-ये चार मंत्र बोलें। फूलों को इत्र लगाकर करोद्वर्तनं समर्पयामि बोलकर भगवान को चढाएं। यदि इत्र न हो तो करोर्द्वर्तनार्थे चंदनं समर्पयामि कहकर फूल को गंधलेपन करके अर्पण करें। नैवेद्य अर्पण करने के बाद वह थाली लेकर रसाईघर में जाएं। बाद में फल, पान का बीडा एवं दक्षिणा रखकर महानीरांजन यानी महार्तिक्य करें। कितने प्रकार के होते हैं क् देवता की नित्य पूजा का समय सामान्यत: प्रात:कालीन प्रथम प्रहर होता है। यदि इस वक्त रसोई हो गई हो तो दाल, चावल एवं तरकारी आदि अन्न पदार्थो का "महानैवेद्य" अर्पण करने में कोई हर्ज नहीं है। किन्तु यदि पूरी रसोई पूजा के समय तैयार न हो तो चावल में घी-शक्कर मिलाकर या केवल चावल, घी-शक्कर चपाती, परांठा, तरकारी तथा पेडे का नैवेद्य दिखाएं। यह नैवेद्य अकेला पूजा करने वाला स्वयं भक्षण करे। यदि संभव हो तो प्रसाद के रूप में सबको बांटे। नैमित्तिक व्रज पूजा के समय अर्पित किया जाने वाला नैवेद्य "प्रसाद नैवेद्य" कहलाता है। यह नैवेद्य सूजी एवं मोदक आदि पदार्थो का बनता है। नैमित्तिक महापूजा के समय संजीवक नैवेद्य के छोटे-छोटे ग्रास बनाकर उपस्थित मित्रों तथा परिजनों को प्रसाद के रूप में वितरित करें। अन्न पदार्थो का महानैवेद्य भी थोडा-थोडा प्रसाद के रूप में ग्रहण करें। कुछ वैष्णव सभी अन्न पदार्थो का नैवेद्य अर्पण करते हैं परन्तु यह केवल श्रद्धा का विषय है। वैसे तो भगवान को भी एक थाली में नैवेद्य परोसकर अर्पण करना उचित होता है। कुछ क्षेत्रों में घर के अलग-अलग स्थानों पर स्थित देवी-देवताओं को पृथक-पृथक नैवेद्य परोसकर अर्पण किया जाता है। यदि घर के पूजा स्थान में स्थापित देवी-देवता-गणपति, गौरी एवं जिवंतिका आदि सभी एक जगह हों तो एक ही थाली से नैवेद्य अर्पण करना सुविधाजनक होता है। परन्तु यदि नित्य के देवी-देवताओं के अलावा गौरी-गणपति आदि नैमित्तिक देव और यज्ञादि कर्म के प्रासंगिक देवी-देवता पृथक स्थानों पर स्थापित हों तो उनको अलग-अलग नैवेद्य अर्पण करने की प्रथा है। यदि एक थाली में परोसे गए खाद्य पदार्थो का भोग अलग-अलग देवी-देवताओं को चढाया जाए तो भी आपत्ति की कोई बात नहीं है। ऎसे में नैवेद्य अर्पण करते समय अंशत: का उच्चाारण करें। घर में अलग-अलग स्थानों पर स्थापित देवी-देवता एक ही परमात्मा के विभिन्न रूप हैं। इस कारण एक ही महानैवेद्य कई बार अंशत: चढाया जाना शास्त्र सम्मत है। इस विधान के अनुसार बडे-बडे मंदिरों में एक ही थाली में महानैवेद्य परोसकर अंशत: सभी देवी-देवताओं, उपदेवता, गौण देवता एवं मुख्य देवता को अर्पण किया जाता है। कई परिवारों में वाडी भरने की प्रथा है। वाडी का मतलब है-सभी देवताओं को उद्देश्य करके नैवेद्य निकालकर रखना तथा उनके नामों का उच्चाारण करके संकल्प करना। संकल्प के उपरांत वाडी के नैवेद्य संबंधित देवी-देवताओं को स्वयं चढाए जाते हैं। कई बार संबंधित देवताओं के पुजारी, गोंधली, भोपे या गुरव आदि घर आकर नैवेद्य ले जाते हैं। भगवान भैरव का नैवेद्य विशिष्ट पात्र में दिया जाता है। इसे पत्तल भरना भी कहा जाता है। वाडी में कुलदेवता, ग्रामदेवता, स्थान देवता, मुंजा मूलपुरूष, महाुपरूष, देवचार, ब्राrाण, सती, नागोबा, वेतोबा, पुरवत तथा गाय आदि अनेक देवताओं का समावेश होता है। नैवेद्य को ढंकना सही या गलतक् कुछ मंदिरों में चढाया गया नैवेद्य वैसे ही ढककर रख दिया जाता है और दोपहर के बाद निकाल लिया जाता है। इसी प्रकार घर में ज्येष्ठा गौरी के समय नैवेद्य दिखाई थालियां ढककर रख दी जाती हैं तथा दूसरे दिन उसे प्रसाद के रूप में ग्रहण किया जाता है। ये बातें पूर्णरूपेण शास्त्र के विरूद्ध हैं। व्यवहार में भी भोजन के बाद थालियां हटाकर वह जगह साफ की जाती है। भगवान को भोग लगाने के बाद उसे वैसे ही ढककर रखना अज्ञानमूलक श्रद्धा का द्योतक है। कई बडे क्षेत्रों या तीर्थ स्थानों में पत्थर की मूर्ति के मुंह में पेडा या गुड आदि पदार्थ चिपकाएं जाते हैं। यह भी शास्त्र के विरूद्ध है। ये चीजें नैवेद्य नहीं हो सकती। नैवेद्य को अपैण करना होता है। इस रूढि के कारण पत्थर की मूर्ति को नुकसान पहुंचता है। अनेक लोगों के बाहु स्पर्श से ये चीजें त्याज्य हो जाती हैं। उनका भक्षण करने से स्वास्थ्य को नुकसान पहुंचने की संभावना रहती है। घर के नयिमित देवी-देवताओं के अलावा नैथ्मत्तिक व्रत प्रसंगों के अवसर पर अन्य देवी-देवताओं की स्थापना अलग-अलग की जाती है। उदाहरण के लिए सत्यनारायण, गणपति, जिवंतिका, चैत्रा गौरी, ज्येष्ठा गौरी तथा गुढी आदि देवी-देवताओं को पूजा स्थान में दूसरी जगह स्थापित किया जाता है। सभी देवी-देवताओं को महानैवेद्य अर्पण करने के पश्चात कुछ लोग महारती (महार्तिक्य) करते समय अलग-अलग आरतियां बोलते हैं परन्तु ऎसी आवश्यकता नहीं होती। महानैवेद्य चढाने के बाद पूजा स्थान में रखे देवी-देवताओं के अलावा अन्य देवताओं की एक साथ आरती करें, यह शास्त्र सम्मत नियम है। प्रत्येक देवता के लिए अलग-अलग आरती बोलना शास्त्र के विरूद्ध है

ना भूलें - नारायण -नर को !

दशाअवतार - नहीं
बस राम हों - और
हम राममय हो जाएँ .
चलो 'सर' करलें -
दस सर -दस दिशाएं
आओ दशहरा मनाएं .

आक्रान्ता के भाल पर

उस काल विकराल पर
नए लेख लिखें - पुराने मिटायें

आओ दशहरा मनाएं .

ना भूलें - नारायण -नर को

सहस्त्रा कवच के एक एक -कवच को
भेदें - तिमिर की स्याही को- चलो
अगणित सूर्य की रश्मियों से नहलाएं .
आओ दशहरा मनाएं .

बुझे हुए चाँद तारों को- बदल दें .

राख के ढेर में दबी - चिंगारियों को
कोटि कोटि सूर्यों की मानिंद जगमगायें .
दीवाली बाद में फिर कभी - पहले
आओ दशहरा मनाएं ।

- सतीश शर्मा
टाइम्स ऑफ़ इंडिया

रावण अभी भी जिन्दा है !

वाह क्या शांति है -
अवाम और हुक्मरान
दोनों खुश हैं .
अन्ना अपने घर गए -
रामलीला ख़तम -लोग
मैदान खाली कर गए .

पर दशहरा पास है -

रावण के मरने की -
बाकी - बची एक

धूमिल सी आस है .

