Tuesday, March 29, 2011

भगवान की गलती !



एक बार जहाँपनाह अकबर ने बीरबल से कहा की इस दुनिया में भगवान ने बहुत सारी गलतियाँ की हैं। चलो हम उन्हें एक कागज पर लिखते हैं और जब हम भगवान के यहाँ जायेंगे तो शिकायत करेंगे। बीरबल ने कहा- ''जहाँपनाह भगवान ने जो भी किया है वो सही किया है।'' लेकिन मन ही मन में बीरबल कुढ़ रहे थे की भगवान ने एक गलती जरूर कर दी कि उनकी जगह अकबर को राजा बना दिया। फिर भी राजा की आज्ञा थी तो कलम-दवात लेकर निकल पड़े अकबर के साथ। घूमते हुये दोनों लोग मिलकर गलतियाँ ढूँढने की कोशिश करने लगे। सबसे पहले उन्हें एक तरबूज की एक बेल दिखाई पड़ी जिस पर बड़े-बड़े तरबूज लगे थे। बादशाह बोले- '' बीरबल पहली गलती को लिखा जाये की इतनी पतली और कमजोर डाल पर इतने बड़े-बड़े तरबूज लगे हैं।'' वहीं पर पास में एक बागीचा भी था जिसमें आम के पेड़ लगे हुये थे। अकबर बोले- '' बीरबल दूसरी गलती को भी लिखो कि इतनी मोटी डाल पर इतने छोटे-छोटे आम लगे हैं। लेकिन उस बेचारी पतली सी बेल पर इतने भारी-भरकम तरबूज लगे थे। बीरबल बोले- '' जो हुकुम महाराज।'' फिर अकबर बोले- ''बीरबल मैं बहुत थक गया हूँ और अब आराम करने को जी कर रहा है।'' बीरबल बोले- '' हुजूर, यहीं आम के पेड़ के नीचे मैं अपना अंगौछा बिछा देता हूँ, और अब आप लेट कर आराम कर लीजिये।'' अकबर वहाँ लेट कर झपकी लेने लगे तभी एक आम पट से उनकी नाक पर गिरा और वह तिलमिलाकर उठ बैठे और बोले- '' बीरबल इस पेड़ को काटकर फेंक दो।'' बीरबल बोले- '' जहाँपनाह भगवान जो भी करता है अच्छे के लिये ही करता है। यह तो एक छोटा सा आम ही था..लेकिन इसकी जगह अगर पेड़ पर तरबूज लगा होता तो आप का क्या हाल होता।'' तब अकबर की समझ में आया और बोले- '' हाँ बीरबल बात तो तुम्हारी सही लगती है।''

मैं ककड़ी पर नहीं कड़ी!



नाजुक बदन रंग है धानी
मैं बनती सलाद की रानी
दुबली-पतली और लचीली
कभी-कभी पड़ जाती पीली
सबकी हूँ जानी-पहचानी
मुझमे होता बहुत ही पानी
गर्मी में होती है भरमार
हर सलाद में मेरा शुमार
करते सब हैं तारीफें मेरी
खीरे की मैं बहन चचेरी
हर कोई लगता मेरा दीवाना
हो गरीब या धनी घराना
खाने में करो न सोच-बिचार
हल्का-फुल्का सा हूँ आहार
विटामिन ए, सी और पोटैसियम
सब रहते हैं मुझमें हरदम
मौसम के हूँ मैं अनुकूल
आँखें हो जातीं मुझसे कूल
अंग्रेजी में कहें कुकम्बर
खाते हैं सब बिन आडम्बर
ब्यूटीपार्लर जो लोग हैं जाते
पलकों पर हैं मुझे बिठाते
मुखड़े करती मलकर सुंदर
दूर करुँ विकार जो अन्दर
स्ट्राबेरी संग प्याज़, पोदीना
मुझमें मिलकर लगे सलोना
बटर, चीज़ संग टमाटर
मुझे भी रखो सैंडविच के अंदर
कभी अकेले खाई जाती
कभी प्याज-गाज़र संग भाती
अगर रायता मुझे बनाओ
उंगली चाट-चाट कर खाओ
यदि करते हो मुझको कद्दूकस
तो नहीं फेंकना मेरा रस
गोल-गोल या लम्बा काटो
खुद खाओ या फिर बांटो
सिरके में भी मुझको डालो
देर करो ना झट से खा लो
और भी सोचो अकल लगाकर
सब्जी भी खाओ मुझे बनाकर.

--शन्नो अग्रवाल

चिड़ियों का अलार्म !

सुबह-सुबह ही मेरी बगिया
चिड़ियों से भर जाती है
उनके चीं-चीं के अलार्म से
नींद मेरी खुल जाती है।

वे कहतीं हैं उठो उठो

अब हुआ सबेरा जागो
उठ कर अपना काम करो
झटपट आलस को त्‍यागो।

मूल्यवान जो समय गंवा कर

बहुत देर तक सोते
प्‍यारे बच्चों जीवन में वह
अपना सब कुछ खोते।

शरद तैलंग

पिता का बूढा होना !

तुम बुड्ढे हो गए पिता
अब तुम्हें मान लेना चाहिए
आने वाला है ‘द एण्ड’

तुम बुड्ढे हो गए पिता

कि तुम्हारा इस रंगमंच में
बचा बहुत थोड़ा-सा रोल
ज़रूरी नहीं कि फिल्म पूरी होने तक
तुम्हारे हिस्से की रील जोड़ी ही जाए

इसलिए क्यों इतनी तेज़ी दिखाते हो

चलो बैठो एक तरफ
बच्चों को करने दो काम-धाम...

तुम बुड्ढे हो गए पिता

अब कहाँ चलेगी तुम्हारी
खामखाँ हुक्म देते फिरते हो
जबकि तुम्हारे पास कोई
फटकता भी नहीं चाहता

तुम बुड्ढे हो गए पिता

रिटायर हो चुके नौकरी से
अब तुम्हें ले लेना चाहिए रिटायरमेंट
सक्रिय जीवन से भी...
तुम्हें अब करना चाहिए
सत्संग, भजन-पूजन
गली-मुहल्ले के बुड्ढों के संग
निकालते रहना चाहिए बुढ़भस

तुम बुड्ढे हो गए पिता

भूल जाओ वे दिन
जब तुम्हारी मौजूदगी में
कांपते थे बच्चे और अम्मा
डरते थे
जाने किस बात नाराज़ हो जाएं देवता
जाने कब बरस पड़े
तुम्हारी दहशत के बादल...

तुम बुड्ढे हो गए पिता

अब क्यों खोजते हो
साफ धुले कपड़े
कपड़ों पर क्रीज़
कौन करेगा ये सब तुम्हारे लिए
किसके पास है फालतू समय इतना
कि तुमसे गप्प करे
सुने तुम्हारी लनतरानियां
तुम इतना जो सोचो-फ़िक्र करते हो
इसीलिए तो बढ़ा रहता है
तुम्हारा ब्लड-प्रेशर...
अस्थमा का बढ़ता असर
सायटिका का दर्द
सुन्न होते हाथ-पैर
मोतियाबिंद आँखें लेकर
अब तुमसे कुछ नहीं हो सकता पिता
तुम्हें अब आराम करना चाहिए
सिर्फ आरा....म!

मैं भी हो जाऊँगा
एक दिन बूढ़ा
मैं भी हो जाऊँगा
एक दिन कमज़ोर
मैं भी हो जाऊँगा
अकेला एक दिन
जैसे कि हो गए हैं पिता
बूढ़े, अकेले और कमज़ोर
मैं रहता हूँ व्यस्त कितना
नौकरी में
बच्चों में
साहित्यकारी में
बूढ़ा होकर क्या मैं भी हो जाऊँगा
बातूनी इतना कि लोग
कतराना चाहेंगे मुझसे
बच कर निकलना चाहेंगे मुझसे
मैं सोचता नहीं हूँ
कि मैं कभी बूढ़ा भी होऊँगा
कि मैं कभी अशक्त भी होऊँगा
कि मैं कभी अकेला भी होऊँगा
तब क्या मैं पिता की तरह
रह पाऊंगा खुद्दार इतना
कि बना सकूँ रोटी अपनी खुद से
कि धो सकूँ कपड़े खुद से
कि रह सकूँ किसी भूत की तरह
बड़े से घर में अकेले
जिसे मैंने अपने पिता की तरह
बनवाया था बड़े शौक से
पेट काटकर
बैंक से लोन लेकर
शहर के हृदय-स्थल में!
पता नहीं
कुछ भी सोच नहीं पाता हूं
और नौकरी में
बीवी, बाल-बच्चों में
साहित्यकारी में रखता हूँ खुद को व्यस्त
मेरे सहकर्मी भी
नहीं सोच पाते
कि कभी होएंगे वे बूढ़े, कमज़ोर और अशक्त
अक्सर वे कहते हैं
कि ऐसी स्थिति तक आने से पहले
उठा लें भगवान
तो कितना अच्छा हो...

- अनवर सुहैल

मुझको जग में आने दे मां !

कोख में तेरी पड़ी पड़ी
सोच रही ये घड़ी-घड़ी
मैं कैसा जीवन पाऊँगी
जब दुनिया में मैं आऊँगी
क्या दूजे बच्चों की मानिंद
मैं भी खेलूँगी, खाऊँगी
या तेरी तरह मेरी जननी
जीवन भर धक्के पाऊँगी
ग़र तू भी साथ नहीं देगी
तो बोल कहाँ मैं जाऊँगी
क्यों ऐसा होता आया है
कन्या ने जन्म जब पाया है
जन्मदाता के माथे पर
चिंता का बादल छाया है
ग़र धरती पर मैं बोझ हूँ माँ
क्यों ईश्वर ने मुझे बनाया है
फिर दुनिया में आने से पहले
क्यों तूने मुझे मिटाया है
मुझको आजमाने से पहले
वजूद मेरा झुठलाया है
मैं हाड-माँस की पुतली हूँ
कुछ मेरी भी अभिलाषा है
सब की भाँति इस दुनिया में
जीने की मुझे भी आशा है
कुछ मुझमें भी तो क्षमता है
इस जग को दिखलाने दे माँ
खुद को साबित करने को
मुझको इस जग में आने दे माँ
पर सबसे पहले मेरी माँ
मुझ पर विश्वास ज़रूरी है
उससे भी पहले जननी मेरी
खुद पर विश्वास ज़रूरी है
ग़र जन्म नहीं मैं पाऊँगी
क्या साबित कर दिखलाऊँगी
इस जग को कुछ दिखलाना है
मुझको इस जग में आना है
मुझको जग में आने दे मां !
मुझको जग में आने दे माँ !!

- रचनाकार डॉ अनिल चड्डा

सपना मकान का !

