Monday, January 6, 2014

'चाभी का गुच्छा'

मै चाभी का एक गुच्छा हूँ...
तुम्हारे प्यार की सुंदर देह पर झूलता हुआ
ये सच है क़ि हर वक़्त तुम्हे मेरी ज़रूरत नहीं
पर तुम्हारा डर मुझे तुमसे
कभी दूर नहीं जाने देता....तुम जब
हर पल सोचती हो---
कहीं मै खो न जाऊं....

तुम्हारी स्मृतियों में बना रहता हूँ
मै.... तुम्हारा चाभी का गुच्छा....

अजामिल
कविता'चाभी का गुच्छा' का एक अंश

फुलकारी बन्ने की चाह !

डिब्बों में बंद
रंगीन धागे
आपस में उलझे
गांठ बने सिसक रहे
सोचा था
किसी राजा की पोशाक में गुथ
उसकी शान बढ़ाएंगे
किसी रानी की चूनर में बिंध
बिजलियाँ गिराएंगे
किसी दुल्हन की चोली के
तार बनेंगे
किसी दुल्हे की शेरवानी में
दुपट्टा बन खिलेंगे
पर गुड़मुड़ाते भाग्य ने
एक दूसरे में ऐसा लपेटा
कि सुई की नोक नसीब होने से पहले
तोड़कर फेक दी गई
धागों सहित
रद्दी की टोकरी में
और फिर
टोकरी उड़ेल दी गई
कूड़ेघर में
वाही कूड़ाघर
जिससे लगी सड़क से होकर
दिनरात
गुजरती हैं हजारों गाड़ियां
हजारों सवारियां
नक् मुह दबाये लोग
रंगीन फुल्कारियों के धागो को
आ रही है सबकी आहट
महसूस हो रहा है
उसपर से गुजरते
पहियों का भार
सुनाई देते है
जूतों के पदचाप
लोगों की बातें
बेचारे धागे
अब भी कूड़े के ढेर में दबे
सिसक रहे है
अपनी किस्मत की गांठों पर
फुलकारी बन्ने की चाह
कब की
दब कर मर चुकी

- सरस्वती निषाद

दादाजी का कुरता !

दरवाजे से लगी खूटी पर
हर वक्त टंगा रहता है
दादाजी का सफ़ेद कुरता
आते जाते जब तब
पड़ जाती है
उसपर नजर
हर बार देखती हूँ
वैसे ही टंगा
हफ्ता या महीने में एक बार
खूटी से उतर
हो आता है
डॉ गुप्ता की क्लिनिक
या कभी
पेंशन ऑफिस
या कभी बाजार
और फिर आकर टंग जाता है
दरवाजे से लगी उसी खूटी पर
रिटायर हुए कर्मचारी की तरह,
फुर्सत में रहता है हर वक्त
बीते दिनों की भीड़ से घिरा
जब हर सुबह नहा धोकर
दादाजी कुरता पहन
फैक्ट्री जाते थे
और घर लौटने में
शाम हो जाती थी
तब भी फुर्सत कहाँ मिलती थी
दादाजी और कुर्ते को
फैक्ट्री से आकर
चक्की पर रख आते थे गेहू
फिर बाज़ार से राशन
फिर अम्मा को डॉक्टर के पास ले जाना
फिर कही आधी रात को मिलती थी
साँस लेने की फुर्सत
पर अब
गुजरते हर पल की धूल
हर पल का भार
महसूस करते है
एक ही जगह टंगे
दादाजी और कुरता
 

- सरस्वती निषाद

फिर भी उसे मिला नाम खूनी पुल !

मुश्किल से दस बीस थी
रोज गुजरने वाली गाड़ियों की संख्या
उन दिनों
गर्व से भर जाता था
पुल का जर्रा जर्रा
लोगो को पार कर
बहुतों ने कहा था
पुल को शुक्रिया
बहुतों की तकलीफों में
काम आता था
बाढ़ में , रात में
जल्दी में, बीमारी में
जब भी होते थे लोग
सबका साथ निभाया था इसने
पर अब
रोज गुजरती है हजारों गाड़िया
हजारो लोग
अक्सर झुक जाता है
सालों से गर्व से खड़ा लोहे का ये पुल
सैकड़ों दरारे पद गई है
इसकी सड़क पर
कई कल पुर्जे भी घिस गए
पर फिर भी चुपचाप
सबको करता रहा पार
देखता रहा सबकी अहमियत
अपने से ऊपर
पर एक दिन
वह सह नहीं पाया
और
जन्म लेने लगे हादसे
दो चार दस बीस
फिर सैकड़ों हजारो
उसकी कोई गलती न थी
फिर भी उसे मिला नाम
खूनी पुल
मनहूस पुल
हत्यारा पुल
जिस पुल पर चलकर
कभी दरी थी मैं
उस पुल पर
आज दया आई

- सरस्वती
निषाद

बाबा कहते थे !