पर दिवाली तो दशहरे के -बाद

मनाई जाती है .
रावण अभी भी जिन्दा है -
देखते हैं - दीवाली इस बार
कैसे आती है -
 
- सतीश शर्मा
टाइम्स ऑफ़ इंडिया

साहित्यकार !

समाज हित का कथाकार,
यथार्थ चित्त का कलाकार,
दुर्गम पथों का पथकार,
सरल मतों का मतकार,
सत्य खोज में लगातार ,
उन्मुक्त ह्रदय से लगातार ,
पथ खोज लेता हर दौर में ,
समाज का सिपाही साहित्यकार !


कलम में जिसकी अनंत ललकार ,
जुल्म से अंत तक करता प्रतिकार ,
क्षितिज तक जाये जिसकी सीधी राह,
विश्व कल्याण की जिसकी बड़ी चाह,
कभी दहकाए शब्दों से जीवंत अंगार,
कभी महकाए पुष्पों में अनंत श्रृंगार ,
रंगरेज जो हर रंग से प्रकृति के वो ,
प्रकृति का सुकुमार बालक साहित्यकार!


स्वयं में स्यंभू अद्भुद सम्मान,
कहते जिसको जीवन का नाम,
हर पथ पर छोड़े मानव का पहचान,
फिर क्या तितली है क्या बादल है,
मानव हित में जो पल-पल पागल है
क्या है धरती क्या है आसमान,
जो अंधकार में लाये नव विहान,
कभी ना मरता वह शब्दकार,
कंटको भरा जिसका इतिहास ,
पुष्पों का जो देता एहसास,
हर जीवन के सबसे पास,
ज्ञान का दीपक दे जाता है ,
कोई जी नहीं सकता जीवन,
जो साहित्यकार जी पाता है!


प्रण-प्राण से सर्वस्व अपना दे जाता है,
मानवता के विश्व पटल में ध्रुव सा जगमगाता है,
खुद के आंसू छिपा शब्दों में जो हरदम हरपल,
जो जग को मुस्काने दे जाता है पल-पल,
वही हर दौर में साहित्यकार कहलाता है,
राष्ट्र की गौरवगाथा जो  लिख जाता है ,
ओज, श्रगार,अलंकार में हुंकार भर जाता है,
विश्व धरा को जो स्वर्ग बनाता है,
देश प्रेम में जीता हरदम और
देश हित में ही वह मर जाता है ,
अरे मरती तो बस यह देंह है,
साहित्यकार अमर हो जाता है ,
काले अक्षरों में रौशनी भर जाता है,
अमरज्योति साहित्यकार बान जाता है !


यह कविता क्यों ? 
सृजनकारी सृष्टि का सृजनकर्ता यदि ईश्वर है तो साहित्यकार इस बगिया का  मॉली  है जो मानव सेवा में कर्म पुष्पों की थाली है ! वन्दे माँ भारती

- अरविन्द योगी

अँधियारा ओटेगा दीपक !

सागर यूँ मायूस खड़ा है
चलो नाव की रस्सी खोलें
तेरी जीत हार पक्की है - आ
मिलकर जय अपनी बोलें.

फिर उड़ान को तत्पर सपने
पहले अपने पर को तोलें
जीवन अपनी चाल चलेगा
चलो काल पर धावा बोलें .

मेरा घर तो हैं माटी का
सुंदर तेरा महल बड़ा है
अँधियारा ओटेगा दीपक-
चाहे सूरज द्वार खड़ा है.

जीवन के अवसाद बहूत हैं
हंसी ख़ुशी चल इनको ढो लें .
फिर बसंत की बात करेंगे -
पहले इस पतझर को रो लें
 
- सतीश शर्मा
टाइम्स ऑफ़ इंडिया

भय लगता है अनुशासन को !

अर्थ हमारे व्यर्थ हो रहे,
पापी पुतले अकड़ खड़े हैं
काग़ज़ के रावण मत फूँकों,
ज़िंदा रावण बहुत पड़े हैं
कुंभ-कर्ण तो मदहोशी हैं,
मेघनाथ भी निर्दोषी है
अरे तमाशा देखने वालों,
इनसे बढ़कर हम दोषी हैं
अनाचार में घिरती नारी,
हाँ दहेज की भी लाचारी-
बदलो सभी रिवाज पुराने,
जो घर-घर में आज अड़े हैं
काग़ज़ के रावण मत फूँकों,
ज़िंदा रावण बहुत पड़े हैं
सड़कों पर कितने खर-दूषण,
झपट ले रहे औरों का धन
मायावी मारीच दौड़ते,
और दुखाते हैं सब का मन
सोने के मृग-सी है छलना,
दूभर हो गया पेट का पलना
गोदामों के बाहर कितने,
मकरध्वजों के जाल कड़े हैं
काग़ज़ के रावण मत फूँकों,
ज़िंदा रावण बहुत पड़े हैं
लखनलाल ने सुनो ताड़का,
आसमान पर स्वयं चढ़ा दी
भाई के हाथों भाई के,
राम राज्य की अब बरबादी।
हत्या, चोरी, राहजनी है,
यहयुग की तस्वीर बनी है-
न्याय, व्यवस्था में कमज़ोरी,
आतंकों के स्वर तगड़े हैं
काग़ज़ के रावण मत फूँकों,
ज़िंदा रावण बहुत पड़े हैं
बाली जैसे कई छलावे,
आज हिलाते सिंहासन को
अहिरावण आतंक मचाता,
भय लगता है अनुशासन को
खड़ा विभीषण सोच रहा है,
अपना ही सर नोच रहा है-
नेताओं के महाकुंभ में,
सेवा नहीं प्रपंच बड़े हैं
काग़ज़ के रावण मत फूँकों,
ज़िंदा रावण बहुत पड़े हैं

-मनोहर सहदेव

उधार के सही- पर सपने होने चाहिये !

नींद भले किसी और की हो
पर नयन अपने होने चाहिए .
जिन्दगी चाहे छोटी हो -बहूत
उधार के सही- पर सपने होने चाहिये .

हाथ में ना हो भले आज -कल के
खो जाने का मन में डर होना चाहिए .
कल की चिंता - में मर ना जाये कही -
आज जीने का ऐसा हुनर होना चाहिए .

दहशतें घुट घुट के मर जाएँ ,
दुश्मन सभी आत्महत्या कर जाएँ ,
तुम भी वापिस लौट जाओ -
अब हम भी अपने घर जाएँ ।


- सतीश शर्मा
टाइम्स ऑफ़ इंडिया

इनसे सीख लें।

मि. सहाय, 75 साल के एक रिटायर्ड बैंक मैनेजर, अपने बेटे की मौत के बाद अपने परिवार के इकलौते कमाने वाले सदस्य है..इन्होने भीख मागने की बजाय पपेट बेचना चुना...

इनके हौसले को सलाम!
 
मि. सहाय, 75 साल के एक रिटायर्ड बैंक मैनेजर, अपने बेटे की मौत के बाद अपने परिवार के इकलौते कमाने वाले सदस्य है..इन्होने भीख मागने की बजाय पपेट बेचना चुना...

इनके हौसले को सलाम!

।। तेरा तुझको अर्पण ।।

हिंदी भाषा और साहित्य के विकास में अग्रणी भूमिका के लिए ग़ैरसरकारी संस्था गैमट फाउंडेशन द्वारा हिंदी के प्रतिष्ठित कवि और आकाशवाणी के उपमहानिदेशक श्री लक्ष्मी शंकर वाजपेयी को पहला “साहित्य परिमल” सम्मान प्रदान किया गया गया । उनकी सौजन्यता की तारीफ़ की जानी चाहिए कि उन्होंने पुरस्कार राशि इक्यावन हज़ार रुपये (51000/-) की धनराशि एक मिसाल कायम करते हुए उसी संस्था के विकास हेतु दान कर दिया।

।। विमोचन ।।

कोलकाता विश्वविद्यालय हिंदी विभाग के प्रोफेसर डॉ. अमरनाथ की किताब 'हिंदी जाति' का विमोचन अंतरराष्ट्रीय हिंदी सम्मेलन, दुबई के दरमियान होना सुखद अनुभव होगा । विद्वान लेखक को बधाई ।
 

को‌ई गाता मैं सो जाता !

