Tuesday, March 29, 2011

किससे खेलूँ होली रे !

वैसे तो होली जा चुकी है..लेकिन रंग अभी भी चढ़े हुए हैं...

पी हैं बसे परदेश,

मै किससे खेलूँ होली रे !

रंग हैं चोखे पास

पास नही हमजोली रे !
पी हैं बसे परदेश,
मै किससे खेलूँ होली रे !

देवर ने लगाया गुलाल,

मै बन गई भोली रे !
पी हैं बसे परदेश,
मै किससे खेलूँ होली रे !

ननद ने मारी पिचकारी,

भीगी मेरी चोली रे !
पी हैं बसे परदेश,
मै किससे खेलूँ होली रे !

जेठानी ने पिलाई भाँग,

कभी हंसी कभी रो दी रे !
पी हैं बसे परदेश,
मै किससे खेलूँ होली रे !

सास नही थी कुछ कम,

की उसने खूब ठिठोली रे !
पी हैं बसे परदेश,
मै किससे खेलूँ होली रे !

देवरानी ने की जो चुहल

अंगिया मेरी खोली रे !
पी हैं बसे परदेश,
मै किससे खेलूँ होली रे !

बेसुध हो मै भंग में

नन्दोई को पी बोली रे !
पी हैं बसे परदेश,
मै किससे खेलूँ होली रे !

- कवि कुलवंत सिंह

No comments:

Post a Comment