सपना मकान का
अपने मकान का
कैसे हो पूरा
खाली पेट
लंगोटी बांधे
सोच रहा है घूरा
सोच रहा है घूरा कैसे
कटेगी ये बरसात
पैताने बैठा है कुत्ता
नहीं छोडता साथ
घरवालों की होती इज़्ज़त
चाहे हों आवारा
बेघर और बेदर को समझे
चोर ज़माना सारा
खाते पीते लोगों को ही
बैंकों से मिलता लोन
जिनका कोई नाथ न पगहा
उनके लिए सब मौन
काहे देखे घूरा सपना
काहे दांत निपोरे
कह दो उससे नंगा-बूचा
धोए क्या निचोडे......
सपना मकान का
देख रहा है घूरा!

- अनवर सुहैल

नींद !

जैसे ही जागता हूँ
सो जाता हूँ !
सोते हुए देखता हूँ
अपनी नींद टूटने का ख्वाब !
ख्वाब टूटता है हर रोज़
और नींद में बिखर जाता है
टूटे ख्वाब के चुभने से
नहीं टूटती नींद..
क्यों नहीं होता कुछ ऐसा
कि कभी सोते हुए
नींद भूल जाये
आंखें बन्द करना..
फिर कोई ख्वाब
मशाल लेकर
घुस जाये आंखों में
और लगा डाले आग
कम्बख्त नींद को !

तू दर्दे-दिल को आईना बना लेती तो अच्छा था !

तू दर्दे-दिल को आईना बना लेती तो अच्छा था
मोहब्बत की कशिश दिल में सजा लेती तो अच्छा था

बचाने के लिए तुम खुद को आवारा-निगाही से

निगाहे-नाज को खंजर बना लेती तो अच्छा था

तेरी पलकों के गोशे में कोई आंसू जो बख्शे तो

उसे तू खून का दरिया बना लेती तो अच्छा था

सुकूं मिलता जवानी की तलातुम-खेज मौजों को

किसी का ख्वाब आंखों में बसा लेती तो अच्छा था

ये चाहत है तेरी मरजी, मुझे चाहे न चाहे तू

हां, मुझको देखकर तू मुस्कुरा देती तो अच्छा था

तुम्हारा हुस्ने-बेपर्दा कयामत-खेज है कितना

किसी के इश्क को पर्दा बना लेती तो अच्छा था

तेरी निगहे-करम के तो दिवाने हैं सभी लेकिन

झुका पलकें किसी का दिल चुरा लेती तो अच्छा था

किसी के इश्क में आंखों से जो बरसात होती है

उसी बरसात में तू भी नहा लेती तो अच्छा था

तेरे जाने की आहट से किसी की जां निकलती है

खुदारा तू किसी की जां बचा लेती तो अच्छा था।

- वसीम अकरम

यूँ ही आँगन में बम नहीं आते !

जो तेरे दर पे हम नहीं आते
तो खुशी ले के गम नहीं आते

बात कुछ तो है तेरी आँखों में

मयकदे वरना कम नहीं आते

कोई बच्चा कहीं कटा होगा

गोश्त यूँ ही नरम नहीं आते

होगा इंसान सा कभी नेता

मुझको ऐसे भरम नहीं आते

आग दिल में नहीं लगी होती

अश्क इतने गरम नहीं आते

कोइ कहीं भूखा सो गया होगा

यूँ ही जलसों में रम नहीं आते

प्रेम में गर यकीं हमें होता

इस जहाँ में धरम नहीं आते

कोइ अपना ही बेवफ़ा होगा

यूँ ही आँगन में बम नहीं आते

- रचनाकार धर्मेंद्र कुमार सिं

चलो गंगा में फिर मुझको बहा दो ।

उजालों की ये सब बकबक बुझा दो
मुझे लोरी सुना कर माँ सुला दो

तुम्हे हम धूप सा माने हुए हैं
मेरे मन का ये अँधेरा मिटा दो

दिया हूँ मैं दुआ के वास्ते तुम,
चलो गंगा में फिर मुझको बहा दो ।

खुशी गम होश बेहोशी सभी हैं,
चलो जीवन से अब जलसा उठा दो ।

ये पानी है तसव्वुर का जो ठहरा,
तुम अपनी याद का कंकर गिरा दो ।

रहे क़ायम रवायत ये दुआ की,
मेरी ऐसी दुआ है, सब दुआ दो ।

तुम्हारी याद की बस्ती में हूँ फिर,
मुसाफिर मान कर पानी पिला दो ।

लो इसकी आंच कम होने लगी है,
ये आतिश एक मसला है, हवा दो ।

यूनिकवि: स्वप्निल आतिश

तो हर दिन यारो होली है !

रंग गुलाल लिये कर में निकली मतवाली टोली है
ढोल की थाप पे पाँव उठे औ गूँज उठी फिर ’होली है’

कहीं फाग की तानें छिड़ती हैं कहीं धूम मची है रसिया की

गोरी के मुख से गाली भी लगती आज मीठी बोली है

बादल भी लाल गुलाल हुआ उड़ते अबीर की छटा देख

धरती पे रंगों की नदियाँ अंबर में सजी रंगोली है

रंगों ने कलुष जरा धोया जो रोक रहा था प्रेम-मिलन
मन मिलकर एकाकार हुये, प्राणों में मिसरी घोली है

सबके चेहरे इकरूप हुये, ’अजय’ न भेद रहा कोई
यूँ सारे अंतर मिट जायें तो हर दिन यारो होली है ।

ब्रजबासिन संग जो होरि मनाहि !

ब्रज की होरी का आनंद, उसमें छुपी ब्रज की संस्‍कृति, जो आज भी युगों से राधा-कृष्‍ण के निश्‍छल प्रेम की अनुपम सौगात है। उसी होली को समर्पित छंदात्मक शैली में गोपाल कृष्ण भट्ट 'आकुल' की यह मौलिक रचना आप सभी के लिए प्रस्तुत है। सभी लोगों ने इस शैली की कविताएँ अपने पाठ्यक्रम में पढ़ी होंगी, फिर भी यदि किसी शब्द, किसी छंद का भावार्थ न समझ में आये तो टिप्पणी में पूछ लें, आकुल समाधान लेकर हाज़िर रहेंगे।


भोर भई खग नीड़ सूं छूटे
भयो कलरव कहीं टेर सुनायो.
होरि है आज भई सिहरन
अंग-अंग पुलकित मन-मन लहरायो. (1)

मन सौं न हटै, दृगअन में बसै
मनमोहिनी सूरत श्‍याम दुलारे.
कब कौन घड़ी पट थाप पड़ै
नहीं सूझ पड़ै, नहीं काज संवारे. (2)

बरजोरी करेंगी सखिअन सब
कहनो ही पड़ैगो बात बनाहि्.
पहलो रंग श्‍याम पड़ै अंग-अंग
यही श्‍याम सौं, होरि पे सौंह है खाहि.(3)

सब काज धरे, कल नाहीं पड़ै
कछु आहट पे दृग द्वारहि जाहि.
ओट सूं देखि, न श्‍याम हते
नहीं सखिअन टोली, सबै भरमाहि. (4)

देर भई कहीं बात न जाय
नाहिं सखिअन गईं, नाहि सखिअन आहि.
कहीं कोइ सखि आय तो, भेजूं संदेश मैं
श्‍याम कूं, कि कैसेहि, लाय बुलाहि. (5)

पहलो पग आंगन भी न पड्यो
रंग-रंग सौं भर्यो, जाहिं देखो सब ताहिं.
मातु, जनक हरसे मोहि देख के
का न खेलुं, सखिअन संग जाहि. (6)

कोई है पत्‍यो, ये अंग है रच्‍यो
रंग मन में बस्‍यो, बस तन है बच्‍यो.
बस एक बेर नैनन से रंगूं
नैनन से कहूं, हिय जाय खिंच्‍यो.(7)

सैं भोर कहि, आवन रसिया
रंग रसिक शिरोमणि, अजहूं न आये.
अब धूप चुभे, कल नाहिं छुपे
थके नैन बिकल, कहूं आये न आये.(8)

आई टोलि सखिन, बरजोरि करी
मैं नायं करी, सौंह याद कराहि.
जाओ सखि कहो, ब्रजसुंदर सौं
कैसेहि पिंड, छुड़ावन आहि.(9)

चल बृषभानुजा, खेलहि होरि
चढ्यो दिन कब तक, बाट निहारहि.
नाहि पड़ी निर्मोहि श्‍यामहि
ज्‍यों तू टक-टक, नैन निहारहि.(10)

ज्‍यों ‘आकुल’ मैं, श्‍यामहि ‘आकुल’
होंगे सखि कछु और निहारहि.
जाओ तुमहि, भजि कै दैखो
सखि श्‍याम तो नाहिं फंसे, कित माहि.(11)

ललिता सखिअन, सब कूं सौं है जो
एक भी बूंद, कै रंग लगाहि.
सौं लीनी मैं, रंग रसिया सूं
पहल करूं फिर, गाम समाहि.(12)

होरि है, होरि है तान पड़ी
कानन सखिअन सब, चीस के नाहि.
देख गवाख मुंडेरन द्वारहि
शयाम को टोला तो, आवहि नाहि.(13)

झांई पड़ी, जो अबीर छटी
घनश्‍याम घिरे, ब्रजबासिन माहि.
राह बने नहिं, घिरि-घिरि सब जन
पोतहि रंग-बिरंगे श्‍यामहि.(14)

टीस पड़ी सखि कौनहु अंग
बच्‍यो बे रंग कैं, रंग समाहि.
जा सखि बोल, बचा मैं राख्‍यो
हिय ‘आकुल’ पर, अब कब ताहिं.(15)

देख बिकल, नैनन अंसुअन, सखि
दौड़ि सबै पट, खोल किवारहि.
भागि ज्‍यूं पवन चले, बरखा ऋतु
टीस सूं भर हिय, कौन दिशा रहि.(16)

बेग सूं टोला, भर्यो सखिअन
सब ब्रजबासिन के बीच में जाहि.
कैसो सिंगार रच्‍यो है निसर्ग कि
ग्‍वाल बाल सब, सखिअन माहि.(17)

सखिअन पोति, ग्‍वाल लिपटाहि सब
ग्‍वाल के होश है, राखि बिगाड़हि.
श्‍यामहि राह करी, करि सैन सूं
बात कहि, कोउ बाट निहारहि.(18)

रंगरेली रंग देखि के कामत
आन पड़े सब, बीचन माहि.
श्‍याम चले ढक पीताम्‍बर
इक ग्‍वाल के माथे पे, डार के नाहि.(19)

कह ‘आकुल’ सब द्वार खुले
दस दिशा खुली, जो दृश्‍य दिख्‍यो.
भरि-भरि अंग-अंग रंग-रंग में रच्‍यो
संग-संग सब ब्रज, हरसाय खिल्‍यो.(20)