संस्रिति के विस्तृत सागर में
सपनो की नौका के अंदर
दुख सुख कि लहरों मे उठ गिर
बहता जाता, मैं सो जाता ।

आँखों में भरकर प्यार अमर

आशीष हथेली में भरकर
को‌ई मेरा सिर गोदी में रख
सहलाता, मैं सो जाता ।

मेरे जीवन का खाराजल
मेरे जीवन का हालाहल
को‌ई अपने स्वर में मधुमय कर
बरसाता मैं सो जाता ।

को‌ई गाता मैं सो जाता

मैं सो जाता
मैं सो जाता !

- हरिवंशराय बच्चन

मैं बेरोजगार हूँ !

मैं बेरोजगार हूँ
मैंने न जाने कितने ही आवेदन किये
कितने ही लोगों से निवेदन किये
जाने कितने ही दफ्तरों के चक्कर काटे
कितनी ही गलियों की खाक छानी
... न दिन को दिन माना

न रात को रात मानी
न जाने कितने ही जूतों के घिस गये तले
फिर भी मैं और चलने को तैयार हूं
क्योंकि मैं बेरोजगार हूँ !
 
- कृष्णधर शर्मा

पुलिस कम्पनी से डरती है !

हमको दयामनी बरला से क्या काम ?

अब बड़ा खतरा है दायमनी बरला होने में
अब आदिवासी होने में खतरा है
अब गाँव में रहने में खतरा है


गाँव में ज़मीन है
गाँव में पेड है
गाँव में नदी है
गाँव में खनिज है
गाँव में लोग हैं
गाँव में दायमनी बरला भी है

गाँव की ज़मीन पर कम्पनी की नजर है
गाँव की नदी पर कम्पनी की नजर है
गाँव के पेड़ों पर कम्पनी की नज़र है
गाँव के खनिज पर कम्पनी की नज़र है
लेकिन गाँव में दायमनी बरला रहती है

सरकार कम्पनी से डरती है
पुलिस कम्पनी से डरती है
अखबार कम्पनी से डरते हैं
दयामनी बरला कम्पनी से नहीं डरती
कम्पनी का राज है
कम्पनी नाराज़ है इसलिये कम्पनी बहादुर के हुक्म से
पुलिस बहादुर ने दयामनी बरला को
पकड़ कर जेल की सलाखों के पीछे डाल दिया है

आओ शुक्र मनाएं दायमनी बरला अब जेल में है
अब दायमनी बरला कम्पनी बहादुर को रोक नहीं सकेगी
अब कम्पनी बहादुर दायमनी बरला के गाँव की नदी को छीन लेंगे
अब कम्पनी बहादुर दायमनी बरला के गाँव की ज़मीन को छीन लेंगे
अब कम्पनी बहादुर दायमनी बरला के गाँव के खनिज को छीन लेंगे
अब कम्पनी बहादुर देश का विकास कर देंगे
अब कम्पनी बहादुर सब ठीक कर देंगे

पता नहीं आखिर हमें इस देश की सारी दायमनी बरलाओं से कब मुक्ति मिलेगी ?
कब हमारी सारी नदियाँ
सारे पहाड़
सारी ज़मीनों
और सारे जंगलों पर कम्पनी का कब्ज़ा होगा

कम्पनी के कारखाने
कम्पनी की नौकरी
कम्पनी की कारें
कम्पनी के शापिंग माल
कम्पनी की सड़कें
कम्पनी के टोल बूथ

कम्पनी के कालेज
कम्पनी के आई आई एम्
कम्पनी के आई आई टी
कम्पनी की यूनिवर्सिटी
जिसमे पढ़ने वाले बनेगे कम्पनी के गुलाम

कम्पनी के मतलब की शिक्षा
कम्पनी के मतलब का ज्ञान
कम्पनी के फायदे के लिये विज्ञान
कम्पनी की मर्जी की सरकार
कम्पनी के हुकुमबरदार कोतवाल
अब तुम ही बताओ
हमको दयामनी बरला से क्या काम ?
 
- फैसल अनुराग

डेलिकेट टू आल माई फ्रेंड्स !

कोई लम्हा ईस कदर याद आता है,
बीता हुआ कल नजर आता है !!
यादे साथ रहती है याद करने के लिए,
बस वख्त सब कुछ लेकर गुजर जाता है !

वो बंक का चस्का ,
वो टीचर को मस्का ,
वो मार्क के झटके ,
वो सर(टीचर ) के पटके ,
वो एक्जाम का भूत,
वो कैंटीन में लूट ,
वो चीटिंग का टेंशन ,
वो लास्ट डे का जश्न ,
वो दवाते का फेम ,
वो क्रीकेट का गेम ,
वो छुप के गर्ल्स को देखना ,
वो क्लास में सब पर चाक फेकना ,
वो लड़कियों को लडको के नाम से चिढाना ,
वो ब्रेक से पहले पूरा टिफिन खाना ,
वो ब्रेक के बाद स्लेवेस चढाना ,
वो वाटर कूलर के बाहर दोस्तों का डेरा जमाना ,
वो वास रूम में जाकर बाल बनाना ,,
वो टीचर के पीछे उसका मजाक उडाना ,
फिर
वो टीचर से मार खाना ,

...ऑवर स्कूल लाइफ हैज ऑफ कोर्स ग्रेट ऑवर ..
बट मेमोरीज विल स्टे विद् एस फॉर एवर
........डेलिकेट टू आल माई फ्रेंड्स ।


- उमाकान्त मिश्र

दसों हर ले तो दशहरा हुआ ..

दसों हर ले तो दशहरा हुआ ..
एक भी बाक़ी बचा तो क्या ख़ाक हुआ ?
इस जमाने में इतनी गफलतें पहले से ही
एक अब और सही ..और सही ..और सही !

विजय किसकी और दशमी भी किसकी
यहाँ हर शख्स हारा है बाज़ी
कोई खूब से तो कोई अपनों से
अपने ही हाथ खुद हार गया है गाज़ी !

खुद बनो लो कोई मूरत कोई पुतला भी
जलाओ या फिर उसे विसर्जित करो
कभी फुर्सत मिले तो खुद को टटोलो जरूर
उसी दिन होगा दशहरा और दीवाली भी !

बच्चों को सुनाते आये ये सब हम बरसों
अगर होता असर तो हश्र ये न होता यारों
खेल इतना बिगड गया की अब क्या बोलूं
नए किस्से -कहानियां अब गढनी होंगी !

राघवेन्द्र ,
बस अभी ..:((
२४/१०/१२

Monday, October 22, 2012

छंद मुक्त कविता - निर्झर मैं हूँ !

निर्झर मैं हूँ
निर्झरा तुम ..
तुम हो मेरी
अब ब्रेल लिपि
और मैं हूँ तेरा ..
नयनसुख सूरदास
हां दास सुरों का
तुम सुर-देवी
मैं असुर नहीं
बेसुरा सही ...
जल सा निर्मल
ये तेरा मन ..
मिल जाए तो
जलसा जीवन !!!

घोषणा :- उपरोक्त रचना मेरे द्वारा लिखी गई मेरी मौलिक रचना है जो अप्रकाशित है... अगर रचना की मौलिकता को लेकर कोई प्रश्न उठता है तो उसकी सम्पूर्ण जिम्मेदारी मेरी स्वयं की होगी और मेरी प्रविष्टि खारिज की जा सकेगी और मुझे मंच से हटाया जा सकता है।

राघवेन्द्र !

Saturday, October 20, 2012

प्रतिमा -- जयशंकर प्रसाद !

