Thursday, October 25, 2012

तथाकथित विजयोत्सव !

बडा ही उल्लास सा,
हो रहा है द्रष्टिगोचर,हर ओर..
उत्सव जो है,विजय-उत्सव..।
सुना है जीता है,
कोई धर्म किसी अधर्म से,
कोई प्रकाश किसी तम से,
कोई पुण्य किसी पाप से ।
यह बात और है कि,
पस्त है मानव,
और मानवता घुटनों के बल,
चीत्कार ही सुनाई देती है,
चहुँओर, बेबसी की,
लाचारी की ।
उल्लास का विषय है भी !
चीत्कार उन्माद जो उत्पन्न करती है...।
अबला की चीत्कार,
बलात्कारी का उन्माद ।
उन्माद उल्लास में बदल रहा है,
उल्लास उत्सव में ।
और उत्सव तो प्रतीक है आजादी का,
सो घूम रहे हैं,
बेफिक्र,आजाद ।
लूट के अबलाओं की अस्मत,
चीत्कार के उन्माद में,
उन्माद के उल्लास मे ।
और मना रहे हैं उत्सव,
विजय-उत्सव ।।
भ्रष्टों का आकार
होता जा रहा है विकराल,
सुरसा के मुख की भांति ।
बढता जो जा रहा है,
दायरा विकल्पों का ।
चारे से लेकर धान तक,
स्पेक्ट्रम से लेकर,
खेल के मैदान तक ।
बढता ही तो जा रहा है विकल्प,
मलिन मुख की मायूस
जनता की जान तक ।
सूख गई उम्मीद में,
उन आँखों के अरमान तक ।
बढ रहा है दायरा सतत् , लगातार,
संसद मे प्रश्न सहित
कोयले-लोहे की खान तक ।
और जब ऐसे बढे गर,
दायरा विकल्पों का,
तो उत्साह तो होता ही है ??
उत्साह से उल्लास,
उल्लास से जन्म रहा है,
उत्सव, विजय-उत्सव ।
अब प्रश्न विकट है
किसका उत्सव है ??
भ्रष्टों का ? बलात्कारियों का ?
या निरीह जनमानस का ??
जो होता है प्रतीत ऐसा
मानो मुर्छित हो गया हो,
महंगाई की मार से,
जो दिन रात है वादा-पूर्ति की आशा में,
तथाकथित कल्याणकारी सरकार से ।
या यह उत्सव
है, उन मंत्रियों,संत्रियों
के भ्रष्टतंत्र के प्रति प्यार का,
महिला ही नही ,
इस देश के लोकतन्त्र से,
हर रोज हो रहे बलात्कार का ??
किसका है यह उत्सव,
यह विजय-उत्सव ??
मुझे नही आसक्ति,
इस तथाकथित उत्सव से ।
और तब तक न होगी,
जब तक इस देश में,
कतारबद्ध खडे आखिरी व्यक्ति,
के ह्रदय में न उमड आए उल्लास ।
तब तक,जब तक
वह अन्तिम व्यक्ति
नही हो जाता शामिल,
इस उत्सव में ।
जब आ जाए दिन ऐसा,
मनाएँगे हम भी,
उत्सव, विजय-उत्सव....।।
 

- राकेश “कमल”
रचना का समय :- 24 अक्टुबर 2012

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