छिपे कहां घनश्‍याम घनन
वृषभानुजा ओट छिपे सकुचाहि.
ढूंढ सकौ तो ढूंढ लो आवन
बैठि पलक पल नैन बिछाहि.(21)

ओट सूं देखहि श्‍याम बिकल
हिय हाथ में आय पड्यो अब नाहि.
’श्‍याम’ कहि, निक ध्‍यान बटायो
दौड़ पड़ि, घनश्‍याम सराहि.(22)

ठिठक निअर खड़ि, श्‍याम निहारन
लागि तबहि, नैनन भर आहि.
हाथ उठैं, जैसे हि रंग ले वहिं
श्‍याम ने करि, बरजोरि उठाहिं.(23)

बाहु मैं लै कसि, लाल कपोल
गुलाबी करे, तब भींच के नाहिं.
तन स्‍वेद भर्यो, मन भेद भर्यो
रंग सेज कर्यो, रंगरेज की नाहिं.(24)

‘होरि’ है टोला घुस्‍यो, घर गूंज्‍यो
मृदंग, ढप, झांझ की ताल सुनाहि.
हर ग्‍वाल बन्‍यो, एक श्‍याम सुंदर
हर सखी खड़ी, राधा बन आहि.(25)

गोकुल, बिंदावन, बरसाने वा
नंद के गाम की होरी मनाहि.
आज भी रेणु अबीर बने
जमुना जल की रंगरोरी बनाहि.(26)

कह ‘आकुल’ महारास रच्‍यो
ब्रजबासिन संग जो होरि मनाहि.
आज भी प्रेम के पथिक कहें
ब्रज की हर नारि में राधा समाहि.(27)

होली के कई रंग (छोटी कविताएँ और क्षणिकाएँ)

गुलाल की छींटें
जो बिखराए थे कभी राहों में
मेरा फागुन
आज भी महका जाती हैं
छूती हैं हौले से मुझे
मन चन्दन हो जाता है
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सामने थाल में हो जब
बर्फी, गुझिया रसीले
तो मीठी है होली
पर हो जब उसमें
भूख, बेबसी, गरीबी
तो कहो कैसी है होली?
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रंग तुम्हारे
चुपचाप मेरे जीवन में
चले आते हैं
बेनूर चूनर पर
बरस
मुझ में समा जाते हैं
मै सतरंगी हो जाती हूँ

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रंग पर चढ़ के
शब्द तुम्हारे
गलियारे में उधम मचाते हैं
रात डेवड़ी पर
औंधेमुँह सो जाते हैं
फींके सपने मेरे
इन्द्रधनुषी हो जाते हैं
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बचा सबकी नज़र
मुझ पर फेंका
प्रेम रंग
उस का अभ्रक
चुभता है आज भी आँखों में
हर होली आँखें बरस जाती हैं
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पकवानों की मेज पर
कहकहों की भीड़ में
उन मासूम हाथों ने कुछ माँगा
झिड़कियां, दुत्कार, फफ्तियाँ
सभ्य लोगों की सभ्यता
कुछ यूँ मिली उसको
नौकर ने हाथ पकड़
बाहर का रास्ता दिखलाया
वो सहमी टुकुर-टुकुर देखती रही
महक से ही पेट भरती रही
यहाँ रंग और भंग का
खेल चलता रहा
वो भूख के अंधियारों में भटकती रही
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होली की मस्ती में
खेला खूब रंग
उधड़ी त्वचा बाल गिरा
आँखें हो गईं लाल
टेसू के रंग नहीं
रसायनिक हैं अबीर गुलाल
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महँगाई की मार
गरीबों के रसोई पर पड़ती है
इनके घर
गुझिया कहाँ तलती है
रंग है नहीं
तो कीचड़ से चलते हैं काम
सोचती हूँ
क्या त्यौहार में भी नहीं आते हैं
इनके घर भगवान
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बुराई जली
प्रह्‌लाद बचा
तो होली का रंग सजा
आज चहुँओर है
होलिका का राज
कोने में जल रहा प्रह्‌लाद
फिर कैसी होली है आज

रचना श्रीवास्तव

तब समझना कि यार होली है !

गुरु देव पंकज जी ने अपनी ग़ज़लों की कक्षा में एक होम वर्क दिया था.तभी "होली" काफिये पर ये ग़ज़ल लिखी थी.उस काफिये पर बहुत से सहपाठियों ने बहुत उम्दा रचनाएँ लिखीं. उम्मीद करता हूँ कि मेरा प्रयास भी शायद पसंद आए.

प्यार जिनके लिए ठिठोली है
सोच उनकी हुजूर पोली है

बर्फ रिश्तों से जब पिघल जाए
तब समझना की यार होली है

याद का यूँ नशा चढ़े तेरी
भंग की ज्यूँ चढाई गोली है

गुफ्तगू का मज़ा कहाँ प्यारे
बात गर सोच सोच बोली है

मस्तियां देख कर नहीं आतीं
ये महल है कि कोई खोली है

बोल कर झूट ना बचा कोई
सोच मेरी जनाब भोली है

आप उस पर यकीन मत करना
वो सियासत पसंद टोली है

खूब रब ने दिया तुझे नीरज
दिल मगर क्यों बिछाए झोली है

- कवि कुलवंत सिंह

किससे खेलूँ होली रे !

वैसे तो होली जा चुकी है..लेकिन रंग अभी भी चढ़े हुए हैं...

पी हैं बसे परदेश,

मै किससे खेलूँ होली रे !

रंग हैं चोखे पास

पास नही हमजोली रे !
पी हैं बसे परदेश,
मै किससे खेलूँ होली रे !

देवर ने लगाया गुलाल,

मै बन गई भोली रे !
पी हैं बसे परदेश,
मै किससे खेलूँ होली रे !

ननद ने मारी पिचकारी,

भीगी मेरी चोली रे !
पी हैं बसे परदेश,
मै किससे खेलूँ होली रे !

जेठानी ने पिलाई भाँग,

कभी हंसी कभी रो दी रे !
पी हैं बसे परदेश,
मै किससे खेलूँ होली रे !

सास नही थी कुछ कम,

की उसने खूब ठिठोली रे !
पी हैं बसे परदेश,
मै किससे खेलूँ होली रे !

देवरानी ने की जो चुहल

अंगिया मेरी खोली रे !
पी हैं बसे परदेश,
मै किससे खेलूँ होली रे !

बेसुध हो मै भंग में

नन्दोई को पी बोली रे !
पी हैं बसे परदेश,
मै किससे खेलूँ होली रे !

- कवि कुलवंत सिंह

दोहा गाथा सनातन गोष्ठी ८ दोहा है रस-खान !

होली रस का पर्व है, दोहा है रस-खान.
भाव-शिल्प को घोंट कर, कर दोहा-पय-पान.

भाव रंग अद्भुत छटा, ज्यों गोरी का रूप.
पिचकारी ले शिल्प की, निखरे रूप अनूप.

प्रतिस्पर्धी हैं नहीं, भिन्न न इनको मान.
पूरक और अभिन्न हैं, भाव-शिल्प गुण-गान.

रवि-शशि अगर न संग हों, कैसे हों दिन-रैन?
भाव-शिल्प को जानिए, काव्य-पुरुष के नैन.

पुरुष-प्रकृति हों अलग तो, मिट जाता उल्लास.
भाव-शिल्प हों साथ तो, हर पल हो मधु मास.

मन मेंरा झकझोरकर, छेड़े कोई राग.
अल्हड लाया रंग रे!, गाये मनहर फाग

महकी-महकी हवा है, बहकी-बहकी ढोल.
चहके जी बस में नहीं, खोल न दे, यह पोल.

कहे बिन कहे अनकहा, दोहा मनु का पत्र.
कई दुलारे लाल हैं, यत्र-तत्र-सर्वत्र.

सुनिये श्रोता मगन हो, दोहा सम्मुख आज।
चतुरा रायप्रवीन की, रख ली जिसने लाज॥

बिनटी रायप्रवीन की, सुनिये शाह सुजान।
जूठी पातर भखत हैं, बारी बायस स्वान॥

रसगुल्‍ले जैसा लगा, दोहे का यह पाठ ।
सटसट उतरा मगज में, हुए धन्य, हैं ठाठ ॥

दोहा के दोनों पदों के अंत में एक ही अक्षर तथा दीर्घ-लघु मात्रा अनिवार्य है.

उत्तम है इस बार का,
२ १ १ २ १ १ २ १ २ = १३
दोहा गाथा सात |
२ २ २ २ २ १ = ११
आस यही आचार्य से
२ १ २ १ २ २ १ २ = १३
रहें बताते बात |
१ २ १ २ २ २ १ = ११

सीमा मनु पूजा सुलभ, अजित तपन अवनीश.
रवि को रंग-अबीर से, 'सलिल' रंगे जगदीश.

चलते-चलते फिर एक सच्चा किस्सा-

अंग्रेजी में एक कहावत है 'power corrupts, absolute power corrupts absolutely' अर्थात सत्ता भ्रष्ट करती है तो निरंकुश सत्ता पूर्णतः भ्रष्ट करती है, भावार्थ- 'प्रभुता पाहि काहि मद नाहीं' .
घटना तब की है जब मुग़ल सम्राट अकबर का सितारा बुलंदी पर था. भारत का एकछत्र सम्राट बनाने की महत्वाकांक्षा तथा हर बेशकीमती-लाजवाब चीज़ को अपने पास रखने की उसकी हवस हर सुन्दर स्त्री को अपने हरम में लाने का नशा बनकर उसके सिर पर स्वर थी. दरबारी उसे निरंतर उकसाते रहते और वह अपने सैन्य बल से मनमानी करता रहता.
गोंडवाना पर उन दिनों महारानी दुर्गावती अपने अल्प वयस्क पुत्र की अभिभावक बनकर शासन कर रही थीं. उनकी सुन्दरता, वीरता, लोकप्रियता, शासन कुशलता तथा सम्पन्नता की चर्चा चतुर्दिक थी. महारानी का चतुर दीवान अधार सिंह कायस्थ तथा सफ़ेद हाथी 'एरावत' अकबर की आँख में कांटे की तरह गड रहे थे क्योंकि अधार सिंग के कारण राज्य में शासन व्यवस्था व सम्रद्धता थी और यह लोक मान्यता थी की जहाँ सफ़ेद हाथी होता है वहाँ लक्ष्मी वास करती है. अकबर ने रानी के पास सन्देश भेजा-

अपनी सीमाँ राज की, अमल करो फरमान.
भेजो नाग सुवेत सो, अरु अधार दीवान.