जब अनेक प्रार्थना करने पर यहाँ तक कि अपनी समस्त उपासना और भक्ति का प्रतिदान माँगने पर भी ‘कुञ्जबिहारी’ की प्रतिमा न पिघली, कोमल प्राणों पर दया न आयी, आँसुओं के अघ्र्य देने पर भी न पसीजी, और कुञ्जनाथ किसी प्रकार देवता को प्रसन्न न कर सके, भयानक शिकारी ने सरला के प्राण ले ही लिये, किन्तु पाषाणी प्रतिमा अचल रही, तब भी उसका राग-भोग उसी प्रकार चलता रहा; शंख, घण्टा और दीपमाला का आयोजन यथा-नियम होता रहा। केवल कुञ्जनाथ तब से मन्दिर की फुलवारी में पत्थर पर बैठकर हाथ जोड़कर चला आता। ‘‘कुञ्जबिहारी’’ के समक्ष जाने का साहस नहीं होता। न जाने मूर्ति में उसे विश्वास ही कम हो गया था कि अपनी श्रद्धा की, विश्वास की दुर्बलता उसे संकुचित कर देती। आज चाँदनी निखर रही थी। चन्द्र के मनोहर मुख पर रीझकर सुर-बालाएँ तारक-कुसुम की वर्षा कर रही थीं। स्निग्ध मलयानिल प्रत्येक कुसुम-स्तवक को चूमकर मन्दिर की अनेक मालाओं को हिला देता था। कुञ्ज पत्थर पर बैठा हुआ सब देख रहा था। मनोहर मदनमोहन मूर्ति की सेवा करने को चित्त उत्तेजित हो उठा। कुञ्जनाथ ने सेवा, पुजारी के हाथ से ले ली। बड़ी श्रद्धा से पूजा करने लगा। चाँदी की आरती लेकर जब देव-विग्रह के सामने युवक कुञ्जनाथ खड़ा हुआ, अकस्मात् मानसिक वृत्ति पलटी और सरला का मुख स्मरण हो आया। कुञ्जबिहारी जी की प्रतिमा के मुख-मण्डल पर उसने अपनी दृष्टि जमायी।
‘‘मैं अनन्त काल तक तरंगों का आघात, वर्षा, पवन, धूप, धूल से तथा मनुष्यों के अपमान श्लाघा से बचने के लिए गिरि-गर्भ में छिपा पड़ा रहा, मूर्ति मेरी थी या मैं स्वयं मूर्ति था, यह सम्बन्ध व्यक्त नहीं था। निष्ठुर लौह-अस्त्र से जब काटकर मैं अलग किया गया, तब किसी प्राणी ने अपनी समस्त सहृदयता मुझे अर्पण की, उसकी चेतावनी मेरे पाषाण में मिली, आत्मानुभव की तीव्र वेदना यह सब मुझे मिलते रहे, मुझमें विभ्रम था, विलास था, शक्ति थी। अब तो पुजारी भी वेतन पाता है और मैं भी उसी के अवशिष्ट से अपना निर्वाह......’’ और भी क्या मूर्ति कह रही थी, किन्तु शंख और घण्टा भयानक स्वर से बज उठे। स्वामी को देख कर पुजारी लोगों ने धातु-पात्रों को और भी वेग से बजाना आरम्भ कर दिया। कुञ्जनाथ ने आरती रख दी। दूर से कोई गाता हुआ जा रहा था:
‘‘सच कह दूँ ऐ बिरहमन गर तू बुरा न माने।
तेरे सनमकदे के बुत हो गये पुराने।’’
कुञ्जनाथ ने स्थिर दृष्टि से देखा, मूर्ति में वह सौन्दर्य नहीं, वह भक्ति स्फुरित करनेवाली कान्ति नहीं। वह ललित भाव-लहरी का आविर्भाव-तिरोभाव मुख-मण्डल से जाने कहाँ चला गया है। धैर्य छोड़कर कुञ्जनाथ चला आया। प्रणाम भी नहीं कर सका।
(2)
‘‘कहाँ जाती है?’’
‘‘माँ आज शिवजी की पूजा नहीं की।’’
‘‘बेटी, तुझे कल रात से ज्वर था, फिर इस समय जाकर क्या नदी में स्नान करेगी?’’
‘‘हाँ, मैं बिना पूजा किये जल न पियूँगी।’’
‘‘रजनी, तू बड़ी हठीली होती जा रही है। धर्म की ऐसी कड़ी आज्ञा नहीं है कि वह स्वास्थ्य को नष्ट करके पालन की जाय।’’
‘‘माँ, मेरे गले से जल न उतरेगा। एक बार वहाँ तक जाऊँगी।’’
‘‘तू क्यों इतनी तपस्या कर रही है?’’
‘‘तू क्यों पड़ी-पड़ी रोया करती है?’’
‘‘तेरे लिए।’’
‘‘और मैं भी पूजा करती हूँ तेरे लिए कि तेरा रोना छूट जाय’’- इतना कहकर कलसी लेकर रजनी चल पड़ी।’’
-- --
वट-वृक्ष के नीचे उसी की जड़ में पत्थर का छोटा-सा जीर्ण मन्दिर है। उसी में शिवमूर्ति है, वट की जटा से लटकता हुआ मिट्टी का बर्तन अपने छिद्र से जल-बिन्दु गिराकर जाह्नवी और जटा की कल्पना को सार्थक कर रहा है। बैशाख के कोमल विल्वदल उस श्यामल मूर्ति पर लिपटे हैं। गोधूली का समय, शीतलवाहिनी सरिता में स्नान करके रजनी ने दीपक जलाकर आँचल की ओट में छिपाकर उसी मूर्ति के सामने लाकर धर दिया। भक्तिभाव से हाथ जोड़कर बैठ गयी और करुणा, प्रेम तथा भक्ति से भगवान् को प्रसन्न करने लगी। सन्ध्या की मलिनता दीपक के प्रकाश में सचमुच वह पत्थर की मूर्ति मांसल हो गयी। प्रतिमा में सजीवता आ गयी। दीपक की लौ जब पवन से हिलती थी, तब विदित होता था कि प्रतिमा प्रसन्न होकर झूमने लगी है। एकान्त में भक्त भगवान् को प्रसन्न करने लगा। अन्तरात्मा के मिलन से उस जड़ प्रतिमा को आद्र्र बना डाला। रजनी ने विधवा माता की विकलता की पुष्पाञ्जलि बनाकर देवता के चरणों में डाल दी। बेले का फूल और विल्वदल सान्ध्य-पवन से हिल कर प्रतिमा से खिसककर गिर पड़ा। रजनी ने कामना पूर्ण होने का संकेत पाया। प्रणाम करके कलसी उठाकर गाँव की झोपड़ी की ओर अग्रसर हुई।
(3)
‘‘मनुष्य इतना पतित कभी न होता, यदि समाज उसे न बना देता। मैं अब इस कंकाल समाज से कोई सम्बन्ध न रक्खूँगा। जिसके साथ स्नेह करो, वही कपट रखता है। जिसे अपना समझो, वही कतरनी लिये रहता है। ओह, हम विद्वेष करके इतने कू्रर बना दिये गये हैं, हमें लोगों ने बुरा बना दिया है। अपने स्वार्थ के लिए, हम कदापि इतने दुष्ट नहीं हो सकते थे। हमारी शुद्ध आत्मा में किसने विष मिला दिया है, कलुषित कर दिया है, किसने कपट, चातुरी, प्रवञ्चना सिखायी है? इसी पैशाचिक समाज ने, इसे छोडऩा होगा। किसी से सम्बन्ध ही न रहेगा, तो फिर विद्वेष का मूल ही न रह जायगा। चलो, आज से इसे तिलाञ्जलि दे दो। बस ....’’ युवक कुञ्जनाथ आम्र-कानन के कोने पर से सन्ध्या के आकाश को देखते हुए कह रहा था। लता की आड़ से निकलती हुई रजनी ने कहा-‘‘हैं! हैं! किसे छोड़ते हो?’’
कुञ्जनाथ ने घूमकर देखा कि उनकी स्वर्गीय स्त्री की भगिनी रजनी कलसी लिये आ रही है। कुञ्जनाथ की भावना प्रबल हो उठी। आज बहुत दिनों पर रजनी दिखाई पड़ी है। दरिद्रा सास को कुञ्जनाथ बड़ी अनादर की दृष्टि से देखते थे। उससे कभी मिलना भी अपनी प्रतिष्ठा के विरुद्ध समझते थे। जब से सरला का देहान्त हुआ, तब से और भी। दरिद्र-कन्या से ब्याह करके उन्हें समाज में सिर नीचा करना पड़ा था। इस पाप का फल रजनी की माँ को बिना दिये, बिना प्रतिशोध लिये कुञ्जनाथ को चैन नहीं। रजनी जब बालिका थी, कई बार बहन के पास बैठ कर कुञ्जनाथ से सरल विनोद कर चुकी थी। आज उसके मन में उस बालिका-सुलभ चाञ्चल्य का उदय हो गया। वह बोल उठी-‘‘कुञ्ज बाबू! किसे छोडऩा चाहते हो?’’
कुञ्ज, धनी जमींदार-सन्तान था। उससे प्रगल्भ व्यवहार करना साधारण काम नहीं था। कोई दूसरा समय होता, तो कुञ्जनाथ बिगड़ उठता, पर दो दिन से उसके हृदय में बड़ी करुणा है, अत: क्रोध को अवकाश नहीं। हँस कर पूछा-‘‘कहाँ से आती हो, रजनी?’’
रजनी ने कहा-‘‘शिव-पूजन करके आ रही हूँ।’’
कुञ्ज ने पूछा-‘‘तुम्हारे शिवजी कहाँ हैं?’’
रजनी-‘‘यहीं नदी के किनारे।’’
कुञ्ज-‘‘मैं भी देखूँगा।’’
रजनी-‘‘चलिए।’’
दोनों नदी की ओर चले। युवक ने देखा भग्न-मन्दिर का नग्न देवता-न तो वस्त्र हैं, न अलंकार, न चाँदी के पात्र हैं, न जवाहरात की चमक। केवल श्यामल मूर्ति पर हरे-हरे विल्वदल और छोटा-सा दीपक का प्रकाश। कुञ्जनाथ को भक्ति का उद्रेक हुआ। देवमूर्ति के सामने उसने झुककर प्रणाम किया। क्षण भर में आश्चर्य से कुञ्ज ने देखा कि स्वर्गीय सरला की प्रतिमा रजनी, हाथ जोड़े है, और वह शिव-प्रतिमा कुञ्जबिहारी हो गयी है।

मां के ठाकुर जी भोले हैं !

