Tuesday, March 29, 2011

हे पुरुष !

हरसिंगार के फूलों से
आँगन में झरते हैं सपने
उनको समेटने में
कितना बिखरते हो तुम
नौकरी पर
अवहेलना और चुनौतियों का लावा
अंदर जज्ब करके
सुषुप्त ज्वालामुखी की तरह
शान्त सुलगते हो तुम
ममता की गुहार ,
और प्रेम की तकरार
के बीच
बेवख्त आये मेहमान की तरह
उपेक्षित होते हो तुम
अपनों में खिलते
उम्मीद के फूलों को
सीचने के लिए
श्रम की बूंदों में
पिघलते हो तुम
घर की धारा में बहते
चट्टानों से टकराते हो
पर बड़े होते बच्चों से
जब कुछ कहते हो
भिखारी के गीत की तरह
सुने जाते हो तुम
फिर भी प्रेम की चांदनी
आँगन में उतारने को
चौखट की हवा सवारने को
गुलमोहर सा
मुस्कुराते हो तुम

(कवियत्री-रचना श्रीवास्तव)

No comments:

Post a Comment