मरता क्या न करता... रानी ने अधार सिंह को दिल्ली भेजा. अधार सिंह की बुद्धि की परख करने के लिए अकबर ने एक चाल चली. मुग़ल दरबार में जाने पर अधार सिंह ने देखा कि सिंहासन खाली था. दरबार में कोर्निश (झुककर सलाम) न करना बेअदबी होती जिसे गुस्ताखी मानकर उन्हें सजा दी जाती. खाली सिंहासन को कोर्निश करते तो हँसी के पात्र बनाते कि इतनी भी अक्ल नहीं है कि सलाम बादशाह सलामत को किया जाता है गद्दी को नहीं. अधार सिंह धर्म संकट में फँस गये, उन्होंने अपने कुलदेव चित्रगुप्त जी का स्मरण कर इस संकट से उबारने की प्रार्थना करते हुए चारों और देखा. अकस्मात् उनके मन में बिजली सी कौंधी और उन्होंने दरबारियों के बीच छिपकर बैठे बादशाह अकबर को कोर्निश की. सारे दरबारी और खुद अकबर आश्चर्य में थे कि वेश बदले हुए अकबर की पहचान कैसे हुई? झेंपते हुए बादशाह खडा होकर अपनी गद्दी पर आसीन हुआ और अधार से पूछा ki उसने बादशाह को कैसे पहचाना?

अधार सिंह ने विनम्रता से उत्तर दिया कि जंगल में जिस तरह शेर के न दिखने पर अन्य जानवरों के हाव-भाव से उसका पता लगाया जाता है क्योंकि हर जानवर शेर से सतर्क होकर बचने के लिए उस पर निगाह रखता है. इसी आधार पर उन्होंने बादशाह को पहचान लिया चूकि हर दरबारी उन पर नज़र रखे था कि वे कब क्या करते हैं? अधार सिंह की बुद्धिमानी के कारण अकबर ने नकली उदारता दिखाते हुए कुछ माँगने और अपने दरबार में रहने को कहा. अधार सिंह अपने देश और महारानी दुर्गावती पर प्राण निछावर करते थे. वे अकबर के दरबार में रहते तो जीवन का अर्थ न रहता, मन करते तो बादशाह रुष्ट होकर दंड देता. उन्होंने पुनः चतुराई से बादशाह द्वारा कुछ माँगने के हुक्म की तामील करते हुए अपने देश लौट जाने की अनुमति माँग ली. अकबर रोकता तो वह अपने कॉल से फिरने के कारण निंदा का पात्र बनता. अतः, उसने अधार सिंह को जाने तो दिया किन्तु बाद में अपने सिपहसालार को गोंडवाना पर हमला करने का हुक्म दे दिया. दोहा बादशाह के सैन्य बल का वर्णन करते हुए कहता है-

कै लख रन मां मुग़लवा, कै लख वीर पठान?
कै लख साजे पारधी, रे दिल्ली सुलतान?

इक लख रन मां मुगलवा, दुई लख वीर पठान.
तिन लख साजे पारधी, रे दिल्ली सुलतान.

असाधारण बहादुरी से लम्बे समय तक लड़ने के बाद भी अपने देवर की गद्दारी का कारण अंततः महारानी दुर्गावती, अधार सिंह तथा अन्य वीर अपने देश और आजादी पर शहीद हो गये. मुग़ल सेना ने राज्य को लूट लिया. भागते हुए लोगों और औरतों तक को नहीं बख्शा. महारानी का नाम लेना भी गुनाह हो गया. जनगण ने अपनी लोकमाता को श्रद्धांजलि देने का एक अनूठा उपाय निकाल लिया. दुर्गावती की समाधि के रूप में सफ़ेद पत्थर एकत्र कर ढेर लगा दिया गया, जो भी वहाँ से गुजरता वह आस-पास से एक सफ़ेद कंकर उठाकर समाधि पर चढा देता. स्वतंत्रता सत्याग्रह के समय भी इस परंपरा का पालन कर आजादी के लिए संग्घर्ष करने का संकल्प किया जाता रहा. दोहा आज भी दुर्गावती, अधार सिंह और आजादी के दीवानों की याद दिल में बसाये है-

ठाँव बरेला आइये, जित रानी की ठौर.
हाथ जोर ठंडे रहें, फरकन लगे बखौर.

अर्थात यदि आप बरेला गाँव में रानी की समाधि पर हाथ जोड़कर श्रद्धाभाव से खड़े हों तो उनकी वीर गाथा सुनकर आपकी भुजाएं फड़कने लगती हैं. अस्तु... वीरांगना को महिला दिवस पर याद न किये जाने की कमी पूरी करते हुए आज दोहा-गाथा उन्हें प्रणाम कर धन्य है.

शेष फिर...

धरा का हो गया तन-मन लाल !

पंछी करें टीका
अम्बर भाल
धरा का हो गया तन-मन लाल
फागुन की
अँगुलियों में
सजा गीतों का छल्ला
नीले पीले
रंग चले
मचाते हुए हो हल्ला
ईद मिल होली से पूछे हाल
धरा का हो गया तन-मन लाल
रंगों भरी
चादर हटा
गुनगुनी धूप झांके
गुलाबी ठण्ड
थाम के चुनर
गलियों गलियों भागे
टेसू खिले हर बाग हर डाल
धरा का हो गया तन-मन लाल
गोरी की
हँसुली टूटी
नील पड़ा था हाथ
सजना की
ठिठोली हुई
पांव फिसला था हाट
लज्जावश हुए सुर्ख उसके गाल
धरा का हो गया तन-मन लाल
पापड़ चिप्स
छज्जे फैले
ताके बैठा कौवा
घर में
गुझिया चहक रही
बाग भटक रहा महुआ
ठंढाई पीके बदली चाल
धरा का हो गया तन-मन लाल

- रचना श्रीवास्तव

हे पुरुष !

हरसिंगार के फूलों से
आँगन में झरते हैं सपने
उनको समेटने में
कितना बिखरते हो तुम
नौकरी पर
अवहेलना और चुनौतियों का लावा
अंदर जज्ब करके
सुषुप्त ज्वालामुखी की तरह
शान्त सुलगते हो तुम
ममता की गुहार ,
और प्रेम की तकरार
के बीच
बेवख्त आये मेहमान की तरह
उपेक्षित होते हो तुम
अपनों में खिलते
उम्मीद के फूलों को
सीचने के लिए
श्रम की बूंदों में
पिघलते हो तुम
घर की धारा में बहते
चट्टानों से टकराते हो
पर बड़े होते बच्चों से
जब कुछ कहते हो
भिखारी के गीत की तरह
सुने जाते हो तुम
फिर भी प्रेम की चांदनी
आँगन में उतारने को
चौखट की हवा सवारने को
गुलमोहर सा
मुस्कुराते हो तुम

(कवियत्री-रचना श्रीवास्तव)

Monday, March 28, 2011

धूल, धूप, दोपहर !

प्रस्तुत कविता सनी कुमार की है। अपने बारे में बताते हुए ये कहते हैं कि नाम सनी है(जिससे आप लोगों का पहले ही तार्रुफ़ है)। पढ़ाई के नाम पे इग्नू से बी।ए का फॉर्म भर दिया है। ऐसा शायद इसलिए कहना पड़ रहा क्योंकि कॉलेज(रेगुलर) में फेल हुआ, तो कॉलेज छोड़ दिया था। उर्दू ज़ुबान के प्रति लगाव था, सो इसी साल उर्दू में डिप्लोमा(मज़ाक़-मज़ाक़ में) मुक्कमल कर लिया। बारिश में फुटबाल खेलना और भीगना पसंद है। ख़ाली वक़्त में कभी-कभार शतरंज(ग़लती से बचपन में एक दोस्त से सीख लिया था) खेल लेता हूँ। दिल्ली में ही पला-बढ़ा हूँ और पढ़ (हिंदी साहित्य पढने का शौक़ है मुझे) रहा हूँ। मालवीय नगर के एक मोहल्ले (जिसे लोग झुग्गी कहते है) में रहता हूँ। फिलहाल इस कमजात परिचय से ही काम चलाइये। फोटो (जिसमें मेरी शक्लोसूरत थोड़ी सी ठीकठाक हो) कभी आगे भेज दूँगा।
ईमेल- halfmoon_sunny@yahoo.इन

जल रहीं हैं दोपहरें
तवे-सी तप रहीं हैं सड़कें भी
खौल रहें हैं बी.आर.टी. बस स्टैंड
दिल्ली सरकार के

हवा धूल चखाती चल रही है

इसी नंगी धूप वो में आदमी बेंचता है
धूप के चश्मे
पसीने में तर एक लड़का लग रहा है आवाजें---
"रुमाल ले लो... रुमाल"

यहीं पे बैठा है मोची भी
अपनी छतरी को सूरज की तरफ़ करके
मुँह में बीड़ी दबाए हुए
धुँए से ज़्यादा धूल फाँक रहा है

भगवान जाने सूरज बाबा से
क्या डील हुई है इनकी


गाड़ियों के इंजन आग उगलते चल रहे हैं
जितनी महँगी गाड़ी
उतनी गर्म हवा...

मंटो ने लिखा है कहीं
"बम्बई में इतनी शदीद बारिश पड़ती है कि
आप की हड्डियाँ तक भिगो दे"
दिल्ली की गर्मी आपकी हड्डियाँ तो नहीं पिघलाती
आपकी चमड़ी से धुँआ ज़रूर उठा देती है...

भंवे सिकुड़ आईं हैं
चेहरे चिलचिलाये हुए हैं
लड़कियों की बगलें
और औरतों के ब्लाउज पसीने से परेशान हैं

सूरज आसमान पर नहीं
सब के चेहरे पे उग आया है जैसे
हलक़ में काँटे भी चुभ रहे हैं या यूँ कहूँ कि जैसे
मधुमक्खी ने डंक मारा हो

ब्लू लाइन बस का कंडक्टर
खा के गुटखा
छोड़ रहा है भभका
वो लड़की मुँह बिचकाती है
और दूर जाके खड़ी हो जाती है
बस पीटते हुए कंडक्टर
कान पे चिल्ला रहा सबके---
"आई.टी.ओ...आई.टी.ओ...मटरो...दिल्ली गेट...ऐ बस अड्डा..बस अड्डा..
बैठो.. ऐ आओ..आओ..आओ बस अड्डे वाले...

बस आ रहीं है लाल वाली
ए.सी. वाली है
चढ़ रहे है वो
जिनकी थोड़ा पैसा है जेब में
उतर रहें है दुगनी तेज़ी से
क्यूँकि ए.सी. बस का
ए.सी. ख़राब है

इसी बीच गुज़र रहा
दिल्ली जल बोर्ड का टैंकर
जीभ चिढ़ता हुआ...
पानी बिखेरता हुआ...

मुआवज़े !

