Tuesday, March 29, 2011

दोहा गाथा सनातन गोष्ठी ८ दोहा है रस-खान !

होली रस का पर्व है, दोहा है रस-खान.
भाव-शिल्प को घोंट कर, कर दोहा-पय-पान.

भाव रंग अद्भुत छटा, ज्यों गोरी का रूप.
पिचकारी ले शिल्प की, निखरे रूप अनूप.

प्रतिस्पर्धी हैं नहीं, भिन्न न इनको मान.
पूरक और अभिन्न हैं, भाव-शिल्प गुण-गान.

रवि-शशि अगर न संग हों, कैसे हों दिन-रैन?
भाव-शिल्प को जानिए, काव्य-पुरुष के नैन.

पुरुष-प्रकृति हों अलग तो, मिट जाता उल्लास.
भाव-शिल्प हों साथ तो, हर पल हो मधु मास.

मन मेंरा झकझोरकर, छेड़े कोई राग.
अल्हड लाया रंग रे!, गाये मनहर फाग

महकी-महकी हवा है, बहकी-बहकी ढोल.
चहके जी बस में नहीं, खोल न दे, यह पोल.

कहे बिन कहे अनकहा, दोहा मनु का पत्र.
कई दुलारे लाल हैं, यत्र-तत्र-सर्वत्र.

सुनिये श्रोता मगन हो, दोहा सम्मुख आज।
चतुरा रायप्रवीन की, रख ली जिसने लाज॥

बिनटी रायप्रवीन की, सुनिये शाह सुजान।
जूठी पातर भखत हैं, बारी बायस स्वान॥

रसगुल्‍ले जैसा लगा, दोहे का यह पाठ ।
सटसट उतरा मगज में, हुए धन्य, हैं ठाठ ॥

दोहा के दोनों पदों के अंत में एक ही अक्षर तथा दीर्घ-लघु मात्रा अनिवार्य है.

उत्तम है इस बार का,
२ १ १ २ १ १ २ १ २ = १३
दोहा गाथा सात |
२ २ २ २ २ १ = ११
आस यही आचार्य से
२ १ २ १ २ २ १ २ = १३
रहें बताते बात |
१ २ १ २ २ २ १ = ११

सीमा मनु पूजा सुलभ, अजित तपन अवनीश.
रवि को रंग-अबीर से, 'सलिल' रंगे जगदीश.

चलते-चलते फिर एक सच्चा किस्सा-

अंग्रेजी में एक कहावत है 'power corrupts, absolute power corrupts absolutely' अर्थात सत्ता भ्रष्ट करती है तो निरंकुश सत्ता पूर्णतः भ्रष्ट करती है, भावार्थ- 'प्रभुता पाहि काहि मद नाहीं' .
घटना तब की है जब मुग़ल सम्राट अकबर का सितारा बुलंदी पर था. भारत का एकछत्र सम्राट बनाने की महत्वाकांक्षा तथा हर बेशकीमती-लाजवाब चीज़ को अपने पास रखने की उसकी हवस हर सुन्दर स्त्री को अपने हरम में लाने का नशा बनकर उसके सिर पर स्वर थी. दरबारी उसे निरंतर उकसाते रहते और वह अपने सैन्य बल से मनमानी करता रहता.
गोंडवाना पर उन दिनों महारानी दुर्गावती अपने अल्प वयस्क पुत्र की अभिभावक बनकर शासन कर रही थीं. उनकी सुन्दरता, वीरता, लोकप्रियता, शासन कुशलता तथा सम्पन्नता की चर्चा चतुर्दिक थी. महारानी का चतुर दीवान अधार सिंह कायस्थ तथा सफ़ेद हाथी 'एरावत' अकबर की आँख में कांटे की तरह गड रहे थे क्योंकि अधार सिंग के कारण राज्य में शासन व्यवस्था व सम्रद्धता थी और यह लोक मान्यता थी की जहाँ सफ़ेद हाथी होता है वहाँ लक्ष्मी वास करती है. अकबर ने रानी के पास सन्देश भेजा-

अपनी सीमाँ राज की, अमल करो फरमान.
भेजो नाग सुवेत सो, अरु अधार दीवान.

