Sunday, October 28, 2012

रात के आखिरी पहर में !

एक रात से दूसरी रात
में दाखिल होती हूँ
बाहर के अंधेरों से छुप के
अपने अंदर के अंधेरों में
गुम होती जा रही हूँ मै
रात केआखिरी पहर में
एक स्याह साया अक्सर ही
झट सर से ओढ़नी खींच लेता है
और मै चीख पड़ती हूँ
उफ़ ये सच है या
सपना है बरसों से
जो सोने नहीं देता --
ये कौन सा आसेब है
क्यूँ मुझे जीने नहीं देता
ये कैसा सिलसिला है
जो खत्म नहीं होता
क्यूँ भटकती हूँ
सराब के पीछे
जाया करती हूँ ---
अश्क अपने सहराओं में
आखिर कब तक ?
ऐसा क्यों होता है मेरे ही साथ
मेरी पलकें छू भर लें
वो ख्वाब क्यूँ बिखर जातें हैं
?
 
- दिव्या शुक्ला

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