मुआवजा ...
हाँ ठीक सुना तुमने
मुझे मुआवजा चाहिए
मुझे मुआवजा दो...
म्में...म्में...
मैं चीख़ रहा हूँ
चिल्ला रहा हूँ
हाँ.. हाँ मैं चिल्ला रहा हूँ
चीख़ रहा हूँ
मेरे गले की नसें
चटख कर
ढीली पड़ने से पहले तक
मैं चीखता रहूँगा
मेरी आँखों में उतर आया
ख़ून
बहने
टपकने
क्यों न लगे
मैं उसके बाद तलक चिल्लाता रहूँगा ...
मुआवजा बांटने का
बड़ा शौक़ है न तुम्हे
अब देते क्यों नही मुझे मुआवजा...!

रेल या बस दुर्घटना...
सड़क या कोई और दुर्घटना..
या किसी फर्जी मुठभेड़ में..
किसी जहरीले गैस काण्ड में...
नहीं...नहीं..शायद किसी
आतंकी या नक्सली हमले में..
या फिर किसी अंधी भीड़ ने ही..
पता नहीं ..?
मुझे ठीक से याद भी नहीं
इसलिए कि वक़्त मुझे बूढ़ा करके गुज़र गया...

लेकिन, अपनी लिजलिजी और झुर्रीदार
छाती ठोक कर कहता हूँ ..
मेरे बेटे की मौत मुआवज़े लायक है
इनमें से किसी एक में मेरा बेटा मर-खप गया..
दे दो हरामखोरों...
जिससे अपनी बेटी की शादी करा सकूं..

- सनी कुमार

बेलें !

ठूंठ था
नामालूम क्या नाम था उसका
खोखले से जिस्म से
अपनी उचटती हुई
सूखी छालें
टपकाया करता था
तेज़ हवाओं में


उन गुलाबी फूलों वाली

बेलों को
पता ही न चला
बस लिपटती चली आई
इस खोखले से जिस्म पे
लम्हा-लम्हा करके शरारती बेलें----
कभी छेडती उसके खुरदरे से
बदन को गुदगुदा के

और कभी ---

सुन लेती सारी दस्तानें उसकी
सहलाकर उसके जिस्म को
बड़ा खुश-खुश सा दिखता था
बेलों की बुनी
शॉल ओढ़कर वो

उस गली के कोठीवालों ने

कटवा दिया उसे

उस रोज़ बहुत रोया वो

ठूंठ पेड़
आखिर क्यूँ काटी जा रही हैं
गुलाबी फूलों वाली बेलें भी ??

-सनी कुमार

Saturday, March 26, 2011

कुछ भूलें कुछ याद रहा...

" सूरज चांद सितारे मेरे साथ में रहे
जब तक तेरे हाथ मेरे हाथ में रहे
शाख से टूट जाएं वो पत्ते नहीं हैं हम
आंधियों से कह दो औकात में रहे "

तुम होते तो...

सपनों के महल में हम भी रहतें
चलते आसमान में
सितारों के पदचाप के साथ
हम भी मिलातें सुरताल
देखतें,
इस झिलमिल दुनिया को
अगर तुम होते...
और ही होता मेरे बहकने का अंदाज़
ज़ुबां पर यूं न पसरा होता सन्नाटा
चीरते हुए जो हर शोर को
आज दे रहा है यूं चुनौति
काश...
कि तुम होते
दुलारते,
मुझे पुचकारते
तो शायद मैं यूं ढीढ न होती
अक्खड़
जैसे पठार खड़ा हो
तूफान, बरसात
बदरंग कर देने वाले
थपेड़ों के बावजूद
निडर, निष्ठुर
न ख़ुशी में ख़ुशी
न ग़म में ग़म
काश कि तुम होते
मेरी आंखों से आंसू तो छलक गए होते...

ग्लैमर !!

कितना डराता है तुम्हे

तुम्हारा चेहरा???

जब तुम उतार देती हो

रंग-रोगन

चेहरे पर बन आए उस निशान को देखकर

क्या किलस उठती हो तुम...

जिसे झुर्रियां कहते हैं???

शायद दुख से भर जाती हो तुम

इसलिए आंख के तुरंत नीचे

उग आया है काला धब्बा

और कई बार कपाल पर दिखती हैं सिलवटें

दुबली होने का और कितना प्रयत्न करोगी तुम

खुद को बिना साज-सज्जा के

पहचान पाती हो तुम???

बड़ बड़ बड़ बड़ तुम्हारे होंठ

उफ्फ

सुंदर जुल्फों का राज

लोगों को बताओगी कभी???

कितना भ्रम फैलाया है तुमने,

कितनी-कितनी युवती-किशोरी रोज ही देखती है सपने

तुम्हारे जैसा होने का...

तुम कभी आओगी उस मंच पर

जहां से बयां होगा सिर्फ सच

उसे सुनेंगे तुम्हारे बच्चे भी

जो तबतक बड़े हो गए होंगे

लेकिन याद होगा उसे उसका पूरा बचपन

कह पाओगी कभी अपनी व्यथा

या फिर उसे भी ढाप दोगी किसी गाढ़े रंग से

जैसे ढाप देती हो आंखों के नीचे पड़े गढ्ढे को..

या फिर उगल दोगी सच

खत्म करोगी द्वंद

स्त्री, जागो

वस्तु मत बने रहो

वो तो तुम पहले भी थी

फिर आज क्या बदला तुमने ?

मैं बैल हांकूंगा !

बाबू!
यहां मन नहीं लगता
ओझल हो रहा है सबकुछ
बाबू...
बस! बस!
यहां मन नहीं लगता
चलो, चलो...
ये जगमग चांद सितारे नहीं बाबू
मुझे मद्दिम सी डिबिया में रहना है
यहां नहीं बाबू
यहां मन नहीं लगता
चिकनी जुबान, चिकने लोग, चिकना फर्श
मेरा पैर फिसलता है बाबू!
यहां नहीं दोस्त मेरे
मुझे बुद्धू बिल्लू के पास जाना है
नहीं, नहीं बाबू
यहां ना छोडे जाओ
इस शहर में मेरा दम घुटता है
हर कोई तमीज से बोलता है यहां
बाबू यहां मेरा घर नहीं
मुझे घर जाना है
मुझसे न होगी चाकरी
बैल जैसा न होना बाबू
मैं खेतों में बैल हांकूंगा
बस बाबू बस!
मुझे घर जाना है
यहां मेरा घर नहीं

तुम आओगे दोस्त ?

चंद लफ़्ज अब भी है मेरे पास
तुम आओं तो कहूं...
आओ न एक बार
मिलकर बैठें
वैसे ही...
सच पर डालकर पर्दा
देखें सपने जैसा कुछ-कुछ
तुम्हे याद है
क्या-क्या हम सोचा करते थें
देखते-देखते सच हो गए सारे
और हकीकत गुम गया
आओ न!
बैठें,
बातें करें...
शायद दूर हो जाए भ्रम
इस बात का,
कि सपनों के पीछे भागना सच नहीं है
बड़ी कसक है दोस्त...
खैर छोड़ो...
तुम्हें याद है
जब तुमने फोन पर कहा था
जान, कैसे आउं
पैसे खत्म हो गए हैं
फिर तुमने कहा
आने का मन भी है
क्या करूं?
और तुम आ गए थे न
पैसे उधार मांगे थे दोस्त ?
अब तो अपनी गाड़ी भी है तुम्हारे पास
फिर क्यों नहीं आते
आओ न एक बार
चंद लमहें उधार लेकर...

कुछ तो बोलो दोस्त !

जैसे कि सबकुछ पहले से तय था
एक- एक पात्र ने जैसे रटा हुआ था...
अपना-अपना संवाद
अपना-अपना किरदार
साफगोई से...
पूरे वक्त पर, सबने निभाई थी अपनी जिम्मेदारी
पूरे अदद से
अदना-कदना, औने-पौने सबने
हां, सबने तकरीबन छीले थे मेरे ज़ख्म
जैसे कि नीयति का साथ देने के लिए बाध्य हों सबके सब
जैसे कि तय था रामायण का घटित होना
राम का वनवास, सीता का धरति में समाहित हो जाना
तय था केतकि का जिद्द करना...
जनक का पुत्रमोह भी तय था
और शायद तय था श्रवण कुमार का मातृ-पितृ सेवा में विघ्न होना
लेकिन ये कौन है जो यूं खेल रहा है
शतरंज जिंदगी का?
पहले से ही क्यों तय होती हैं चीजें?
और अगर तय ही होता है सबकुछ
तो फिर ये भ्रम कौन फैलाता है...
कि करो-करो कर्म करो...
फल मिलेगा...
ये कौन सा कर्म है जो पहले से तय नहीं होता?
बताओ कोई, मैं उधेड़बून में हूं

नंगे पांव मेरा दोस्त !

पीले रंग की बुशर्ट
और पीले रंग की पैंट
'गरीब'
भूखा, नंगा गरीब
ये आम राय थी लोगों की
लेकिन मेरा दोस्त नंगा नहीं था
ताकिद!
सिर्फ उसके पांव नंगे थे...
वो नंगा नहीं था,
परिस्थितियां थीं जो नंगी थीं,
और नंगा था उसका समाज
जो उसके ईर्द-गिर्द खड़ा था...
जूते वालों का समाज
और इन सबके बीच...
नाचती,ठिठोली करती नंगी थी उसकी किस्मत
कह रहे थे लोग
कैसी किस्मत लेकर आया है...
दिल्ली की चिलचिलाती धूप में इसके पास जूते भी नहीं हैं...
देखो!
शायद देखने वालों ने ये नहीं देखा था
कैसे उसके बापू ने थामी थी उसकी उंगली
और उस भीड़ में कैसे कातर थी उसकी मां की नज़रें
जो लगातार उसके नंगे पांवो को निहार रही थी
कहीं किसी जूते से दब न जाए, इस खयाल में...
कैसे था बदकिस्मत मेरा दोस्त
कैसे था वो भूखा,नंगा गरीब
कैसै...
सिर्फ इसलिए कि उसने नहीं पहने थे
जूते?

चलो दोस्त...

एक सपना जल्दी से बुन लो
सुन लो अपने दिल की बात
ये तुम्हारा वक्त है
आगे बढ़ो, लपक लो
तुम ही होगे कल
हर जगह, हर शिखर पर
उठो, भागो...
कोई है जो तुम्हारा इंतजार कर रहा है
उसके लिए उठो
तुम उठोगे, तो वो दौड़ पड़ेंगे
उनके दौड़ने के लिए उठो
एक सपना खरीदो
सच करो उसको
किसी के लिए तो उठो यार
उठ जाओ...
खटखटाओ ना कोई दरवाजा
खुलेगा..
देखना, जरूर खुलेगा
हर बंद दरवाजे पर ताला नहीं लगा होता
उठो, चलो खोल दो...
उस दरवाजे को खोल दो
जिसके पार जाने का अधिकार सिर्फ तुमको है..
चलो दोस्त
चलते हैं...
आ जाओ....

क्रांति का सूर्य !