ठंडे पानी से नहलाती
ठंडा चन्दन उन्हें लगाती
उनका भोग हमें दे जाती
तब भी कभी न बोले हैं
मां के ठाकुर जी भोले हैं।

-- महादेवी वर्मा

ये राख अभी तक गर्म है !

ये राख अभी तक गर्म है - जानते हो
आग का जलना ही धर्म है
बहूत अच्छे रहोगे -जो
दूर से ही ताप खाओगे - और
नजदीक नहीं आओगे- खबरदार
इसे छूना मत - वर्ना जल जाओगे .

वास्तविक आग से - विचारों की
आग - ज्यादा तपाती है .
शोलों सी भड़कती -तडपाती है
जीते जी जिसकी -तपिश
कम नहीं होती - जिस्म शीतल
हो जाए तो - दिल में जल जाती है .

पर बुझती कभी नहीं- चिताओं
तक आपके साथ जाती - और
उसके बाद भी नहीं बुझती -
खुद-बा-खुद दुसरे जिन्दा
जिस्मों में समा जाती है ।

- सतीश शर्मा
टाइम्स ऑफ़ इंडिया

क्रांति !

क्रांति और क्रांति की भ्रान्ति -में
फर्क समझ - क्रांति एक उफान है
धीरे धीरे - सुगबुगाहट -बुदबुदाहट
फिर आहट - फिर तूफ़ान आता है .
प्रायोजित कार्यक्रमों से - सिर्फ
प्याले में पल भर को भाप उठती है -
और सारा जोश ठंडा हो जाता है .

जिसे भूख से मरना है - चुपचाप
मर जाता है -चीख चीख कर
ढिंढोरा पीट पीट के -मुनादी
नहीं करता आओ- और भूखा
मरने से पहले मुझे बचा लो .
क्रांति -कोई दाल-भात नहीं है यार
जब दिल करे-बना लो खा लो .

फिर बाबा ही क्यों - ?
खुद पर्दों में छुप कर उसे क्यों-
उकसाते और जोश दिलाते हो -
सच्ची हमदर्दी है तो -खुद
सामने क्यों नहीं आते हो .

क्रांति किसी एक फकीर की
जिम्मेदारी नहीं - सबको
सामने लाना होगा - रोकने वाले
कम पड़ जायेंगे - बड़े से बड़े
पत्थर सरक जायेंगे - जिस दिन
हम -तुम -वो , सब सामने आयेंगे ।

- सतीश शर्मा
टाइम्स ऑफ़ इंडिया

चल उठ खड़ा हो !

ये सुबह की अरुणाई है -
चिड़िया चहचहाई है -
देख धूप कितनी निकल आई है .
पड़ा क्यों है -चल उठ खड़ा हो .

परेशानियों का समुन्द्र -
चाहे कितना बड़ा हो .
कितने तूफान हों पर
मर्द है तू -चल उठ खड़ा हो.

चलने से ही रास्ते
मुश्किल कट जाया करते हैं -
ग़मों के बादल
छट जाया करते हैं -
ढूखों के अपार सागर भी -
घट जाया करते हैं -

फिर दुविधा क्यों है -मन में
रास्ता कट ही जायेगा
चाहे कितना बड़ा हो -
सोचता है क्या - चल उठ
खड़ा हो .

चलने में सुविधा है -
कम से कम ना चलने की
दुविधा से तो बचेगा -
प्रयास जरूरी है -
मुकाबला चाहे कितना कड़ा हो -
ज्यादा सोच मत - चल उठ खड़ा हो ।

- सतीश शर्मा
टाइम्स ऑफ़ इंडिया

मैं हूँ जरूर - कहाँ हूँ ये अभी ढूँढना पड़ेगा !

पर कहते हैं मन जीवित रहता है
शरीर के भी बाद शायद मन-आत्मा
एक ही होतें होंगे .

जब तक मन जीवित है तब तक
तेरे होने का अहसास दिलाता रहेगा
तेरे होने का सन्देश कहीं से भी सही
आता रहेगा .

चलो कोई माने न माने पर
मैं हूँ जरूर -
कहाँ हूँ ये अभी ढूँढना पड़ेगा

तुम्हे कहीं मिल जाऊं मैं यूं ही आते जाते
तो ऐ दोस्त मुझे
तुरंत खबर करना
मुझे इन्तजार रहेगा ।

- सतीश शर्मा
टाइम्स ऑफ़ इंडिया

सत्य को कैसे जान पाओगे ?

सत्य कहना और उसे -
उसी भाव से सहना - कहाँ है
इतना आसान - इस दुनिया में
निर्विकार भाव से रहना .

जब सच की खोज में-
इतने बूढ़े हो जाओगे -की
झूठ के कलेवर में छुपे - सत्य
को कैसे जान पाओगे .

मान ले मेरी बात - हट मत कर
बादल सूरज को कितनी देर तक
छुपायेगा - सुबह होगी - तो तू ही नहीं
सारा जग जान जाएगा .

फिर अपनी फैली बिसात से-
चाँद तारों में से - आखिर
किस किस को उठाएगा .
दिए का मान - क्या होता है
उस दिन तेरी समझ में खुद आ जाएगा ।

- सतीश शर्मा
टाइम्स ऑफ़ इंडिया

अभी कच्चा है - कडुआ होगा !

चिंगारी अभी - लगी तो है
उसे कुछ और भड़क जाने दो ,
जरा सा हट के तो खड़ा हो
हवा को पंखा तो झलाने दो .

अभी कच्चा है - कडुआ होगा
अभी चिड़ियों को इसे खाने दो
समय आने पे पक़ भी जायेगा.
जरा बहार को तो आने दो.

मैं सच नहीं कहता - क्यों की
बहूत कडुआ कुनीन होता है .
की जिसके हाथ में शफा हो बहूत
वो बहूत बढ़िया हकीम होता है ।

- सतीश शर्मा
टाइम्स ऑफ़ इंडिया

रोक लेते हैं कदम बढ़के मेरे !

मंथर गति से - बहती हवा
कह रही है - अभी ठहर
कुछ देर यहीं रुक जा .

ये काले - कजरारे
उमड़ते -हुए मेघ .
कहाँ जायेगा - चल
यहीं बरस जा .

रोक लेते हैं कदम
बढ़के मेरे - जाने
अनजाने रास्ते .
अकेला छोड़ हमे -
यूँ आगे मत जा ।

- सतीश शर्मा
टाइम्स ऑफ़ इंडिया

तो थोडा सा बिखर लें !

प्यार मुहब्बत बाद में -
आओ पहले थोडा सा -
आपस में लड़ लें.
चलो मन की ग्रंथियों को -
ढीला करें - समेट कर रखना
जो सहज नहीं - तो थोडा सा
बिखर लें .

एक सागर - एक नाव ,
एक सा मन - एक भाव .
फिर क्यों अलग अलग -
पतवारों से खेवें नाव .

चलो दिल के फासले
थोडा और कम कर लें .
अलग अलग बहूत हुआ -
एक संग - एक साथ
फिर से विचर लें ।


- सतीश शर्मा
टाइम्स ऑफ़ इंडिया

शून्य से शून्य तक......!!