मरता क्या न करता... रानी ने अधार सिंह को दिल्ली भेजा. अधार सिंह की बुद्धि की परख करने के लिए अकबर ने एक चाल चली. मुग़ल दरबार में जाने पर अधार सिंह ने देखा कि सिंहासन खाली था. दरबार में कोर्निश (झुककर सलाम) न करना बेअदबी होती जिसे गुस्ताखी मानकर उन्हें सजा दी जाती. खाली सिंहासन को कोर्निश करते तो हँसी के पात्र बनाते कि इतनी भी अक्ल नहीं है कि सलाम बादशाह सलामत को किया जाता है गद्दी को नहीं. अधार सिंह धर्म संकट में फँस गये, उन्होंने अपने कुलदेव चित्रगुप्त जी का स्मरण कर इस संकट से उबारने की प्रार्थना करते हुए चारों और देखा. अकस्मात् उनके मन में बिजली सी कौंधी और उन्होंने दरबारियों के बीच छिपकर बैठे बादशाह अकबर को कोर्निश की. सारे दरबारी और खुद अकबर आश्चर्य में थे कि वेश बदले हुए अकबर की पहचान कैसे हुई? झेंपते हुए बादशाह खडा होकर अपनी गद्दी पर आसीन हुआ और अधार से पूछा ki उसने बादशाह को कैसे पहचाना?

अधार सिंह ने विनम्रता से उत्तर दिया कि जंगल में जिस तरह शेर के न दिखने पर अन्य जानवरों के हाव-भाव से उसका पता लगाया जाता है क्योंकि हर जानवर शेर से सतर्क होकर बचने के लिए उस पर निगाह रखता है. इसी आधार पर उन्होंने बादशाह को पहचान लिया चूकि हर दरबारी उन पर नज़र रखे था कि वे कब क्या करते हैं? अधार सिंह की बुद्धिमानी के कारण अकबर ने नकली उदारता दिखाते हुए कुछ माँगने और अपने दरबार में रहने को कहा. अधार सिंह अपने देश और महारानी दुर्गावती पर प्राण निछावर करते थे. वे अकबर के दरबार में रहते तो जीवन का अर्थ न रहता, मन करते तो बादशाह रुष्ट होकर दंड देता. उन्होंने पुनः चतुराई से बादशाह द्वारा कुछ माँगने के हुक्म की तामील करते हुए अपने देश लौट जाने की अनुमति माँग ली. अकबर रोकता तो वह अपने कॉल से फिरने के कारण निंदा का पात्र बनता. अतः, उसने अधार सिंह को जाने तो दिया किन्तु बाद में अपने सिपहसालार को गोंडवाना पर हमला करने का हुक्म दे दिया. दोहा बादशाह के सैन्य बल का वर्णन करते हुए कहता है-

कै लख रन मां मुग़लवा, कै लख वीर पठान?
कै लख साजे पारधी, रे दिल्ली सुलतान?

इक लख रन मां मुगलवा, दुई लख वीर पठान.
तिन लख साजे पारधी, रे दिल्ली सुलतान.

असाधारण बहादुरी से लम्बे समय तक लड़ने के बाद भी अपने देवर की गद्दारी का कारण अंततः महारानी दुर्गावती, अधार सिंह तथा अन्य वीर अपने देश और आजादी पर शहीद हो गये. मुग़ल सेना ने राज्य को लूट लिया. भागते हुए लोगों और औरतों तक को नहीं बख्शा. महारानी का नाम लेना भी गुनाह हो गया. जनगण ने अपनी लोकमाता को श्रद्धांजलि देने का एक अनूठा उपाय निकाल लिया. दुर्गावती की समाधि के रूप में सफ़ेद पत्थर एकत्र कर ढेर लगा दिया गया, जो भी वहाँ से गुजरता वह आस-पास से एक सफ़ेद कंकर उठाकर समाधि पर चढा देता. स्वतंत्रता सत्याग्रह के समय भी इस परंपरा का पालन कर आजादी के लिए संग्घर्ष करने का संकल्प किया जाता रहा. दोहा आज भी दुर्गावती, अधार सिंह और आजादी के दीवानों की याद दिल में बसाये है-

ठाँव बरेला आइये, जित रानी की ठौर.
हाथ जोर ठंडे रहें, फरकन लगे बखौर.

अर्थात यदि आप बरेला गाँव में रानी की समाधि पर हाथ जोड़कर श्रद्धाभाव से खड़े हों तो उनकी वीर गाथा सुनकर आपकी भुजाएं फड़कने लगती हैं. अस्तु... वीरांगना को महिला दिवस पर याद न किये जाने की कमी पूरी करते हुए आज दोहा-गाथा उन्हें प्रणाम कर धन्य है.

शेष फिर...

No comments:

Post a Comment