प्रस्तुत कविता अनिता निहलानी की है। अनिता की यह "हेरिटेज" पर प्रथम कविता है। उत्तर प्रदेश मे पली बढ़ी अनिता पिछले दो दशकों से असम मे निवास कर रही हैं। इन्होने गणित मे स्नातकोत्तर की उपाधि प्राप्त की है। कविताओं की तीन पुस्तकें प्रकाशित हुई हैं और पिछले कुछ समय से इंटरनेट पर लिखने मे सक्रियता भी बढ़ी है।

मैं विद्रोहिणी हूँ !
जो समाज के ढके छिपे व्यापारों को उजागर करना चाहती है
जिससे वह जी सकें, जो मौत की राह देख रहे हैं
मैं संस्कृति और सभ्यता के नाम पर ओढ़ी मानसिकता नहीं हूँ
बल्कि उन्हें कुरीतियाँ और अन्धविश्वास कहने का दुस्साहस !

मैं एक आवाज हूँ !
मानवता के (अमानवीय) ठेकेदारों के बंद कानों के लिये
एक आवाज कारखानों की, खदानों की, हलों-बैलों की
पत्थर तोड़ते मजदूरों की !

मैं मृत्यु हूँ !
तानाशाही दम्भ की, निर्दोषों के खून से सने हाथों की
मैंने सुखद और दुखद क्षण जिए हैं
एक गीत के जन्म और मृत्यु पर
ऐसी मृत्यु जो हजारों का जीवन है !

मेरे जीवित अस्तित्त्व का कोई प्रमाण हो न हो
पर मैं अमर हूँ,
घुमती हूँ बेरोकटोक
मृत्युदन्शी सन्नाटों में
जंगलों के बियाबानों में
क्योंकि मैं एक विश्वास हूँ,
लोलुप शासन के अंत होने का
मेहनतकश वर्ग के फलने फूलने का
जो स्पष्टीकरण चाहता है उनसे
जो सदा से उसके दावेदार रहे हैं
क्योंकि तभी एक नए सूर्य का उदय होगा
क्रांति का सूर्य !

शुभस्ते पंथान:

उसने कहा विनम्र बनो
मैं डरपोक हो गया.
उसने कहा संतोष बड़ा धन है
मैं आलसी और गरीब हो गया.
उसने कहा निडर रहो
मैं असभ्य हो गया.
जब निर्भय होने को कहा
मैं आक्रामक हो गया.
उसने सदा अस्मिता की बात की
मैं अहंकारी हो गया.
उसने कहा चुप रहना अच्छी बात है
मैं गूंगा हो गया.
जब खुल कर बोलने को कहा
मैं अमर्यादित हो गया.
उसने कहा स्पष्टवादी बनो
मैं दिल दुखाने लगा.
उसने समझदार बनाने की सलाह दी
मैं चतुर और चालाक बन गया.
उसने कहा द्रढ़ रहो
मैं जिद्दी हो गया.
उसने कहा काम आराम से करना चाहिए
मैं पूरा सो गया.
उसने कहा विफलता इतनी बुरी नहीं होती
मैंने प्रयास छोड़ दिए, विफलता की आदत डाल ली.
उसने कहा सांप मत बनना
मैं केंचुआ बन गया.
उसने अहिंसा को बड़ा गुण बताया
मैं पत्ता-गोभी बन गया.
उसने कहा भगवान् है
मैं निट्ठल्ला हो गया.
उसने कहा सब कुछ भगवान् थोड़े ही देखता है
मैं चोर बन गया.
वह कुछ कहता रहा
मैं कुछ बनता गया
मैं समझाने लगा
वह माना नहीं.
फिर मुझे भी गुस्सा आ गया
मुझे आदमी ही रहने दो
देवता क्यों बनाते हो
ये दुनियां किताबी बातों से नहीं चलती.
वह रुका और कहा-मैं तो खुद आदमी बनने की राह का पथिक हूँ
आपको देवता क्या बनाऊंगा?
आपने कुछ पूछा जरूर होगा
लेकिन कहा मैंने खुद से है
आपने सुन लिया होगा,
पर अमल तो मुझे करना है
आप जैसे भी हो, प्यारे हो
अपने हिसाब से इंसानियत की राह पर हो.
लेकिन यहाँ से मेरी राह जुदा होती हैं
चाहो तो साथ चलो, क्योंकि मंजिल तो एक ही है
अलग चले तो फिर मिलेंगे
साथ रहे तो साथ हैं ही.
विदा दोस्त! आपके साथ सफ़र बहुत अच्छा रहा
शुभस्ते पंथान:
और वह गुनगुनाता हुआ मुड़ गया.
मुझे जीत की इतनी खुशी नहीं हुई
जितना उसके बिछुड़ने का गम.
सोचा भी चल पडूँ उसी के साथ
या फिर पुकार लूं अपनी ही राह पर.
सोचता खड़ा रहा फिर चल पड़ा अपनी ही डगर.
कानों में अब भी उसकी गुनगुनाहट गूंजती है
जो कोई भजन नहीं था
एक फ़िल्मी गाना था
(ज्योति कलश छलके !!...शायद!)
कभी कभी उसकी याद बड़ी शिद्दत से आती है
उसकी बातें आँखों के सामने मुस्कुरातीं हैं
कभी कभी वह हमराह चलता दिखाई भी देता हैं
पर वो भरम है.
में अपनी बात पे कायम हूँ
उसकी पता नहीं क्या जिद है?
मेरी बला से!!

- अरविंद कुमार पुरोहित

मैं थक गई हूँ..

जब शाम को शांति दफ़्तर से घर पहुँची तो बहुत थक चुकी थी। वो बस खाना खा के सो जाना चाहती थी। अजय को भी आते-आते देर हो गई थी। शाम को एक साथ खाना खाने की योजना में लगातार कोई न कोई विघ्न पड़ता ही रहा है। इस शाम भी दोनों बच्चे शांति के आने के पहले ही खाना खाने का अनुष्ठान टीवी के सामने पूरा कर चुके थे। और मम्मी की किसी भी तरह की फटकार से अपने आप को सुरक्षित करके कल क्लासरूम में टीचर की फटकार से अपने को सुरक्षित करने के लिए होमवर्क करने में जुटे हुए थे। अजय के मन में एक बार आया कि खाने की मेज़ से उठकर एक बार मैच का स्कोर देख ले। फिर उसने शांति की ओर देखा। वो उसी की तरफ़ देख रही थी। लेकिन उन आँखों में आम तौर पर बसने वाली चपलता नहीं थी। वे बोझिल हो रही थीं। शांति ने कहा, बहुत थक गई हूँ..

चलो सो जाते हैं, कहते हुए अजय ने अपनी प्लेट वाशबेसिन तक पहुँचा दी। और फिर ब्रश करने बाथरूम चला गया। शांति ने भी अपनी प्लेट उठाई और वाश बेसिन में जाकर रख दी। वाश बेसिन में बर्तन गँजे पड़े थे। बहुत समझाने के बाद भी अजय और बच्चे प्लेट में जूठन छोड़ने की आदत में सुधार नहीं ला सके थे। बेसिन में पड़ी प्लेटों की जूठन उनकी चुगली कर रही थी। शांति ने एक-एक प्लेट से जूठन निकालकर बेसिन के नीचे रखी डस्टबिन में डाली। तमाम कचरा डस्टबिन से बाहर गिरा हुआ था। कल कचरा देते हुए किसी को इसे डब्बे में डालने का ख़्याल नहीं भी आ सकता है, यह सोचकर शांति ने उस कचरे को उसका उचित स्थान प्रदान किया। बच्चों ने सब्ज़ी निकालते हुए कुछ चूल्हे पर और कुछ प्लेटफ़ार्म पर भी गिरा दिया था, उसे पोतने से साफ़ किया। चीनी का डिब्बा शायद अजय ने चाय बनाने के बाद कैबिनेट से बाहर ही छोड़ दिया था, उसे अन्दर रखा। दूध भी फ़्रिज के बाहर चूल्हे पर ही छोड़ दिया था। दूध देखकर शांति को याद आया कि दही ख़तम हो गया है, कल के लिए दही भी जमाना होगा। चूल्हे पर रखे दूध को गुनगुना करने के लिए उसके नीचे गैस जला दी। अजय ने बैडरूम से पुकारा, क्या कर रही हो, आ जाओ!
बस आ रही हूँ..

जब दूध गरम हो रहा था शांति वापस खाने की मेज़ पर आई और अचार के खुली हुई बोतलों को बंद किया, टेबलमैट्स को धुलने की टोकरी में डाला। बची हुई सब्ज़ियों को छोटे डब्बे में बंद करके फ़्रीज के अन्दर रखा। मेज़ पर रखा पपीता थोड़ा सा कच्चा दिख रहा था। कल सुबह अजय को खाने में कच्चा न लगे, यह सोचकर उसे अख़बार में लपेट कर रखा ताकि कल सुबह तक ठीक से पक जाय। बहुत दिनों से बच्चे दोसा खाने की ज़िद कर रहे थे। तो उसके लिए दाल-चावल भिगा दिए। इतना करने के बाद जब दूध के भगोने को हथेली के पिछले भाग से छुआ और तय पाया कि दही के कीटाणुओं के पनपने लायक़ गरम हो गया है तो गैस बंद करके दूध को कटोरे में रखे जामन के साथ अच्छी तरह मिला दिया।

सासू माँ के कमरे दरवाज़ा खोलकर शांति ने उनकी साँस की आवाज़ पर ध्यान दिया। वो सामान्य चल रही थी। वापस अपने बैडरूम की तरफ़ जाते हुए उसने देखा कि टीवी स्टैण्डबाई पर है। उसे प्लग से औफ़ किया। सेन्टर टेबल पर पड़े बासी अख़बार को टेबल तह करके टेबल के नीचे रखा। वहाँ रखे अचरज के जूते उठाये, जूते के बाहर पड़े मोज़े उठाए, उन्हे जूतों के भीतर डाला और फिर ले जाकर जूतों की रैक में रख दिए। अपने कमरे में जाने से पहले एक बार बच्चों को देखने की इच्छा हुई। दोनों बच्चे सो चुके थे मगर लैम्प जला हुआ था। लैम्प बुझाने से पहले शांति ने पाखी के कलम का कैप बंद किया। कौपी और किताबों को करीने से मेज़ पर रख दिया। फ़र्श पर पड़े हुए अचरज के बेब्लेड और बैन्टैन के कार्ड्स को उठा कर उसकी अलमारी में रख दिया। दोनों बच्चों के कपड़े कुछ फ़र्श पर थे और कुछ उनके बिस्तर पर। अचरज का मुँह हमेशा की तरह खुला हुआ था। बहुत कोमल हाथ से उसने अचरज की ठोड़ी को नाक की तरफ़ धकेला लेकिन वो फिर नीचे सरक आई। उस थकान में भी उसे अपने बच्चों पर बहुत प्यार आया। दोनों को बहुत हौले से चूमने के बाद और मैले कपड़ों को अपने हाथ में लेने के बाद ही शांति ने लैम्प बुझाया और दरवाज़ा बंद कर के बाहर आ गई।