सहेजता रहा ता-उम्र मै,
ढेर सारों शून्यों को !
आकर अचानक “एक”
बढ़ा गया उनके मूल्यों को !!
शून्य से ही रहा हर दम
मेरा बहुत निकट का नाता !
जब देखो तब, बेचारा
बिन बुलाए है चला आता !!
रोते ही रहते क्यों हम अक्सर,
इस अमूल्य शून्य को ले कर !
शून्यता भी तो जीवन में,
बहुत कुछ जाती है, दे कर !!
ना जाने क्यों लोग इस तरह
शून्य से रहते, सदैव घबराते !
इसके बाद ही तो गिनती में
आकडें बाकी, सब है आते !!
शून्य तो अक्सर
मिल ही जाता बिन तलाशे !
क्यों ना आगे बढ़कर
उसे ही, हम और जरा तराशे !!
बढ़ जाएँ जीवन में,
जब ढेर सारी शुन्यता !
समझों कि, है मिलने वाली
अब, जीवन को मान्यता !!

- दिनेश मिश्र

कैसी ये दुनियादारी.........?

गर , चाहते   हो  तुम भी गुजारना हसीं  बुढ़ापा !
छोड़ो दुनियादारी, मत खोयो कभी अपना  आपा !!
ना देना भूले से भी किसी को उपदेश
और ना ही देना , बिन माँगी सलाह !
रहो अपने ही घर में, बन कर मेहमान,
चुन ही लेंगे सब अपनी-अपनी राह !!

नहीं मानता जब कोई, तेरी बात !
क्यों बैठे सोचा करता,यूँ पूरी रात !!
भले, आज लगती हो तेरी बातें उनको बकवास !
सुनने में भी नहीं आती वो, किसी को कुछ रास !!
अनुभवों क़े बोल वैसे भी पहले लगते ही है, कडवे !
पड़ती है जब एक बार, हसीं लगते तब अपने दड्बें !!
वक़्त क़े साथ-साथ वो भी, कभी तो सुधर जायेंगे !
आयेंगे लौट कर यहीं, वरना फिर किधर जायेंगे !!


- दिनेश मिश्र 

तुमसे नहीं होगा - कचरा मत कर !

तुमसे नहीं होगा - कचरा मत कर
कविता के लिए कविता मत कर .
भाव आसमान में - शब्द धरा पर
कमजोर लफ्ज भाव नहीं ढोते -
बाल भर - किंचित जरा पर .

सुनले सुनाले - दालभात सा रांध -
कुछ दूसरों को खिला - कुछ खुद खाले .
पर जोड़ तोड़ कर दो लाइन की सही
पर अपनी कविता बना ले .

मन की बात कहने के और भी -
ढंग तरीके हैं यार - कविता क्यों
इस कदर कविता - रुसवा ना कर
किसी कविता के लिए - कविता ना कर ।

- सतीश शर्मा
टाइम्स ऑफ़ इंडिया

बहूत डर लगता है !

एक जंगल बियाबान -
दूर दूर तक - नहीं कोई इंसान
जहाँ एक भूतिया मकान .
चलो निकल चलें - यहाँ से
सच में बहूत डर लगता है .

दिन की रौशनी में -
बहूत सुंदर है ये कानन .
स्वर्ग का सा मंजर लगता है .
रात के लम्बे होते सायों में
यहाँ यार बहूत डर लगता है .

रात की बाहों में सोता शहर
कितना सतरंगी - धरती आस्मां .
पर उषा की लालिमा- भ्रम तोडती है
रात के सपने को - सुबह से जोडती है .

अपनी गर्मी से पिघलता - शीशे
सा नसों में ढलता - रास्ते मंजिले
जिस्म में खो जाती है -
शैतानी आंत से भी - कहीं
ज्यादा लम्बी हो जाती हैं .

ना कहीं चैन ना कहीं त्राण
उजड़ा उजड़ा सा - यहाँ
पूरे दिन का विधान .
क्या इसीको - आप
शहर कहते हैं - श्रीमान ।

- सतीश शर्मा
टाइम्स ऑफ़ इंडिया

आज खुद पे से एतबार जाने लगा है !

दिल की बात करते करते -
ये दिल हाथ से जाने लगा है .
तमाम जिन्दगी - के सफ़र
का एक एक वाकया - नजर
के सामने आने लगा है .

जीने की बात कहता हूँ - और
हर पल मर रहा हूँ - ये मर्म
आज कुछ ज्यादा सताने लगा है .
काश ना - आखिरी हो ये कविता मेरी
आज खुद पे से एतबार जाने लगा है .

फलक पर चाँद है तो सितारे भी होंगे -
आस्मां में उड़ने को आज जी चाहने लगा है .
ऐ मेरे मेहरबान दोस्त सुन -
बादलों ने मुझको - चुनौती दी है
आज इनके पार जाने को मन इतराने लगा है ।

- सतीश शर्मा
टाइम्स ऑफ़ इंडिया

एक और शायद !

उफफ्फ्फ्फ़ ...ये
इतने 'शायदों' के बीच -
एक और शायद .

अब बस भी करो -
अंतरे बदल दो - भगवा
ना सही हल्दी से रंग दो -
छोटा - बड़ा या तंग हो - पर
अब चोला बसंती रंग हो .

शायद अन्ना - सुभाष है
ये कैसी बेमेल आस है - ये
इतने दूर के ध्रुव -क्या इतने
पास -पास हैं .

अन्ना को अन्ना ही रहने दो - चाहे
क्षीण सी लहर है - पर इसे यूँही
दोनों किनारों के बीच बहने दो .
जो गाँधी सुभाष ने सहा इन्हें भी
तो थोडा सा सहने दो .
लोगों को क्या है -
लोगों को कहने दो ।


- सतीश शर्मा
टाइम्स ऑफ़ इंडिया

वज़ाहत, पालीवाल और पल्लव को पुरस्कार !


आचार्य निरंजननाथ स्मृति सेवा संस्थान के सहयोग से साहित्यिक पत्रिका संबोधन के माध्यम से प्रति वर्ष दिया जाने वाला 'आचार्य निरंजननाथ सम्मान' हिन्दी के विख्यात साहित्यकार डॉ. असग़र वजाहत को प्रदान किया जाएगा। सम्मान समिति के संयोजक और संबोधन के सम्पादक क़मर मेवाड़ी के अनुसार 14 वाँ आचार्य निरंजननाथ सम्मान डॉ असग़र वजाहत,दिल्ली को उनकी कथा कृति 'मैं हिन्दू हूँ' पर इक्यावन हजार (51,000/-) रुपये, हिन्दी के युवा आलोचक पल्लव,चित्तौड़गढ़ को दूसरा प्रथम प्रकाशित कृति सम्मान उनके आलचना निबंध संग्रह 'कहानी का लोकतंत्र' पर ग्यारह हजार (11,000/-) रुपये तथा प्रो सूरज पालीवाल, जोधपुर को उनके समग्र साहित्यिक अवदान पर विशिष्ट साहित्यकार सम्मान ग्यारह हजार (11,000/-) रुपये के साथ शाल,श्रीफल,प्रशस्ति पात्र एवं स्मृति चिन्ह प्रदान किया जाएगा।

आयोजक और लेखकों का धन्यवाद

प्रसार भारती में नौकरियां !


दूरदर्शन और ऑल इंडिया रेडियो की कार्यप्रणाली को बेहतर बनाने के लिए प्रसार भारती 1,150 कर्मचारियों की नियुक्तियां करेगा। नए 1,150 पदों के तहत सहायक स्टेशन निदेशक, सहायक अभियंता, कार्यक्रम कार्यकारी, प्रसारण कार्यकारी, तकनीशियन, कैमरामेन, प्रोडक्शन असिस्टेंट और प्रशासनिक कर्मचारियों की नियुक्ति की जाएगी। कई स्टेशन बिना इंजीनियर और प्रोग्रामिंग स्टाफ के काम कर रहे हैं। यह प्रसार भारती का पिछले 15 साल में सबसे बड़ा कदम है

कुंडलियों की जरूरत - सोम ठाकुर

आगरा की समानान्तर' के तत्वाधान मे त्रिलोक सिंह ठकुरेला द्वारा सम्पादित 'कुंडलिया छंद के सात हस्ताक्षर' का विमोचन यशस्वी कवि श्री सोम ठाकुर, बाबूजी का भारतमित्र के सम्पादक श्री रघुविंद्र यादव, डॉ.राजेंद्र मिलन और 'समानान्तर' संस्था की अध्यक्षा डॉ. शशि गोयल द्वारा किया गया। बतौर मुख्य अतिथि कवि सोम ठाकुर जी ने कहा कि कुंडलिया एक लोकप्रिय विधा रही है। आज इसके संरक्षण की जरूरत है ।
 कृपया आगे आयें ! 
Photo: कुंडलियों की जरूरत - सोम ठाकुर

आगरा की समानान्तर' के तत्वाधान मे त्रिलोक सिंह ठकुरेला द्वारा सम्पादित 'कुंडलिया छंद के सात हस्ताक्षर' का विमोचन यशस्वी कवि श्री सोम ठाकुर, बाबूजी का भारतमित्र के सम्पादक श्री रघुविंद्र यादव, डॉ.राजेंद्र मिलन और 'समानान्तर' संस्था की अध्यक्षा डॉ. शशि गोयल द्वारा किया गया। बतौर मुख्य अतिथि कवि सोम ठाकुर जी ने कहा कि कुंडलिया एक लोकप्रिय विधा रही है। आज इसके संरक्षण की जरूरत है ।

पिता पर विशेषांक !