बाबा कहते थे
अंग्रेजों के ज़माने का है
यमुना की हरी धाराओं के बीच खड़ा
लोहे का ये पुल
चौदह साल की थी मैं
जब पापा के साथ शहर गई थी
इसी सकरे पुल से होकर
पापा सायकिल चला रहे थे
मैं पीछे बैठी
जैसे ही कोई ट्रैक आता
पापा बिलकुल किनारे
पुल की रेलिंग मेरे शारीर से
दो चार इंच दूर
दर्द कर रहे दांतो को छोड़
दिल पर रख लेती थी हाँथ
डर के मारे
मेरी रूह काँप जाती
ऐसा ही था डरावना
ये पुल मेरे लिए। 



- सरस्वती निषाद

Thursday, January 2, 2014

गजल !

हम को तासीर-ए-ग़म से मरना है
अब इसी रंग में निखरना है

ज़िंदगी क्या है सब्र करना है
ख़ून का घूँट पी के मरना है

जान-निसारी कुबुल हो के न हो
हम को अपनी सी कर गुज़रना है

मौज-ए-दरिया हैं हम हमारा क्या
कभी मिटना कभी उभरना है

- 'जिगर' बरेलवी

स्वागत है नववर्ष तुम्हारा !

स्वागत है नव वर्ष तुम्हारा, अभिनंदन नववर्ष तुम्हारा
देकर नवल प्रभात विश्व को, हरो त्रस्त जगत का अंधियारा

हर मन को दो तुम नई आशा, बोलें लोग प्रेम की भाषा
समझें जीवन की सच्चाई, पाटें सब कटुता की खाई

जन-जन में सद्भाव जगे, औ घर-घर में फैले उजियारा।।
स्वागत है नववर्ष तुम्हारा

मिटे युद्ध की रीति पुरानी, उभरे नीति न्याय की वाणी
भय आतंक द्वेष की छाया का होवे संपूर्ण सफाया

बहे हवा समृद्धि दायिनी, जग में सबसे भाईचारा।।
स्वागत है नववर्ष तुम्हारा

करे न कोई कहीं मनमानी दुख आंखों में भरे न पानी
हर बस्ती सुख शांति भरी हो, मुरझाई आशा लता हरी हो

भूल सके जग सब पी़ड़ाएं दुख दर्दों क्लेशों का मारा।।
स्वागत है नववर्ष तुम्हारा

वातावरण नया बन जाए, हर दिन नई सौगातें लाए
सब उदास चेहरे मुस्काएं, नए विचार नए फूल खिलाएं

ममता की शीतल छाया में जिए सुखद जीवन जग सारा।।
स्वागत है नववर्ष तुम्हारा। 


- श्री राम द्विवेदी

Wednesday, January 1, 2014

आओ कि कोई ख़्वाब बुनें !

आओ कि कोई ख़्वाब बुनें कल के वास्ते
वरना ये रात आज के संगीन दौर की
डस लेगी जान-ओ-दिल को कुछ ऐसे कि जान-ओ-दिल
ता-उम्र फिर न कोई हसीं ख़्वाब बुन सकें
आओ कि कोई ख़्वाब बुनें

आओ कि कोई ख़्वाब बुनें कल के वास्ते
वरना ये रात आज के संगीन दौर की
डस लेगी जान-ओ-दिल को कुछ ऐसे कि जान-ओ-दिल
ता-उम्र फिर न कोई हसीं ख़्वाब बुन सकें

गो हम से भागती रही ये तेज़-गाम उम्र
ख़्वाबों के आसरे पे कटी है तमाम उम्र

ज़ुल्फ़ों के ख़्वाब, होंठों के ख़्वाब, और बदन के ख़्वाब
मैराज-ए-फ़न के ख़्वाब, कमाल-ए-सुख़न के ख़्वाब
तहज़ीब-ए-ज़िन्दगी के, फुरोग़-ए-वतन के ख़्वाब
ज़िन्दाँ के ख़्वाब, कूचा-ए-दार-ओ-रसन के ख़्वाब

ये ख़्वाब ही तो अपनी जवानी के पास थे
ये ख़्वाब ही तो अपने अमल की असास थे
ये ख़्वाब मर गये हैं तो बेरंग है हयात
यूँ है कि जैसे दस्त-ए-तह-ए-संग है हयात

आओ कि कोई ख़्वाब बुनें कल के वास्ते
वरना ये रात आज के संगीन दौर की
डस लेगी जान-ओ-दिल को कुछ ऐसे कि जान-ओ-दिल
ता-उम्र फिर न कोई हसीं ख़्वाब बुन सकें !


- फैसल अनुराग