अरे कहाँ हो?’ अजय की डूबती हुई सी आवाज़ आई।
बस आ गई..’ शांति ने इतनी हौले से बोला कि बच्चे भी न जगें और अजय सुन भी ले।

मैले कपड़ों को टोकरी में डालने के बाद दाँतों को ब्रश करते हुए उसे याद आया कि शब्बो के दो मिस्ड कौल थे। उसने एक सांस भरी और अपने ज़ेहन में एक गाँठ बाँधी ताकि उसे कल शब्बों को फोन करना याद रहे। फिर उसे याद आया कि उसके मोबाईल की बैटरी काफ़ी कमज़ोर पड़ गई है। वो भी नई ख़रीदनी है। पाखी एक हैडफोन लेने को कह रही थी। उसके अपने लैपटाप का एन्टीवायरस एक्सपायर कर गया है, उसे रिन्यू कराना है। इसके पहले कि वो सब भूल जाय शांति बाथरूम से निकल कर रसोई में गई और फ़्रिज से लटकते पैड और पेन का इस्तेमाल करके इन तीनों कामों की सूची दर्ज कर दी। जब शांति बैडरूम में वापस आई तो अजय खर्राटे भर रहा था। शांति को अजय के खर्राटों से सख़्त चिढ़ है मगर डरती भी है कि कहीं कोई गम्भीर बीमारी न हो। अगले इतवार को डौक्टर के पास लेके जाना ही होगा अजय को, चाहे वो कितना ही प्रतिरोध क्यों न करे!

यह सोचते हुए शांति ने बैडसाइड टेबल में से पहली एक तरह की क्रीम निकाली और हाथों-पैरों में लगा ली। फिर एक दूसरी क़िस्म की क्रीम निकाली जो चेहरे पर लगा ली और उसके बाद एक छोटा सा डिब्बा निकाला। उसमें तीसरी तरह की क्रीम थी, उसे शांति ने अपनी आँखों के नीचे लगा लिया। लैम्प के बगल में ही उसने अधूरे उपन्यास पर नज़र डाली। नहीं, आज बहुत थक गई हूँ, आज आराम करती हूँ, यह सोचकर शांति ने उपन्यास से दिलबहलाव का ख़्याल निकाल दिया और लैम्प बुझा दिया। क्योंकि कल सुबह पौने छै पर दूधवाला जगाने ही वाला है।

अभय तिवारी के ब्लॉग निर्मल आनंद से साभार।

अंतिम पत्र !!

भगत सिंह का अंतिम पत्र :

22 मार्च,1931


साथियो,


स्वाभाविक है कि जीने की इच्छा मुझमें भी होनी चाहिए, मैं इसे छिपाना नहीं चाहता. लेकिन मैं एक शर्त पर जिंदा रह सकता हूँ, कि मैं क़ैद होकर या पाबंद होकर जीना नहीं चाहता. मेरा नाम हिंदुस्तानी क्रांति का प्रतीक बन चुका है और क्रांतिकारी दल के आदर्शों और कुर्बानियों ने मुझे बहुत ऊँचा उठा दिया है - इतना ऊँचा कि जीवित रहने की स्थिति में इससे ऊँचा मैं हर्गिज़ नहीं हो सकता.

आज मेरी कमज़ोरियाँ जनता के सामने नहीं हैं. अगर मैं फाँसी से बच गया तो वो ज़ाहिर हो जाएँगी और क्रांति का प्रतीक-चिन्ह मद्धिम पड़ जाएगा या संभवतः मिट ही जाए. लेकिन दिलेराना ढंग से हँसते-हँसते मेरे फाँसी चढ़ने की सूरत में हिंदुस्तानी माताएँ अपने बच्चों के भगत सिंह बनने की आरज़ू किया करेंगी और देश की आज़ादी के लिए कुर्बानी देनेवालों की तादाद इतनी बढ़ जाएगी कि क्रांति को रोकना साम्राज्यवाद या तमाम शैतानी शक्तियों के बूते की बात नहीं रहेगी.

हाँ, एक विचार आज भी मेरे मन में आता है कि देश और मानवता के लिए जो कुछ करने की हसरतें मेरे दिल में थी, उनका हजारवाँ भाग भी पूरा नहीं कर सका. अगर स्वतंत्र, ज़िंदा रह सकता तब शायद इन्हें पूरा करने का अवसर मिलता और मैं अपनी हसरतें पूरी कर सकता.

इसके सिवाय मेरे मन में कभी कोई लालच फाँसी से बचे रहने का नहीं आया. मुझसे अधिक सौभाग्यशाली कौन होगा? आजकल मुझे ख़ुद पर बहुत गर्व है. अब तो बड़ी बेताबी से अंतिम परीक्षा का इंतज़ार है. कामना है कि यह और नज़दीक हो जाए.

आपका साथी,
भगत सिंह

व्यंज़ल !

क्या हुआ जो नहीं मिलता नल का पानी

सर्वत्र सर्वसुलभ तो है बिसलेरी का पानी

टाइटन आई+ का डिजाइनर चश्मा पहन

लोग पूछते हैं कहाँ गया आँख का पानी

किसलिए जाते हो यारों किसी गंगोत्री को

अब पॉलीपैक में मिलता है गंगा का पानी

इन बेशर्म नदियों को बता ही दिया जाए

किसकी यमुना किसका कावेरी का पानी

धोने पोंछने की बातें क्यूं करते हो यारों

यहाँ तो मयस्सर नहीं है पीने का पानी

लोगों की देखा देखी अपने यार रवि ने भी

चढ़ा लिया है अपने ऊपर सोने का पानी

Saturday, March 5, 2011

पुष्पेन्द्र फाल्गुन जी का परिचय


पुष्पेन्द्र फाल्गुन जी नागपुर में रहते हैंइनकी उम्र मुझसे पांच साल ज्यादा हैयेब्लॉग लेखन, साहित्य लेखन तथा पत्रकारिता करते हैंइनकी एक मासिक पत्रिकाफाल्गुन विश्व हर माह प्रकाशित होती है

इनसे संपर्क का पता है :- editorfalgunvishwa@gmail।com . इनकी अन्य कविताओं के लिए इनके ब्लॉग
www.pushpendrafalgun.blogspot.com पर लिंक कर सकते हैं।

मुक्ति !

दलहन दरते हुए
सोचती हैं
संजय गनोरकर के
...शिल्प की सारी महिलायें
कि
पुरुष लिंग ही
असल में उनके
समस्त विपदाओं की जड़ है
और यह भी सोचती हैं
कैसे इस जड़ से पाएं
मुक्ति

दलहन दरती हुई महिलाओं को देखकर
मैं सोचता हूँ
कि क्या वे सचमुच
यही सोच रही होंगी....

(संजय गनोरकर अमरावती में रहते हैं और देश के प्रतिष्ठित शिल्पकार हैं।).
- पुष्पेन्द्र फाल्गुन

Wednesday, March 2, 2011

प्यार

तुम्हें प्यार करने के बाद
मैं बाहर आया।

सड़क पर दौड़ते
रिक्शा, कार और
हांफते हुए आदमी को देखा
और वापिस चला आया।

मैं, अभी भी
संतुलित नहीं था,
मेरे हाथ-पांव
अलग होते जा रहे थे।
हर जाना-पहचाना चेहरा
मुझे, अजनबी लग रहा था।

मैं भागा-भागा
चट्टान केपास पहुंचा
उसे सहलाते हुए बताया कि
खिसकना, तुम्हारी नियति है।
मेरे दिमाग में
अभी भी एक कीड़ा
कुलबुला रहा था
झड़बेरी की शाखों पर
लटके गिरगिट और
अमलतास की फलियां
मुझे एक जैसी दिख रही थीं।

मैं तेज घूमती चाक के
पास पहुंचा
और उससे पूछा-
क्या तुम एक छोटी धरती
मेरे लिए नहीं ढाल सकतीं?
मुझे लगता है -
मैं अपनी नहीं
अपने पुरखों की धरती पर
सफर कर रहा हूं।

कीड़े की कुलबुलाहट
और बढ़ रही थी।
मैं भागा-भागा
वापिस लौट आया।
और दीवार के सहारे
खड़ा होकर
सोचने लगा कि
मैंने क्यों कर
तुम्हें प्यार किया।

- आलोक पंडित

हम भारत के लोग !

रातें होतीं कोसोवो सी
दिन लगते हैं
वियतनाम से।
डर लगता है
अब प्रणाम से।

हवा बह रही
चिन्गारी सी।
दैत्य सरीखे हंसते टापू,
सड़कों पर
जुलूस निकले हैं
चौराहों पर खुलते चाकू,

धमकी भरे पत्र
आते हैं कुछ नामों से
कुछ अनाम से।

फूल सरीखे बच्चे
अपनी कॉलोनी में
अब डरते हैं
गुर्दा, धमनी, जिगर आंख का
अपराधी सौदा करते हैं,

चश्मदीद की
आंखों में भय
इन्हें कहां है डर निजाम से।

महिलाओं की
कहां सुरक्षा
घर में हों या दफ्तर में,
बम जब चाहे फट जाते हैं
कोर्ट कचहरी अप्पू घर में

हर घटना पर
गिर जाता है तंत्र
सुरक्षा का धड़ाम से।

पंडित बैठे
सगुन बांचते
क्या बाजार हाट क्या मेले?
बंजर खेत
डोलते करइत
आम आदमी निपट अकेले,

आजादी है मगर
व्यवस्था की निगाह में
हम गुलाम से।

जयकृष्ण राय तुषार

वसंत !

वसंत आ रहा है
जैसे मां की सूखी छातियों में
आ रहा हो दूध

माघ की एक उदास दोपहरी में
गेंदे के फूल की हंसी-सा
वसंत आ रहा है

वसंत का आना
तुम्हारी आंखों में
धान की सुनहली उजास का
फैल जाना है

कांस के फूलों से भरे
हमारे सपनों के जंगल में
रंगीन चिड़ियों का लौट जाना है
वसंत का आना

वसंत हंसेगा
गांव की हर खपरैल पर
लौकियों से लदी बेल की तरह
और गोबर से लीपे
हमारे घरों की महक बनकर उठेगा

वसंत यानी बरसों बाद मिले
एक प्यारे दोस्त की धौल
हमारी पीठ पर

वसंत यानी एक अदद दाना
हर पक्षी की चोंच में दबा
वे इसे ले जाएंगे
हमसे भी बहुत पहले
दुनिया के दूसरे कोने तक।

- एकांत श्रीवास्तव

चश्मा !