शोध-दिशा देश की एक ऐसी त्रैमासिक पत्रिका है, जो निरंतर नए प्रयोग करती रहती है. पिछली बार जब पत्रिका का एक विशेषांक ‘माँ’ पर प्रकाशित हुआ था, तब पाठकों ने उसका भरपूर स्वागत किया था। अब पत्रिका का एक विशेष अंक ‘पिता’ पर केंद्रित है । आप पिता पर आधारित अपनी कविता अथवा कहानी यथाशीघ्र उन्हें भेज सकते हैं ताकि वह दिसंबर अंक को ‘पिता’ को समर्पित कर सकें ।

संपर्क
डॉ. गिरिराजशरण अग्रवाल
संपादक शोध दिशा
16 साहित्य विहार, बिजनौर उ.प्र.
07838090732
shodhdisha@gmail.com

Photo: पिता पर विशेषांक 

शोध-दिशा देश की एक ऐसी त्रैमासिक पत्रिका है, जो निरंतर नए प्रयोग करती रहती है. पिछली बार जब पत्रिका का एक विशेषांक ‘माँ’ पर प्रकाशित हुआ था, तब पाठकों ने उसका भरपूर स्वागत किया था। अब पत्रिका का एक विशेष अंक ‘पिता’ पर केंद्रित है । आप पिता पर आधारित अपनी कविता अथवा कहानी यथाशीघ्र उन्हें भेज सकते हैं ताकि वह दिसंबर अंक को ‘पिता’ को समर्पित कर सकें । 

संपर्क
डॉ. गिरिराजशरण अग्रवाल
संपादक शोध दिशा
16 साहित्य विहार, बिजनौर उ.प्र.
07838090732
shodhdisha@gmail.com

नाता रखेगा या - तोड़ेगा !

दुनिया के बंधन - रोकते रहे
सब मिलकर मुझे टोकते रहे .
पर तुझसे वादा था - तेरे पास
इसलिए चला आया .

नहीं मालूम - मुझे अपनाएगा
या दुनिया के रहमो करम पर -
यूँही - अकेला छोड़ेगा
नाता रखेगा या - तोड़ेगा .

अभी कोई नहीं जानता -
मेरी बलहीन कलाई - थामे
रखेगा - या उफनती वेगवती
समय की धार में कश्ती -
पतवार विहीन सा छोड़ेगा ।


- सतीश शर्मा
टाइम्स ऑफ़ इंडिया

मधुशाला !

मदिरालय जाने  घर से
चलता है पीने वाला,
किस पथ से जाऊं, असमंजस में 
है वो भोलाभाला 
अलग-अलग पथ बतलाते सब 
पर मैं  यह बतलाता हूँ 
राह पकड़ तू एक चला चल 
पा जायेगा मधुशाला !

- हरिवंश राय बच्चन 

तेरा जिक्र आते ही - दोस्त !

तेरी आवाज़ - आज तक
कानों में गूंजती है - पूरी फिजा
धरती का हर कोना .
इतनी सी गुज़ारिश है
मेरे ना सही -यार पर
किसी और के भी मत होना .

तेरा जिक्र आते ही - दोस्त
आँखें नाम- मन मयूर नाचता
तन का रोम रोम गाता है
पता नहीं कौन है तू -
सब लोग कहते हैं तू विधाता है .

किसे क्या भाता हैं -
नहीं मालूम - पर
मुझे तो रात - दिन
शाम के सिंदूरी साये में
प्रभात - की वेला में
बस तू ही तू नज़र आता है .

तुझे आज तक - ठीक से
मैं कभी जान नहीं पाया .
तू पूरी तरह से मुझे अपना -
कभी मान नहीं पाया .

पर मेरी हर घडी हर पल - जैसे
चीत्कार कर - कह रही हैं .
तुझसे अलग होने का संताप
हम ही तो सह रहीं हैं ।


- सतीश शर्मा
टाइम्स ऑफ़ इंडिया

वक़्त जस्बात को तब्दील नहीं कर सकता !

हादसा बन के कोई ख्वाब बिखर जाये तो क्या हो ,
वक़्त जस्बात को तब्दील नहीं कर सकता ,
दूर हो जाने से एहसास नहीं मर सकता ...
ये मोहब्बत है दिलों का रिश्ता ... ये मोहब्बत है दिलों का रिश्ता
ऐसा रिश्ता जो सरहदों में कभी तब्दील नहीं हो सकता ..
तू किसी और की रातों का हसीं चाँद सही ,
मेरे हर रंग में शामिल तू है ..
तुझसे रोशन हैं मेरे ख्वाब मेरी उम्मीदें ,
तू किसी भी राह से गुज़ारे ,
मेरी मंजिल तू है ...


- अमिताभ बच्चन 

प्रभु की माया है !

अंतर में कोलाहल -
बाहर - घना
अन्धकार छाया है -
क्यों दोष दें किसी को - सब
प्रभु की माया है .

रात धीरज है - रक्षा है
ठांव है - परीक्षा है .
हम हारे थके फकीरों को
ईश्वर से मिली - बेशकीमती
भिक्षा है .

विश्राम की वेला - समाप्त
उठ ज़ाग - रास्ते प्रतीक्षा में
मौन खडें हैं - चलो होने वाली
नयी सुबह की बाते करें ।


- सतीश शर्मा
टाइम्स ऑफ़ इंडिया  

अँधेरा दिल का न छुपाया हमने !

एक युग बीत गया यूँ चाहत को चाहते
हम दिशा हीन थे यूँ चादर फैलाते ,
ओढ़ कर जब सर छुपाया हमने
अँधेरा दिल का न छुपाया हमने .

तुम सोचते हो हममे ये गुण कैसा
छुपाये न छुपे ये आशियाँ कैसा ,
ज़माने को टटोलते हुए यूँ दिन गुज़ारे
पर ,
मिल न सके दिलों के चिराग हमारे ।


-अमिताभ बच्चन

शब्द अनायास ही दौड़ने लगे ।

शब्द अनायास ही दौड़ने लगे ।
क्यूँ कभी मन को कचोटने लगे ।
बांध ह्रदय का उमड़ने लगा |
घटा अचानक बरसने लगी ।
तीर से शब्द कभी चुभने लगे ।
घाव गंभीर करने लगे ....।
व्यथा बन नदी सी बहने लगे
अधीर हो सागर में ज्वार से...
मन को उफनाने लगे.....।
क्या करिश्मा शब्द का जो...
शांत मन ..कभी स्थिर सा ।
कभी हंसाने गुदगुदाने लगे ।
जब भरे जोश में ....तो....
देश हित.... में योद्धा .....
जान अपनी ....लुटाने लगे ।

-अलका गुप्ता

मैं ही बस हूँ !

दिन की शुरुआत ...
बहुत अच्छी करनी चाही थी
सब मन का कहाँ होता है
हम और हमारा जीवन ..
बहुत घना बुना है कालीन की तरह
हर वर्ग इंच में पचासों गांठें
और हर ओर कुचलने को बेताब कदम
हर मन में अभीप्सा और कुंठा भी
प्यास है ..प्रतीक्षा भी
चेन से जकड़े कुंजरों की तरह
चैन की तलाश में भटकते हैं हम
मैं बलशाली
मैं युद्ध प्रवीण
मैं नीति पारंगत
मैं सर्वथा तथ्यात्मक
मैं ही बस हूँ न्यायप्रिय
हर तरफ ऐसी ही गूँज ......!!!


