Monday, January 6, 2014

दादाजी का कुरता !

दरवाजे से लगी खूटी पर
हर वक्त टंगा रहता है
दादाजी का सफ़ेद कुरता
आते जाते जब तब
पड़ जाती है
उसपर नजर
हर बार देखती हूँ
वैसे ही टंगा
हफ्ता या महीने में एक बार
खूटी से उतर
हो आता है
डॉ गुप्ता की क्लिनिक
या कभी
पेंशन ऑफिस
या कभी बाजार
और फिर आकर टंग जाता है
दरवाजे से लगी उसी खूटी पर
रिटायर हुए कर्मचारी की तरह,
फुर्सत में रहता है हर वक्त
बीते दिनों की भीड़ से घिरा
जब हर सुबह नहा धोकर
दादाजी कुरता पहन
फैक्ट्री जाते थे
और घर लौटने में
शाम हो जाती थी
तब भी फुर्सत कहाँ मिलती थी
दादाजी और कुर्ते को
फैक्ट्री से आकर
चक्की पर रख आते थे गेहू
फिर बाज़ार से राशन
फिर अम्मा को डॉक्टर के पास ले जाना
फिर कही आधी रात को मिलती थी
साँस लेने की फुर्सत
पर अब
गुजरते हर पल की धूल
हर पल का भार
महसूस करते है
एक ही जगह टंगे
दादाजी और कुरता
 

- सरस्वती निषाद

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