चार साल का है मेरा चश्मा
अकसर भूल जाता हूं जिसे
कपटी प्रेमी के
सुनहरे वादे की तरह
रखने लगा उसे
ऑफिस की दराज में
पवित्र प्रेमिका के
अंतिम प्रेम पत्र
की तरह संभालकर
निंदिया रानी रूठ
बैरन बन चली गई बरेली
उसे चाहिए पढ़ने का यंत्र
घर लाने लगा चश्मा
रोज रात साथ
पढ़ने के बाद रखता बैग में
निंदिया रानी
बहा ले जाती अपने देश
मैं देखता सपने रंगीन
बिना चश्मा पहने।

- जीतेन्द्र चौहान

Tuesday, March 1, 2011

पूछो तो !

हरे प्रकाश उपाध्याय हिन्दी की नयी पीढ़ी के संवेदनशील एवं सजग कवि हैं। कविताएँ स्वगत या एकालाप शैली में नहीं हैं। एकालाप या स्वगत शैली में ही कवि सम्प्रेषणीयता का तिरस्कार कर सकता है, इस गुमान में कि वह गहरी बात कर रहा है। गहरी बात कहने वाले शमशेर कहते थे- बात बोलेगी। लेकिन अनेक कवियों की बात बोलती नहीं। हरे प्रकाश गूँगी कविताओं के कवि नहीं हैं। वे पाठकों से सीधे और सीधी बात करते हैं। कविताओं के ज़रिए वे पाठकों को सवाल पूछने की प्रेरणा देते हैं। ऐसे सवाल जो ऐतेहासिक एवं सांस्कृतिक संवेदना को धार देते हैं। शैली और वाक्यों के इस सीधेपन में हमारे समय की युगीन जटिलताएँ लिपटी हैं और कविताएँ उन जटिल परतों को उद्‍घाटित करती हैं। फलतः इन कविताओं को पढ़ना अपने समय और अपने समय की समस्याओं को पढ़ना है। विवादी समय में पूछना बहुत ज़रूरी है / यह पूछो कि पानी में अब कितना पानी है / आग में कितनी आग है, आकाश अब भी कितना आकाश है। सवाल जितना सीधा है, उतनी सीधी भाषा है और उतना ही अनिवार्य है। शायद मानव इतिहास का अभूतपूर्व संकट, यानी पंच महाभूतात्मक संकट। इस सवाल के ज़रिए आप आज की उस मानवघाती अपसंस्कृति तह पहुँच जाएँगे जो मनुष्य से उसके पंचमहाभूतों तक को छीनकर सीधे बाज़ार में बेचने का उपक्रम कर रही है।

कब तक मौन रहोगे
विवादी समय में यह पूछना बहुत ज़रूरी है
पूछो तो अब
यह पूछो कि पानी में
अब कितना पानी है
आग में कितनी आग
आकाश अब भी कितना आकाश है

पूछो तो यह पूछो
कि कितना बह गया है भागीरथी में पानी
कितना बचा है हिमालय में
पूछो कि नदियों का सारा मीठा पानी
आखिर क्यों जा डूबता है
सागर के खारे पानी में
पूछो

मित्रो, मैं पूछता हूँ
आदमी का पानी
कब उड़ जाता है
मेरी-तुम्हारी आँखों में
बचा है अब कितना पानी
खोजो कहीं चुल्लू भर ही पानी
डूब मरने के लिए
पानी के इस अकाल समय में
नाविकों और मछलियों से कहो

वे अपने भीतर बचाए रखें पानी
उन्हें दुनिया को पार लगाना है
जंगलों से कहो वे आग बचाएँ
ठंडी पड़ती जा रही है यह दुनिया
ख़त्म हो रही है आत्मा की ऊष्मा

देर मत करो पूछो
आग दिल की बुझ रही है
धुआँ-धुआँ हो जाए छाती इससे पहले
मित्रो, ठंड से जमते इस बर्फ़ीले समय में
आग पर सवाल पूछो
माचिस तीली की टकराहट की भाषा में

तय कर लो
आग कहाँ और कितनी ज़रूरी है
क्या जलना चाहिए आग में
क्या बचना चाहिए आग से

पूछो आकाश से तो
क्यों भागता जाता है ऊपर
हमसे क्यों छिनी जा रही है क़द की ऊँचाई
हाथ बढ़ाओ और
आकाश से सवाल पूछो
कि हमसे भागकर कहाँ जाओगे
तुम हमारे क़द पर कब तक ओले गिराओगे

मित्रो, उससे इतना ज़रूर पूछो कि
हमारे हिस्से की धूप
हमारे हिस्से की बिजली
हमारे हिस्से का पानी
हमारे हिस्से की चाँदनी का
जो मार लेते हो रोज़ थोड़ा-थोड़ा हिस्सा
उसे कब वापस करोगे

मित्रो, यह ज़िन्दगी है
आग पानी आकाशा
बार-बार पूछो इससे

हमेशा बचाकर रखो एक सवाल
पूछने की हिम्मत और विश्वास

भूख !

भूख कल थी,
भूख है अब,
भूख तो कल भी रहेगी.....
कैसा वह दिन,
अजब होगा सोचिए,
भूख न जिस दिन रहेगी....।
मोह, लिप्सा व क्षुधा,
काम, प्रेम, आसक्ति के
कितने ही अवतरण लेकर...।
भूख ही पलती रही
घृणा, ईर्ष्या, द्वेष और
लोभ के आवरण लेकर....।
देवासुर संग्राम क्या था?
राम का बनवास क्या था?
सीता-हरण, लंका विजय के
गर्भ में संत्रास क्या था?
यह चिरंतन सत्य है
प्रगति और खोज का आधार है...।
भूतली पर, भूगर्भ और आकाश में,
ऊर्जा के स्रोत और प्रकाश में,
झलकता बस भूख का संसार है...।
भूख न होती तो आदि पुरूष
अग्नि, चक्र को, क्या खोज पाता?
भूख के कारण ही कान्हा,
नाचता, मुरली बजाता...।
भूख के कारण ही भक्ति,
भूख के कारण ही भय है,
भूख ही देती है शक्ति,
भूख ही देती विजय है।
भूख बिन सब ज्ञान कैसा?
तपस्या और ध्यान कैसा?
धर्म कैसा, कर्म कैसा,
भूख बिन विज्ञान कैसा?
भूख कल थी,
भूख है अब,
भूख तो कल भी रहेगी.....
कैसा वह दिन,
अजब होगा सोचिए,
भूख न जिस दिन रहेगी....।

- राजेश पंकज

आँखों का मन पानी है जी !!

इनमे भी नादानी है जी
आँखों का मन पानी है जी

माज़ी मुझमे ठहरा है तो
मुझमे एक रवानी है जी

मेरे घर की दीवारें तो
बच्चों की शैतानी है जी

धूप सुखाने सूरज आया
पानी को हैरानी है जी

बच्चों मे जा बैठा है वो
वो भी एक कहानी है जी

साहिल पर ही डूब गया जो
सहरे का सैलानी है जी

'आतिश' आंच हैं सच्ची दुनिया
बाकी जो है फानी है जी

- स्वप्निल आतिश

चलो गंगा में फिर मुझको बहा दो ।

उजालों की ये सब बकबक बुझा दो
मुझे लोरी सुना कर माँ सुला दो

तुम्हे हम धूप सा माने हुए हैं
मेरे मन का ये अँधेरा मिटा दो

दिया हूँ मैं दुआ के वास्ते तुम,
चलो गंगा में फिर मुझको बहा दो ।

खुशी गम होश बेहोशी सभी हैं,
चलो जीवन से अब जलसा उठा दो ।

ये पानी है तसव्वुर का जो ठहरा,
तुम अपनी याद का कंकर गिरा दो ।

रहे क़ायम रवायत ये दुआ की,
मेरी ऐसी दुआ है, सब दुआ दो ।

तुम्हारी याद की बस्ती में हूँ फिर,
मुसाफिर मान कर पानी पिला दो ।

लो इसकी आंच कम होने लगी है,
ये आतिश एक मसला है, हवा दो ।

- स्वप्निल आतिश

तुमसे प्रेम, तुम्हारे शहर से !

अगर दुनिया का दस्तूर निभाने के लिये
तुमसे कहा जाय
अपनी ज़िन्दगी से निकाल फेंको
वे दो दिन
जो अचानक ख़त्म हो गये
रोंयेदार ख़रगोश की छलांग की तरह
जिसके सफ़ेद रोंये का एहसास
अब भी मौजूद है मेरे खुरदुरे गालों पर
वे दो दिन
जब एक पुराने अनुभवी शहर की देह पर
अचानक उगा था एक टापू
जिस पर मैं खड़ा था अकेला
तुम्हारा इन्तज़ार करता हुआ
जैसे हिरनी करती है अपने बच्चों का इन्तज़ार
तुम कैसे निकाल फेंकोगी
वे दो दिन
जब दिन में चाँद उगा था
अपने तमाम साथियों के साथ
उत्सुकतावश
सिर्फ़ हमें देखने के लिये
तुम आयी थी
तुम्हारे आने पर गिर गई थी
इन्तज़ार की पत्ती पर टिकी संशय की वह बूँद
मैंने तुम्हें शहर के बीचोंबीच चूमा था
और इस तरह प्यार किया था तुम्हारे शहर को
ख़ूब-ख़ूब प्यार
बदले में तुम मुझसे लिपट गई थी मुझसे
अपने शहर की तमाम ख़ासियतों के साथ
तुमसे ख़ूशबू आयी थी फूलों-पत्तियों के साथ
तमाम खनिजों की
एक चमत्कार से मैं हतप्रभ थ
तुम कैसे करोगी वह फ्लाईओवर पार
जिससे गुज़रते अनायास तुम्हारी गर्दन मुड़ जाया करेगी
एक ख़ास दिशा की ओर
तुम कैसे बनाओंगी अपने लिये खीर
वहाँ हर निवाले में मेरे स्वाद की वंचना होगी
सच
तुम्हारा शहर बहुत ख़ूबसूरत है
चाँद, फूलों, गिलहरियों, कौओं, चट्टानों
और मोबाइल टॉवरों के साथ
तुम कैसे कर सकोगी
अपने शहर से उतना प्यार
जितना मैंने मेहमान होकर सिर्फ़ दो रातों में किया है
मैं जानता हूं
जो मैं कर सकता हूं आसानी से
तुम नहीं कर सकोगी उसी तरह
मैं तुम्हारी मदद करूँगा इसमें
अपने शहर का हाल सुनाकर
तुम तुलना करना दोनों की
और ख़ुश हो जाया करना
मेरे शहर में चाहे जितने हादसे हों
मैं हर बार तुम्हें ´ख़ैरियत है तमाम´ लिखूँगा
मैं हर चिट्ठी में अपना बदलता हुआ नाम लिखूँगा।

- विमल चंद्र पाण्डेय