राघवेन्द्र (अभी-अभी)
१९/१०/१२

Thursday, October 18, 2012

शायद, ख्वाब ही होगा !

सुबह सुबह एक ख्वाब की दस्तक पर,
दरवाज़ा खोला और देखा,
सरहद के उस पार से कुछ मेहमान आये हैं,
आँखों से मानूस थे सारे,
चेहरे सारे सुने सुनाये,
पाँव धोये, हाथ धुलवाये,
आँगन में आसन लगवाये,
और तन्दूर पर मक्के के कुछ मोटे मोटे रोख पकाये,
पोटली में मेहमान मेरे,
पिछले सालों कि फसलों का गुड़ लाये थे,

आँख खुली तो देखा घर में कोई नहीं था,
हाथ लगा कर देखा तो तन्दूर अभी तक बुझा नहीं था,
और होठों पे मीठे गुड़ का ज़ायका अब तक चिपक रहा था,
ख्वाब था शायद, ख्वाब ही होगा,
सरहद पर कल रात सुना है चली थी गोली,
सरहद पर कल रात सुना है कुछ ख्वाबों का खून हुआ था।

- गुलज़ार

Monday, October 15, 2012

रोचक बातें:


गया में पिण्डदान करने की परंपरा क्यों?


पिण्डदान व श्राद्ध के लिए बिहार में स्थित गया तीर्थ को सर्वश्रेष्ठ माना गया है। पितृ पक्ष में यहां पिण्डदान व श्राद्ध के लिए लोगों की भीड़ उमड़ती है। ऐसी मान्यता है कि जिसका भी पिण्डदान व
श्राद्ध यहां किया जाता है उसे मोक्ष की प्राप्ति हो जाती है। गया तीर्थ को तर्पण, श्राद्ध व पिण्डदान के लिए इतना महत्वपूर्ण क्यों माना जाता है इसके पीछे एक धार्मिक कथा है। अखिल भारतीय ज्योतिष परिषद के राष्ट्रीय महासचिव आचार्य कृष्णदत्त शर्मा के अनुसार वह कथा इस प्रकार है-

प्राचीन काल में गयासुर नामक एक शक्तिशाली असुर भगवान विष्णु का बहुत बड़ा भक्त था। उसने अपनी तपस्या से देवताओं को चिंतित कर रखा था। उनकी प्रार्थना पर विष्णु व अन्य समस्त देवता गयासुर की तपस्या भंग करने उसके पास पहुंचे और वरदान मांगने के लिए कहा। गयासुर ने स्वयं को देवी-देवताओं से भी अधिक पवित्र होने का वरदान मांगा।


वरदान मिलते ही स्थिति यह हो गई कि उसे देख या छू लेने मात्र से ही घोर पापी भी स्वर्ग में जाने लगे। यह देखकर धर्मराज भी चिंतित हो गए। इस समस्या से निपटने के लिए देवताओं ने छलपूर्वक एक यज्ञ के नाम पर गयासुर का संपूर्ण शरीर मांग लिया। गयासुर अपना शरीर देने के लिए उत्तर की तरफ पांव और दक्षिण की ओर मुख करके लेट गया।


मान्यता है कि उसका शरीर पांच कोस में फैला हुआ था इसलिए उस पांच कोस के भूखण्ड का नाम गया पड़ गया। गयासुर के पुण्य प्रभाव से ही वह स्थान तीर्थ के रूप में स्थापित हो गया। गया में पहले विविध नामों से 360 वेदियां थी लेकिन उनमें से अब केवल 48 ही शेष बची हैं। आमतौर पर इन्हीं वेदियों पर विष्णुपद मंदिर, फल्गु नदी के किनारे अक्षयवट पर पिण्डदान करना जरुरी समझा जाता है।


इसके अतिरिक्त नौकुट, ब्रह्योनी, वैतरणी, मंगलागौरी, सीताकुंड, रामकुंड, नागकुंड, पांडुशिला, रामशिला, प्रेतशिला व कागबलि आदि भी पिंडदान के प्रमुख स्थल हैं।

नई पठनीय किताब !

आंतकवाद और दंगों-फसादों को नजदीक से देखकर लिखना कठिन होता है । लेखक 36 वर्षो तक भारतीय प्रशासनिक सेवा के वरिष्ठ अधिकारी रहे हैं । सो लेखक के रूप में प्रतीप के लाहिरी की पुस्तक 'भारत में सांप्रदायिक दंगे और आतंकवाद' में प्रमुख दंगों का गहन अध्ययन और विश्लेषण करके कुछ वस्तुपरक निष्कर्ष निकालने का साहसिक प्रयास है । चलें पढ़कर देखते हैं उनके अनुभव को । मूल्य अधिक पर पाठ्य-सामग्री की महत्ता भी अधिक है।

कृति- भारत में सांप्रदायिक दंगे और आतंकवाद
लेखक- प्रतीप के. लाहिरी/ राजकमल प्रकाशन, नई दिल्ली
मूल्य- 550 रु.

सुनो माँ ! मुझे नहीं बनना अच्छी लड़की....

उफ़ दीदी तुम भी हरदम
माँ की तरह पीछे ही पड़ जाती हो
ये न करो वो न करो
ज़रा सा आईने सामने खड़े देखा


बस इनकी बकबक शुरू
चलो अपना काम करो अब --
भले घर की लड़कियाँ
हमेशा आइना नहीं देखती
अच्छा तुम ही बताओ क्या
अच्छी लडकियां अपने बाल
कुएं में झाँक कर बनाती हैं
अच्छी लड़कियां ठहाके नहीं लगाती
धीमे हंसो --यूँ भाग कर न चलो
बाल खुले न रखो दो चोटियाँ बनाओ
दुप्पटा फैला कर ओढ़ा करो ---
अब बड़ी हो गई हो तुम --
छत पर मत खड़ी हुआ करो
हद हो गई अगर इतनी बंदिशें -हैं ---
तो मुझे अच्छा नहीं बनाना
--अजीब हो दीदी तुम भी न
जब तुम और भाभी गुपचुप बतियाती हो
तब मुझे भगा देती हो --जाओ यहाँ से
छोटी हो अभी पढो जा के ---
बड़ों की बातें नहीं सुनते --
अब बता ही दो मै क्या करूँ
माँ वो भी बदल गई है
कितना चिल्लाई थी मुझ पे
ऊंट जैसी लंबी हो गई
कब अक्ल आयेगी इसे --
जरा सा गाना ही तो गा रही थी
बारिश में भीग के ----
भाई को भी कोई कुछ नहीं कहता
माँ कहती है वो लड़का है
तुम उसकी बराबरी न करो
तुम्हे दुसरे घर जाना है --पर दीदी
हम क्यूँ न करें भाई की बराबरी
तुम्हे भी तो बुरा लगा होगा जब
माँ ने तुम से भी यही कहा था न
जब तुम इस उम्र से गुजरी थीं
फिर तुम क्यूँ करती हो ऐसा दीदी
मुझे नहीं बनना अब इतनी अच्छी लड़की !





- ब्लॉग ये पन्ने........सारे मेरे अपने - से साभार .........


और फिर मै लौट गई !

ओढ़नी के एक छोर में मैने
बाँध रखा है तुम्हारा ख्याल
दूसरा छोर नम है पता है क्यूँ
उसमे ज़ज्ब है भीगे ज़ज्बात
छलक उठे थे कल रात --
तुम्हे याद करके जो -

हरवक्त साथ रही कभी भुलाई ही नहीं
इसी लिए तो कहा तेरी याद आई ही नहीं -

"संकरी सी झिरी से
आती मद्धिम सी रौशनी
दाहिनी बांह पर
नर्म गर्म सा स्पर्श
तीव्र हुई धडकन
धीमे सी उठीं पलकें
और फिर मै लौट गई
उसी स्वप्न जगत में -

-तुम्हे ढूंड रही हूँ
तुम मिल जाओ
तो खुद को पा सकूँ !


- दिव्या शुक्ला

असर नहीं जाता !

वह  शख्स जो मंदिर-मस्जिद नहीं जाता
दरअसल वह आदमी किसी के घर नहीं जाता

मंदिर-ओ-मस्जिद में अब जो भीड़-शोर-सोंग है ........ पूरी पोस्ट पढ़ने के लिए नीचे दिए
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http://www.pushpendrafalgun.blogspot.in/2012/10/blog-post_15.html