Sunday, October 28, 2012

कौन अपना कौन बेगाना !

आदमी हु ओ भी आम
औरतो की तरह रो नही सकता
अपने दर्द को आसुओ में बहा नही सकता
जीवन से लेकर जीवन व्यापन की समस्याओं का पुलिंदा बना
मकड़ी की तरह अपने ही जाल में फसा हुआ
ओ तो फिर भी निकलने का रास्ता जानती है
कारण चाहे ए ही सही ओ इंसान नही
कौन अपना कौन बेगाना
समय समय पर सब ही रंग बदल रहे
समय के साथ साथ मेहँदी की तरह अपने भी साथ छोड़ते गए
याद करता हु कभी ओ बचपन
वहा भी कौन सा सुख था
चाह थी कब कद बढ़ेगा
आज भी तो बौना ही हु
तब तो आम था अब भी तो आम हु
जब कालेज पहुचा तब कुछ राहत थी
शायद तब में डरता नही था
गर्म खून मस्ती भरे विचार
सोचने समझने का समय कहा था
अब सोच रहा हु तब क्यों नही सोचाता था
तब क्यों नही मै डरता था
होसलो में कमी आई है या तब दुनिया को हल्के में लेता था
जीवन के उन दिनों मै भी खास हुआ करता था


- शैलेन्द्र दुबे

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